सर्वोच्च अदालत में पिछले हफ़्ते जो कुछ हुआ उस पर मीडिया ने मेरी प्रतिक्रिया चाही है। मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में यह जानी हुई बात है कि 1997 से 2000 तक मैंने उस समय के कुछ मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी। अवमानना के मामले में मुझे भी लपेटा गया था पर फिर छोड़ दिया गया। बाद में मैंने हिन्दी में एक किताब लिखी थी, ‘अदालत की अवमानना कानून का दुरुयपोग’ (पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)। इस मामले में मेरी राय यें है;
1. न्यायपालिका अगर अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर नाचने लगे तो देश का बुरा हाल हो जाएगा। 135 करोड़ लोग बर्बाद हो जाएंगे। लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ ढह जाएगा। बड़े पैमाने पर अन्याय होगा, कमजोरों का शोषण किया जाएगा और देश को लूटा जाएगा। हम तानाशाही और फिर उसके बाद की अराजकता, हिंसा तथा देश बड़े पैमाने पर बर्बादी की ओर बढ़ेंगे। जैसा दुनिया भर के इतिहास में हुआ है। किसी भी तानाशाह ने कभी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ी बल्कि सबका हिंसक अंत हुआ है। दुर्भाग्य से हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका के कुछ सदस्य भी गलत कारणों से खबरों में रहे हैं।
2. सवाल है कि न्यायपालिका के सदस्यों को गलत काम या भ्रष्टाचार क्यों करना चाहिए अथवा सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक इच्छा के आगे समर्पण क्यों करना चाहिए? खासकर तब जब इस देश के लोगों ने उन्हें एक सम्मानित जीवन जीने के लिए आवश्यक सब कुछ दिया है। क्या वे यह भूल गए हैं कि बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के हाथों कितनी यातना झेली है और अपना जीवन बलिदान किया है। क्या वे अपने परिवारों के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित नहीं कर सकते थे ? पर इस गरीब देश के लाखों सामान्य लोगों का अच्छा जीवन सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया ।
3. इसके बावजूद अगर न्यायपालिका के कुछ सदस्य अनैतिक कार्रवाई के दोषी पाए जाते हैं तो ‘उन्हें नौकरी से निकाल देना चाहिए’। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसपी भरुचा ने कोवलम में सन 2002 में एक सेमिनार को संबोधित करते हुए ये कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मौजूदा कानून नाकाफ़ी हैं’।
4. दुर्भाग्य से हमारे सांसद इस कानून को बदलने के इच्छुक नहीं है और भ्रष्ट जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का नैतिक साहस भी नहीं दिखाते हैं। क्योंकि उनमें से अनेकों का अपना चाल चलन भी दागदार है। इसलिए देश एक मुश्किल स्थिति में फंसा हुआ है।
5. इस विषम स्थिति को मैंने भी झेला था। 1997 में जब मैंने यह खुलासा किया कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ‘जैन हवाला कांड’ के आरोपी जैन बंधुओं से मिले थे, तो देश में हंगामा मच गया था। भारत के किसी भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इससे पहले किसी ने ऐसा खुलासा कभी नहीं किया था। इस खुलासे से घबराए न्यायमूर्ति वर्मा ने खुली अदालत में वो सब स्वीकार कर लिया जो आरोप मैंने उन्हें संबोधित अपने खुले पत्र में (12 जुलाई 1997) लगाए थे। उन्होंने माना कि एक
“जेंटलमैन
” लगातार उनपर और उनके साथी न्यायमूर्ति एस.सी. सेन पर हवाला केस को रफ़ा दफ़ा करने के लिए लगातार दबाव डाल रहा है। उनकी इस स्वीकारोक्ति पर अदालतों, संसद व मीडिया में हंगामा मच गया। तथाकथित
“जेंटलमैन
” का नाम बताने की देशव्यापी मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने ना तो उसकी पहचान बताई ,ना ही उसे अदालत की अवमानना की सजा दी। जबकि इस व्यक्ति ने सर्वोच्च अदालत की अब तक की सबसे बड़ी अवमानना की थी। उन्होंने क्यों ऐसा किया, क्या कोई जवाब दे सकता है ?
6. दुर्भाग्य से मेरे सह-याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और उनके पिता श्री शांति भूषण ने रहस्यमयी कारणों से न्यायमूर्ति वर्मा का बचाव किया और ये शोर मचाने के लिए उल्टे मुझ पर हमला किया। तब मैं बहुत आहत हुआ था और ठगा हुआ महसूस किया। पर मैंने और शोर मचाया तब एस.सी.बी.ए. (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने मुझे अवमानना के लिए सुप्रीम कोर्ट में घसीट लिया। आश्चर्यजनक रूप से तीन जजों की पीठ ने मेरे खिलाफ मामला स्वीकार करने से मना कर दिया और कहा कि, “हम सूर्य की तरह है, अगर कोई सूर्य पर मिट्टी फेंके तो वह गंदा नहीं होता है। अगर हम विनीत नारायण को नोटिस जारी करते हैं तो वे अपनी पूरी ताकत से यहाँ अदालत में चिल्लाएंगे। हम उन्हें यहाँ मंच देना नहीं चाहते हैं।”
7. अपनी इस बात को साबित करने के लिए कि ‘जैन हवाला मामले’ में आरोपी राजनेताओं को इसलिए नहीं छोड़ा गया कि सीबीआई के पास उनके खिलाफ सबूत नहीं थे। बल्कि इसलिए छोड़ा गया कि ये राजनेता न्यायपालिका को नियंत्रित करने में कामयाब रहे थे। मैंने भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद के छह भूमि घोटालों का अपने अख़बार ‘कालचक्र’ में (1999-2000) पर्दाफाश किया।
8. इस बार तो देश में और ज्यादा बड़ा हंगामा खड़ा हुआ। जिससे तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी की नौकरी चली गई। श्री अरुण जेटली नए कानून मंत्री बने जो डॉ. आनंद के करीबी थे। इसलिए उन्होंने डॉ. आनंद को एक सुरक्षा कवच मुहैया कराया और मेरे खिलाफ अवमानना का मामला दायर हुआ। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च अदालत में नहीं, बल्कि जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में।
9. इस लंबे अकेले अभियान में फिर प्रशांत भूषण ने डॉ. आनंद का पक्ष लिया और इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में यह कह कर मुझ पर हमला किया कि मैं डॉ. आनंद के खिलाफ झूठे आरोप लगा रहा हूँ, बगैर किसी सबूत के। यह पूरी तरह चौंकाने वाला बयान था। क्योंकि मैं अपने अखबार, ‘कालचक्र’ में सारे दस्तावेज प्रकाशित कर चुका था। अंग्रेजी की पाक्षिक पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि मेरे पास सारे सबूत थे। हालांकि, जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने मुझे दोषी माना, पर सजा नहीं दी। मैंने इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी।
10. अब जाने कि प्रशांत भूषण के खिलाफ मौजूदा मामले पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है? पिछले इन अप्रिय अनुभवों के बावजूद आज मैं प्रशांत भूषण के साथ खड़ा हूं। क्योंकि मेरी राय में उनकी टिप्पणियां अदालत की अवमानना नहीं हैं। जैसा ऊपर कहा गया है कि अदालत की अवमानना का मामला सही अर्थों में मौजूदा कानून के तहत होना चाहिए। यानी केवल वही व्यक्ति इस क़ानून के तहत अपराधी माना जाए जो न्यायिक प्रक्रिया में व्यवधान डाले या उसे अवैध रूप से प्रभावित करने की कोशिश करे (जैसा जैन हवाला कांड में हुआ)।
11. किसी भी जज के भ्रष्ट आचरण से संबंधित किसी भी खुलासे को, अगर वह सबूत के साथ हो, या अदालत का फ़ैसला जिस पर विश्लेषणात्मक टिप्पणियां की जाएं उसे ‘अदालत की अवमानना’ नहीं मानना चाहिए। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में हरेक स्तंभ बाकी के तीन के प्रति उत्तरदायी है। जज कोई स्वर्ग से उतरे तमाम दैविक विशेषताओं वाले देवदूत नहीं हैं। उनमें भी दूसरों की तरह कमजोरियां हो सकती हैं। इसलिए वे इतना संवेदनशील क्यों होते हैं? वह भी तब जब उनमें से कुछ रिटायरमेंट के बाद शासकों से उपकृत होना स्वीकार करते हैं। ऐसा करने वाले निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्रता और साख खोएंगे और देश इसकी भारी कीमत चुकाएगा। इसलिए, वर्तमान मामले में मेरा दृढ़ मत है कि प्रशांत दोषी नहीं हैं।
12. अंत में मैं कानून के क्षेत्र से जुड़े लोगों का ध्यान एक अप्रिय स्थिति की ओर खींचना चाहता हूं जिससे मैं चुपचाप पिछले तीन वर्षों से जूझ रहा हूं। हवाला कांड व दो मुख्य न्यायाधीशों के घोटालों का खुलासा करने के बाद, हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार से निराश होकर, सन 2002 में मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जी की शरण ली।
13. उनके निर्देश पर मैंने खोजी पत्रकारिता का अपना पेशा छोड़ दिया, जो उस समय शीर्ष पर था। 46 साल की उम्र से मैंने पिछले 18 साल ब्रज क्षेत्र की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को बचाने और सजाने में लगाए हैं। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में आता है। मैं ये काम ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के जरिए करता हूं।
14. मैं पूरी विनम्रता से मैं कहना चाहता हूं कि गत दो दशकों में, मथुरा में (ब्रज) हम लोगों ने जो जीर्णोद्धार किए हैं उन्हें हर क्षेत्र के लोगों से प्रशंसा मिली है। इनमें संत, ब्रजवासी, तीर्थयात्री, मीडिया, दानदाता उद्योगपति, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भारत सरकार के सचिव, नीति आयोग के सीईओ, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, आदि सब शामिल हैं और सबने कहा है कि भारत में किसी एनजीओ ने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के जीर्णोद्धार व संरक्षण का ऐसा काम देश में कहीं नहीं किया। हमने यह सब बिना सरकारी अनुदान के किया है।
15. 2017 में योगी सरकार के आते ही पवित्र गोवर्धन पर्वत को बर्बाद करने की एक साजिशाना ‘मेगा योजना’ के खिलाफ हमने जिन आपराधिक लोगों का खुलासा किया था, उनके निहित स्वार्थों के कारण ही आज हमें एनजीटी द्वारा परेशान किया जा रहा है। इसके सदस्य न्यायमूर्ति रघुवेन्द्र राठौड़ (अब रिटायर) ने हम पर कई फर्जी और अपुष्ट आरोप लगाए हैं। खुली अदालत में उन्होंने हमें अपमानित किया। श्री अजय पिरामल तथा श्री राहुल बजाज जैसे उद्यमियों द्वारा दिए गए सी.एस.आर. के पैसों से किए गए करोड़ों रुपय के सौंदरीयकरण के काम को नष्ट करने का मौखिक आदेश दिया। श्री राठौड़ ने इन दानदाताओं के योगदान बताने वाले शिलापट्टों को भी पोत देने का आदेश दिया। यह सब कुछ ठीक ऐसा ही है, जो मंदिरों को नष्ट करने वाला औरंजेब जैसा कोई शासक ही कर सकता है।
16. इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की बार के सदस्यों और माननीय जजों को इस साल के शुरू में बांटे गए टैबलॉयड जैसे एक सूचना संकलन प्रपत्र की याद होगी। गोवर्धन के पर्यावरण कार्यकर्ता मुकेश शर्मा ने इसे बांटा था। इस पर्चे में लिखा हरेक शब्द सबूतों से समर्थित है। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे न्यायमूर्ति राठौड़ ने अपने कुछ लोगों का पक्ष लेने और दूसरों को बर्बाद करने के लिए राजस्व रिकार्ड में हेराफेरी की थी। वे अब रिटायर हो चुके हैं। पर हमें अपनी विरासत की रक्षा करने से रोक दिया गया है। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने हमें 1 जून 2018 को स्टे दे दिया। इस तरह न्यायमूर्ति राठौड़ के आदेश से सिर्फ दो साइटें (श्री कृष्ण लीलास्थलियाँ) ही नष्ट हुईं (जिन्हें हमने गोवर्धन की परिक्रमा पर करोड़ों रुपए खर्च करके बहुत सुंदर बनाया था। इनके नाम हैं संकर्षण कुंड और रुद्र कुंड)। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण जीर्णोद्धार की गयीं बाकी लीलास्थलीयों को फ़िलहाल बचाया जा सका।
17. पर अभी भी हमारे ऊपर तलवार टंगी है और हम नहीं जानते कि इस असामान्य स्थिति से कैसे निपटा जाए ? जब हमारे मामले की सुनवाई करने वाले एन.जी.टी. के सदस्य हमारी केस फ़ाइल में मौजूद सभी तथ्यों को नजरअंदाज कर सिर्फ याचिकाकर्ता से निर्देशित होते हैं, जो स्वयं उसी घोटाले में शामिल थे जिनके ख़िलाफ़ हमने 2017 में शोर मचाया था, ताकि ब्रज की विरासत और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।
इन परिस्थितियों में एक जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार से हमेशा जूझने वाले खोजी पत्रकार और हिन्दू विरासत के संरक्षक के रूप में मेरे पास क्या विकल्प हो सकता है, क्या आप कुछ बताएँगे ?
निवेदक
विनीत नारायण