Monday, April 22, 2013

क्यों संवेदनाशून्य है हमारी पुलिस ?

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलि
स के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

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