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Monday, July 4, 2022

महाराष्ट्र: भाजपा की पाँचों ऊँगली घी में



एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बना कर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे। जिसका उसे बहुत लाभ मिलने वाला है। एकनाथ शिंदे के गले में देवेंद्र फडणवीस की घंटी टांग दी गई है। शिंदे तो हाथी के दांत की तरह सजावटी मुख्य मंत्री रहेंगे। असली सत्ता तो उप-मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस की मार्फ़त भाजपा के हाथ में रहेगी। महाराष्ट्र देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र है और आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए महाराष्ट्र की सरकार पर क़ाबिज़ हो कर पिछले आठ वर्षों में दुनिया की सबसे धनी पार्टी बन चुकी भाजपा अपनी आर्थिक स्थित को और भी मज़बूत कर लेगी। 


पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए उप-मुख्य मंत्री का पद स्वीकारना आसान नहीं था। महाराष्ट्र के सर्वमान्य भाजपा नेता के लिए यह परिस्थिति बहुत विचित्र बन गई। उन्हें आलाकमान के आदेश से अपमान का घूँट पीना पड़ा। हालांकि उन्हें समझाया यही गया होगा कि इस व्यवस्था में भी सत्ता के केंद्र वही रहेंगे। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिसे मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया जाता है उसके पर निकालने में देर नहीं लगती। अनेक प्रांतों के उदाहरण हैं जहां कठपुतली मान कर मुख्य मंत्री की कुर्सी पर जिसे बिठाया गया, वही कुछ दिनों में अपने कड़े तेवर दिखाना शुरू कर देता  हैं। कभी-कभी तो वो नेता गद्दी पर बिठाने वाले पार्टी के बड़े नेताओं को ही आँख दिखाने लगते हैं। 



भाजपा के हाथ में एक ही चाबुक है जिससे वो एकनाथ शिंदे और उनके साथी विधायकों को अपनी मुट्ठी में रख सकती है। वो है भाजपा के तरकश में ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियाँ। चूँकि पाला पलटने वाले शिव सेना के बाग़ी विधायकों में ज़्यादातर विधायक पहले से ही ईडी के शिकंजे में हैं। इसलिए ज़रा सी चूँ-चपड़ करने पर उनकी कलाई मरोड़ी जा सकती है। महाराष्ट्र की राजनीति को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि इन विधायकों की छवि पहले से ही विवादास्पद है। इसलिए इन्हें नियंत्रित करना भाजपा आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा। 


इस पूरी डील में भाजपा का लक्ष्य शिव सेना का आधार ख़त्म करना है। इसीलिए उसने एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बनाया है। अब भाजपा शिव सेना की पकड़ वाले मतदाताओं के बीच अपनी पैंठ बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास करेगी। ये बात दूसरी है कि बाला साहेब ठाकरे की विरासत के प्रति समर्पित मराठी जनमानस अब भी उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा हो और अगले चुनावों में उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को सहानुभूति लहर का लाभ मिल जाए और भाजपा व शिव सेना के बाग़ी विधायकों को मराठी जनता के कोप का भाजन बनना पड़े। 


ये तभी सम्भव होगा जब उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे आराम त्याग कर जनता के बीच अभी से निकल पड़ें और आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी या तेलंगाना के केसी राव की तरह गाँव-गाँव नगर-नगर जा कर महाराष्ट्र की जनता को अपने समर्थन में खड़ा कर दें। इस प्रक्रिया में अगर उद्धव ठाकरे को शरद पवार की सलाह और सहयोग मिलता है तो उनकी स्थित और भी मज़बूत हो सकती है। हालाँकि भाजपा अपने धन बल, बाहु बल व सत्ता के बल का उपयोग करके उद्धव को आसानी से सफल नहीं होने देगी। पर ये भी सच है कि पश्चिम बंगाल की जनता की तरह महाराष्ट्र की जनता भी अपनी संस्कृति, जाति और भाषा के प्रति भरपूर आग्रह रखती है। इसलिए उद्धव ठाकरे को हाशिए पर धकेलना आसान नहीं होगा। 


जो भी हो कुल मिलाकर ये सारा प्रकरण लोकतंत्र में आई भारी गिरावट का प्रमाण है। ये गिरावट भाजपा के कारण ही नहीं आई जैसा विपक्ष आरोप लगा रहा है। आयाराम-गयाराम की राजनीति और विपक्षी दलों की प्रांतीय सत्ताओं को पलटने की साज़िश कांग्रेस के ज़माने में ही शुरू हो गई थी। जो भाजपा के मौजूदा दौर में परवान चढ़ गयी है। अंतर यह है कि कांग्रेस ने ना तो कभी अपने दल को नैतिक और दूसरों से बेहतर बताने का दावा किया और न ही विपक्ष के प्रति इतना द्वेष, घृणा और विषवमन किया जैसा भाजपा का मौजूदा नेतृत्व हर समय करता आ रहा है। इससे लोकतंत्र में राजनैतिक कटुता व असहजता बढ़ी है। 


चूँकि भाजपा का हर नेता पिछली सरकारों और वर्तमान विपक्षी दलों को डंके की चोट पर भ्रष्ट और खुद को ईमानदार बताता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि एक सामान्य व्यक्ति भाजपा से नैतिक आचरण की अपेक्षा करे। पर अनुभव में ऐसा नहीं आ रहा। सत्ता में बैठे लोग बदल ज़रूर गए हैं पर ठेकों और तबादलों में भ्रष्टाचार की मात्रा एक अंश भी घटी नहीं है, बल्कि कई जगह तो पहले के मुक़ाबले बढ़ गई है। ऐसे में इस तरह के सत्ता परिवर्तनों को आम मतदाता बहुत अरुचि और शक से देखता है। दल के कार्यकर्ताओं की बात दूसरी है। उनका दल जब जा-बेज़ा हथकंडे अपना कर सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर दौड़ जाती है। पर महाराष्ट्र की ताज़ा घटनाओं ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को भी निराश किया है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि मुख्य मंत्री के पद पर उनके नेता देवेंद्र फडणवीस को ही बिठाया जाएगा, नितिन गड़करी तक को नहीं, जो लम्बे समय से इस पद के दावेदार हैं और जिन्हें नागपुर का वरदहस्त प्राप्त है। कार्यकर्ताओं को भी अब यही सोच कर संतोष करना पड़ेगा कि इस प्रयोग से शायद भविष्य में उनके दल की स्थिति महाराष्ट्र में वर्तमान स्थिति से बेहतर हो जाए।


इस पूरे प्रकरण में जो सबसे रोचक पक्ष है वो ये की देश के सबसे बड़े क़द्दावर नेता और महाराष्ट्र की राजनीति के कुशल खिलाड़ी शरद पवार भी फ़िलहाल भाजपा के चाणक्य अमित शाह से मात खा गए। जो कि शरद पवार की फ़ितरत और मराठा खून के विपरीत है। ऐसे में ये मान लेना कि आज अपनी हारी हुई बाज़ी से हताश हो कर शरद पवार चुप बैठ जाएँगे, नसमझी होगी। अपने कार्यकर्ताओं और सांसद बेटी सुप्रिया सुले के राजनैतिक भविष्य पर लगे इस ग्रहण से निजात पाने की पवार साहब भरसक कोशिश ज़रूर करेंगे। उधर कांग्रेस भी इस विषम परिस्थिति उद्धव ठाकरे का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए महाराष्ट्र विकास आघाडी और भाजपा के बीच रस्साकशी जारी रहेगी जिससे महाराष्ट्र की जनता को कोई लाभ नहीं होगा।      

Sunday, November 27, 2011

जन आन्दोलन से उपजती हिंसा

Rajasthan Patrika 27Nov2011
प्रशांत भूषण की दफ्तर में पिटाई हो या केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार के गाल पर पड़ा थप्पड़, दोनों खतरे की घण्टी बजा रहे हैं। अगर जनान्दोलन का नेतृत्व करने वाले जनता को भड़काने के बयान देते रहेंगे, तो स्थिति कभी भी बेकाबू हो सकती है। क्योंकि जिस भीड़ पर नियन्त्रण करने की नेतृत्व में क्षमता न हो, उसे इसे हद तक उकसाना नहीं चाहिए कि हालात बेकाबू हो जाऐं। महात्मा गाँधी जैसा राष्ट्रीय नेता, जिनकी एक आवाज पर पूरा देश सड़क पर उतर आता था, उन तक को यह विश्वास नहीं था कि वे जनता को हिंसक होने से रोक पाऐंगे। इसलिए जब आन्दोलनकारियों ने चैरा-चैरी थाने में आग लगाकर पुलिस कर्मियों को जला दिया, तो महात्मा गाँधी ने बड़े दुखी मन से फौरन ‘असहयोग आन्दोलन‘ को वापिस ले लिया। हालांकि उनकी कांग्रेस पार्टी के कुछ हिस्सों में भारी निन्दा हुई, पर गाँधी जी का कहना था कि अभी हमारा देश सत्याग्रह के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि दोबारा आन्दोलन खड़ा करने में फिर कई वर्ष लग गए।

जब महात्मा गाँधी जैसी शख्सियत को भीड़ के आचरण पर भरोसा नहीं था, तो टीम अन्ना के सदस्य तो बापू के सामने बहुत छोटे कद के हैं। उनकी बात कौन सुनेगा? आज केन्द्रीय कृषि मंत्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा है, कल राजनेताओं के समर्पित कार्यकर्ता या गुण्डे, टीम अन्ना के ऊपर वार कर सकते हैं। या फिर टीम अन्ना के समर्थक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो टीम अन्ना के तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते। इस तरह की हिंसा से प्रतिहिंसा पैदा होगी।

भारत जैसे विविधता के देश में, जहाँ भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विषमता का भारी विस्तार है, वहाँ छोटी सी बात पर भीड़ का भड़कना और हिंसक हो जाना, या तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लिप्त हो जाना, सामान्य बात होती है। ऐसी हालत में तीन परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो हुक्मरान एकजुट होकर जनान्दोलन को लाठी और गोली से कुचल देंगे, अगर वे ऐसा न कर पाए और जनता इतनी बेकाबू हो गई कि सत्ता के हथियार भौंथरे सिद्ध होने लगे, तो कोई वजह नहीं है कि भारतीय सेना अपनी बैरकों से बाहर न निकल पड़े। यह कहना कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहाँ कभी सैनिक तानाशाही आ ही नहीं सकती, दिन में सपने देखने जैसा है। यह सही है कि भारतीय सेना, पाकिस्तान की सेना की तरह सत्ता के लिए जीभ नहीं लपलपाती, पर इसका मतलब यह नहीं कि सीमा पर लड़ने वाले अपनी देशभक्ति को गिरबी रख चुके हैं। अगर सेना को लगेगा कि राजनेताओं और जनान्दोलनों के नेताओं के टकराव से समाज में उथल-पुथल और अराजकता हो रही है, तो वह सत्ता की बागडोर संभालने में संकोच नहीं करेगी। हम सभी जानते हैं कि सेना की तानाशाही स्थापित हो जाने के बाद, भ्रष्टाचार का मुद्दा तो दूर, व्यवस्था की आलोचना मात्र करने की भी छूट लोगों को नहीं होती। अभिव्यक्ति की आजादी कुचल दी जाती है। फिर जन्म लेता है अधिनायक वाद, जिसके भ्रष्टाचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। दुख और चिंता की बात है कि टीम अन्ना के सभी सदस्य, जिनमें अन्ना हजारे भी अपवाद नहीं, बिना इस हकीकत को समझे लोगों की भावनाऐं भड़का रहे हैं। इसलिए उन्हें आगाह करने की आज बहुत जरूरत है।

दरअसल मैंने तो 4 जून, 2011 को ही एक खुला पत्र छापकर दिल्ली में बंटबाया था। जिसमे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए बधाई देते हुए कुछ सावधानी बरतने की भी सलाह दी थी। उस पत्र में मैंने और मेरे मित्र समाजकर्मी पुरूषोत्मन मुल्लोली ने लिखा था कि, ‘रामदेव जी आपकी लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों में जमा धन है। आप कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। एक जिम्मेदार और देशभक्त नागरिक होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि ऐसा दावा करने से पहले उसके समर्थन में सभी तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करें। अगर आप इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में आपके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे आपने सुनहरा सपना दिखा दिया है।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान आप दे रहे हैं और सपने दिखा रहे हैं, वैसा तो होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन आप नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो आप कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? आप कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर आप देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद आप जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर आप देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने भावनाऐं भड़का रहे हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। कृपया इससे बचें।

अन्ना हजारे जी और रामदेव जी, हम आप दोनों को एक साथ मानते हैं और इसलिए आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग आपके खेमों में भी घुस रहे हैं। इसलिए आपको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा। यह हमारा पहला खुला पत्र है। आने वाले दिनों में हम आपसे यह संवाद जारी रखेंगे। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके आप दोनों गुटों ने देश के सामने विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। जिनके खतरनाक परिणाम सामने आने वाले हैं।’