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Monday, June 28, 2021

आईपीएस अपना कर्तव्य समझें


मार्च 2010 में भोपाल में मध्य प्रदेश शासन की ‘आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी’ ने आईपीएस अधिकारियों के बड़े समूह को संबोधित करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। वहाँ शायद पाँच दर्जन आईपीएस अधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से आकर कोर्स कर रहे थे। मुझे याद पड़ता है कि वे सन 2000 से 2008 के बैच के अधिकारी थे। मैं एक घंटा बोला और फिर तीन घंटे तक उनके अनेक जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देता रहा। बाद में मुझे अकादमी के निदेशक व आईएएस अधिकारी संदीप खन्ना ने फ़ोन पर बताया कि इन युवा आईपीएस अधिकारियों ने अपनी कोर्स बुक में जो टिप्पणी दर्ज की वो इस प्रकार थी,
इस कोर्स के दौरान हमने विशेषज्ञों के जितने भी व्याख्यान सुने उनमें श्री विनीत नारायण का व्याख्यान सर्वश्रेष्ठ था।



आप सोचें कि ऐसा मैंने क्या अनूठा बोला होगा, जो उन्हें इतना अच्छा लगा? दरअसल, मैं शुरू से आजतक अपने को ज़मीन से जुड़ा जागरूक पत्रकार मानता हूँ। इसलिए चाहे मैं आईपीएस या आईएएस अधिकारियों के समूहों को सम्बोधित करूँ या वकीलों व न्यायाधीशों के समूहों को या फिर आईआईटी, आईआईएम या नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों को, जो भी बोलता हूँ, अपने व्यावहारिक अनुभव और दिल से बोलता हूँ। कभी-कभी वो इतना तीखा भी होता है कि श्रोताओं को डर लगने लगता है कि कोई इस निडरता से संवैधानिक पदों पर बैठे देश के बड़े-बड़े लोगों के बारे में इतना स्पष्ट और बेख़ौफ़ कैसे बोल सकता है। कारण है कि मैं किताबी ज्ञान नहीं बाँटता, जो प्रायः ऐसे विशेष समूहों को विशेषज्ञों व उच्च पदासीन व्यक्तियों द्वारा दिया जाता है। चूँकि मैंने गत चालीस वर्षों में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरणों को, युवा अवस्था से ही, निडर होकर उजागर करने की हिम्मत दिखाई है, इसलिए मैंने जो देखा और भोगा है वही माँ सरस्वती की कृपा से वाणी में झलकता है। हर वक्ता को यह पता होता है कि जो बात ईमानदारी और मन से बोली जाती है, वह श्रोताओं के दिल में उतर जाती है। वही शायद उन युवा आईपीएस अधिकारियों के साथ भी हुआ होगा। 


उनके लिए उस दिन मैंने एक असमान्य विषय चुना था: ‘अगर आपके राजनैतिक आका आपसे जनता के प्रति अन्याय करने को कहें, तो आप कैसे न्याय करेंगे?’ उदाहरण के तौर पर राजनैतिक द्वेष के कारण या अपने अनैतिक व भ्रष्ट कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए, किसी राज्य का मुख्य मंत्री किसी आईपीएस अधिकारी पर इस बात के लिए दबाव डाले कि वह किसी व्यक्ति पर क़ानून की तमाम वो कठोर धाराएँ लगा दे, जिस से उस व्यक्ति को दर्जनों मुक़दमों में फँसा कर डराया या प्रताड़ित किया जा सके। ऐसा प्रायः सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं व राजनैतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ करवाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों पर भी इस तरह के आपराधिक मुक़दमें क़ायम करने की कुछ प्रांतों में अचानक बाढ़ सी आ गई है। हालाँकि हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर हिमाचल प्रदेश में की गई ऐसी ही एक ग़ैर ज़िम्मेदाराना एफ़आईआर को रद्द करते हुए 117 पन्नों का जो निर्णय दिया है, उसमें आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर रहे मराठी अख़बार ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य तिलक से लेकर आजतक दिए गए विभिन्न अदालतों के निर्णयों का हवाला देते हुए पत्रकारों की स्वतंत्रता की हिमायत की है और कहा है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। 


सवाल है कि जब मुख्य मंत्री कार्यालय से ही ग़लत काम करने को दबाव आए तो एक आईपीएस अधिकारी क्या करे? जिसमें ईमानदारी और नैतिक बल होगा, वह अधिकारी ऐसे दबाव को मानने से निडरता से मना कर देगा। चार दशकों से मेरी मित्र, पुलिस महानिदेशक रही, महाराष्ट्र की दबंग पुलिस अधिकारी, मीरा बोरवांकर, मुंबई के 150 साल के इतिहास में पहले महिला थी, जिसे मुंबई की क्राइम ब्रांच का संयुक्त पुलिस आयुक्त बनाया गया। फ़िल्मों में देख कर आपको पता ही होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड के अपराधों के कारण कुविख्यात है। ऐसे में एक महिला को ये ज़िम्मेदारी दिया जाना मीरा के लिए गौरव की बात थी। अपने कैरीयर के किसी मोड़ पर जब उसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के निजी सचिव का फ़ोन आया, जिसमें उससे इसी तरह का अनैतिक काम करने का निर्देश दिया गया तो उसने साफ़ मना कर दिया, यह कह कर, कि मैं ऐसे आदेश मौखिक रूप से नहीं लेती। मुख्य मंत्री जी मुझे लिख कर आदेश दें तो मैं कर दूँगी। मीरा के इस एक स्पष्ट और मज़बूत कदम ने उसका शेष कार्यकाल सुविधाजनक कर दिया। कैरियर के अंत तक फिर कभी किसी मुख्य मंत्री या गृह मंत्री ने उससे ग़लत काम करने को नहीं कहा। 


कोई आईपीएस अधिकारी जानते हुए भी अगर ऐसे अनैतिक आदेश मानता है, तो स्पष्ट है कि उसकी आत्मा मर चुकी है। उसे या तो डर है या लालच। डर तबादला किए जाने का और लालच अपने राजनैतिक आका से नौकरी में पदोन्नति मिलने का या फिर अवैध धन कमाने का। पर जो एक बार फिसला फिर वो रुकता नहीं। फिसलता ही जाता है। अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। हो सकता है इस पतन के कारण उसके परिवार में सुख शांति न रहे, अचानक कोई व्याधि आ जाए या उसके बच्चे संस्कारहीन हो जाएं। ये भी हो सकता है कि वो इस तरह कमाई अवैध दौलत को भोग ही न पाए। सीबीआई के एक अति भ्रष्ट माने जाने वाले चर्चित निदेशक की हाल ही में कोरोना से मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें सेवानिवृत हुए कुछ ही समय हुआ था। उस अकूत दौलत का उन्हें क्या सुख मिला? दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी राजीव माथुर, जो आईपीएस के सर्वोच्च पद, निदेशक आईबी और भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे, वे सेवानिवृत हो कर आज डीडीए के साधारण फ़्लैट में रहते हैं। देश में आईबी के किसी भी अधिकारी से आप श्री माथुर के बारे में पूछेंगे तो वह बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं। एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने तो उन्हें भगवान तक की उपाधि दी। 


आम जनता के कर के पैसे से वेतन और सुविधाएँ लेने वाले आईपीएस अधिकारी, अगर उस जनता के प्रति ही अन्याय करेंगे और केवल अपना घर भरने पर दृष्टि रखेंगे, तो वे न तो इस लोक में सम्मान के अधिकारी होंगे और न ही परलोक में। दुविधा के समय ये निर्णय हर अधिकारी को अपने जीवन में स्वयं ही लेना पड़ता है। भोपाल में जो व्यावहारिक नुस्ख़े उन आईपीएस अधिकारियों को मैंने बताए थे, वो तो यहाँ सार्वजनिक नहीं करूँगा, क्योंकि वो उनके लिए ही थे। पर जिन्होंने उन्हें अपनाया होगा उनका आचरण आप अपने ज़िले अनुभव कर रहे होंगे।

Saturday, August 15, 2020

भारतीय गणतंत्र की अफ़सरशाहीः भ्रम और हक़ीक़त

आज़ादी के पहले देश की अफ़सरशाही को अंग्रेज हुक्मरानों के लिए काम करना पड़ता था। आज़ादी के बाद उन्हें आम जनता की सेवा करनी चाहिए थी। मध्य प्रदेश में तैनात एक आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी का हाल में एक अंग्रेज़ी अख़बार में छपा लेख नौकरशाही की हक़ीक़त बयान करता है। उसी लेख के बिंदुओं को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना पाठकों को अच्छा भी लगेगा और सोचने पर मजबूर भी करेगा। दीपाली लिखती हैं कि, “हम आईएएस में सेवा करने के लिए आते हैं पर हम शायद ही कभी सेवक की तरह बर्ताव करते हैं। हमें अकूत धन और विशाल मानव संसाधन सौंपे जाते हैं, जबकि इसे सम्भालने की योग्यता हममें नहीं होती क्योंकि हमें वैसा प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता। 

हम अपने बारे में, अपनी “बुद्धिमता” के बारे में और अपने “अनुभव” के बारे में बहुत ऊँची राय रखते हैं और सोचते हैं कि लोग इसीलिए हमारा सम्मान करते हैं। जबकि असलियत यह है कि लोग हमारे आगे इसलिए समर्पण करते हैं क्योंकि हमें फ़ायदा पहुँचाने या नुक़सान करने की ताक़त दी गई है। पिछले दशकों में हमने एक आदत डाल ली है कि हम बड़ी तादाद में ख़ैरात बाँटने के अभ्यस्त हो गाए हैं, चाहें वह वस्तु के रूप में हो या विचारों के रूप में। असलियत यह है कि जो हम बाँटते हैं वो हमारा नहीं होता। 

हमें वेतन और सुविधाएँ इसलिए मिलती हैं कि हम अपने काम को कुशलता से करें और ‘सिस्टम’ विकसित करें। सच्चाई यह है कि हम कुप्रबंध और अराजकता फैला कर पनपते हैं क्योंकि ऐसा करने से हम कुछ को फ़ायदा पहुँचाने के लिए चुन सकते हैं और बाक़ी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमें भारतीय गणतंत्र का ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता है। सच्चाई यह है कि हममें दूरदृष्टि ही नहीं होती। हम अपने राजनैतिक आकाओं की इच्छा के अनुसार औचक निर्णय लेते हैं। 

हम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था का अपनी जागीर की तरह अपने फ़ायदे में या अपने चहेते लोगों के फ़ायदे में शोषण करते हैं। हम काफ़ी ढोंगी हैं क्योंकि हम यह सब करते हुए यह दावा करते हैं कि हम लोगों की ‘मदद’ कर रहे हैं। हम जानते हैं कि अगर हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें हर व्यक्ति आसानी से हमारी सेवाओं का लाभ ले सके, तो हम फ़ालतू हो जाएँगे। इसलिए हम अव्यवस्था को चलने देते हैं। 

हम अपने कार्यक्षेत्र को अनावश्यक विस्तार देते जाते हैं। बिना इस बात की चिंता किए कि हमारे द्वारा बनाई गई व्यवस्था में कुशलता है कि नहीं। सबसे ख़राब बात यह है कि हम बहुत दिखावटी, दूसरों को परेशान करने वाले और बिगड़ैल लोगों का समूह हैं। बावजूद इसके हम यह कहने में संकोच नहीं करते कि हम इस देश की जनता के लिए काम करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश से हमें कोई लेना देना नहीं है क्योंकि हमारे बच्चे विदेशों में पड़ते हैं और हमने जो भी सुख सुविधाएँ, इस व्यवस्था में मिल सकती हैं उन्हें अपने लिए जुटा कर अपने सुखी जीवन का प्रबंध कर लिया है। हमें आम जनता के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती हालाँकि हम सही प्रकार का शोर मचाने के लिए सतर्क रहते हैं।

अगर इस देश में न्याय किया जाता तो हम बहुत पहले ही लुप्त हो जाते। पर हम इतने ज़्यादा ताक़तवर हैं कि हम अपने अस्तित्व को कभी समाप्त नहीं होने देते। क्योंकि हम भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं।” यह लिखते हुए मुझे गर्व है कि दीपाली मेरी छोटी ममेरी बहन है जो हमेशा जनहित में काम करती है और अपने स्वार्थ के लिए कोई समझौता नहीं करती। 

Monday, July 10, 2017

योगी आदित्यनाथ जी हकीकत देखिए !

ऑडियो विज्युअल मीडिया ऐसा खिलाड़ी है कि डिटर्जेंट जैसे प्रकृति के दुश्मन जहर को ‘दूध सी सफेदी’ का लालच दिखाकर और शीतल पेय ‘कोला’ जैसे जहर को अमृत बताकर घर-घर बेचता है, पर इनसे सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की बात तक नही करता । यही हाल सत्तानशीं होने वाले पीएम या सीएम का भी होता है । उनके इर्द-गिर्द का कॉकस हमेशा ही उन्हें इस तरह जकड़ लेता है कि उन्हें जमीनी हकीकत तब तक पता नहीं चलती, जब तक वो गद्दी से उतर नहीं जाते ।


टीवी चैनलों पर साक्षात्कार, रोज नयी-नयी योजनाओं के उद्घाटन समारोह, भारतीय सनातन पंरपरा के विरूद्ध महंगे-महंगे फूलों के बुके, जो क्षण भर में फेंक दिये जाते हैं, फोटोग्राफरों की फ्लैश लाईट्स की चमक-धमक में योगी आदित्यानाथ जैसा संत और निष्काम राजनेता भी शायद दिग्भ्रमित हो जाता है और इन फ़िज़ूल के कामों में उनका समय बर्बाद हो जाता है । फिर उन्हें अपने आस-पास, लखनऊ के चारबाग स्टेशन के चारों तरफ फैला नारकीय साम्राज्य तक दिखाई नहीं देता, तो फिर प्रदेश में दूर तक नजर कैसे जाएगी? जबकि प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शोर हर तरफ इतना बढ़-चढ़कर मचाया जा रहा है ।

35 वर्ष केंद्रीय सत्ता की राजनीति को इतने निकट से देखा है और देश की राजनीति में अपनी निडर पत्रकारिता से ऐतिहासिक उपस्थिति भी कई बार दर्ज करवाई है । इसलिए यह सब असमान्य नहीं लगता । पर चिंता ये देखकर होती है कि देश में मोदी जैसे सशक्त नेता और उ.प्र. में योगी जैसे संत नेता को भी किस तरह जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दिया जाता ।

हाँ अगर कोई ईमानदार नेता सच्चाई जानना चाहे तो इस मकड़जाल को तोड़ने का एक ही तरीका हैं, जिसे पूरे भारत के सम्राट रहे देवानामप्रियदस्सी मगध सम्राट अशोक मौर्य ने अपने आचरण से स्थापित किया था । सही लोगों को ढू़ंढ-ढू़ंढकर उनसे अकेले सीधा संवाद करना और मदारी के भेष में कभी-कभी घूमकर आम जनता की राय जानना ।

देश के विभिन्न राज्यों में छपने वाले मेरे इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले, मैंने प्रधानमंत्री जी से गोवर्धन पर्वत को बचाने की अपील की थी । मामला यह था कि एक ऐसा हाई-फाई सलाहकार, जिसके खिलाफ सीबीबाई और ई.डी. के सैकड़ों करोड़ों रूपये के घोटाले के अनेक आपराधिक मामले चल रहे हैं, वह बड़ी शान शौकत से ‘रैड कारपेट’ स्वागत के साथ, योगी महाराज और उनकी केबिनेट को गोवर्धन के विकास के साढ़े चार हजार करोड़ रूपये के सपने दिखाकर, टोपी पहना रहा था । मुझसे यह देखा नहीं गया, तो मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, लेख लिखे और उ.प्र. के मीडिया में शोर मचाया । प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री ने लगता है उसे गम्भीरता से लिया । नतीजतन उसे लखनऊ से अपनी दुकान समेटनी पड़ी । वरना क्या पता गोवर्धन महाराज की तलहटी की क्या दुर्दशा होती ।

इसी तरह पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक बड़ी-बड़ी घोषाणाऐं ब्रज के लिए कर रहा था । हाई-फाई सलाहकारों से उसके लिए परियोजनाऐं बनवाई गईं, जो झूठे आंकड़ों और अनावश्यक खर्चों से भरी हुई थी । भला हो उ.प्र. पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा और प्रमुख सचिव पर्यटन अवनीश अवस्थी का, कि उन्होंने हमारी शिकायत को गंभीरता से लिया और फौरन इन परियोजनाओं का ठेका रोककर  हमसे उनकी गलती सुधारने को कहा । इस तरह 70 करोड़ की योजनाओं को घटाकर हम 35 करोड़ पर ले आये । इससे निहित स्वार्थों में खलबली मच गई और हमारे मेधावी युवा साथी को अपमानित व  हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया । संत और भगवतकृपा से वह षड्यंत्र असफल रहा, पर उसकी गर्माहट अभी भी अनुभव की जा रही है।

हमने तो देश में कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े है । एक युद्ध में तो देश का सारा मीडिया, विधायिका, कानूनविद् सबके सब सांस रोके, एक तरफ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, जब सं 2000 में मैंने अकेले भारत के मुख्य न्यायाधीश के 6 जमीन घोटाले उजागर किये । मुझे हर तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। पर कृष्णकृपा मैं से टूटा नहीं और यूरोप और अमेरिका जाकर उनके टीवी चैनलों पर शोर मचा दिया । इस लड़ाई में भी नैतिक विजय मिली ।

मेरा मानना है कि, यदि आपको अपने धन, मान-सम्मान और जीवन को खोने की चिंता न हो और आपका आधार नैतिक हो तो आप सबसे ताकतवर आदमी से भी युद्ध लड़ सकते हैं। पर पिछले 15 वर्षों में मै कुरूक्षेत्र का भाव छोड़कर श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के माधुर्य भाव में जी रहा हूं और इसी भाव में डूबा रहना चाहता हूँ। ब्रज विकास के नाम पर अखबारों में बड़े-बड़े बयान वर्षों से छपते आ रहे हैं। पर धरातल पर क्या बदलाव आता है, इसकी जानकारी हर ब्रजवासी और ब्रज आने वालों को है। फिर भी हम मौन रहते हैं।

लेकिन जब भगवान की लीलास्थलियों को सजाने के नाम पर उनके विनाश की कार्ययोजनाऐं बनाई जाती हैं, तो हमसे चुप नहीं रहा जाता । हमें बोलना पड़ता है । पिछली सरकार में जब पर्यटन विभाग ने मथुरा के 30 कुण्ड बर्बाद कर दिए तब भी हमने शोर मचाया था । जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता । पर ऐसी सरकारों के रहते, जिनका ऐजेंडा ही सनातन धर्म की सेवा करना है, अगर लीलास्थलियों पर खतरा आऐ, तो चिंता होना स्वभाविक है ।
आश्चर्य तो तब होता है, जब तखत पर सोने वाले विरक्त योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री को घोटालेबाजों की प्रस्तुति तो ‘रैड कारपेट’ स्वागत करवा कर दिखा दी जाती हो, पर जमीन पर निष्काम ठोस कार्य करने वालों की सही और सार्थक बात सुनने से भी उन्हें बचाया जा रहा हो । तो स्वभाविक प्रश्न उठता है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, उन्हें जो ऐसी दुर्मति सलाह देते हैं या उन्हें, जो अपने मकड़जाल तोड़कर मगध के सम्राट अशोक की तरह सच्चाई जानने की उत्कंठा नहीं दिखाते?

Monday, October 17, 2016

हाकिमों की मौज पर पाबंदी


हाल ही में मोदी सरकार ने प्रशासनिक सुधारों की तरफ एक और कड़ा कदम उठाया है जिसके तहत केंद्र सरकार के ऊँचे पदों पर रहे आला अधिकारियों को मिल रही वो सारी सुविधाएं वापिस ले ली हैं जो वे सेवानिवृत होने के बावजूद लिए बैठे थे | मसलन चपरासी, ड्राइवर, गाड़ी आदि | इस तरह एक ही झटके में मोदी सरकार ने जनता का करोड़ों रुपया महीना बर्बाद होने से बचा लिया | इतना ही नहीं भिवष्य के लिए इस प्रवृति पर ही रोक लग गई | वरना होता ये आया था की हिन्दुस्तान की नौकरशाही किसी न किसी बहाने से सेवानिवृत होने के बाद भी अनेक किस्म की सुविधाएँ अपने विभाग से स्वीकृत करा कर भोगते चले आ रहे थे | ज़ाहिर है कि जो रवैया बन गया था वो रुकने वाला नहीं था | बल्कि और भी बढने वाला था | जिस पर मोदी सरकार ने एक झटके से ब्रेक लगा दिया | पर अभी तो ये आगाज़ है अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है |

केंद्र की पूर्वर्ती सरकारों ने पूर्व राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधान मंत्रियों, उप प्रधान मंत्रियों व अन्य ऐसे ही राजनैतिक परिवारों को बड़े बड़े बंगले अलॉट करने की नीति चला रखी है | ये बहुत आश्चर्य की बात है कि जिस देश में आम आदमी को रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनयादी जरूरतों को हासिल करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता हो, उसमे जनता के अरबों रुपयों को क्यूँ इनपे खर्च किया जाता है ? जबकि दुनिया के किसी सम्पन्न देश में भी कार्यकाल पूरा होने के बाद ऐसी कोई भी सुविधा राजनेताओं को नहीं दी जाती | नतीजतन भारत के राजनेता दोहरा फायदा उठाते हैं | एक तरफ तो अपने पद का दुरूपयोग करके मोटी कमाई करते हैं और दूसरी तरफ सरकारी सम्पत्तियों पर ज़िन्दगी भर कब्जा जमे बैठे रहते हैं | जबकी उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं होती | डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने रष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा होने के बाद सरकारी बंगला लेने से इनकार कर दिया | पर उन्हें भी किसी क़ानून का हवाला देकर उनकी इच्छा के विरुद्ध बंगला आवंटित किया गया |

इसी तरह कई प्रदेशों की राजधानियों में भी यही प्रवृति चल रही है | हर पूर्व मुख्यमंत्री एक न एक सरकारी बंगला दबाए बैठा है | इस पर भी रोक लगनी चाहिए | मोदी जी और अमित भाई शाह कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं की भाजपा शासित राज्यों में इस नीति की प्रवृति को खत्म करें | जैसे सरकार के अन्य विभागों में होता है कि सेवानिवृत होने के बाद ऐसी कोई सुविधा नहीं मिलती | इससे सरकार के खजाने की फ़िज़ूल खर्ची रोकी जा सकेगी और उस पैसे से जन कल्याण का काम होगा | वैसे भी यह वृत्ति लोकतंत्र के मानकों के विपरीत है | इस नीति के चलते समाज में भेद होता है | जबकि कायदे से हर व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधन इस्तेमाल करने के लिए समान अधिकार मिलना चहिये | वैसे भी निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को ऐसी कोई रियातें नहीं मिलती |

समाजवादी विकास मॉडल के जुनून में पंडित नेहरु ने अंग्रेजों की स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने की कोई कोशिश नहीं की | नतीजतन हर आदमी सरकार से नौकरी और सुविधाओं की अपेक्षा करता है | जबकि होना यह चाहिए कि हर व्यक्ति सरकार पर निर्भर होने की कोशिश करे, अपने पैरों पर खड़ा हो और अपनी जरूरत के साधन अपनी मेहनत से जुटाय | तब होगा राष्ट्र का निर्माण | सेवानिवृत होने पर ही क्यों, सेवा काल में ही सरकारी अफसर जन सेवा के लिए मिले संसाधनों का जमकर दुरूपयोग अपने परिवार के लिए करते हैं |

आज़ादी के 70 साल बाद भी देश की नौकरशाही अंग्रेजी हुक्मरानों की मानसिकता से काम कर रही है | जिस जनता का उसे सेवक होना चाहिए उसकी मालिक बन कर बैठी है | इन अफसरों के घर सरकारी नौकरों की फौज अवैध रूप से तैनात रहती है । सरकारी गाडि़यां इनके दुरुपयोग के लिये कतारबद्ध रहती हैं। इनकी पत्नियाँ अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिये ऐसे हुक्म चलाती हैंमानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ये लोग निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ चलना पसंद करते हैं। जन सेवा के नाम पर सरकारी तामझाम का पूरे देश में एक ऐसा विशाल तन्त्र खड़ा कर दिया गया है जिसमे केवल अफसरों और नेताओं के परिवार मौज लेते हैं | किसी विकसित देश में भी ऐसा तामझाम अफसरों के लिए नहीं होता | इस पर भी मोदी सरकार को नजर डालनी चाहिए | ऐसे तमाम बिंदु हैं जिन पर हम जैसे लोग वर्षों से बेबाक लिखते रहे हैं | पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी | अब लगता है कि ऐसी छोटी लेकिन बुनयादी बातों की ओर भी धीरे धीरे मोदी सरकार का ध्यान जायेगा | भारत को अगर एक मजबूत राष्ट्र बनना है तो उसके हर नागरिक को सम्मान से जीने का हक होना चाहिए | वो उसे तभी मिलेगा जब सरकारी क्षेत्र में सेवा करने वाले अपने को हाकिम नहीं बल्कि सेवक समझें जैसे निजी क्षेत्र में सेवा करने वाला हर आदमी, चाहे कितने बड़े पद पर क्यों न हो अपने को कम्पनी का नौकर ही समझता है |


Monday, March 28, 2016

अखिलेश यादव की छवि सुधरी

 साइकिल पर उत्तर प्रदेश की यात्रा करके 2012 में समाजवादी पार्टी को भारी विजय दिलाने वाले युवा नेता अखिलेश यादव सत्ता संभालने के बाद लगभग 2 वर्ष तक ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे वे अपने मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरते। जबकि उनमें उत्साह, ऊर्जा और सद्इच्छा की कमी नहीं थी। उनकी पार्टी के और परिवार के हालात कुछ ऐसे थे कि वे इन दोनों ही संदर्भों में बचपन वाले ‘टीपू’ ही समझे गए। बड़े-बुजुर्गों ने उन्हें स्वतंत्र फैसले नहीं लेने दिए, जिससे उन्हें कुछ करके दिखाने का मौका नहीं मिला। उधर संगठन के सम्मेलनों में और सार्वजनिक मंचों पर उनके पिता व सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को लगातार नसीहतें देते रहे और उनके नकारा मंत्रियों को फटकारते रहे। इससे भी ऐसा संदेश गया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें इसका एहसास हो गया कि अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी है, तो अपनी शख्सियत को एक योग्य प्रशासक और नेता के रूप में स्थापित करना होगा।


नतीजतन वे बहुत सावधानी से और धीरे-धीरे टीपू के सांचे से निकलकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सांचे में ढलने लगे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में सभी दलों के जो युवा चुनाव जीते थे, उन युवा नेताओं में अखिलेश यादव का नाम आज सबसे ऊपर है। चाहे वे कांग्रेस के राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि हों, भाजपा के अनुराग ठाकुर, लोजपा के चिराग पासवान या हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में जीतकर नेता बने लालू यादव के दोनों सुपुत्र। ऐसा किस्मत से नहीं हो गया। अखिलेश ने इसके लिए बड़ी सूझबूझ और दूरदृष्टि से शासन की बागडोर संभाली।

 पिछले दिनों मथुरा की सांसद और भाजपा के नेता हेमामालिनी मुझसे अखिलेश की सहृदयता और पाॅजीटिव सोच की तारीफ कर रही थीं। किसी विपक्ष के नेता से ऐसा प्रमाण पत्र मिलना वास्तव में अखिलेश की योग्यता का परिचय देता है। अखिलेश की जिस बात ने सबका मनमोहा है, वह है उनकी शालीनता और विनम्रता। आप युवा पीढ़ी के किसी भी नेता में यह गुण नहीं पाएंगे। वे चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, उन्हें अपनी विरासत और अपनी हैसियत का अहंकार होता ही है। जबकि अखिलेश के पास इन सब युवा नेताओं से बड़ी ताकत है, देश के सबसे बड़े सूबे की बागडोर और एक मजबूत जनाधार। इसलिए भी उनकी विनम्रता मिलने वाले को प्रभावित करती है।

 पर्यावरण इंजीनियर होने के नाते और देश-विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा हासिल करने के कारण अखिलेश की दृष्टि संतुलित विकास की है। इसलिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम और नीतियां अपनाकर उत्तर प्रदेश को पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भारत के अग्रणी राज्यों के साथ खड़ा कर दिया है। पहले लोग उत्तर प्रदेश को ‘उल्टा प्रदेश’ कहते थे। पर आज प्रदेश का व्यापारी समुदाय हो या आम जनता, वह मानती है कि प्रदेश का शासन काफी कुछ ढर्रे पर चल रहा है। जातिगत पक्षपात के आरोप क्षेत्रीय दलों पर प्रायः लगा करते हैं। सपा इससे अछूती नहीं है, पर बावजूद इसके जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश की जनता से भेदभाव हो, इसके उदाहरण थाना, प्रशासन स्तर पर कम ही देखने को मिलते हैं। जिससे ग्रामीण जनता को बहुत राहत मिली है।

 उत्तराखंड के अलग होने के बाद उत्तर प्रदेश में पर्यटन उद्योग को भारी झटका लगा था। पर अखिलेश यादव ने बुद्धा सर्किट, ताज सर्किट, ब्रज सर्किट जैसे अनेक नए पर्यटक सर्किट शुरू कर और उसमें स्वयं रूचि ले उत्तर प्रदेश के पर्यटन को सुधारने का काफी प्रशंसनीय कार्य किया है। यह बात दूसरी है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में संस्थागत कमियों के कारण गुणवत्ता का अभाव अभी भी दिखाई देता है, जिसे सुधारने की जरूरत है। वह तभी संभव है, जब कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और योजनाओं के मानक लागू करने पर प्रशासनिक दबाव हो।

 दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। एक वर्ग है, जो मानता है कि कुछ भी कर लो पहले नंबर पर बसपा ही रहेगी। दूसरा वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि अमित शाह की रणनीति उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को धु्रवीकरण में समेटकर भाजपा को सत्ता में ले आएगी। लेकिन जैसा हमने पिछले सप्ताह लिखा था कि आमजनता के स्तर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को लेकर आज की तारीख में कोई उत्साह नहीं है। आज की जमीनी हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में मुकाबला सपा और बसपा में ही होता नजर आ रहा है। दोनों का ही नेतृत्व सशक्त है। अखिलेश यादव और मायावती दोनों में से जो जनता की कल्पनाशीलता में आश्वस्त करता नजर आएगा, उसे जनता उत्तर प्रदेश का शासन सौंप देगी। अब वो जमाने लद गए, जब सत्तारूढ़ दल को हराकर ही जनता संतुष्ट होती थी। अनेकों राज्यों के उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ दल 2 या 3 बार लगातार जीतकर सत्ता में रहा है। इधर यह स्पष्ट है कि अखिलेश यादव का आत्मविश्वास बढ़ा है और वे हर वो काम कर रहे हैं, जिससे उनको अगले चुनाव में फिर से जनता का विश्वास हासिल हो। इसके लिए जरूरी है कि वे जमीनीस्तर पर नौकरशाही को जवाबदेह और प्रभावी बनाएं और फैसले तीव्र गति से लें, जिनका परिणाम जमीन पर नजर आए।
 

Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |

Monday, August 4, 2014

नौकरशाही ने किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं किया



देश के मतदाताओं ने अच्छे दिन आने के लिए और नए भारत के निर्माण के लिए वोट दिया | नरेंद्र मोदी भी नए भारत के निर्माण का लक्ष्य साध कर सत्ता में आये हैं | पर इस पूरे आशावादी माहौल में जिस बात की चिंता समझदार लोगों को है उसकी चर्चा करना ज़रूरी है | हम भौतिक विकास के मॉडल के लिए विकसित देशों की तरफ देखते हैं | पर ये भूल जाते हैं कि उन देशों के विकास में नौकरशाही की भूमिका न तो पहले महत्वपूर्ण रही और नाही आज है | वहां का विकास खोजियों, उद्यमियों और जोखिम उठाने वालों के नेतृत्व में हुआ है | नौकरशाही ने तो केवल प्रशासन चलने का काम किया है | इसीलिए इन देशों में आपको पार्कों, हवाई अड्डों, स्टेशनों और सडकों के नाम ऐसे ही लोगों के नाम के ऊपर रखे मिलेंगे |

दूसरी तरफ भारत में जो 60 बरस से व्यवस्था चली आ रही थी वही व्यवस्था आज भी कायम है | जिसे अंग्रेजों ने भारत का शोषण करने के लिए स्थापित किया था | इस व्यवस्था में निर्णय लेने की सारी शक्ति नौकरशाही के हाथों में केन्द्रित होती है | चाहे उस नौकरशाह को उस विषय की समझ हो या नहीं | इसी का परिणाम है कि आज़ादी के बाद भी नौकरशाही ने अंग्रेजी मानसिकता छोड़ी नहीं है | एक जिलाधिकारी स्वयं को जिले का राजा समझता है और उस जिले के नागरिकों को अपनी प्रजा | इसी खाई के चलते टीम भावना से कोई काम नहीं होता| संसाधनों की भारी बर्बादी होती है | परिणाम कुछ नहीं मिलते | योजनाएं अधूरे मन से, कागज़ी खानापूर्ती करने के लिए, केवल पैसा खाने के लिए बनाई जाती है | अरबों रुपया एक-एक जिले के विकास पर खर्च हो चुका है पर हमारे नगर नारकीय स्थिति में आज भी पड़े हैं |

देश के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वालों और कुछ करके दिखने वालों को इस बात की चिंता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक जैसी सरकार चलायी है, उसमें वही नौकरशाही तंत्र हावी है | हावी ही नहीं बल्कि नई बोतल में पुरानी शराब परोस रही है | इन लोगों को डर है कि आज तक हर प्रधानमंत्री को बातों के लच्छेदार जाल में फसा कर यह नौकरशाही अपना उल्लू सीधा करती आयी है और आज भी वह शब्दों का ऐसा ही ताना-बाना बुनकर प्रधानमंत्री को अपने माया जाल में फंसा रही रही है | इससे तो किसी भी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती|

ज़रुरत इस बात की है कि नौकरशाही को प्रशासन चलाने तक सीमित रखा जाये | बदलाव के लिए लक्ष्य तय करने का, विकास के मॉडल बनाने का और कार्यक्रमों को लागू करने का काम योग्य, अनुभवी और स्वयंसिद्ध लोगों को ताकत और अधिकार देकर किया जाये | जैसा कि श्रीधरन ने मेट्रो के निर्माण में किया या कुरियन ने अमूल डेरी के निर्माण में किया | दोनों ही भारत की पहचान बने | ऐसा नहीं है की देश में दो ही कुरियन और श्रीधरन हुए हैं | हर क्षेत्र में ढूंढने पर अनेक प्रतिभाएं सामने आ जाएँगी | जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी बिना सरकारी मदद के, जनहित के कामों में सफलता की ऊचाइयों को छुआ है | वह भी तब जब नौकरशाही ने उनके काम में उदारता से सहयोग देना तो दूर अक्सर रोड़े ही अटकाए हैं | उन्हें निराश किया है और सरकारी योजनाओं के क्रियान्वन में लूट-खसोट करने वालों को वरीयता दी है | इसीलिए देश का इतना बुरा हाल है |

मोदी जी के शुभचिंतकों की उन्हें सलाह है कि वे इस माहौल को बदलें और नौकरशाही को देश के विकास की प्रक्रिया में हावी न होने दें | देश में बिखरे पड़े श्रीधार्नों को ढूंढवाएं और उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपे | उनके साथ ऐसे अफसर लगाये जिन्हें देश बनाने की धुन हो अपनी अहंतृष्टि की नहीं | इसके दो लाभ होंगे, एक तो देशवासियों में सक्रिय योगदान करने का उत्साह बढेगा | दूसरा देश में अच्छे दिन लाने के लिए वे केवल सरकार से ही अपेकशाएं नहीं करेंगे बल्कि सरकार का बोझ हल्का करेंगे | अगर मोदी जी ऐसा कर पाए तो 1857 के बाद 2014 में यह भारत की दूसरी क्रांति होगी |  हर क्रांति कुछ बलि चाहती है | भारत की नौकरशाही ने सरकार का दामाद बनकर इस देश की आम जनता के हिस्से का काफी माल हजम कर लिया है | अब उसे समझना होगा कि तेजी से जागरूक होती जनता उसे बर्दाश्त नहीं करेगी | जिस तरह राजनेताओं ने अपने आचरण के कारण सम्मान खो दिया है वैसे ही नौकरशाही भी जनता की घृणा का शिकार बनेगी, अगर सुधरी नहीं तो | मोदी किसी भी स्वार्थी तत्व को अपने पास फटकने नहीं देते | नौकरशाही भी जब उनकी अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं दे पाएगी और जनता में असंतोष फैलेगा तो नौकरशाही से पल्ला झाड़ने में प्रधानमंत्रीजी संकोच नहीं करेंगे | पर तब जागने से क्या फायदा जब चिड़िया चुग गयी खेत |