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Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।  

Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, December 27, 2021

काशी : गंगा तेरा पानी अमृत


काशी विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर बन जाने से विदेशों में रहने वाले भारतीय और देश में रहने वाले कुछ लोग बहुत उत्साहित हैं। वे मानते हैं कि इस निर्माण से मोदी जी ने मुसलमान आक्रांताओं से हिसाब चुकता कर दिया। नए कोरिडोर का भव्य द्वार और तंग गलियों को तोड़कर बना विशाल प्रांगण अब पर्यटकों के लिए बहुत आकर्षक व सुविधाजनक हो गया है। वे इस प्रोजेक्ट को मोदी जी की ऐतिहासिक उपलब्धि मान रहे हैं । 


वहीं काशीवासी गंगा मैया की दशा नहीं सुधारने से बहुत आहत हैं। जिस तरह गंगा मैया में मलबा पाटकर गंगा के घाटों का विस्तार काशी कोरिडोर परियोजना में किया गया है उससे गंगा के अस्तित्व को ही ख़तरा उत्पन्न हो गया है। हज़ारों करोड़ रुपया ‘नमामी गंगे’ के नाम पर खर्च करके भी गंगा आज भी मैली है। मल-मूत्र से युक्त ‘अस्सी नाला’ आज भी गंगा में बदबदा कर गिर रहा है। लोगों का कहना है कि मोदी जी के डुबकी लगा लेने से गंगा निर्मल नहीं हो गयी। पिछली भाजपा सरकार में गंगा शुद्धि के लिये मंत्री बनी उमा भारती ने कहा था कि अगर मैं गंगा की धारा को अविरल और इसे प्रदूषण मुक्त नहीं कर पायी तो जल समाधि के लूँगी। आज वे कहाँ हैं ?



पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ। इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है।


यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि बिना यमुना का पुनरोद्धार करे गंगा का पुनरोद्धार नहीं होगा। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो गंगा-यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।


एक ओर गंगोत्री के पास विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे नदियों का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही नदियों में जल की भारी कमी हो चुकी है। नदियों में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। 


वहीं दूसरी ओर मैदान में आते ही गंगा कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी क्रूरता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद गंगा इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर काशी तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। गंगा में प्रदूषण का काफ़ी बड़ा हिस्सा केवल कानपुर व काशी वासियों की देन है। जब तक गंगा जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक उसमें निर्मल जल प्रवाहित नहीं होगा।  


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है। अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाए। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शांत करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। 


वैसे सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर पिछले चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने मतदाताओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते , तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है । जिसके बिना न प्रदेश आगे बढ़ता है और ना बन सकेगा गंगा का पानी अमृत। 


Monday, October 13, 2014

कैसे सुधरे धर्मस्थलों का स्वरूप

आर्थिक मंदी और तेजी के दौर आते जाते रहते हैं। पर धर्म एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कभी आर्थिक मंदी नहीं आती। कड़वी भाषा में बोंले तो धर्म का कारोबार हमेशा बढ़ता ही रहता है। धर्म कोई भी हो, उसकी संस्थाओं को चलाने वालों के पास पैसे की कमी नहीं रहती। भारत की जनता संस्कार से धर्मपारायण है। गरीब भी होगा, तो मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे में अपनी हैसियत से ज्यादा चढ़ावा चढ़ाएगा। फिर तिरूपति बालाजी में 5 से 10 करोड़ रूपये के मुकुट चढ़ाने वालों की तो एक लंबी कतार है ही। फिर भी क्या कारण है कि भारतीय धर्मनगरियों का बुरा हाल है ?
 
कूड़े के अंबार, तंग गलियां, ट्रैफिक की भीड़, प्रदूषण, लूटपाट, सूचनाओं का अभाव और तमाम दूसरी विसंगतियां। बयान बहुत लोग देते हैं, सुधरना चाहिए ये भी कहते हैं। दर्शन या परिक्रमा को बड़े-बड़े वीआईपी आते हैं और स्थानीय जनता और मीडिया के सामने लंबे-चैड़े वायदे करके चले जाते हैं। न तो कोई प्रयास करते हैं और न पलटकर पूछते हैं कि क्या हुआ? जो कुछ होता है, वो कुछ व्यक्तियों के या संस्थाओं के निजी प्रयासों से होता है। सरकारी तंत्र की रोड़ेबाजी के बावजूद होता है। स्थानीय नागरिकों की भी भूमिका कोई बहुत रचनात्मक नहीं रहती। छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के कारण वे सुधार के हर प्रयास का विरोध करते हैं, उसमें अडंगेबाजी करते हैं और सुधार करने वालों को उखाड़ने में कसर नहीं छोड़ते।
जहां तक सरकारी तंत्र की बात है, उसके पास न तो इन धर्मनगरियों के प्रति कोई संवेदनशीलता है और न ही इन्हें सुधारने का कोई भाव। अन्य नगरों की तरह धर्मनगरियों को भी उसी झाडू से बुहारा जाता है। जिससे सुधार की बजाय विनाश ज्यादा हो जाता है। पर कौन किसे समझाए ? कोई समझना चाहे, तब न ? मुख्यमंत्री बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर योजनाओं की घोषणा कर देते हैं। पर क्या कभी उन योजनाओं के क्रियान्वयन की सार्थकता, गुणवत्ता और सततता पर कोई जांच की जाती है ? नहीं। की जाती, तो बनते ही कुछ महीनों में इन स्थलों का पुनः इतनी तेजी से विनाश न होता। एक नहीं दर्जनों उदाहरण है। जब केंद्र सरकार, अंतर्राष्ट्रीयों संगठनों या निजी क्षेत्र से करोड़ों-अरबों रूपया वसूल कर स्थानीय प्रशासन धर्मनगरी के सुधार के लंबे-चैड़े दावे करता है, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। यह क्रम जारी है। किसी राज्य में ज्यादा, किसी में कम। इसे पलटने की जरूरत है। प्रधानमंत्री अकेले कोई धर्मनगरी साफ नहीं कर सकते। इसके लिए तो एक समर्पित टीम चाहिए। जिसे स्थानीय मुद्दों और इतिहास की जानकारी हो। यह टीम कार्यक्रम बनाए और वही उसके क्रियान्वयन का मूल्यांकन करे और फिर कोई समर्पित स्वयंसेवी संस्था उस स्थान की दीर्घकाल तक देखरेख का जिम्मा ले। तभी धरोहरों की रक्षा हो पाएगी, तभी धर्मस्थान सुरक्षित रह पाएंगे। वरना, सैकड़ों-करोड़ों रूपया खर्च करके भी कुछ हासिल नहीं होगा।
मथुरा जिले के बरसाना कस्बे में गहवर वन के पास एक दोहिनी कुण्ड है। जहां राधारानी की गायों का खिरक था। वहां राधारानी अपनी गायों का दूध दोहती थीं। एक दिन वहां कौतुकी कृष्ण आ गए और राधारानी को दूध दोहने की विधि समझाने लगे। उन्होंने ऐसा दूध दोहा कि दोहिनी कुण्ड दूध से भर गया। फिर ये सैकड़ों साल उपेक्षित और खण्डर पड़ा रहा। तब ब्रज फाउण्डेशन ने इसकी गहरी खुदाई करवायी। इसके घाटों का पत्थर से निर्माण करवाया और फिर इसके चहू ओर विकास की योजना बनाकर भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को भेज दी। वहां से सवा करोड़ रूपया स्वीकृत हुआ। टेण्डर मांगे गए और एक नकली फर्म चलाने वाले धोखेबाज आदमी को एल-वन बताकर उसके क्रियान्वयन का ठेका दे दिया गया। जब इसकी शिकायत की गई, तो भारतीय पर्यटन विकास निगम के कई अधिकारी इस भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए। ठेका निरस्त हो गया। अब यही ठेका उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने निकाला और जयपुर के एक ठेकेदार को ठेका मिला। उसने आधे-अधूरे मन से जो काम किया, वह हृदयविदारक था। सवा करोड़ लगने के बाद दोहिनी कुण्ड आज लावारिस और उजड़ा पड़ा है। जो कुछ ढांचे बनाए गए थे, वो सब भी ढहने लगे हैं। जबकि इस कुण्ड का लोकार्पण अभी डेढ़-दो साल पहले ही हुआ है। इसी तरह अन्य धर्मनगरियों के भी उदाहरण मिल जाएंगे।
 
ऐसे में पर्यटन और तीर्थांटन की योजनाओं में अमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। जो संस्था या व्यक्ति पूरी समझ, निष्ठा और समर्पण के साथ इन धर्मनगरियों को समझता हो और जिसने कोई ठोस काम करके दिखाया हो। ऐसे लोगों को योजना बनाने की, उसके क्रियान्वयन की और उन स्थलों की दीर्घकाल तक देखरेख की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। जिसके लिए प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी कुछ क्रान्तिकारी निर्णय लेने होंगे। जिससे नए विचारों को खाद, पानी मिल सके और जो नौकरशाही 60 बरस से सत्ता चला रही है, उसे यह पता चले कि उनसे कम संसाधनों में भी कितना बढ़िया, ठोस और स्थाई काम किया जा सकता है।