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Monday, December 26, 2022

कोरोना की नई लहर से कितना डर?



पिछले कुछ दिनों से चीन में कोरोना की नई लहर को लेकर काफ़ी भयावह दृश्य सामने आए हैं। कोरोना के नये वेरिअंट ने चीन में अपना आतंक दिखाना शुरू कर दिया है। चीन के अलावा कई और देशों में भी इस नये वेरिअंट के मरीज़ पाए गए हैं। दुनिया भर में डर का माहौल बना हुआ है। भारत समेत कई देशों ने कोरोना के इस नये जिन्न से निपटने के लिए सभी सावधानियाँ बरतनी शुरू कर दी हैं। भारत के सभी राज्यों के मुख्य मंत्री और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जनता से सावधान रहने की अपील कर रहे हैं। सबके मन में प्रश्न है कि हमें इस नए वेरिअंट से कितना डरना चाहिए? 

सोशल मीडिया पर चीन में आई कोरोना की नई लहर से ऐसे आँकड़े सुनने को मिल रहे हैं कि इस लहर में दस लाख से अधिक लोगों की मौत हो सकती है। चीन की 60 प्रतिशत आबादी इसकी चपेट में आ जाएगी। ये भी कि दुनिया भर की 10 प्रतिशत आबादी इस नई लहर का शिकार हो जाएगी। ये सब दावे कितने सच्चे है इस पर कोई भी आधिकारिक बयान किसी सरकार द्वारा अभी तक नहीं दिया गया है। चीन ने तो अब आँकड़े जारी करना ही बंद कर दिया है। 


1995 से अमरीका के पेंसिलवेनिया में डाक्टरी कर रहे, आंतरिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ रवींद्र गोडसे के अनुसार भारत को इस नई लहर से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। देश भर के कई टीवी चैनलों की चर्चाओं में डॉ गोडसे ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा है कि न तो भारत में ये नई लहर आएगी और न ही यहाँ इसका कोई भारी असर पड़ेगा। वे कहते हैं कि चीन ने अपने यहाँ पनपे इस ख़तरनाक वायरस से निपटने के लिए अत्यधिक सावधानी बरती, परंतु इस घातक वायरस से छुटकारा नहीं पा सका। उदाहरण के तौर पर चीन में तीन साल तक लॉकडाउन रहा। इक्कीस बार टेस्टिंग की गयी। बावन दिनों का क्वारंटाइन किया गया। लेकिन इस सब से क्या हुआ? फिर भी वहाँ नई लहर आ ही गई। 

डॉ गोडसे अपनी बात दोहराते हुए यह भी कहते हैं कि जैसा दावा उन्होंने कोविड के ओमिक्रोन वेरिअंट को लेकर किया था, जो सच साबित हुआ। ठीक उसी तरह वे इस नये वेरिअंट के लेकर भी आश्वस्त हैं कि भारत पर इसका कोई बहुत बड़ा असर नहीं दिखाई देगा। अब इस वेरिअंट को रोकना किसी के लिए भी संभव नहीं है। 


डॉ गोडसे मानते हैं कि कोविड का ओमिक्रोन वेरिअंट भारत में एक वरदान साबित हुआ क्योंकि उससे देश भर में हर्ड इम्युनिटी हुई। कोविड के ओमिक्रोन ने कोविड के ख़िलाफ़ ही एक वैक्सीन का जैसा काम किया है। वे कहते हैं कि देश में जो भी लोग कोविड के प्रति ‘हाई रिस्क’ की श्रेणी में आते हैं उन्हें संभल कर रहने की ज़रूरत है। वे सभी सावधानियाँ बरतें और सुरक्षित रहें। 

एक शोध से पता चला है कि ओमिक्रोन मॉडीफ़ाइड वैक्सीन लेने से बचाव हो सकता है। भारत में कोरोना की मैसेंजर राइबोज न्यूक्लिक एसिड (mRNA) वैक्सीन को 15 दिसम्बर 2021 तक आना था। परंतु उसका अभी तक कुछ पता नहीं। इस वैक्सीन को पुणे की जेनोवा बायोफार्मास्युटिकल्स ने बनाया है। डॉ गोडसे पूछते हैं कि जब यह बात शोध से सिद्ध हो चुकी है कि कोरोना अपने रूप बदल कर हमला कर रहा है तो वैक्सीन में भी बदलाव क्यों नहीं किए जा रहे? 

जैसे ही चीन में लंबे लॉकडाउन के बाद जनता को बाहर आने दिया गया तभी से वहाँ कोरोना की नई लहर आई। इसका मतलब यह हुआ कि लॉकडाउन से कोरोना पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। इसके साथ ही यह बात भी कही जा रही है कि जिन लोगों के शरीर में रोग से लड़ने की क्षमता कम है या जो लोग ‘हाई रिस्क’ के दायरे में आते हैं पहले उन पर सावधानी बरती जाए । न कि सभी को लॉकडाउन और मास्क जैसे नियम की बेड़ियों जकड़ा जाए। सामान्य तौर पर स्वस्थ व्यक्ति को मास्क लगा लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। डॉ गोडसे कहते हैं कि मास्क से कोविड की रोकथाम होती है, ऐसा कोई भी शोध उपलब्ध नहीं है। मास्क केवल डॉक्टर व अस्पताल में काम कर रहे अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के रोगियों के संपर्क में आने से होने वाले इन्फेक्शन से बचाता है।  

इसके साथ ही डॉ गोडसे इस बात पर भी ज़ोर दे रहे हैं कि कोविड के इस नये प्रारूप से पहले की तरह न तो तेज़ बुख़ार आता है और न ही ये हमारे शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने देता है। केवल गले में ख़राश होती है और दो-तीन दिन में मरीज़ ठीक हो जाता है। उनके अनुसार इसलिए कोविड के इस नये अवतार से ज़्यादा डरने के ज़रूरत नहीं है। केवल वो लोग जिन्हें पहले से ही कोई गंभीर बीमारी है वे ज़रूर पूरी सावधानी बरतें। हमें सचेत रहने की ज़रूरत है घबराने कि नहीं। 

चीन में कोविड की नई लहर आने के पीछे वहाँ के बुरे प्रबंधन और वैक्सीन की गुणवत्ता हैं। यदि समय रहते चीन ने इस महामारी का सही से प्रबंधन किया होता तो यह प्रकोप दुनिया भर में नहीं फैलता। भारत जैसी आबादी वाले देश में यदि कोविड पर नियंत्रण पाया गया है तो उसके पीछे यहाँ की आम जानता कि प्रकृति से जुड़ी पारंपरिक दिनचर्या,  वैज्ञानिकों की मेहनत और कुछ हद तक सरकार का सही प्रबंधन भी है। चीन के लंबे लॉकडाउन लगने से यह बात साबित हो चुकी है कि इस महामारी से घर में क़ैद हो कर नहीं बचा जा सकता है। इसके लिए दवा और सावधानी दोनों का प्रयोग करना ही बेहतर होगा। 

डॉ गोडसे के अनुसार कोविड के वायरस से ज़्यादा हमें सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे भ्रमित करने वाले मेसेज रूपी वायरस से बचने की ज़रूरत है। 

मिसाल के तौर पर सोशल मीडिया में ऐसा संदेश घूम रहा है कि कोविड का नया वायरस हवा से फैलता है। लेकिन आपके शरीर में कान, नाक और मुँह से नहीं प्रवेश नहीं करता, सीधा आपके फेफड़ों में घुसकर आपको निमोनिया कर देता है। डॉ गोडसे पूछते हैं कि यदि ये वायरस नाक और मुँह के रास्ते शरीर में प्रवेश नहीं करता तो फेफड़ों तक कैसे पहुँच सकता है? इसके साथ ही इस संदेश में यह भी कहा जा रहा है कि ये वायरस टेस्टिंग में नेगेटिव आता है परंतु आपके शरीर में रहता है। इस पर डॉ गोडसे सवाल उठाते हुए पूछते हैं की जो वायरस जाँच में पकड़ा नहीं जा सकता, वो कोविड का नया वायरस है ये कैसे पता चलता है? डॉ गोडसे के अनुसार ऐसे वायरस केवल सोशल मीडिया के माध्यम से ही फैलते हैं। इसलिए सचेत रहने के साथ-साथ ऐसे संदेशों से भी दूरी बनाए रखें और वायरस को फैलने से रोकें।  

Monday, July 18, 2022

सौ शब्दों की 87 कहानियाँ


आज की युवा पीढ़ी किताबें पढ़ना नहीं चाहती। हर वक्त स्मार्ट फ़ोन या कम्प्यूटर के सामने गर्दन झुकाए जुटी रहती है। जिसका काफ़ी बुरा असर आँखों, कंधों, गर्दन और दिमाग़ पर पड़ता है। वैसे तो हम सब भी इसी बुरी आदत के ग़ुलाम बन चुके हैं।


इस समस्या का एक सरल सा हल खोजा है, तीन पीढ़ी के तीन लेखकों ने। नाना, माँ और बेटी ने मिलकर ‘ड्रैबल्स’ को भारत में साकार किया। आप पूछेंगे ये ‘ड्रैबल्स’ क्या बला है? यह 100 शब्दों में लिखी जाने वाली कहानी है जिसमें न एक शब्द ज़्यादा हो सकता है न कम। ‘ड्रैबल्स’ लिखना चुनौती के साथ-साथ मज़ेदार भी होता है। ‘ड्रैबल्स’ पढ़ना ख़ुशी देता है। कोई व्यक्ति जो कुछ हलका-फुलका और जल्दी ख़त्म होने वाला पढ़ना चाहता है, उसके लिए यह ‘ड्रैबल्स’ लेखन उत्तम विधा है। साहित्यिक दुनिया में यह एक नये प्रकार के लेखन की प्रणाली है जो अभी भारत देश में ज़्यादा प्रचलित नहीं हुई है। वर्ष 1980 में यूनाइटेड किंगडम में इसकी शुरुआत हुई थी। यह ‘माइक्रो- फ़िक्शन’ कहानियाँ हैं जो केवल सौ शब्दों में लिखी जाती हैं। सौ शब्दों में ही कहानी के आदि, मध्य और अंत को रोचक बनाए रखना होता है। 



2020-21 में कोरोना काल में जब हम सब अपने घरों में क़ैद थे और बाहर जाने को छटपटा रहे थे तब दुनिया में बहुत से लोगों ने कई अनूठे काम किए। ऐसे ही ये तीन लोग हैं, नाना बिशन सहाए, माँ रुचि रंजन और बेटी इशिका रंजन, जिन्होंने ‘हमारी दुनिया ड्रैबल्स की’ नाम की एक पुस्तक लिखी जो आज भारत में लोकप्रियता के कारण खूब बिक रही है। इस संग्रह में जीवन के हर रंग और रस की 87 कहानियाँ हैं। कुछ हँसी की मज़ेदार हैं, कुछ विलक्षण और अव्यावहारिक और चंद साई-फ़ाई के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कुछ यादें कुरेदती हैं तो कुछ सहानभूति जगाती हम को इंसानियत की याद दिलाती हैं।कभी-कभी उन में जीवन की तरह से, उनका अंत नायाब और अप्रत्याशित होता है। सुंदर आकर्षित चित्रों से सँवारी गई यह पुस्तक हिंदी के पाठकों के लिए एक नया व उत्तम तोहफ़ा है।



सौ शब्दों की इन कहानियों के चार नमूने देखिए। ‘लुका-छिपी’ शीर्षक की यह कहानी यूँ लिखी गई है- पलंग के नीचे, मेज़ के नीचे दरवाज़े के पीछे... मेरा परिवार आज लुका-छिपी खेल रहा था। सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के कारण हमारा घूमना-फिरना कम हो गया था। वह कहीं तो होगा! दो मंज़िलें घर में उसे ढूँढना मुश्किल था और वह हमारे कॉल करने पर भी जवाब नहीं दे रहा था। उसकी चुप्पी परेशानी को ज्यादा उलझा रही थी। पारे गरम थे। उसके बिना ‘वर्क फ्रॉम होम’ असंभव था। कोविड-19 में सब वर्चुअल होना था... क्लास हो या वेबिनार। थक कर मैं कद्दू मसाला लाते बनाने चली। जैसे ही प्याला प्लेट उठाने लगी। पीछे चुपचाप छिपा छिपाया पड़ा था... मेरा स्मार्ट फोन!


इसी तरह एक और कहानी का लुत्फ़ उठाइए। इसका शीर्षक है ‘ची-ची।’ यह घटना चीनी क्रांति से पहले की है जब चीनी पश्चिमी रंग में रंग रहे थे और अंग्रेज़ कृपालु मगर नकचढ़े थे। लंदन के सरकारी रात्रिभोज में कुओमिंतांग के विदेश मंत्री डॉ. सूँग, अंग्रेज़ लॉर्ड के बगल में बैठे थे। लॉर्ड अनभिज्ञ थे कि वह अंग्रेज़ी के ज्ञाता हैं। अतः बात-चीत नहीं हुई। सूप के बाद अंग्रेज़ ने विनम्रता वश पूछाः 'लाइकी सूपी?’ सूँग ने मुस्कुरा कर सिर हिला दिया। खाने के बाद, भाषणों के दौरान, डॉ. सँग से बोलने का अनुरोध किया गया। भाषण उत्तम, फर्राटेदार अंग्रेज़ी में था। अंग्रेज़ सटपटा गया। बैठते ही सँग ने उससे पूछा, 'लाइकी स्पीची? 


मानवीय संवेदनाओं को छूती इस कहानी ‘चाहत’ को पढ़िए - पानी भरने के लिए लम्बी कतार, सार्वजनिक टॉयलेट के सामने झगडा, सब्जियाँ काटती महिलाएँ, इस दृश्य ने परिसर में कदम रखते ही मेरा अभिवादन किया। आश्रम में रहने वाली शांताबाई मेरे पास आई और फुसफुसाई, 'किसी को याद नहीं... आज मेरा जन्मदिन है।' मैंने उसे गले लगाया और उसने मेरे हाथ कसकर पकड़ लिए। उसका झुर्रीदार चेहरा और आँखें चाहत से भरी थीं, जैसे किसी को खोज रही हों। मेरे मन को भाँप कर बोली, 'मुझे अपने बेटे के फोन का इंतजार नहीं है, अब यही मेरा घर है।' आँसू उसके गालों तक बहते रहे और वह मुझसे लिपट गई।


आपमें से जो लोग कम्पनियों में नौकरी करते हैं, उन्हें कोरपोरेट कल्चर की ये कहानी पढ़कर मज़ा आ जाएगा। वैसे भी एक पुरानी कहावत है, ‘घोड़े की पिछाड़ी और बॉस की अगाड़ी से हमेशा बच कर चलना चाहिए।’ इस कहानी का शीर्षक है ‘हुज़ूर ज़िंदाबाद!’ - हमारी सीलोन की कम्पनी के अध्यक्ष सर सिरिल डि जोयसा से सभी सहयोगी डरते थे। एक सुबह मैंने देखा कि उनकी कंपनियों के सभी डायरेक्टरों की हँसी रुक नहीं रही थी। हुआ यूँ कि सर सिरिल अपने बंगले से दनदनाते हुए निकले और चिल्लाये, 'मेरी चीजें क्यों छुई जाती हैं? मेरा चश्मा कहाँ गया?' सब लोग उसे ढूँढने में लग गए, जब तक कि चश्मा उनकी तनी हुई भौंहों से लुढ़क कर नाक पर नहीं आ गया। ऐसा संभव नहीं था कि सबको वह लगा हुआ न दिखा हो, परंतु सर की बात काटने का साहस कौन करता? हुज़ूर ज़िंदाबाद! इसी बात को हमारे ब्रज में यूँ कहते हैं, ‘बग़ल में छोरा - नगर में ढिंडोरा।’ क्यों यही होता है न आपकी भी कम्पनी में रोज़ाना?


ऐसी ही 83 रोचक कहानियाँ रूपा पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में और हैं जिसकी तारीफ़ करने वालों में सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्ज़ा और शशि थरूर सहित तमाम अख़बार भी शामिल हैं। बच्चों के लिए अंग्रेज़ी में रोचक उपन्यास लिखने वाले विश्व विख्यात लेखक रस्किन बॉंड का कहना है कि यह लघु- कथाओं का मनमोहक संग्रह कोविड-19 से परेशान हुए लोगों के लिए है। हर मर्ज़ को दूर रखेगी, हर दिन एक ड्रैबल की खुराक।   


इस पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि, समुद्र के पानी का एक छोटा-सा चम्मच ही उसका डीएनए बता देता है। इसी प्रकार इंसान के शरीर का छोटा-सा बाल अथवा नाखून का टुकड़ा एवं किसी भी अंग का अंश मात्र पूरे शरीर के डीएनए का अनुक्रम हो जाता है। संक्षेप में यही सत्य कि हमारे शरीर का सार तत्व लगभग अदृश्य अणु पर निर्भर करता है, जो कि विकसित होने पर जीवन की बड़ी से बड़ी कहानी बन जाता है। हिन्दुस्तान के वेदों, शास्त्रों और ग्रंथों में भरी सामग्री को आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। हज़ारों साल पहले सुश्रुत ने प्लास्टिक सर्जरी में जिस सामग्री का प्रयोग किया था, उसका विवरण दिया था। केवल एक पंक्ति पढ़कर मुझमें पूरा ग्रंथ पढ़ने की इच्छा जागी। मुझे विश्वास है कि इस लेख को पढ़कर आपके भी मन में इस अनूठी किताब को खोजने और पढ़ने की इच्छा जागेगी। क्योंकि  तभी हम अपने बच्चों को कम्प्यूटर और स्मार्ट फ़ोन से हटा कर एक बार फ़िर किताबों की दुनिया में लौटा पाएँगे। जो उनके बौद्धिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी है।

Monday, November 29, 2021

कोरोना: ख़तरा अभी थमा नहीं


यूरोप में कोरोना फिर क़हर ढाह रहा है। जैसे-जैसे कोरोना के संक्रमण के दोबारा फैलने की खबरें आ रही हैं वैसे-वैसे ही आम जनता में इसके प्रति चिंता बढ़ती जा रही है। ये बात सही है कि भारत में कोरोना महामारी की स्थित पहले से बेहतर तो हुई है। लेकिन जब तक यह बीमारी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाती हम सबको सावधानी ही बरतनी पड़ेगी। हमें इस बीमारी के साथ अभी और रहने की आदत डाल लेनी चाहिए ।


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है।  कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाति, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता। ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो घर के बाहर जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। कोरोना के चलते दुनिया भर में हुए लॉकडाउन ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 



लेकिन पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से लोग बेपरवाह हो कर खुलेआम घूम रहे हैं और सामाजिक दूरी भी नहीं बना रहे उससे संक्रमण के फिर से फैलने की खबरें आने लग गई हैं।विशेषज्ञों की मानें तो संक्रमण के मामलों में गिरावट का श्रेय टीकाकरण अभियान है। साथ ही इस साल आई कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वायरस से संक्रमित होने वाले लोगों में पनपी हाइब्रिड इम्युनिटी को भी दिया जा सकता है।


परंतु जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो हर एक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जो लोग मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही कोविड पॉज़िटिव से कोविड नेगेटिव हो गए, वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन ऐसा सही नहीं है। 


पिछले हफ़्ते दक्षिण भारत के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ में एक लेख छपा जिसके अनुसार यूरोप के अनुभव को देखते हुए ऐसा लगता है कि केवल वैक्सीन से ही कोरोना संक्रमण की श्रंखला को नहीं तोड़ा जा सकता और न ही इस महामारी का अन्त किया जा सकता है। यूरोप में पिछले वर्ष मार्च के पश्चात् दूसरी बार कोरोना संक्रमण के नये मामलों और मौतों में तेज गति से वृद्धि हो रही है। आज यूरोप पुनः कोरोना महामारी का मुख्य केन्द्र बन गया है।


इस वर्ष अक्टूबर के प्रारम्भ से ही संक्रमण के मामलों में रोजाना वृद्धि होनी शुरू हुई थी। यह वृद्धि प्रारम्भ में तीन देशों तक ही सीमित थी किन्तु बाद में यूरोप के सभी देशों में फैल गई जिसकी मुख्य वजह डेल्टा वेरियंट है।


पिछले सप्ताह यूरोप में 20 लाख नये मामले सामने आए जो महामारी की शुरूआत होने के बाद से सर्वाधिक है। कोरोना से पूरे विश्व में जितनी मौतें हुई है उनमें से आधे से ज्यादा इस महीने यूरोप में हुई है।


ऑस्ट्रिया, नीदरलैण्ड, जर्मनी, डेनमार्क तथा नोर्वे में प्रतिदिन संक्रमण के सर्वाधिक मामले हो रहे हैं। रोमानिया तथा यूक्रेन में भी कुछ दिनों पहले सर्वाधिक मामले हुए। पूरे यूरोप में हॉस्पीटल बेड्स तेज गति से भर रहे हैं।


विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान हैं कि वर्तमान से लगाकर अगले वर्ष मार्च तक यूरोप के अनेक देशों में हॉस्पीटल, हॉस्पीट्ल्स बेड्स और आई. सी. यू. पर भारी दबाव बना रहेगा। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया भर के देशों को कोविड के खतरे के खिलाफ अलर्ट रहने को कहा और जल्द से जल्द जरूरी कदम उठाने के निर्देश भी दिए हैं।


अधिकांश पश्चिमी यूरोप के देशों में टीकाकरण की दर बहुत ऊँची है। आयरलैण्ड में 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस वर्ष सितम्बर तक दोनों टीके लग चुके है। फ्रांस में बिना टीका लगे लोगों की उन्मुक्त आवाजाही तथा कार्यालय जाने को मुश्किल बना दिया गया है। अगले वर्ष फरवरी से आस्ट्रिया में टीकाकरण अनिवार्य कर दिया जायेगा। आस्ट्रिया में इस वर्ष 22 नवम्बर से 3 सप्ताह का राष्ट्रव्यापी लॉक-डाउन भी लगाया गया है। इस देश में 65 प्रतिशत लोगों को दोनों टीके लगे हुए हैं फिर भी संक्रमण तेज गति से फैल रहा है।


ग़ौरतलब है कि यूरोप में संक्रमण के अधिकांश नये मामले उन लोगों के है जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है, जिन्हे ब्रेकथू्र इन्फेक्शन हैं तथा दोनों टीका लगे हुए लोग भी भारी संख्या में अस्पतालों में भर्ती हो रहे हैं।


इस सबको देखते हुए भारत जैसे देश में भी कुछ कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है वरना कोरोना की तीसरी ही नहीं चौथी-पाँचवी लहर भी आ सकती है। सरकार को कुछ ऐसे कदम उठाने की ज़रूरत है जिससे कि जनता खुद से ही आगे आकर टीका लगवाए। इससे कोरोना महामारी से कुछ तो राहत मिलेगी। साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जितनी सावधानी बरतेंगे उतना ही जल्दी इस बीमारी से बचे रहेंगे और छुटकारा पा सकेंगे। 


दुनिया भर के कई ऐसे देश हैं जहां लोगों को टीके की दोनो डोज़ लगने के बाद भी कोरोना हुआ है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि यह बीमारी हमारा पीछा इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाली है। किसी ने शायद ये ठीक ही कहा है ‘सावधानी हटी - दुर्घटना घटी’। इसलिए जितना हो सके अपने आप को इस बीमारी से बचाने की ज़रूरत है।


हाल ही में मशहूर फ़िल्म अभिनेता कमल हसन को भी कोविड संक्रमित पाया गया। उधर जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, May 3, 2021

विपदा क़ानून क्या ढिंढोरा पीटने को बनाये थे ?


जब चारों तरफ़ मौत का भय, कोविड का आतंक, अस्पताल, ऑक्सिजन और दवाओं की कभी न पूरी होने वाली माँग के साये में आम ही नहीं ख़ास आदमी भी बदहवास भाग रहा है, तब हिंदी के कुछ मशहूर कवियों का आशा जगाने वाला एक गीत फिर से लोकप्रिय हो रहा है। पर्दे पर इस गीत को सुरेंद्र शर्मा, संतोष आनंद, शैलेश लोढ़ा, आदि ने गाया है। गीत का शीर्षक ‘फिर नई शुरुआत कर लेंगे’ है।


जब से कोविड का आतंक फैला है तब से सोशल मीडिया पर ज्ञान बाँटने वालों की भी भीड़ लग गई है। दुनिया भर से हर तरह का आदमी चाहे वो डाक्टर हो या ना हो, वैद्य हो या न हो या फिर स्वास्थ्य विशेषज्ञ हो या न हो, कोविड से निपटने या बचने के नुस्ख़े बता रहा है। उसमें कितना ज्ञान सही है और कितना ग़लत तय करना मुश्किल है। उधर देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस बुरी तरह से चरमरा गई हैं कि बड़े-बड़े प्रभावशाली आदमी भी मेडिकल सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सरकारों के हाथ पाँव फूल रहे हैं। दुनिया दिल थाम कर भारत में चल रहे मौत के तांडव का नजारा देख रही है। कल तक हम सीना ठोक कर कोविड पर विजय पाने का दावा कर रहे थे पर आज दुनिया के रहमोकरम के आगे घुटने टेक रहे है। अच्छी बात यह है कि हर सक्षम देश भारत की मदद को आगे आ रहा है। अब भारत सरकार ने भी तेज़ी से हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए हैं। पर जिस तरह चेन्नई और प्रयाग में उच्च न्यायालयों ने सरकार की नाकामी पर करारा प्रहार किया है और चुनाव आयोग को हत्यारा तक कहा है। उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं तो सरकार ने भी लापरवाही की है। पर जनता भी कम ज़िम्मेदार नहीं जिसने कोविड की पहली लहर मंद पड़ जाने के बाद खुलकर लापरवाही बरती। 



जहां तक इस आपदा से निपटने की तैयारी का सवाल है तो गौर करने वाली बात यह है कि 2005 में देश में ‘आपदा प्रबंधन क़ानून’ लागू किया गया था। जिसमें राष्ट्रीय व प्रांतीय आपदा प्रबंधन समितियों के गठन का प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 2 (ई) के तहत आपदा का मूल्यांकन तथा धारा 2 (एम) के तहत तैयारियों का प्रावधान है। धारा 3 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के अध्यक्ष माननीय प्रधान मंत्री होते हैं। उक्त क़ानून की धारा 42 के तहत एक आपदा संस्थान भी स्थापित करने का प्रावधान है। इसी क़ानून के तहत आपदा कोश बनाने का भी प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 11 के तहत राष्ट्रीय योजना बनाने का भी प्रावधान है। दुर्भाग्य से न तो कोई योजना बनी, न संस्थान स्थापित हुआ। यही नहीं उक्त क़ानून की धारा 13 के तहत ये भी प्रावधान बनाया गया था की ऋण अदायगी के तहत भी छूट दी जाएगी। इसके अलावा ‘नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फ़ोर्स’ की धारा 44 व 46 के तहत नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फंड, धारा 47 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड तथा धारा 48 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड को राज्यों में भी बनाने का प्रावधान है। धारा 72 के तहत आपदा के तहत सभी मौजूदा क़ानून निशप्रभावी रहेंगे। 


2005 से 2014 तक देश में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी और 2014 से श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है। आपदा प्रबंधन के इन क़ानूनों की उपेक्षा करने के लिए ये दोनों सरकारें बराबर की ज़िम्मेदार हैं। 



उक्त क़ानून के अध्याय 10 के तहत दंडनीय अपराधों का प्रावधान भी है। धारा 55, 56 तथा 57 के तहत यदि कोई प्रांतीय सरकार या सरकारी विभाग आपदा प्रबंधन के समय उक्त क़ानून के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो यह उसका दंडनीय अपराध माना जाए। कोविड काल में देश में हुए विभिन्न धर्मों के सार्वजनिक आयोजन अन्य राजनैतिक कार्यक्रमों का इतने वृहद् स्तर पर, बिना सावधानियाँ बरते, आयोजन करवाना या उनकी अनुमति देना भी इस क़ानून के अनुसार सम्बंधित व्यक्तियों को अपराधी की श्रेणी में खड़ा करता है। ख़ासकर तब जबकि पिछले वर्ष मार्च से आपदा प्रबंधन क़ानून लागू कर दिया गया था तथा धार 72 के तहत समस्त दूसरे क़ानून निष्प्रभावी थे। ऐसे में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अनुमति के बिना, विभिन्न धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक आयोजन कराना क्रमशः राज्य सरकारों तथा भारत के चुनाव आयोग के सम्बंधित अधिकारियों को दोषी ठहराता है।


फ़िलहाल जो आपदा सामने है उससे निपटना सरकार और जनता की प्राथमिकता है। जब विधायक और सांसद तक चिकित्सा सुविधाएँ नहीं जुटा पाने के कारण गिड़गिड़ा रहे हैं क्योंकि इनकी देश भर में सरेआम काला बाज़ारी हो रही है। नौकरशाही इस आपदा प्रबंधन में किस हद तक नाकाम सिद्ध हुई है इसका प्रमाण है कि उत्तर प्रदेश के राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष तक को 12 घंटे तक लखनऊ के सरकारी अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला और जब मिला तो बहुत देर हो चुकी थी और उनका देहांत हो गया। इसलिए समय की माँग है कि ऑक्सिजन, दवाओं और अस्पतालों में बिस्तर के आवंटन और प्रबंधन का ज़िम्मा एक टास्क फ़ोर्स को सौंप देना चाहिए। प्रधान मंत्री श्री मोदी को फ़ौज और टाटा समूह जैसे बड़े औद्योगिक संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय समन्वय टास्क फ़ोर्स गठित करनी चाहिए जो इस आपदा से सम्बंधित हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो।



अब जब भारत सरकार भारतीय वायु सेना को इस आपदा प्रबंधन में लगा रही है तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि हवाई जहाज़ अन्य वाहन एवं वायु सेना के सम्बंधित कर्मचारी व अधिकारी पूरी तरह से कोविड से बचाव करते हुए काम में लगाए जाएं। ऐसा न हो कि लापरवाही के चलते वायु सेना के लोग इस महामारी की चपेट में आ जाएं। सावधानी यह भी बरतनी होगी कि कोविड उपचार में जुटे डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों का उनकी क्षमता से ज़्यादा दोहन न हो। अन्यथा ये व्यवस्था भी चरमरा जाएगी।


Monday, April 19, 2021

कोरोना आपका धर्म नहीं पूछता


पिछले वर्ष कोरोना ने जब अचानक दस्तक दी तो पूरी दुनिया थम गई थी। सदियों में किसी को कभी ऐसा भयावह अनुभव नहीं हुआ था। तमाम तरह की अटकलें और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया। एक दूसरे देशों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगने लगे। चीन को सबने निशाना बनाया। पर कुछ तो राज की बात है कोरोना कि दूसरी लहर में। जब भारत की स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था लगभग अस्त-व्यस्त हो गई है तो चीन में इस दूसरी लहर का कोई असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा? क्या चीन ने इस महामारी के रोकथाम के लिए अपनी पूरी जनता को टीके लगवा कर सुरक्षित कर लिया है? 


कोविड की पिछली लहर आने के बाद से ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इसके मूल कारण और उसका तोड़ निकालने की मुहिम छेड़ दी थी। पर भारत में जिस तरह कुछ टीवी चैनलों और राजनैतिक दलों ने कोविड फैलाने के लिए तबलीकी जमात को ज़िम्मेदार ठहराया और उसके सदस्यों को शक की नज़र से देखा जाने लगा वो बड़ा अटपटा था। प्रशासन भी उनके पीछे पड़ गया। जमात के प्रांतीय अध्यक्ष के ख़िलाफ़ ग़ैर ज़िम्मेदाराना भीड़ जमा करने के आरोप में कई क़ानूनी नोटिस भी जारी किए गये। दिल्ली के निज़ामुद्दीन क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया। यही मान लिया गया कि चीन से निकला यह वाइरस सीधे तबलीकी जमात के कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए ही आया था। ये बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया था। माना कि मुसलमानों को लक्ष्य करके भाजपा लगातार हिंदुओं को अपने पक्ष में संगठित करने में जुटी है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जानता के बीच गैरवैज्ञानिक अंधविश्वास फैलाया जाए।   



जो भी हो शासन का काम प्रजा की सुरक्षा करना और समाज में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस तरह के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये से समाज में अशांति और अराजकता तो फैली ही, जो ऊर्जा और ध्यान कोरोना के उपचार और प्रबंधन में लगना चाहिए थी वो ऊर्जा इस बेसिरपैर के अभियान में बर्बाद हो गई। हालत जब बेक़ाबू होने लगे तो सरकार ने कड़े कदम उठाए और लॉकडाउन लगा डाला। उस समय लॉकडाउन का उस तरह लगाना भी किसी के गले नहीं उतरा। सबने महसूस किया कि लॉकडाउन लगाना ही था तो सोच समझ कर व्यावहारिक दृष्टिकोण से लगाना चाहिए था। क्योंकि उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस महामारी का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए देश भर में काफ़ी अफ़रा तफ़री फैली। जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाजा करोड़ों गरीब मज़दूरों को झेलना पड़ा। बेचारे अबोध बच्चों के लेकर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गाँव पहुँचे। लॉकडाउन में सारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओं पर ही केंद्रित रहा। जिसकी वजह से धीरे धीरे स्थित नियंत्रण में आती गई। उधर वैज्ञानिकों के गहन शोध के बाद कोरोना की वैक्सीन तैयार कर ली और टीका अभियान भी चालू हो गया। जिससे एक बार फिर समाज में एक उम्मीद की किरण जागी। इसलिए सभी देशवासी वही कर रहे थे जो सरकार और प्रधान मंत्री उनसे कह रहे थे। फिर चाहे कोरोना भागने के लिए ताली पीटना हो या थाली बजाना। पूरे देश ने उत्साह से किया। 


ये बात दूसरी है कि इसके बावजूद जब करोड़ों का प्रकोप नहीं थमा तो देश में इसका मज़ाक़ भी खूब उड़ा। क्योंकि लोगों का कहना था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।


लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब देश की अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चलने लगी थी तो कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से उम्मीद तोड़ दी है। आज हर तरफ़ से ऐसी सूचनाएँ आ रही हैं कि हर दूसरे घर में एक न एक संक्रमित व्यक्ति है। अब ऐसा क्यों हुआ? इस बार क्या फिर से उस धर्म विशेष के लोगों ने क्या एक और बड़ा जलसा किया? या सभी धर्मों के लोगों ने अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटा ली और सरकार या मीडिया ने उसे रोका नहीं? तो क्या फिर अब इन दूसरे धर्मावलम्भियों को कोरोना भी दूसरी लहर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए? ये फिर वाहियात बात होगी। 


कोरोना का किसी धर्म से न पहले कुछ लेना देना था न आज है। सारा मामला सावधानी बरतने, अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने और स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल प्रबंधन का है। जिसमें कोताही से ये भयावह स्थित पैदा हुई है।


इस बार स्थित वाक़ई बहुत गम्भीर है। लगभग सारे देश से स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें आ रही है। संक्रमित लोगों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है और अस्पतालों में इलाज के लिए जगह नहीं है। आवश्यक दवाओं का स्टॉक काफ़ी स्थानों पर ख़त्म हो चुका है। नई आपूर्ति में समय लगेगा। शमशान घाटों तक पर लाईनें लग गई हैं। स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है। मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ़ के हाथ पैर फूल रहे हैं। 


इस अफ़रा तफ़री के लिए लोग चुनाव आयोग, केंद्र व राज्य सरकारों, राजनेताओं और धर्म गुरुओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। जिन्होंने चुनाव लड़ने या बड़े धार्मिक आयोजन करने के चक्कर में सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। आम जनता में इस बात का भी भारी आक्रोश है कि देश में हुक्मरानों और मतदाताओं के लिए क़ानून के मापदंड अलग अलग हैं। जिसके मतों से सरकार बनती है उसे तो मास्क न लगाने पर पीटा जा रहा है या आर्थिक रूप से दंडित किया जा रहा है। जबकि हुक्मरान अपने स्वार्थ में सारे नियमों को तोड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर नॉर्वे का एक उदाहरण काफ़ी वाईरल हो रहा है वहाँ सरकार ने आदेश जारी किया था कि 10 से ज़्यादा लोग कहीं एकत्र न हों पर वहाँ की महिला प्रधान मंत्री ने अपने जन्मदिन की दावत में 13 लोगों को आमंत्रित कर लिया। इस पर वहाँ की पुलिस ने प्रधान मंत्री पर 1.75 लख रुपय का जुर्माना थोक दिया, यह कहते हुए अगर यह गलती किसी आम आदमी ने की होती तो पुलिस इतना भारी दंड नहीं लगाती। लेकिन प्रधान मंत्री ने नियम तोड़ा, जिनका अनुसरण देश करता है, इसलिए भारी जुर्माना लगाया। प्रधान मंत्री ने अपनी गलती मानी और जुर्माना भर दिया। हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए नहीं थकते। पर क्या ऐसा कभी भारत में हो सकता है? हो सकता तो आज जनता इतनी बदहाली और आतंक में न जी रही होती।

Monday, April 12, 2021

कोरोना की दूसरी लहरः सरकार और जनता


पिछले साल हम अति उत्साह में अपना सीना तान रहे थे कि कोरोना को नियंत्रित करने में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है। लेकिन आज हम फिर भयाक्रांत हैं। कोरोना से लड़ने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अपने अपने तरीके से भिन्न-भिन्न कदम उठा रही हैं। जहां असम, बंगाल और केरल जैसे चुनावी राज्यों में कोई प्रतिबंध नहीं है, वहीं दूसरे कई राज्यों में मास्क न पहनने पर पुलिस पिटाई भी कर रही है और चालान भी। ये बात लोगों की समझ में नहीं आ रही कि जिन राज्यों में चुनाव होता है वहाँ घुसने से कोरोना क्यों डरता है? इसका जवाब न तो किसी सरकार के पास है न तो किसी वैज्ञानिक के पास है।  


जिस तरह कुछ राज्यों में कोरोना की रोकथाम के लिए रात का कर्फ्यू लगाया गया है, उससे लोगों को भय सता रहा है कि कहीं चुनावों के बाद फिर से लॉकडाउन न लगा दिया जाए। पिछले लॉकडाउन का उद्योग और व्यापार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा था, जिससे देश की अर्थव्यवस्था अभी उबर नहीं पाई है। सबसे ज्यादा मार तो छोटे व्यापारियों और कामगारों ने झेली। इसलिए आज कोई भी लॉकडाउन के पक्ष में नहीं है।  



छोटे व्यापारी की तो समझ में आती है लेकिन उद्योगपति अनिल अम्बानी के बेटे अनमोल अम्बानी तक ने ट्वीट की एक श्रृंखला पोस्ट कर पूछा है कि, ‘जब फिल्म अभिनेता शूटिंग कर सकते हैं, क्रिकेटर देर रात तक क्रिकेट खेल सकते हैं, नेता भारी जनसमूह के साथ रैलियां कर सकते हैं, तो व्यापार पर ही रोक क्यों? हर किसी का काम उनके लिए महत्वपूर्ण है।’ अनमोल ने इसके साथ ही अपने ट्वीट में कोरोना श्पैनडेमिकश् के प्रसार को रोकने के लिए लगाए जाने वाले लॉकडाउन को श्स्कैमडेमिकश् तक कह दिया। 


उधर भारत के वैज्ञानिकों ने दिन रात शोध और कड़ी मेहनत के बाद कोरोना का वैक्सीन बनाया है। पर बहुत कम लोगों को यह पता है कि कोरोना महामारी को वैक्सीन की ढाल देकर भारतीय कम्पनी भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोरोना की वैक्सीन ‘कोवैक्सिन’ की सफलता के पीछे हैदराबाद के समीप ‘जिनोम वैली’ का हाथ है। ‘जिनोम वैली’ असल में एक जीव विज्ञान के शोध का केंद्र है। इस समय यह दुनिया में तीसरे दर्जे पर है, जहां लाखों की तादाद में वैक्सीन की ईजाद और निर्माण होता है। 1996 में जब एक प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक डा कृष्णा इला ने भारत बायोटेक कम्पनी की स्थापना ‘जिनोम वैली’ में की थी तो उन्हें इस बात की जरा भी कल्पना नहीं होगी कि एक दिन श्जिनोम वैली’ ही दुनिया को कोरोना महामारी से लड़ने वाली वैक्सीन प्रदान करेगी।


‘जिनोम वैली’ को विकसित करने में तेलंगाना काडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बी पी आचार्य और उनकी टीम महत्वपूर्ण योगदान रहा। जिन्होंने रात-दिन एक कर के इसे कामयाबी को हासिल किया है। आज ‘जिनोम वैली’ जीव विज्ञान का एक ऐसा केंद्र बन चुका है जहां 300 से अधिक दवा कम्पनियाँ हैं। जो न सिर्फ कोरोना व अन्य बीमारियों के वैक्सीन का निर्माण कर रही हैं, बल्कि 20 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दे रही है। यह देश के लिए एक गर्व की बात है। कई दशकों पहले उठाए गए इस कदम की बदौलत आज हम कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में सक्षम हुए हैं। यह डा कृष्णा इला की दूरदर्शिता और बी पी आचार्य जैसे कर्मठ अधिकारियों की वजह से ही संभव हुआ है।

 

बावजूद इस सबके कोरोना की दूसरी लहर के साथ कोरोना पूरे दम से लौट आया है। कुछ ही महीनों पहले जब इसका असर कम होता दिखा तो लोगों ने इस विषय में सावधानी बरतना कम कर दिया था। चोटिल अर्थव्यवस्था, राज्यों में चुनाव और अन्य मुद्दों पर जनता का ध्यान ज्यादा जा रहा था। लेकिन हाल की कुछ हफ्तों में कोरोना ने जो तेजी पकड़ी है उससे आम आदमी और सरकारी तंत्र एक बार फिर से चिंता में है।


उधर दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। इस फैसले के अनुसार यदि आप अपनी बंद गाड़ी में अकेले भी सफर कर रहे हैं तो भी मास्क लगाना अनिवार्य है। यह बात समझ से परे है इसलिए सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर काफी बहस छिड़ गई है। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि बंद गाड़ी में अकेले सफर करने वाले को कोरोना के संक्रमण का खतरा अधिक है या राजनैतिक रैलियों और कार्यक्रमों में बिना मास्क आने वाली भीड़ को? उधर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का एक वीडियो वायरल हो रहा है जहां कुछ अधिकारी एक दुकानदार को ठीक से मास्क न पहनने पर धमकाते हुए नजर आ रहे हैं। गर्मागर्मी  के बाद मामला शांत तो हो जाता है लेकिन उस वीडियो में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो अधिकारी उस व्यापारी को धमका रहा है उसने स्वयं मास्क ठीक से नहीं लगा रखा। ऐसे दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं? कई शहरों में पुलिस वाले मास्क न पहनने पर आम लोगों की बेरहमी से पिटाई भी कर रहे हैं जिससे भड़की जनता ने भी पुलिसवालों की पिटाई की है। सरकारों को पुलिसवालों को ये निर्देश देना होगा कि वे नियमों के पालन में कड़ाई तो बरतें पर मानवीय संवेदनशीलता के साथ। अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। पर साथ ही कोरोना की दूसरी लहर में बढ़ते हुए मरीजों और मौतों को भी हमें गम्भीरता से लेना होगा और सभी सावधानियाँ बरतनी होगी। लॉकडाउन की स्थित न आए इसके लिए हम सबको भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।


संतोष की बात यह है कि कोरोना की दूसरी लहर भारत में तब आई है जब हमारे पास इससे लड़ने के लिए वैक्सीन के रूप में एक नहीं बल्कि दो-दो हथियार हैं। पर अभी तो देश के कुछ ही लोगों को वैक्सीन मिली है। फिर भी भारत ने कोरोना वैक्सीन को दूसरे देशों में भेज दिया है। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दृष्टि से सराहनीय कदम हो सकता है, पर देशवासियों की सेहत और जिंदगी बचाने की दृष्टि से सही कदम नहीं था। सरकारों को वैक्सीन लगाने की मुहिम को और तेज करना होगा, जिससे इस महामारी के कहर से बचा जा सके।

Monday, November 23, 2020

कोरोना : नज़रिया अपना अपना


पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना के क़हर से निजात मिलने का इंतेज़ार कर रही है। पर कोरोना को लेकर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग नज़रिए हैं। दुनिया में जिन परिवारों ने कोरोना के चलते अपने प्रियजनों को खो दिया है उनके लिए ये त्रासदी गहरे ज़ख़्म दे चुकी है। जो मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही पॉज़िटिव से नेगेटिव हो गए वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। जिनको कोरोना ने अबतक नहीं पकड़ा है वे पशोपेश में हैं। या तो लापरवाह हैं या किसी अनहोनी की आशंका से सहमे सहमे से दिन काट रहे हैं।
 

उधर सरकारें और चिकित्सकों की जमात भी अलग-अलग ख़ेमों में बटी हुई है। सबका सिरमौर बना विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोरोना को लेकर शुरू से विवादों के घेरों में है। इसके अध्यक्ष पर चीन से मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। जिस तरह कोरोना को लेकर इस संगठन ने शुरू में निर्देश जारी किए थे और आनन फानन में सारी दुनिया में लॉकडाउन थोप दिया गया।जिस तरह इस महामारी को लेकर चीन की रहस्यमी भूमिका रही है, उस सबसे तो ये पूरा मामला एक वैश्विक षड्यंत्र जैसा लगता है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। इस जमात में बहुत बड़ी तादाद में दुनिया के अनेक देशों के डाक्टर, शोधकर्ता और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। जो हर दिन सोशल मीडिया पर अनेक वक्तव्यों, साक्षात्कारों या तर्कों के ज़रिए कोरोना को षड्यंत्र सिद्ध करने में जुटे हैं। 

पर जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो षड्यंत्र के सिद्धांत को कोरी बकवास बताते हैं।वे हरेक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जिस तरह अतीत में ऐसे कई वैश्विक षड्यंत्र हुए हैं जिनमें नाहक दुनिया में आतंक फैलाया गया और उससे दवा कंपनियों ने खर्बों रुपय का मुनाफ़ा कमाया। 


1984 की बात है जब मै लंदन में था तो अचानक पेरिस से ख़बर उड़ी कि सुप्रसिद्ध बॉलीवुड सेलिब्रिटी रॉक हडसन को एड्स हो गया है। अगले ही वर्ष, वह अपनी एड्स की बीमारी का खुलासा करने वाली हॉलीवुड की कुछ पहली हस्तियों में से एक बन गये। 1985 में, 59 साल की उम्र में, हडसन एड्स से मरने वाली पहली प्रमुख हस्ती थे। उसके बाद पूरे विश्व में एड्स को लेकर जो भारी प्रचार हुआ, आतंक फैलाया गया, एचआईवी टेस्ट का जाल फैलाया गया। उसके मुक़ाबले एड्स से मारने वालों की संख्या नगण्य थी, अगर एड्स कोई बीमारी थी तो। पर तभी दुनिया के 1000 मशहूर डाक्टरों, जिनमें 3 नोबल पुरस्कार विजेता भी थे, ने बयान जारी करके (पर्थ उद्घोषणा) दुनिया को चेताया था कि एड्स कोई बीमारी नहीं है। ऐसी सब वैश्विक (तथाकथित) बीमारियों से मारने वालों की संख्या से कई गुना ज़्यादा लोग अशुद्ध पेयजल, सड़क दुर्घटनाओं, कुपोषण, मधुमेय और हृदयाघात से मरते हैं। जितना पैसा भारत सरकार ने एड्स के प्रचार-प्रसार पर खर्च किया, उसका एक हिस्सा अगर आम आदमी को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर खर्च किया जाता तो बहुत जानें बच सकती थीं। इन सब सवालों को 20 बरस पहले अपने इसी कॉलम में मैंने ज़ोर शोर से उठाया थ और मणिपुर और हरियाणा जैसे राज्यों में एड्स संक्रमण के ‘नाको’ के आँकड़ों को झूठा सिद्ध किया था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दिनों में कोरोना को लेकर भी किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय घोटाले का सप्रमाण पर्दाफ़ाश हो जाए।

जहां तक मौजूदा दिशा निर्देशों का सवाल है, वैश्विक माहौल को देखते हुए इन हिदायतों को मानने में कोई नुक़सान भी नहीं है। मास्क पहनना, बार-बार साबुन से हाथ धोना या सामाजिक दूरी बनाए रखना ऐसे निर्देश हैं जिन्हें मानना बहुत कठिन काम नहीं है। पर एक बात सभी चिकित्सक एक मत हो कर कह रहे हैं। चाहे वो ऐलोपैथि के हों, आयुर्वेद के हों या होमयोपैथि के - और वो ये कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने से कोविड ही नहीं अनेक दूसरी बीमारियों से भी सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। लगातार गर्म पानी पीना, दिन में कम से कम दो बार भाप लेना, आयुर्वेद में सुझाए गये काढ़े पीना, नियमित व्यायाम करना और घर का शुद्ध पौष्टिक खाना खाना। 

कोविड के आतंककारी दौर में पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों की, ख़ासकर वैदिक संस्कृति की , श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और अब अपना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के हर प्रांत में भोजन में हल्दी सदियों से प्रयोग होती आ रही है। पर 2 दशक पहले तक पश्चिमी देशों के लोग भारतीय सब्ज़ी की करी (तरी) को घृणा की निगाह से देखते थे। गोरे बच्चे भारतीय सहपाठियों के लंच बॉक्स में हल्दी पड़ी सब्ज़ी को देख कर उसे ‘टट्टी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे। आज पूरी दुनिया हल्दी की वकालत कर रही है। दूसरे व्यक्तियों से अकारण या सामाजिक शिष्टाचार के तहत गले या हाथ मिलाना वैदिक संस्कृती में वर्जित था। इसलिए भारतीय समाज में छुआछूत की प्रथा थी। घर में बालक का जन्म हो या किसी की मृत्यु या चेचक या पीलिया जैसा बुख़ार, इन सब परिस्थितियों में 15 से 40 दिन का सूतक मानने की प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जिसे आज बड़े ढोल ताशे के साथ ‘कुआरंटाइन’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इसी तरह भोजन पकाने और खिलाने की भारतीय संस्कृति में शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। आम भारतीय हरेक जगह, हर परिस्थिति में बना भोजन खाना पसंद नहीं करता था, जिसे आधुनिकता की मार ने भ्रष्ट कर दिया। 

कोरोना के आतंक में दुनिया इस बात के महत्व को भी समझ रही है। भविष्य में जो भी हो कोरोना ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 

Monday, September 28, 2020

व्यापार और उद्योग जगत में भारी हताशा क्यों है?

कोविड में चीन की संदिग्ध भूमिका के बाद उम्मीद जताई जा रही थी विदेशी निवेशक चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत में भारी मात्रा में विनियोग करेंगे। क्योंकि यहाँ श्रम सस्ता है और एक सशक्त प्रधान मंत्री देश चला रहे हैं। पर अभी तक इसके कोई संकेत नहीं हैं। दुनिया की मशहूर अमरीकी मोटरसाइकिल निर्माता कम्पनी ‘हार्ले-डेविडसन’ जो 10-15 लाख क़ीमत की मोटरसाइकिलें बनाती है भारत से अपना कारोबार समेट कर जाने की तैयारी में हैं। पिछले दशक में भारत में तेज़ी से हुई आर्थिक प्रगति ने दुनिया के तमाम ऐसे निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया था। जिन्हें उम्मीद थी कि उनके महँगे उत्पादनों का भारत में एक बड़ा बाज़ार तैयार हो गया है। पर आज ऐसा नहीं है। व्यापार और उद्योग जगत के लोगों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। 


लॉकडाउन हटने के बाद से देश के छोटे बड़े हर नगर में बाज़ारों को पूरी तरह खुले दो महीने हो चुके हैं फिर भी बाज़ार से ग्राहक नदारद है। रोज़मर्रा की घरेलू ज़रूरतों जैसे राशन और दवा आदि को छोड़ कर दूसरी सब दुकानों में सन्नाटा पसरा है। सुबह से शाम तक दुकानदार ग्राहक का इंतेज़ार करते हैं पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। जबकि बिजली बिल, दुकान का किराया, व कर्मचारियों का वेतन पहले की तरह ही है। यानी खर्चे पहले जैसे और आमदनी ग़ायब। इससे व्यापारियों और छोटे कारख़ानेदारों में भारी निराशा व्याप्त है। एक सूचना के अनुसार अकेले बेंगलुरु शहर में हज़ारों छोटे दुकानदार दुकानों पर ताला डाल कर भाग गए हैं क्योंकि उनके पास किराया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। होटल, पर्यटन, वायुसेवा, परिवहन आदि क्षेत्रों में तो भारी मंदी व्याप्त है ही। हर वर्ष पितृपक्ष के बाद शदियों और त्योहारों का भारी सीज़न शुरू हो जाता था, माँग में तेज़ी से उछाल आता था, जहां आज पूरी तरह अनिश्चिता छाई है। 


भवन निर्माण क्षेत्र का तो और भी बुरा हाल है। पहले जब भवन निर्माताओं ने लूट मचा रखी थी तब भी ग्राहक लाईन लगा कर खड़े रहते थे। वहीं आज ग्राहक मिलना तो दूर भवन निर्माताओं को अपनी डूबती कम्पनीयां बचाना भारी पड़ रहा है। सरकार का यह दावा सही है कि भवन निर्माण के क्षेत्र में काला धन और रिश्वत के पैसे का बोल बाला था। जो मौजूदा सरकार की कड़ी नीतियों के कारण ख़त्म हो गया है। मगर चिंता की बात यह है कि सरकार की योजनाओं के क्रियाँवन में कमीशन और रिश्वत कई गुना बढ़ गई है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आँकलन के अनुसार भी भारत में भ्रष्टाचार घटा नहीं, बढ़ा है। जिस पर मोदी जी को ध्यान देना चाहिए। 


सरकार के आर्थिक पैकेज का देश की अर्थव्यवस्था पर उत्तप्रेरक जैसा असर दिखाई नहीं दिया। कारोबारियों का कहना है कि सरकार बैंकों से क़र्ज़ लेने की बात करती है पर क़र्ज़ लेकर हम क्या करेंगे जब बाज़ार में ग्राहक ही नहीं है। लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई है। उनको आज परिवार पालना भारी पड़ रहा है। ऐसे में बाज़ार में माँग कैसे बढ़ेगी? माँग ही नहीं होगी तो क़र्ज़ लेकर व्यापारी या कारख़ानेदार और भी गड्ढे में गिर जाएँगे। क्योंकि आमदनी होगी नहीं और ब्याज सिर पर चढ़ने लगेगा। 


व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरण-पोषण भी करते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों और कोविड ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में बेरोजगारी और पढ़े लिखे युवाओं में हताशा फैल रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि ये दुर्दिन कब तक चलेंगे और उनका भविष्य कैसा होगा?


मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक और उसके जासूस भेष बदल-बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि मोदी जी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर ज़मीनी हक़ीक़त बताते हैं, तो मोदी सरकार अपने खिलाफ टिप्पणियों का भी स्वागत करेगी। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा और समाधान की तरफ़ सामूहिक प्रयास से कोई रास्ता निकलेगा। एक बात और महत्वपूर्ण है, इस सारे माहौल में नौकरशाही को छोड़ कर शेष सभी वर्ग ख़ामोश बैठा लिए गए हैं। जिससे नौकरशाही का अहंकार, निरंकुशता और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। ये ख़तरनाक स्थिति है, जिसे नियंत्रित करना चाहिए। हर क्षेत्र में बहुत सारे योग्य व्यक्ति हैं जो चुपचाप अपने काम में जुटे रहे हैं, उन्हें ढूँढकर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

Monday, August 31, 2020

कोरोना महामारी: आगे का सफ़र


पिछले कुछ हफ़्तों में सरकार ने कोरोना से सम्बंधित कई दिशा निर्देश दिए हैं। ख़ासतौर पे भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से दिए गए ‘अनलॉक’ के दिशा निर्देश जिनका पालन सभी राज्य सरकारों को करना अनिवार्य है। लेकिन इन दिशा निर्देशों में प्रत्येक राज्य को अपने राज्य की मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार इनमें संशोधन करने का भी प्रावधान है। अगर किसी राज्य में संक्रमण तेज़ी से बढ़ रहा है तो वहाँ सख़्ती की ज़रूरत है। इसी प्रकार अगर संक्रमण नियंत्रण में है तो छूट भी दी जा रही है। दिल्ली में तो अब मेट्रो रेल को भी सशर्त खोलने की तैयारी है। कारण स्पष्ट है जनता को हो रही असुविधा और मेट्रो को हो रहे करोड़ों के नुक़सान से बचना अनिवार्य हो चुका है। लेकिन सावधानी तो हम सबको ही बरतनी पड़ेगी।
 

पिछले दिनों मई 2020 की एक खबर पढ़ने में आई जिसका आधार अमरीका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डा फाहिम यूनुस का शोध है। डा यूनुस मेरीलैंड विश्वविद्यालय के संक्रमण रोग विभाग के मुखिया हैं। उनके अनुसार कोरोना के वाइरस से जल्द छुटकारा पाना आसान नहीं है। हां रूस ने इसके इंजेक्शन के ईजाद का दावा ज़रूर किया है लेकिन चीन में जो लोग कोरोना से ठीक हुए थे उनमें से कुछ को कोरोना दोबारा होने की भी खबर है। डा फाहिम के अनुसार हमें इस बीमारी के साथ हंसी ख़ुशी रहने की आदत डाल लेनी चाहिए और नाहक परेशान या घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। 


उनके अनुसार अगर कोरोना का वाइरस हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका है तो अत्यधिक पानी पीने से वो बाहर नहीं निकलेगा। हम बस बाथरूम ज़्यादा जाने लगेंगे। 


इस वाइरस पे किसी भी तरह के मौसम का भी असर नहीं होगा। उनकी इस बात पर यक़ीन इसलिए होता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में भी कोरोना के मरीज़ों की संख्या विश्वभर में तेज़ी से बढ़ी ही है। 


लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है। यदि हमारे घर में कोई भी संक्रमित नहीं है तो हमें बार बार घर की वस्तुओं को डिसइन्फ़ेक्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है। 


कोरोना के वाइरस आम फ़्लू की तरह ही होते हैं जो खाने कि वस्तुओं को मंगाने से नहीं फैलते। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल पम्प और एटीएम आदि पे जाने से संक्रमण नहीं फैलता। बस हाथ धोना और दूरी बनाए रखना अहम है। 


डा यूनुस के अनुसार यदि कोई इससे संक्रमित है और वो स्टीम या सौना लेने के लिए जाता है तो उसके शरीर से वाइरस नहीं निकल सकता। ऐसी कई और एलेर्जी होती हैं जिनके कारण भी इंसान की सूंघने और स्वाद की शक्ति खो जाती है। अभी तक इस लक्षण को इसका एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता। 


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। 


इन दिनों देखा गया है कि जो लोग घर में खाना नहीं बना पाते थे, जैसे कि विद्यार्थी आदि, वो भी मजबूरन खाना बनाने लग गए हैं। लेकिन अगर आप बाज़ार से खाना मँगवाते हैं तो उसे एक बार दोबारा गर्म कर लेना बेहतर रहेगा। 


कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाती, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है लेकिन वही जूते जो आपने दिन भर पहने हैं और उनसे आपको संक्रमण नहीं हुआ तो जूतों से संक्रमण का कोई लेना देना नहीं है। 


कुछ लोग जो अधिक सावधानी बरतने के लिए दस्ताने पहनते हैं उन्हें भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि दस्तानों पे यदि वाइरस आ भी जाता है तो आसानी से जाता नहीं। उन दस्तानों को फेंका ही जाता है। हाथ धोना ही एकमात्र उपाय है जो वाइरस को बहा देता है। इसलिए अपने मुह या आँख को छूने से पहले हाथ अवश्य धोएँ। हाथों को धोने के लिए आम साबुन का प्रयोग ही करें एंटी-बेक्टीरिया साबुन का नहीं क्योंकि कोरोना एक वाइरस है बेक्टीरिया नहीं। 


अपने 20 वर्षों से अधिक अनुभव के चलते डा फाहिम यूनुस ने ये सब हिदायतें दी हैं और कहा है कि हमें सतर्क रहने की ज़रूरत है परेशान रहने की नहीं। 


ये तो डा फाहिम यूनुस के विचार हैं पर जिस तरह अभी हाल में चंडीगढ़ में हरियाणा के मुख्य मंत्री और स्पीकर व अन्य लोगों को कोरोना हुआ है, जिस तरह भारत में कोरोना संक्रमण की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है, जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसलिए जो सावधानियाँ सुझाई गई हैं उन्हें गम्भीरता से लेना चाहिए। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, June 1, 2020

देनहार कोई और है: भेजत जो दिन रैन

कोरोना के संकट के दौर में अब्दुल रहीम खानखाना की इन पंक्तियों को सिद्ध करने वाले छोटे बड़े कई लोगों का ज़िक्र आपने देश के हर इलाक़े में सुना ज़रूर होगा। जिन्होंने इन दो महीनों में ये सिद्ध कर दिया है कि आम जनता का जितना ख़्याल स्वयमसेवी संस्थाएँ, सामाजिक संगठन और निजी स्तर पर व्यक्ति करते हैं, उसका मुक़ाबला कोई केंद्र या राज्य सरकार नहीं कर सकती। इन महीनों में किसी भी दल के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक जनता के बीच उत्साह से सेवा करते दिखाई नहीं दिए, क्यों ? कारण स्पष्ट है कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था आज तक भ्रष्टाचार के कैन्सर से मुक्त नहीं हुई है। प्रशासनिक अधिकारी हमेशा से भीषण आपदा में भी मोटी कमाई के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर चाहे जनता बाढ़, भूकम्प, चक्रवात या महामारी किसी की भी मार झेले, उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब होता है, जनसेवा से नहीं। इसके अपवाद भी होते हैं ।पर उनका प्रतिशत बहुत कम होता है। इसीलिए सरकार को दान देने के बजाए लोग स्वयं धर्मार्थ कार्य करना बेहतर समझते हैं।    

सेवा को अपना कर्तव्य मान कर करने वाले ये लोग, नेताओं और अफ़सरों की तरह दान देने से ज़्यादा अपनी फ़ोटो प्रकाशित करने में रुचि नहीं लेते। मध्य-युगीन संत रहीम जी दिन भर दान देते थे, पर अपना मुँह और आँखें झुका कर। उनकी यह ख्याति सुनकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें पत्र भेज कर पूछा कि आप दान देते वक्त ऐसा क्यों करते हैं ? तब रहीम जी ने उत्तर में लिखा, 
‘देनहार कोई और है, 
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें,
तास्सो नीचे नयन ।।’

पुणे के ऑटो चालक अक्षय कोठावले की मिसाल लें। प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिए अक्षय कोठावले ने अपनी शादी के लिए जोड़े गए 2 लाख रुपयों को खर्च करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। ग़ौरतलब है कि इसी 25 मई को अक्षय की शादी होनी थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते उसे स्थगित करना पड़ा। जब अक्षय ने सड़कों पर बदहाल और भूखे लोगों को देखा तो उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर इन सभी के लिए कुछ करने की ठानी और शादी के लिए बचाई रक़म मज़दूरों को भोजन कराने में खर्च कर दी। आज अक्षय की हर ओर सराहना हो रही है। 

बॉलीवुड में सोनू सूद भले ही आजतक खलनायक की भूमिका निभाते रहे हों, लेकिन असल ज़िंदगी में उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के लिए जो किया है, उससे पूरे भारत में उनकी जय-जयकार हो रही है। सोनू सूद ने सैंकड़ों बसों का इंतेज़ाम किया और 12 हज़ार से अधिक लोगों को उनके घर पहुँचाया। इतना ही नहीं सोनू ने 177 लोगों को एक विशेष विमान द्वारा भी उनके घर तक पहुँचाया। ये सब तब हुआ जब केंद्र और राज्य सरकारें इसी विवाद में उलझी रहीं कि ट्रेन का कितना किराया केंद्र सरकार देगी और कितना राज्य सरकार। या फिर मज़दूरों को उनके शहर तक पहुँचाने वाली बसें पूरी तरह से फ़िट हैं या नहीं। सोनू सूद से कहीं ज़्यादा धनी और मशहूर फ़िल्मी सितारे मुंबई में रहते हैं । जो न सिर्फ़ फ़िल्मों से कमाते हैं बल्कि हर निजी या सरकारी विज्ञापनों में छाए रहते हैं और करोड़ों रुपया हर महीने इनसे भी कमाते हैं। पर उनका दिल ऐसे नहीं पसीजा। 

दूसरी ओर दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के खलनायक प्रकाश राज ने न सिर्फ़ मज़दूरों को खाना देने और घर पहुंचाने में मदद की। बल्कि उन्होंने अपने फार्म हाउस पर दर्जनों लोगों के रहने के इंतजाम भी किया। लॉकडाउन के इस मुश्किल वक़्त में प्रकाश राज की ये दरियादिली लोगों को पसंद आई। सोशल मीडिया पर जहां एक समय पर प्रकाश राज के कुछ बयानों को लेकर काफ़ी हमले हो रहे थे और उन्हें रियल लाइफ़ का खलनायक भी कहा जा रहा था, उनकी इस सेवा से अब हर कोई उनकी तारीफ़ कर रहा है। किसी विचारधारा या दल से सहमत होना या न होना आपका निजी फ़ैसला हो सकता है, लेकिन संकट में फँसे लोगों की मदद करना यह बताता है कि आपके अंदर एक अच्छा इंसान बसता है। जिन मज़दूरों को राहत मिल रही है वो राहत देने वाले से यह थोड़े ही पूछ रहे हैं कि आप कौन से दल के समर्थक हैं, उन्हें तो राहत से मतलब है।  

सेवा के इस काम में देश भर से अनेक ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिन्हें सुन कर हर सक्षम व्यक्ति को शर्मिंदा होना चाहिए। कुछ ऐसा ही जज़्बा मुंबई की 99 वर्षीय महिला में भी देखा गया। सोशल मीडिया में ज़ाहिद इब्राहिम ने एक विडियो डाला है, जिसमें ये बुजुर्ग महिला प्रवासी मज़दूरों के लिए खाने का पैकेट तैयार करती नज़र आ रही हैं। मास्क बनाने से लेकर खाना बनाने तक के काम में पूरे देश में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर योगदान किया है। 

गुरुद्वारों की तो बात ही क्या की जाए ? देश में जब कभी, जहां कहीं, आपदा आती है, सिख समुदाय बड़ी उदारता से सेवा में जुट जाता है। इस दौरान भी कोरोना की परवाह किए बग़ैर सिख भई बहनों ने बड़े स्तर पर लंगर चलाने का काम किया। वैसे भी गुरुद्वारों में लंगर सबके लिए खुले होते हैं। जहां अमीर गरीब का कभी कोई भेद दिखाई नहीं देता। 

इसी तरह देश के कुछ उद्योगपतियों ने भी निजी स्तर पर या अपनी कम्पनियों के माध्यम से कोरोना के क़हर में जनता की बड़ी मदद की है। जैसे रतन टाटा व अन्य होटल मालिकों ने देश भर में अपने होटलों को मेडिकल स्टाफ़ या कवारंटाइन के लिए उपलब्ध कराया। उधर बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने बड़ी मात्रा में होम्योपैथी की दवा बाँट कर पुणे के पुलिसकर्मियों और लोगों को कोरोना की मार से बचाया। सुना है कि होम्योपैथी में अटूट विश्वास रखने वाले राजीव बजाज का भारत सरकार को प्रस्ताव है कि वे पूरे देश के नागरिकों को कोरोना से बचने के लिए होम्योपैथी की दवा मुफ़्त बाँटने को तैयार हैं, जिसकी लागत क़रीब 700 करोड़ आएगी। अगर यह बात सही है तो सरकार को उनका प्रस्ताव स्वीकारने में देर नहीं करनी चाहिए। 

‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।’ हर काल और हर समाज में परोपकार करने वालों की कभी कमी नहीं होती। सरकार का कर्तव्य है कि वह सत्ता को अफ़सरशाही के हाथों में केंद्रित करने की बजाय जनता के इन प्रयासों को प्रोत्साहित और सम्मानित करे, ताकि पूरे समाज में पारस्परिक सहयोग और सद्भावना की भावना पनपे, नकि सरकार पर परजीवी होने की प्रवृति।   

Monday, May 25, 2020

अब आगे की सोचें

लॉकडाउन से सबने ये समझ लिया है कि कोरोना के साथ कैसे जीना है। धीरे धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं। प्रवासी मज़दूरों की घर लौटने की भीड़ देश के हर महानगर व अन्य नगरों में व शराब की दुकानों के बाहर लगी लम्बी लाइनें इस बात का प्रमाण है कि लोगों के धैर्य का बांध अब टूट चुका है। बहुत से लोग मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते कोरोना से नहीं मरे तो भूख और बेरोज़गारी से लाखों लोग अवश्य मर जाएँगे। इसलिए जो भी हो इस क़ैद से बाहर निकला जाए और चुनौती का सामना किया जाए। 

जिनके पास घर बैठे खाने की सुविधा है और जिनका लॉकडाउन से कोई आर्थिक नुक़सान नहीं हो रहा उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लॉकडाउन कितने दिन अभी और चले।

उधर देश भर से तमाम सूचनाएँ आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी बात नहीं है। पारम्परिक पद्धतियों जैसे होमियोपैथी और आयुर्वेद ने बहुत सारे कोरोना पोज़िटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पे वायरल हो रहे हैं। और इसी बीच पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज़ ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान-बूझ कर कोरोना का इंफ़ेक्शन लें और फिर ठीक हो कर दिखाएं। उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया, उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नए नए हानिकारक प्रयोग किए। जिन्हें बाद में रद्द करना पड़ा। जैसे माँ के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक। पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया। 

जहां तक हम भारतीयों की बात है मैं हमेशा से इस बात पर ज़ोर देता आ रहा हूँ कि भारत का पारम्परिक भोजन, पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन, पारम्परिक औषधियाँ और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त राष्ट्र बन पाएँगे। रही बात कोरोनापूर्व के आधुनिक जीवन की तो कोरोनापूर्व वाला जीवन तो लौटने वाला नहीं। न उत्सवों में वैसी भीड़ जुटेगी, न वैसा पर्यटन होगा, न वैसे मेलजोल होंगे और न वैसी चमक दमक की ज़िंदगी। कुछ महीनों या कुछ सालों तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे। 

1978 में जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो किसी मंत्री या नेता के घर के चारों ओर न तो चार दिवारी होती थी, न सुरक्षा के इतने तामझाम । पर बढ़ते आतंकवाद और अपराध ने शासकवर्ग को हज़ारों किलों में क़ैद कर दिया है। इसी तरह न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के बाद से हवाई अड्डों पर सुरक्षा अचानक ही कई गुना बढ़ा दी गई। जिसका असर पूरी दुनिया में हुआ। शुरू में तो अटपटा लगा फिर लोगों ने सुरक्षा जाँच उपकरणों से गुजरने के लिए लम्बी लम्बी क़तारों में धीरज से खड़े रहने की आदत डाल ली। 

इसी तरह पूरी दुनिया पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने, गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे। चेहरे पर मास्क, बार बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना, जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी। इसी तरह अब लोग एक दूसरे को उपहार देने या फल, मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे।ऐसे सब लेन-देने ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफ़र से ही कर लिए जाएँगे। इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में माँ बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है।जहां तक सम्भव होगा दफ़्तर का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे। जिससे कम से कम सामाजिक सम्पर्क हो। 

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज़्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा। क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियाँ काफ़ी कम हो जाएँगी। लेकिन इसका बहुत बड़ा असर लोगों के मनोविज्ञान पर होगा। अनेक शोध प्रपत्रों में यह बात कही जा रही है कि इस तरह ऑनलाइन काम करने या पढ़ाई करने से लोगों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध और हताशा बढ़ेगी। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने सहपाठियों से मिल कर मस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं। खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है। ये सब उनसे छिन जाएगा तो कल्पना कीजिए कि हमारी अगली पीढ़ी के करोड़ों नौजवान कितने डरे सहमें और असंतुलित बनेंगे। इसलिए विश्व स्तर पर एक बहुत बड़ा तबका ऐसे वैज्ञानिकों, पत्रकारों व राजनेताओं का है जो बार बार इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि कोरोना का आतंक फैला कर सरकारें लोकतांत्रिक परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं, मानव अधिकारों का हनन कर रही हैं और राजनैतिक सत्ता का सीमित हाथों में नियंत्रण स्थापित कर रही हैं। यानी ये सब सरकारें तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस आरोप में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल हमें कोरोना के इस मायाजाल से काफ़ी समय तक उलझे रहना होगा और अपनी सोच और तौर तरीक़ों में भारी बदलाव लाना होगा।