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Monday, October 29, 2012

गडकरी और वडेरा

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कांग्रेस की अध्यक्ष के दामाद राबर्ट वडेरा पर अपनी कम्पनियों में आर्थिक अनियमितताएं बरतने का आरोप है। आरोप अभी सिद्ध होने बाकी है। पर मीडिया में छवि दोनों की खराब हो चुकी है। सार्वजनिक जीवन में कहावत है ‘बद अच्छा बदनाम बुरा‘ जो कुछ इन दोनों ने किया है वह देश का लगभग हर व्यापारी करता है। जिससे उसका मुनाफा बढ सकें या कालाधन सफेद हो सके। वैसे कानूनी मापदंडो पर दोनो के ही खिलाफ कोई जघन्य अपराध बनेगा इसकी सम्भावना विशेषज्ञ अभी नही देख पा रहे है। इसलिए दोनों के पक्षधर अपने-अपने मंचो से इनका बचाव करने में जुटे है। अगर अनियमितताएं पायी गयी तो कानून के मुताबिक दोनों को सजा भुगतनी पड सकती है। पर अगर  अनियमितताएं नही पायी जाती तो भी छवि तो बिगड ही चुकी। अन्तर इतना है कि राबर्ट वडेरा अपनी सास के बल पर सत्ता का लाभ लेने के आरोपी है। जबकि नितिन गडकरी उस राष्ट्रीय दल के अघ्यक्ष है जिसका घोषित लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाना है। इसलिए उन पर त्यागपत्र देने का नैतिक दबाब बनाया जा रहा है।
 
दरअसल पूर्वी व उत्तरी भारत और पश्चिमी व दक्षिणी भारत की राजनैतिक संस्कृति में बुनियादी अन्तर है। जहां पश्चिमी व दक्षिणी भारत में ज्यादातर राजनेता व्यापार के साथ राजनीति करते हैं ? उनके कारखाने, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, होटल और कृषि सम्बन्धी बडे- बडे व्यवसाय होते हैं, वहीं पूर्वी व उत्तरी भारत में राजनेताओं को केवल राजनीति के काम में लिप्त पाया जाता है। इसलिए यहां के समाज में व्यापारी को राजनेता स्वीकारने की प्रथा नहीं है। इसीलिए देश के अब तक के सभी प्रधानमंत्री भी गैर-व्यवसायी हुए हैं। जब नितिन गडकरी को संघ के दबाव में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तो उत्तर भारत में काफी नाक भौं सिकोंड़ी गयीं। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि राजनितिज्ञ का सार्वजनिक जीवन हो या निजी जीवन, दोनों के लिए धन की जरूरत होती है। अगर सीधे रास्ते धन नहीं आयेगा तो गलत तरीके से कमाया जायेगा। बिना इस समस्या का हल निकाले राजनीति इसी तरह बदनाम होती रहेगी। अब वो जमाने चले गये जब राजनीति में केवल त्याग और सेवा की भावना से आया जाता था।
 
अब अगर व्यापार की दृष्टि से देखें तो नितिन गडकरी की बेनामी कम्पनियां वही कर रही है जो सारे देश मे हो रहा है। इसे करवाने वाले चार्टर्ड एकाउटेन्ट है। जो अपने ग्राहक को इस तरह घुमाकर काला धन सफेद करने की सलाह देते हैं। गडकरी के मामले में सवाल उठाया जा सकता है कि उन्हें काला धन सफेद करने की क्या जरूरत आन पड़ी ? ऐसा कौन-सा काम था जो वे काले धन से नहीं कर सकते थे ? जहां तक राबर्ट वडेरा का प्रश्न है असुरक्षित ऋण लेना कोई अपराध नहीं है। मित्रों के बीच ऐसा लेन देन अक्सर हुआ करता है। जब ब्याज भी नहीं लिया जाता और कभी कभी तो उसे ‘बैड डैट‘ बताकर अपनी ‘बैलेन्स शीट‘ से हटा दिया जाता है। हाँ अगर राबर्ट वडेरा ने राजनैतिक सम्बन्धों का दुरूपयोग कर अनुचित लाभ कमाया है तो उसे भ्रष्टाचार ही माना जायेगा।
 
देश के सामने बडी विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। कुछ ‘स्वयंभू जननेताओं‘ के नित्य नये नाटकों को देखकर मध्यम वर्ग के मन में सत्ता वर्ग के खिलाफ घृणा और आक्रोश बढाता जा रहा है। जबकि राजनेता और अफसरशाही मोटी चमड़ी किए बैठे हैं और अपने आचरण को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में देश में अराजकता फैलने का पूरा खतरा है। आवश्यकता इस बात की है कि जागरूक जनता सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति सजग और सतर्क रहे। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए सतत दबाव डाले। कोई एक अन्ना या केजरीवाल या बाबा रामदेव या वी पी सिंह या जयप्रकाश नारायण देश से भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म नहीं कर सकता, इसके लिए हर स्तर पर उठकर खडे होना होगा। अपना मसीहा खुद बनना होगा।
 
अगर हम अपने जीवन, अपने परिवार व अपने समाज से भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग और सार्वजनिक धन की बर्बादी नहीं रोक सकते तो हम कैसे उम्मीद करते हैं कि कोई मीडिया का मसीहा देश को सुधार देगा ? इससे तो हताशा ही हाथ लगेगी। संघर्ष के साथ ही हमें जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखना होगा। रस्सी को इतना ही खीचें कि गांठ लग जाये पर रस्सी न टूटे। कल तक कांग्रेस पर तोपें दागने वाले अन्ना और केजरीवाल हतप्रभ रह गये जब उन पर नितिन गडकरी के खिलाफ सबूत छिपाने का आरोप लगा। जब टाईम्स नाउ टी वी ने गडकरी पर हमला बोला तो टीम केजरीवाल ने तोपों का रूख अपने आप भाजपा की तरफ मुडा पाया। खिसियाकर अब वे दावा कर रहे हैं कि उन्होनें जनता के सामने सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामलें में कांग्रेस और भाजपा एक से है। कितना हास्यादपद दावा है ? यह बात तो 1993 में जैन हवाला कांड उजागर कर हम 20 वर्ष पहले ही सिद्ध कर चुके थे। टीम केजरीवाल के प्रमुख साथियों ने षडयंत्र नहीं किया होता तो आज भ्रष्टाचार इतना न बढता। इसलिए पहले यह समझना होगा  कि जब दूसरों पर उंगली उठाने वालों के ही दामन साफ नहीं हैं तो वे देश को साफ नेतृत्व कैसे देगें ? फिर गडकरी और वडेरा को दोष देने से क्या हासिल होगा ? 

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।