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Monday, October 11, 2021

शाहरुख़ खान तुमने ठीक नहीं किया


आज कल सोशल मीडिया पर एक विडीओ वायरल हो रहा है। इसमें शाहरुख़ खान सिमि गरेवाल को गर्व से कह रहे हैं कि उनका बेटा दो बरस की आयु से ही अगर ड्रग्स ले या सेक्स करे तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर यह विडीओ सही है, तो मज़ाक़ में भी एक पिता का अपने बेटे के विषय में ऐसा सोचना बहुत चिंताजनक है। हाल में शाहरुख़ खान के बेटे आर्यन खान को क्रूज़ की ‘रेव पार्टी’ से एनसीबी ने गिरफ़्तार किया है। जिस पर टीवी ऐंकर कई दिनों से भरतनाट्यम कर रहे हैं। जबकि देश की अन्य कई महत्वपूर्ण दुर्घटनाओं की तरफ़ उनका ध्यान भी नहीं है। यह कोई अजूबा नहीं है। पिछले सात वर्षों में ज़्यादातर मीडिया ने अपनी हालत चारण और भाटों जैसी कर ली है। देशवासी तो उन्हें देख सुनकर ऐसा कह ही रहे हैं, पर मेरी चिंता का विषय इससे ज़्यादा गम्भीर है। उस पर मैं बाद में आऊँगा। पहले ड्रग कार्टल को लेकर एक पुरानी बात बता दूँ।
 


34 वर्ष पहले की बात है ‘न्यू यॉर्क टाइम्ज़’ की एक अमरीकी महिला संवाददाता मुझे दिल्ली में किसी मित्र के घर लंच पर मिली। उन दिनों न्यू यॉर्क में ड्रग्स के भारी चलन की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही थी। मैंने उत्सुकतावश उससे पूछा कि तुम्हारे यहाँ भी क्या पुलिस महकमें में इतना भ्रष्टाचार है कि न्यू यॉर्क जैसे बड़े शहरों में ड्रग्स का प्रचलन सरेआम हो रहा है? उसने बहुत चौंकाने वाला जवाब दिया। वो बोलीं, न्यू यॉर्क में साल भर में ड्रग्स के मामले में जितने लोगों को न्यू यॉर्क की पुलिस पकड़ती है अगर वो सब जेल में बंद रहें तो साल भर में आधा न्यू यॉर्क ख़ाली हो जाए। उसके इस वक्तव्य में अतिशयोक्ति हो सकती है, पर उसका भाव यह था कि पुलिस में फैले भारी भ्रष्टाचार के कारण ही वहाँ ड्रग्स का कारोबार इतना फल फूल रहा है। 

यह कोई अपवाद नहीं है। जिस देश में भी ड्रग्स का धंधा फल-फूल रहा है उसे निश्चित तौर पर वहाँ की पुलिस और सरकार का परोक्ष संरक्षण प्राप्त होता है। वरना हर देश की सीमाओं पर कड़ी सुरक्षा और देश में आने वाले हवाई जहाज़ों, पानी के जहाज़ों और सड़क वाहनों की कस्टम तलाशी के बावजूद ड्रग्स कैसे अंदर आ पाते हैं? ये उन देशों के नागरिकों के लिए बहुत ही चिंता का विषय है क्योंकि इस तरह पूरे देश की धमनियों में फैलने वाली ड्रग्स का प्रभाव न सिर्फ़ युवा पीढ़ी को बर्बाद करता है, बल्कि लाखों औरतों को विधवा और करोड़ों बच्चों को अनाथ बना देता है। 

आर्यन खान के मामले में या उससे पहले रिया चक्रवर्ती के मामले में हमारे मीडिया ने जितनी आँधी काटी उसका एक अंश ऊर्जा भी इस बात को जानने में खर्च नहीं की कि गरीब से अमीर तक के हाथ में, पूरे देश में ड्रग्स पहुँचती कैसे है? अभी हाल ही में एनसीबी ने गुजरात में अडानी के प्रबंधन में चल रहे बंदरगाह से 3000 किलो ड्रग्स पकड़ी, जो अफगानिस्तान से ‘टेल्कम पाउडर’ बता कर आयात की गई थी। इस पकड़ के बाद एनसीबी ने जाँच को किस तरह आगे बढ़ाया ये हर पत्रकार की रुचि का विषय होना चाहिए था। पर इस पूरे मामले पर चारण और भाट मीडिया ने चुप्पी साध ली। ये बहुत ख़ौफ़नाक है। ये हमारे मीडिया के पतन की पराकाष्ठा का प्रमाण है। 

इससे भी बड़ी घटना एक और हुई जिसे मीडिया ने बहुत बेशर्मी से नज़रअन्दाज़ कर दिया। जबकि ड्रग्स के मामले में वो खबर भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास की शायद सबसे बड़ी खबर होनी चाहिए थी। अभी दो हफ़्ते पहले 20 सितम्बर को हैदराबाद से छ्पने वाले अंग्रेज़ी अख़बार ‘डेक्कन क्रानिकल’ ने एक खोजी खबर छापी कि अडानी के ही बंदरगाह के रास्ते जून 2021 में देश में 25 टन ड्रग्स जिसे भी सेमी कट टेल्क्म पाउडर ब्लॉक बताया जा रहा है, भारत में आई। जिसकी क़ीमत खुले बाज़ार में 72 हज़ार करोड़ रुपए है। पहला प्रश्न तो यह है कि टीवी चैनलों पर उछल-कूद मचाने वाले मशहूर ऐंकरों ने इस खबर का संज्ञान क्यों नहीं लिया? दूसरी बात, भारत जैसे औद्योगिक रूप से काफ़ी विकसित देश में अफगानिस्तान से ‘टेल्कम पाउडर’ आयात करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? दुनिया जानती है अफगानिस्तान पूरी दुनिया में ड्रग्स बेचने का एक बड़ा केंद्र है और ड्रग्स और ‘टेल्क्म पाउडर’ दिखने में एक से होते हैं। इसलिए अफगानिस्तान से अगर कोई ‘टेल्क्म पाउडर’ का आयात कर रहा है तो उसकी जाँच पड़ताल में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। 

संदेह की सुई इसलिए भी हैरान करने वाली है कि अडानी पोर्ट से राजस्थान की ट्रांसपोर्ट कम्पनी के जिस ट्रक नम्बर RJ 01 GB 8328 में ये 25 टन माल रवाना किया गया, उसने एक भी टोल बैरियर पार नहीं किया। मतलब दस्तावेज़ों में ट्रक का नाम, नम्बर फ़र्ज़ी तरीक़े से लिखा गया। इस 25 टन के खेप का आयात करने वाला व्यक्ति माछेवरापु सुधाकर चेन्नई का रहने वाला है। इसने अपनी पत्नी वैशाली के नाम ‘आशि ट्रेडिंग कम्पनी’ के बैनर तले ये माल आयात किया। इस कम्पनी को जीएसटी, विजयवाड़ा के एक रिहायशी पते के आधार पर दिया गया है, जिसे दस्तावेज़ों में कम्पनी का मुख्यालय बताया गया है। जब ‘डेक्कन क्रानिकल’ के संवाददाता, एन वंशी श्रीनिवास ने विजयवाड़ा के सत्यनारायणा पुरम जाकर तहक़ीक़ात की तो पता चला कि वह पता वैशाली की माँ के घर का है, जहां किसी भी कम्पनी का कोई कार्यालय नहीं है। आगे तहक़ीक़ात करने पर पता चला कि पिछले वर्ष ही पंजीकृत हुई इस कम्पनी का घोषित उद्देश्य काकीनाडा बंदरगाह से चावल का निर्यात करना था। पर पिछले पूरे एक वर्ष में अडानी के बंदरगाह से जून 2021 में आयात किए गए इस 25 टन तथाकथित ‘टेल्क्म पाउडर’ के सिवाय इस कम्पनी ने कोई और कारोबार नहीं किया। 

इतने स्पष्ट प्रमाणों और इतनी संदेहास्पद गतिविधियों पर देश का मीडिया कैसे ख़ामोश बैठा है? आर्यन खान ने जो किया उसकी सज़ा उसे क़ानून देगा। पर आर्यन जैसे देश के करोड़ों युवाओं के हाथों में ड्रग पहुँचने का काम कौन कर रहा है, इसकी भी खोज खबर लेना क्या देश के नामी मीडिया वालों की नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं है? 

Monday, February 29, 2016

पूरी शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए

एक तरफ जेएनयू के वामपंथी छात्र वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर मां दुर्गा पर अश्लील टिप्पणियांे वाले पर्चे बांटकर भारत की पारंपरिक आस्थाओं पर आघात करना अपना धर्म समझते हैं। दूसरी तरफ देश की शिक्षा व्यवस्था में निरंतर आ रहे ऐसे पतन से चिंतित मौलिक विचारक और चिंतक इस पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही भारत के लिए अभिशाप मानते हैं। क्योंकि पिछले साठ वर्षों में जो शिक्षा इस देश में दी जा रही है, वो अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गई है। आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में किसी राजनैतिक दल ये नहीं कहा कि वे चरित्रवान, मूल्यवान, नैतिक युवाओं का निर्माण करेंगे। वे कहते रहे कि विकास करेंगे और नौकरी देंगे। नौकरी दे नहीं पाते और विकास का मतलब क्या है? कैसा विकास, जिसमे चरित्र का विकास ही न हो ऐसी शिक्षा किस काम की? पर इसकी कोई बात कभी नहीं करता। आज देश में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में नकल करके या रट्टा लगाकर केवल डिग्रियां बटोरी जा रही है। नाकारा युवाओं की फौज तैयार की जा रही है। जो न खेत के मतलब के हैं और न शहर के मतलब के हैं।

गत दिनों हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला में पुनरुत्थान विद्यापीठ के साझे प्रयास से देशभर के 500 से अधिक विद्वान अहमदाबाद में इकट्ठा हुए और शिक्षा व शोध की दिशा व दशा पर गहन चिंतन किया। इस सम्मेलन में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि शिक्षा में ऐसा बदलाव हो कि शिक्षा न सिर्फ लोगों को ज्ञानवान बनाये बल्कि चरित्रवान बनाये। उनकी कला उनके व्यक्तिव का विकास हो। उन्हें समाज के प्रति सम्वेदनशील बनाये और वे बिना किसी नौकरी की अपेक्षा के स्वावलम्भी हो कर भी जीवन जी सकें। समाज को दिशा दे सकें। समाज को सही रास्ते पर ले जा सकें। ऐसी शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, इस बात पर गहन चिंतन हुआ। भारत में शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व धर्म कोई अलग-अलग विषय नहीं रहा। शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मबोध के लिए सुपात्र बनाना था। जो ब्रह्म विद्या का ही अंश था। जिसके लिए ऋषियों ने तप किया। ऐसे ज्ञान से मिली शिक्षा तप, आत्मबोध व राष्ट्र कल्याण की भावना से ओतप्रोत होती थी। आज की तरह केवल व्यवसाय पाने का और भौतिक सुख प्राप्त करने का कोई लक्ष्य ही नहीं था। पर आज शिक्षा को व्यवसाय बनाकर और रोजगार के लिए परिचय पत्र बनाकर हमने देश की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया।

उधर हर वर्ग को समान शिक्षा की बात कर हमने भारत की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। एकलव्य का उदाहरण देकर भारत के इतिहास का मजाक उड़ाने वाले ये भूल जाते हैं कि जहां योग्य छात्रों को ऋषि परंपरा से शिक्षा मिलती थी, वहीं लोक जीवन में भी शिक्षा की समानांतर प्रक्रिया चलती रहती थी। रैदास, कबीर और नानक इस दूसरी परंपरा के शिक्षक थे, जो जूता गांठने, कपड़ा बुनने व खेती करने के साथ जीवन मूल्य की शिक्षा देते थे। आज दोनों ही परंपरा लुप्त हो गई।

जब तक राज्य, समाज और शिक्षा तीनों की तासीर एक जैसी नहीं होगी देश का उत्थान नहीं हो सकता। हम पूर्व और पश्चिम का समन्वय करके भारत के लिए उपयोगी शिक्षा पद्धति नहीं बना सकते। ये तो ऐसा होगा कि मानो बेर और केले के पेड़ को साथ-साथ लगाकर उनसे कहें कि आप दोनों आपसी प्रेम से रहो। ये कैसे संभव है ? बेर का पेड़ जब झूमेगा तो केले के पत्ते फाड़ेगा ही। कहां भोगवादी पश्चिमी शिक्षा और कहां आत्मबोध वाली तपनिष्ठ भारतीय शिक्षा।

वैसे भी शिक्षा के स्वरूप को लेकर भारत से ज्यादा संकट आज पश्चिम में है। पश्चिम भौतिकता की दौड़ में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर दिशाहीन हो गया है। इसलिए पश्चिम के विद्वान विज्ञान से ज्ञान की ओर व भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर रूख कर रहे हैं। जबकि हम अपनी ज्ञान की परंपरा छोड़कर विज्ञान के मोह में दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में अब तक तो हम विफल रहे हैं। न तो हमने पश्चिम जैसी भौतिक उन्नति प्राप्त की, न प्राप्त करने की संभावना हैं और न उस्से समाज से सुखी होने वाला है। इस शिक्षा से हम सामथ्र्यवान पीढ़ी का निर्माण भी नहीं कर पाए। पूरी शिक्षा हमारे समाज पर अभिशाप बनकर रह गई है। एक ही उदाहरण काफी होगा। आजतक देश में कितने अरब रूपये पीएचडी के नाम खर्च किए गए ? पर इस तथाकथित शोध से देश की कितनी समस्याओं का हल हुआ ? उत्तर होगा नगण्य। यानि शोध के नाम पर ढकोसला हो रहा है या पश्चिम के शोध को नाम बदलकर पेश किया जा रहा है।

आजकल अखबार इन खबरों से भरे पड़े हैं कि हर परीक्षा केंद्र में ठेके पर नकल कराई जा रही है। प्रांतों की छोड़ो राजधानी दिल्ली के कालेजों तक में कक्षा में पढ़ाई नहीं होती। छात्र दाखिला लेने और फिर परीक्षा देने आते हैं। ऐसी शिक्षा को देश का करदाता कब तक और क्यों ढ़ोए ? इसलिए इस पूरी शिक्षा व्यवस्था के अमूल-चूल परिवर्तन का समय आ गया है। शिक्षा के उद्देश्य, उसकी सार्थकता, उसकी समाज के प्रति उपयोगिता व उसमें वर्तमान समस्याओं के समाधान की क्षमता पर स्पष्ट दृष्टि की जरूरत है। जिसके लिए देश में आज पर्याप्त योग्य चिंतक और अनुभवी शिक्षा शास्त्री मौजूद हैं। जिन्होंने अपने स्तर पर देशभर में गत दशकों में नूतन प्रयोग करके सार्थक समाधान खोजे हैं। आवश्यकता है राजनैतिक इच्छाशक्ति की और क्रांतिकारी सोच के लिए हिम्मत की। एक तरफ तो यह कार्य मानव संसाधन मंत्रालय को करना है। बिना इस बात की परवाह किए उस पर भगवाकरण का आरोप लगेगा। दूसरी तरफ यह कार्य उन लोगों को करना है, जो शिक्षा में बदलाव की बात करते हैं, पर औपनिवेशिक्षक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते।

उधर आजकल बाबा रामदेव पूरे देश में एक हजार स्कूल आचार्य कुल के नाम से स्थापित करने की तैयारी में है। उनमें जैसी ऊर्जा व जीवटता है, वे ये करके भी दिखा देंगे। पर क्या उस शिक्षा से भारत का आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान हो पाएगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे गोरे साहब की जगह काले साहब आ गये, वैसे ही अंग्रेजी शिक्षा की जगह गुरूकुल शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति होकर रह जाए। क्योंकि भारत की शिक्षा पद्धति में मुनाफे का कोई खाना हो ही नहीं सकता। यह सोचना गलत है कि बिना मुनाफे की शिक्षा का माॅडल संभव नहीं है। संभव है अगर शिक्षा में गुणवत्ता है। केवल जोखिम उठाने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है।

Monday, November 9, 2015

आधुनिक शिक्षा को कड़ी चुनौती


 अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय से लेकर भारत के आई.आई.टी. तक में क्या कोई ऐसी शिक्षा दी जाती है कि छात्र की आंखों पर रूई रखकर पट्टी बांध दी जाए और उसे प्रकाश की किरण भी दिखाई न दे, फिर भी वो सामने रखी हर पुस्तक को पढ़ सकता   हो ? है ना चैंकाने वाली बात ? पर इसी भारत में किसी हिमालय की कंद्रा में नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात के महानगर अहमदाबाद में यह चमत्कार आज साक्षात् हो रहा है। तीन हफ्ते पहले मुझे इस चमत्कार को देखने का सुअवसर मिला। मेरे साथ अनेक वरिष्ठ लोग और थे। हम सबको अहमदाबाद के हेमचंद्र आचार्य संस्कृत गुरूकुल में विद्यार्थियों की अद्भुत मेधाशक्तियों का प्रदर्शन देखने के लिए बुलाया गया था। निमंत्रण देने वालों के ऐसे दावे पर यकीन नहीं हो रहा था। पर, वे आश्वस्त थे कि अगर एक बार हम अहमदाबाद चले जाएं, तो हमारे सब संदेह स्वतः दूर हो जाएंगे और वही हुआ। छोटे-छोटे बच्चे इस गुरूकुल में आधुनिकता से कोसों दूर पारंपरिक गुरूकुल शिक्षा पा रहे हैं। पर उनकी मेधा शक्ति किसी भी महंगे पब्लिक स्कूल के बच्चों की मेधा शक्ति को बहुत पीछे छोड़ चुकी है।
 
 आपको याद होगा पिछले दिनों सभी टी.वी. चैनलों ने एक छोटा प्यारा सा बच्चा दिखाया था, जिसे ‘गूगल चाइल्ड’ कहा गया। यह बच्चा स्टूडियो में हर सवाल के सेकेंडों में उत्तर देता था। जबकि उसकी आयु 10 वर्ष से भी कम थी। दुनिया हैरान थी उसके ज्ञान को देखकर। पर, किसी टीवी चैनल ने यह नहीं बताया कि ऐसी योग्यता उसमें इसी गुरूकुल से आयी है।
 
 
 दूसरा नमूना, उस बच्चे का है, जिसे आप दुनिया के इतिहास की कोई भी तारीख पूछो, तो वह सवाल खत्म होने से पहले उस तारीख को क्या दिन था, ये बता देता है। इतनी जल्दी तो कोई आधुनिक कम्प्यूटर भी जवाब नहीं दे पाता। तीसरा बच्चा गणित के 50 मुश्किल सवाल मात्र ढ़ाई मिनट में हल कर देता है। यह विश्व रिकार्ड है। ये सब बच्चे संस्कृत में वार्ता करते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, देशी गाय का दूध-घी खाते हैं। बाजारू सामानों से बचकर रहते हैं। यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीते हैं और घुड़सवारी, ज्योतिष, शास्त्रीय संगीत, चित्रकला आदि विषयों का इन्हें अध्ययन कराया जाता है। इस गुरूकुल में मात्र 100 बच्चे हैं। पर उनको पढ़ाने के लिए 300 शिक्षक हैं। ये सब शिक्षक वैदिक पद्धति से पढ़ाते हैं। बच्चों की अभिरूचि अनुसार उनका पाठ्यक्रम तय किया जाता है। परीक्षा की कोई निर्धारित पद्धति नहीं है। पढ़कर निकलने के बाद कोई डिग्री भी नहीं मिलती। यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे 15-16 वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग सभी बच्चे अत्यंत संपन्न परिवारों के हैं। इसलिए उन्हें नौकरी की चिंता भी नहीं है, घर के लंबे-चैड़े कारोबार संभालने हैं। वैसे भी डिग्री लेने वालों को नौकरी कहां मिल रही हैं ? एक चपरासी की नौकरी के लिए 3.5 लाख पोस्ट ग्रेजुएट लोग आवेदन करते हैं। ये डिग्रियां तो अपना महत्व बहुत पहले खो चुकी हैं।
 
 इसलिए इस गुरूकुल के संस्थापक उत्तम भाई ने ये फैसला किया कि उन्हें योग्य, संस्कारवान, मेधावी व देशभक्त युवा तैयार करने हैं। जो जिस भी क्षेत्र में जाएं, अपनी योग्यता का लोहा मनवा दें और आज यह हो रहा है। दर्शक इन बच्चों की बहुआयामी प्रतिभाओं को देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं।
 
 
 खुद डिग्रीविहीन उत्तम भाई का कहना है कि उन्होंने सारा ज्ञान स्वाध्याय और अनुभव से अर्जित किया है। उन्हें लगा कि भारत की मौजूदा शिक्षा प्रणाली, जोकि मैकाले की देन है, भारत को गुलाम बनाने के लिए लागू की गई थी। इसीलिए भारत गुलाम बना और आज तक बना हुआ है। इस गुलामी की जंजीरें तब टूटेंगी, जब भारत का हर युवा प्राचीन गुरूकुल परंपरा से पढ़कर अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं पर गर्व करेगा। तब भारत फिर से विश्वगुरू बनेगा, आज की तरह कंगाल नहीं। उत्तम भाई चुनौती देते हैं कि भारत के 100 सबसे साधारण बच्चों को छांट लिया जाए और 10-10 की टोली बनाकर दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में भेज दिया जाए। 10 छात्र उन्हें भी दे दिए जाएं। साल के आखिर में मुकाबला हो, अगर उत्तम भाई के गुरूकुल के बच्चे शेष दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों के विद्यार्थियों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मेधावी न हों, तो उनकी ‘‘गर्दन काट’’ दी जाय और अगर ये बच्चे सबसे ज़्यादा मेधावी निकले, तो भारत सरकार को चाहिए कि वो गुलाम बनाने वाले देश के इन सब स्कूलों को बंद कर दे और वैदिक पद्धति से चलने वाले गुरूकुलों की स्थापना करे।
 
 उत्तम भाई और उनके अन्य साथियों के पास देश को सुखी और समृद्ध बनाने के ऐसे ही अनेक कालजयी प्रस्ताव हैं। जिन्हें अपने-अपने स्तर पर प्रयोग करके सिद्ध किया जा चुका है। पर, उन्हें चिंता है कि आधुनिक मीडिया, लोकतंत्र की नौटंकी, न्यायपालिका का आडंबर और तथाकथित आधुनिक शिक्षा इस विचार को पनपने नहीं देंगे। क्योंकि ये सारे ढांचे औपनिवेशिक भारत को झूठी आजादी देकर गुलाम बनाए रखने के लिए स्थापित किए गए थे। पर, वे उत्साहित हैं यह देखकर कि हम जैसे अनेकों लोग, जो उनके गुरूकुल को देखकर आ रहे हैं, उन सबका विश्वास ऐसे विचारों की तरफ दृढ़ होता जा रहा है। समय की देर है, कभी भी ज्वालामुखी फट सकता है।

 

Monday, July 28, 2014

बदले बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं

नई सरकार को आए 60 दिन पूरे हो गए हैं और अब नई सरकार के काम की समीक्षाएं भी शुरू हो गई हैं। जो लोग कहा करते थे कि देश में हालात बदलना आसान नहीं है, उन्हें अब फिर से सोचने की जरूरत पड़ रही है। 60 साल की रफ्तार से चलती गाड़ी को एकदम से तो ब्रेक लगाकर यू-टर्न नहीं लिया जा सकता। पर भारत सरकार की नौकरशाही के बदले रवैए से आने वाले समय का आगाज होना शुरू हो गया है। पिछले हफ्ते का एक रोचक वाकया इस बदली स्थिति को समझने के लिए उचित रहेगा।
 
दिल्ली-आगरा राजमार्ग-2 पर मथुरा रिफाइनरी के पास ‘बाद’ गांव में एक कृष्णकालीन सरोवर है। जिसका जीर्णोद्धार 500 वर्ष पहले अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल ने करवाया था। इस आशय का एक शिलालेख मथुरा संग्रहालय में संग्रहित है। पिछले वर्षों में इस कुण्ड की वृह्द खुदाई का काम ब्रज फाउण्डेशन नाम की संस्था ने किया। जिसके बाद इसके नवनिर्माण व सौंदर्यीकरण की व्यापक योजना बनाकर उत्तर प्रदेश सरकार के माध्यम से अनुदान के लिए भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को 2 वर्ष पहले भेज दी गई। इसी बीच सीमा सुरक्षा बल ने इस कुण्ड के पीछे लगभग 60 एकड़ भूमि खरीदकर उस पर अपने कैंप कार्यालयों और आवास का निर्माण शुरू कर दिया। जबकि इस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग से कोई रास्ता नहीं था। सीमा सुरक्षा बल ने कृष्ण सरोवर के जल संग्रहण क्षेत्र में से 80 फुट सड़क काटकर रास्ता बना लिया, जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के विरूद्ध है। इस निर्देश के अनुसार किसी भी पुराने जलाशय की भूमि पर इस तरह का निर्माण नहीं किया जा सकता। जब बीएसएफ को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उन्होंने इस कुण्ड के निर्माण और रखरखाव करने का प्रस्ताव किया। उनके इस व्यवहारिक प्रस्ताव पर ब्रज फाउण्डेशन ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय की सहमति से भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को यह आवेदन किया कि वे इस कुण्ड के लिए स्वीकृत धनराशि बीएसएफ को आवंटित कर दें, ताकि बीएसएफ का इंजीनियरिंग विंग इस कार्य को पूरा कर सके।
 
जब इस प्रस्ताव को लेकर फाउण्डेशन के लोग भारत सरकार के पर्यटन सचिव परवेज दीवान से मिले तो उन्हें बहुत सुखद अनुभव हुआ। उनकी मीटिंग के तय समय पर इस योजना से संबंधित सभी अधिकारी फाउण्डेशन के प्रस्ताव की फाइलें लेकर सचिव महोदय के कक्ष में पहले से मौजूद थे। श्री दीवान ने उनकी बात सुनी और उनके पारदर्शी व जनोपयोगी प्रस्ताव पर 5 मिनट के भीतर स्वीकृति की मोहर लगा दी। रोचक बात यह है कि बीएसएफ, गृह मंत्रालय और पर्यटन मंत्रालय इस पूरी प्रक्रिया को चलाने में उन्हें मात्र 2 महीने का समय लगा। यह बात दूसरी है कि यह धनराशि केंद्र सरकार के ही एक विभाग से दूसरे विभाग को जा रही है और इसमें ब्रज फाउण्डेशन का कोई दखल नहीं। फाउण्डेशन के लोगों का कहना है कि उनका अब तक का अनुभव यही रहा कि उनके ऐसे सही, सार्थक व जनोपयोगी प्रस्तावों पर भी महीनों और वर्षों तक कोई निगाह नहीं डालता। ऐसे तमाम प्रस्ताव देशभर के सरकारी दफ्तरों में वर्षों धूल खाते रहते थे। यह मोदी युग की शुरूआत है। यही है वह गुजरात मॉडल, जिसका इतना शोर देश में मचा था। केंद्र सरकार को छोड़ दे तो बाकी राज्य सरकारों में इसकी झलक अभी नहीं दिखाई देगी, क्योंकि वहां अन्य दलों की सरकारें हैं, इसलिए ‘मोदी प्रभाव’ नहीं पड़ा है।
 
सुबह से रात तक लगातार काम में जुटे प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रियों और सचिवों को पिछले 60 दिन से इसी तरह काम में जोत रखा है। उन्हें निर्देश दिए हैं कि 15 दिन से ज्यादा किसी भी फाइल के ‘‘मूवमेन्ट’’ में समय नहीं लगना चाहिए। इसका असर अब केंद्र सरकार में खूब दिखने लगा है। अगर यह इसी तरह चलता रहा, तो जाहिर है कि प्रांतीय सरकारें भी अपना रवैया बदलने पर मजबूर होंगी।
 
आज तो ज्यादातर प्रांत सरकारों की हालत यह है कि आप कितना भी अच्छा प्रस्ताव ले जाएं, कितना ही केंद्र से अनुदान आ जाएं, पर काम अपने ही तरीके से होता है। काम नहीं होता, काम करने का नाटक होता है। पैसा जिले तक पहुंचते पहुंचते कपूर की तरह काफूर हो जाता है। इससे जनता में भारी हताशा और आक्रोश फैलता है। जो सरकारें इस अव्यवस्था को दूर करने में सफल रही हैं, उन्हें जनता बार-बार चुनकर भेजती है। पर मोदी की कार्यशैली इस सबसे बहुत आगे है। वे हर व्यक्ति से समयबद्ध कार्यक्रम के तहत लक्ष्यपूर्ति की अपेक्षा करते हैं। ऐसा न करने वालों को दरवाजा दिखाने में उन्हें संकोच नहीं होता। क्या हमारी प्रांतीय सरकारें इससे कुछ सबक लेंगी ?

Monday, April 28, 2014

जनता शायद मोदी को एक मौका देना चाहती है



दो-तिहाई चुनाव पूरे हुए | एक तिहाई बचे हैं | संकेत ऐसे ही मिल रहे हैं कि मोदी की सरकार केन्द्र में बन जायेगी | हालांकि अंतिम दौर का चुनाव जिन इलाकों में है वहां भाजपा को बड़ी चुनौती है | अगर यह दौर भी मोदी के पक्ष में गया तो उनके प्रधान मंत्री बनने की संभावना प्रबल हो जायेगी | बस इसी बात का खौफ कांग्रेस या तीसरे मोर्चे को सता रहा है | मोदी के गुजरात मॉडल, तानाशाही, एकला चलो रे की नीति और अहंकार जैसे विशेषणों से मोदी पर हमले तेज कर दीये गए हैं | आखिर मोदी का इतना डर क्यों है? पिछले दस वर्षों में जब जब मोदी पर इन मुद्दों को लेकर हमले हुए, हमने हमलावरों को, चाहे वो राजनेता हों या हमारे सहयोगी मीडिया कर्मीं, ये याद दिलाने की कोशिश की, कि मोदी में कोई ऐसा अवगुण नहीं है जिसका प्रदर्शन कांग्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय दलों के राजनेताओं या राजवंशों ने पिछले 60 बरस में देश के सामने किया न हो | फिर मोदी पर ही इतने सारे तीर क्यों छोड़े जाते हैं ? इसका जवाब यह है कि मोदी में कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देश का आम आदमी, नौजवान व सामन्य मुसलमान तक भारत के नेतृत्व में देखना चाहते हैं | मसलन एक मज़बूत व्यक्तित्व, तुरन्त निर्णय लेने कि क्षमता, लक्ष्य निर्धारित करके हासिल करने का जूनून, अपनी आलोचनाओं से बेपरवाह हो कर अपने तय किये मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढते जाना और अपने विरोध में षड्यंत्र करने वालों को उनकी औकात बता देना |

अब इन्हें आप गुण मान लीजिए तो नरेन्द्र मोदी एक सशक्त राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरते हैं और अगर इन्हें अवगुण मने तो एक तानाशाह के रूप में | इस चुनावी माहौल में जनता और खासकर युवाओं ने मोदी के इन्हीं गुणों के कारण भारत का नेतृत्व सौपने का शायद मन बना लिया है | क्योंकि दलों के अंदरूनी लोकतंत्र, सर्वजन हिताय, धर्म निरपेक्षता व गरीबों का विकास आम जनता को थोथे नारे लगते हैं जिन्हें हर दल दोहराता है पर सत्ता आने पर भूल जाता है | मोदी में उन्हें एक ऐसा नेता दिख रहा है जो पिटे हुए नारों से आगे सपने दिखा रहा है और उन सपनों को पूरा करने की अपनी क्षमता का भी किसी न किसी रूप में लगातार प्रदर्शन कर रहा है | इसलिए शायद जनता उन्हें एक मौका देना चाहती है |

मोदी को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं उनके लिए निर्मूल हैं जिन्हें अपनी और भारत की तरक्की देखने कि हसरत है | पर उनके लिए आशंकाएं निर्मूल नहीं है जो ये समझते हैं कि अगर मोदी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं और अपेक्षाओं के मुकाबले थोड़ी बहुत उपलब्धी भी जनता को करा पाते हैं तो उन्हें भविष्य में सत्ता के केन्द्र से जल्दी हिला पाना आसान न होगा | येही उनकी डर का कारण है |

दरअसल देश की जनता जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के शिकंजे से मुक्त हो कर आर्थिक प्रगति देखना चाहती है जो मौजूदा राजनीतक संस्कृति में उसे नज़र नहीं आता | दल कोई भी क्यों न हो उसका आचरण, कार्यशैली और नीतियां एकसी ही चली आ रही हैं | इसलिए जनता को कोई बड़ा बदलाव दिखाई नहीं देता | ऐसा नहीं है कि मुल्क ने तरक्की नहीं की | हम बहुत आगे आ गए हैं और उसके लिए पिछले 60 वर्ष के नेतृत्व को नकारा नहीं जा सकता | पर हमारी क्षमता और साधनों के मुकाबले यह तरक्की नगण्य है क्योंकि हमने यह तरक्की नाकारा और भ्रष्ट नौकरशाही और आत्मकेंद्रित परिवारवादी राजनीति के बावजूद व्यक्तिगत उद्यम से प्राप्त की है | अगर कहीं देश की प्रशासनिक व्यवस्था जनोन्मुख हो जाति तो हम कबके सुखी और संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो जाते | यह नहीं हुआ इसीलिए जनता के मन में आक्रोश है और वो इन हालातों को बदलना चाहती है | वह चाहती है एक ऐसा निजाम हो जिसमे उसके हुनर, उसकी काबलियत को आगे बढ़ने का मौका मिले | वो जलालत सहना नहीं चाहती | अगर मोदी उसकी उम्मीदों पर खरे उतरे तो वो उन्हें देश को उठाने का खूब मौका देगी | और नहीं उतरे तो साथ छोड़ने में हिचकेगी नहीं | इसलिए फिलहाल वो फैसला कर चुकी है कि उसे बदलाव चाहिए | अब जो लोग इस रास्ते में रोड़ा अटकाएंगे वो जनता के कोपभाजन बनेंगे | बाकी समय बलवान है | वही बताएगा कि हिन्दुस्तान कि राजनीति का ऊंठ किस करवट बैठेगा |

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Sunday, October 31, 2010

मुसलमानों ने नरेन्द्र मोदी को वोट क्यों दिया ?


Rajasthan Patrika 31st Oct 2010
हाल ही में सम्पन्न हुए नगर निकायों के चुनावों में भाजपा को गुजरात में भारी विजय मिली है। जिसका श्रेय हमेशा की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिया जा रहा है। इन परिणामों से एक बार फिर यह तय हो गया है कि गोधरा काण्ड को लेकर दिल्ली में बैठे लोग चाहें जितना शोर मचाते रहें, गुजरात की जनता पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए अपने गढ़ में ही नहीं इंका के गढ़ में भी संेध लगाने में नरेन्द्र मोदी सफल रहे हैं। इस हफ्ते मैंने गुजरात के कुछ शहरों का दौरा किया और आम लोगों से इसकी वजह पूछी। जाहिर है कि गुजरात की जनता चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान नरेन्द्र मोदी के काम के तरीके से खुश है। मुसलमानों का कहना है कि गोधरा और सोहराबुद्दीन का नाम चाहे जितना उछाला जाए, हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जबसे नरेन्द्र भाई ने सूबे की बागडोर संभाली है, तब से पूरे सूबे में अमन चैन कायम है। कोई दंगे नहीं हुए। गुण्डे और मवालियों को राजनीति में संरक्षण नहीं है। तरक्की के रास्ते हरेक के लिए बराबर खुले हैं। इसलिए इस चुनाव में भी पिछले विधानसभा चुनावों की तरह गुजरात के मुसलमान मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी का खुलकर साथ दिया है। जब उनसे यह पूछा कि क्या आपका समर्थन भाजपा को है? तो उनका सीधा जबाव था, नहीं, नरेन्द्र भाई को।
Punjab Kesari 1st Nov. 2010
 
मुम्बई से अहमदाबाद की हवाई यात्रा में मेरे साथ गुजरात के कुछ उद्योगपति थे। उनका कहना था कि नरेन्द्र भाई ने गुजरात में तरक्की के द्वार सबके के लिए खोल दिए हैं और व्यवस्था को इतना जिम्मेदार, पारदर्शी और प्रभावी बना दिया है कि बिना रिश्वत दिए बड़े-बड़े काम मिनटों में हो जाते हैं। ये सहयात्री मुम्बई में रहते हैं और गुजरात में कपड़े की मिल लगाना चाहते थे। इन्हें गुजरात के औद्योगिक क्षेत्र में जमीन की तलाश थी। उन्होंने इण्टरनेट पर आवेदन भरा और सारी सूचनाऐं इण्टरनेट पर ही डाल दीं। जमीन आवण्टन के कार्यालय में एक बार भी चक्कर लगाये बिना, किसी भी नेता से सिफारिशी फोन करवाये बिना, किसी भी अधिकारी को घूस दिए बिना इन्हें विभाग से हफ्ते भर में फोन आ गया कि आप मौके पर जाकर जमीन पसन्द कर लीजिए। इन्होंने जमीन पसन्द की तो एक अधिकारी इनके साथ गया और अगले दिन इनका पंजीकरण हो गया। यानि बिना किसी परेशानी के जमीन आवण्टित हो गयी। इन सहयात्री का चुनौती देकर कहना था कि मैं आपको हिन्दुस्तान के किसी भी राज्य में ले चलने को तैयार हूँ, जहाँ मुझे आप ऐसा दूसरा उदाहरण दिखा सकें।
 



खुद नरेन्द्र मोदी गुजरात में निरन्तर बिजली आपूर्ति बने रहने का ताल ठोककर दावा करते हैं। जिसकी गुजराती भी सराहना करते हैं। दरअसल गुजराती स्वभाव से ही व्यापारी होते हैं। आपको दुनिया के हर कोने में गुजरात के लोग बहुत मेहनती और उद्यमशील मिलेंगे। धर्म बदलने से सामाजिक संस्कार नहीं बदल जाते। इसलिए गुजरात के हिन्दु हों या मुसलमान, दोनों ही इस बात से बेहद खुश हैं कि उनको व्यापार में तरक्की करने का भरपूर मौका नरेन्द्र भाई दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की पूरी रणनीति गुजरात को तरक्की के रास्ते पर ले जाने की है। ये बात यहाँ का हर नौजवान भी कहता है। वह उदाहरण देता है गुजरात की सड़कों का, जिनका विस्तार और गुणवत्ता नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में तेजी से बढ़ी है। यहाँ के लोग बताते हैं कि केन्द्र से जो हजारों करोड़ रूपया विकास के लिए गुजरात में आता है। उसका अच्छा खासा भाग जमीन पर खर्च होता हुआ दिखायी देता है। यूं निचले स्तर पर व्यवस्था को पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त करने का दावा तो कोई नहीं करेगा। पर ये भी सही है कि गुजरात में आपको घूमते हुए सत्ता के दलाल नहीं मिलेंगे। जो आपको ये आश्वासन दे सकें कि अगर आपका कोई बड़ा काम अटका है तो वे पैसे लेकर नरेन्द्र मोदी से करवा देंगे। नरेन्द्र मोदी दलालों से बात नहीं करते। जिसकी गरज होती है, वो खुद उनके पास जाता है और वो उसकी समस्या का तुरत हल निकालने की ईमानदार कोशिश करते हैं। फिर वो चाहें छोटे उद्योगपति हों या बंगाल से नैनो गुजरात लाने वाले रतन टाटा।
 

यहाँ आकर मालूम चलता है कि नरेन्द्र मोदी ने मजबूत नेतृत्व, जिम्मेदार प्रशासन और विकास की अपनी रणनीति के माध्यम से गुजरात के समाज में अपनी जड़ें गहरी जमा ली हैं। नरेन्द्र मोदी के बिना भाजपा यहाँ कुछ भी नहीं है और विपक्ष में भी कोई नेता उनके कद का नहीं बचा है।

 
नरेन्द्र मोदी की एक खास बात यह भी है कि अविवाहित होने के कारण उन्हें अपने युवराजों के लिए धन संग्रह की जरूरत नहीं है। वे तो उपहार में मिली वस्तुओं को भी नीलाम कर उससे प्राप्त आमदनी को मुख्यमंत्री राहत कोष में डलवा देते हैं। चुनाव लड़ने के लिए तो धन चाहिए ही और इस धन का जुगाड़ वे चार-पाँच बड़े औद्योगिक घरानों से पूरा कर लेते हैं और फिर दबंगाई से हुकूमत करते हैं।
 
सर्वोच्च न्यायालय ने नरेन्द्र मोदी के मामलों में निचली अदालतों के आदेश पर लगी रोक हटा ली है। इससे दिल्ली में सुगबुगाहट है कि नरेन्द्र मोदी अब नहीं बच पायेंगे। पर हकीकत यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई भी कार्यवाही होती है तो उसका विपरीत असर ही गुजरात की जनता पर पड़ेगा। क्योंकि गुजरात की जनता नरेन्द्र मोदी को ही अपना मुख्यमंत्री देखना चाहती है।
 
आश्चर्य की बात यह है कि नरेन्द्र मोदी की छवि को लगातार राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में एक कट्टरपंथी मुस्लिम विरोधी की बनाये जाने के बावजूद गुजरात के मुसलमान नरेन्द्र मोदी के साथ खड़े हैं। इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि नरेन्द्र मोदी की इस उपलब्धि पर टी.वी. चैनलों में या अखबारों में बोला और लिखा क्यों नहीं जा रहा? तो इससे ये मतलब निकाला जाए कि उनके बारे में जो लिखा और बोला जाता है, वह सही नहीं है, और सही है उस पर खामोशी साध ली जाती है।