जिस तरह से उत्तर प्रदेश के नेता भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की तरफ़ दौड़ रहे है उसे साधारण भगदड़ नहीं कहा जा सकता। इसका नुक़सान देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी को हो रहा है जो केंद्र और राज्य में सरकार चला रही है। उत्तर प्रदेश में इस ‘डबल इंजन’ की सरकार का चेहरा बने योगी आदित्यनाथ की अलोकप्रियता ही इस पतन का कारण है।
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उतर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योगी जी की कुछ कठोर नीतियाँ इसका कारण हैं? क्या उत्तर प्रदेश में दिल्ली हाई कमान के जासूस इस भगदड़ का अनुमान लगाने में नाकामयाब रहे? भाजपा और संघ का विशाल नेटवर्क भी इस सबका अनुमान नहीं लगा सका? क्या कारण है कि भाजपा के पास इतना बड़ा संगठन और तमाम संसाधन भी इन नेताओं का पलायन नहीं रोक पाए? क्या भाजपा ने इस बात का विश्वास कर लिया था कि जो नेता पिछड़ी जातियों से आए हैं वो उनके साथ लम्बे समय तक रहेंगे और पिछले पाँच सालों में योगी जी के कठोर रवैए से आहत नहीं होंगे?
दरअसल शुरू से योगी का रवैया उनकी ‘ठोको’ नीति के अनुरूप दम्भी और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ रहा है। जिसमें उनके चुनिंदा कुछ नौकरशाहों की भूमिका भी बहुत बड़ा कारण रही है। इस बात को इसी कॉलम में शुरू से मैंने कई बार रेखांकित किया। बार-बार योगी जी को सलाह भी दी कि कान और आँख खोल कर रखें और सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए अपने विवेक और अपने स्वतंत्र सूचना तंत्र का सहारा लें। सत्ता के मद में योगी कहाँ सुनने वाले थे। उनके चाटुकार अफ़सर उनसे बड़े-बड़े आयोजनों में फ़ीते कटवाते रहे और खुद चाँदी काटते रहे।
जिस तरह से योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में उत्तर प्रदेश में अहम मुद्दों की परवाह किए बिना केवल हिंदुत्व के एजेंडे को ही सबसे ऊपर रखा शायद वह भी एक कारण रहा। मिसाल के तौर पर अयोध्या में पाँच लाख दिये जलाने के अगले ही दिन जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं जहां लोग दियों के तेल को समेट रहे थे उससे यह बात तो साफ़ है लोग बढ़ती हुई महंगाई और युवा बेरोज़गारी से परेशान थे। लम्बे समय तक चले किसान आंदोलन ने सरकार की नीतियों उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने बेनक़ाब कर दिया और किसानों ने भी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया।
जिस तरह से उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के नेता जो 2017 में भाजपा से जुड़े थे उन्हें जब योगी सरकार में मंत्री या अन्य पद मिले तो उन्हें लगा कि सरकार में उनकी सुनवाई भी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें केवल शो-पीस बना कर रखा गया। जब पानी सर से ऊपर चला गया और उनकी कहीं सुनवाई न हुई तो उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ना ही बेहतर समझा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास शायद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सोचा कि किसी भी नेता के लिए सरकार में रुतबा और पद छोड़ना इतना आसान नहीं होता। इसलिए शीर्ष नेतृत्व ने भी उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया।
योगी सरकार के नौकरशाहों ने जिस तरह मीडिया को बड़े-बड़े विज्ञापन देकर असली मुद्दों से परे रखा वो भी एक बड़ा कारण रहा। ज़्यादातर मीडिया ने भी इन नौकरशाहों की बात सुनकर जनता के बीच दुष्प्रचार फैलाया और जनता को गुमराह करने का भी काम किया। फिर वो चाहे ज़ेवर हवाई अड्डे के विज्ञापन में चीन के हवाई अड्डे की तस्वीर हो या फिर बंगाल के फ़्लाईओवर की तस्वीर। इस तरह के झूठे विज्ञापनों से योगी सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई। ग़नीमत है सोशल मीडिया ने इस सब की पोल खोल दी और जनता को भी समझ में आने लगा कि विज्ञापन की आड़ में क्या चल रहा है।
2017 से ही योगी और उनकी ‘टीम इलेवन’ ही सरकार चला रही थी। किसी भी विधायक की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं थी। इतना ही नहीं योगी मंत्रीमंडल के एक मंत्री तो ऐसे हैं जो अपनी इच्छा से किसी अधिकारी नियुक्ति या निलम्बन भी नहीं करवा सकते थे। एक चर्चा तो यह भी आम हो चुकी है कि यदि किसी विधायक को दो किलोमीटर की सड़क भी बनवानी पड़ती थी तो उसे यह कह कर डाँट दिया जाता था कि ‘क्या सड़क बनवाने में कमीशन कमाना चाहते हो?’ इतना ही नहीं यदि किसी विधायक को कुछ काम करवाना होता था तो वह इस ‘टीम इलेवन’ के बैचमेट से कहलवाता था तब जा कर शायद वो काम होता। वो विधायक तो जन प्रतिनिधि केवल नाम का ही था।
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सफलता या विफलता के बारे में सरकारी तंत्र के अलावा संघ का एक बड़ा तंत्र है जो ज़मीनी हक़ीक़त का पता लगाता है। परंतु उत्तर प्रदेश में संघ के इस तंत्र का एक बड़ा हिस्सा वैश्य और ब्राह्मण समाज से आता है। पिछड़ी जातियों से बहुत कम लोग इस तंत्र का हिस्सा हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों की पीड़ा संघ के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँची ही नहीं। सवर्णों के प्रतिनिधियों ने संघ के शीर्ष नेतृत्व को योगी सरकार की बढ़ाई कर उन्हें असलियत से दूर रखा। संघ के नेतृत्व यह तो नज़र आया कि 2017 की उत्तर प्रदेश की सरकार में पिछड़ी जातियों के मंत्री व विधायक तो बड़ी मात्रा में हैं परंतु प्रचारक नहीं। यदि ऐसा होता तो संघ अपनी कमर कस लेता और शायद इस भगदड़ की नौबत न आती। इसके साथ ही जातिगत जनगणना पर जो यू टर्न भाजपा सरकार ने लिया है उसने आग में घी डालने का काम किया है।
योगी जी तो भगवा धारण कर इतना भी नहीं समझे कि वो अब एक मठ के मठाधीश नहीं बल्कि सूबे के मुख्य मंत्री हैं। भगवा धारी या साधु तो अहंकार में रह सकते हैं। लेकिन एक मुख्य मंत्री को तो हर तरह के व्यक्ति से मुख़ातिब होना पड़ता है। फिर वो चाहे मीडिया हो, उनके अपने मंत्री मंडल के सदस्य हों, विधायक हों, केंद्र द्वारा भेजे गए विशेष दूत हों या फिर आम जनता। अगर आप सभी को अपने मठ का सहायक समझ कर उससे अपशब्द कहेंगे या उनको अहमियत नहीं देंगे तो इसका फल भी आपको भोगना पड़ेगा। अब देखना यह है कि आने वाली 10 मार्च को योगी जी को उत्तर प्रदेश की जनता कौनसा फल अर्पित करेगी।