Monday, November 23, 2015

महागठबंधन और राजग को युवाओं की चुनौती

 संसद सत्र शुरू होने वाला है। पक्ष और विपक्ष खम ठोकने को तैयार है। खूब शोर मचेगा, कोई काम नहीं होगा और टीवी चैनल चोंचे लड़वाएंगे। पर राष्ट्र की सबसे गंभीर समस्या पर कोई ध्यान नहीं देगा। चैंकाने वाला आंकड़ा है कि 2020 तक भारत में 21 करोड़ युवा बेरोजगार होंगे। क्या किसी दल के नेता को इस बात की चिंता है कि देश की इतनी बड़ी युवा शक्ति हताशा और संताप में जी रही है। सर्वेक्षण से यह पता चला है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपराधियों में अच्छी खासी तादाद ग्रेजुएट युवाओं की है। अभी तो दुनिया आईएसआईएस के आतंक से जूझ रही है। भारत पहले ही पंजाब, असम, नक्सलवाद जैसे अनेक हिंसक युवा आंदोलनों को झेल चुका है। भविष्य में ये 21 करोड़ नौजवान अगर हथियार उठा लें तो क्या हमारे हुक्मरान, उद्योगपति, व्यापारी और हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग चैन और सुरक्षा से जी पाएंगे ?

 मेक इन इंडिया की बात हो या महागठबंधन के नेताओं का दलित शोषित समाज को लेकर किए जाने वाला प्रलाप हो - कोई भी युवाओं की बेरोजगारी के प्रश्न का हल नहीं दे रहा है, न हल देने की तरफ सोच रहा है। हर चुनाव से पहले इन युवाओं को महीने-दो महीने का रोजगार देकर इनसे प्रचार करवा लिया जाता है और शेष 5 वर्ष इन्हें नौकरी दिलाने का वायदा करके छलावे में रखा जाता है। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में चपरासी के पद के लिए 368 रिक्तियों के लिए 23 लाख आवेदन आए। जिनमें से अधिकतर युवा ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक, एम.टेक एवं एमबीए थे। अगर इन सब युवाओं का साक्षात्कार भी लिया जाए, तो उसमें 4 वर्ष लग जाएंगे। जबकि चपरासी के पद की वांछित योग्यता 5वीं पास व साइकिल चलाना आता हो, यही थी। इसी तरह मध्य प्रदेश में चपरासी की 1333 रिक्तियों के लिए 4 लाख से अधिक बेरोजगारों ने परीक्षा दीं। जबकि इन पदों के लिए न्यूनतम योग्यता 8वीं पास थी, तो भी इस पद के लिए 62 हजार ग्रेजुएट, 15 हजार पोस्ट ग्रेजुएट और 1400 बी.टेक ने परीक्षा दी। यही हाल अन्य प्रांतों का भी है।

 देश के 527 शहरों के 5387 स्कूलों के शिक्षकों के माध्यम से उनके विद्यार्थियों की योग्यता का सर्वेक्षण करवाया गया, तो पता चला कि गुजरात के 62 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। उत्तर प्रदेश के 49 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। जबकि हरियाणा के 33 फीसदी छात्र इस श्रेणी में पाए गए। एक और दर्दनाक तथ्य यह है कि आज आत्महत्या करने वाले लोगों में 48 फीसदी युवा वर्ग के हैं, वे भी 18 से 30 आयु वर्ग के। युवा हताशा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?

 कितने शर्म की बात है ? क्या हो गया है कि हमारे नेताओं और नीति निर्धारकों को ? लाखों किसान-मजदूरों ने अपना पेट काटकर अपने बच्चों को बड़ी उम्मीदों से ये डिग्रियां दिलवाई हैं। पर उसके बदले में उन्हें चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल रही। ये कैसा विकास हो रहा है ? एक तरफ तो हम दावा करते हैं कि भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और दूसरी तरफ हमारे बेरोजगार युवाओं की संख्या दिन दूनी और रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। यह सब हुआ है हमारे गलत आर्थिक नीतियों के कारण। आजादी के बाद महात्मा गांधी बार-बार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ और आत्मनिर्भर बनाने की बात कहते थे। पर पं.जवाहरलाल नेहरू से लेकर आज तक हर प्रधानमंत्री ने तीव्र औद्योगिक विकास का लक्ष्य रखकर बेरोजगारों को रोजगार देने के झूठे सपने दिखाए हैं। न तो औद्योगिक विकास उस तेजी से हुआ, न उस विकास से इतने रोजगार का सृजन हुआ। अगर गांव की अर्थव्यवस्था अंग्रेजों के आने से पहले जैसी कर दी गई होती तो न तो देश में बेरोजगारी होती, न गरीबी और न गांवों से शहर को पलायन। गांधीजी की समाधि पर श्रद्धांजलि देने का नाटक करने वालों ने कभी उनके विचारों का सम्मान नहीं किया। अगर किया होता तो गांधीजी की आत्मा ज्यादा प्रसन्न होती।

 आज हर शहर की गंदी बस्तियों में नारकीय दशा में जो करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी जी रहे हैं, उन्होंने खुशी से अपना गांव नहीं छोड़ा। गांव की बदहाली ने उन्हें शहर आने पर मजबूर कर दिया। गांवों के पारंपरिक व्यवसायों को नष्ट करके, उनके बदले खड़े होने वाले बड़े उद्योगों से नए रोजगार का सृजन होता है दर्जनों में। जबकि गांवों में बेरोजगारी फैलती है हजारों में। इस तरह का औद्योगिक विकास भारत की बेरोजगारी और गरीबी को कभी दूर नहीं कर सकता, बल्कि और बढ़ाता जाएगा।

हमारे गांवों का एक-एक कुटीर उद्योग इतना सक्षम था कि आज भी करोड़ों नौजवानों को नौकरी दे सकता है। चाहे वो तेलघानी का काम हो या कपड़ा बनने का या खेती करने का या ग्रामीण जीवन से जुड़े अन्य पारंपरिक व्यवसायों का। इस तरह कड़ी नीति बनाकर अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित किया जाता तो किसान-मजदूर कर्जदार भी नहीं होते। आज तो वो हर तरह से बर्बाद हैं और उनकी बर्बादी दूर होने के कोई आसार नजर नहीं आते। चाहे सरकार किसी भी दल की क्यों न बन जाए।

 इतनी गंभीर समस्या है कि सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जरा अनुमान कीजिए कि आपके घर में पढ़ा-लिखा नौजवान बेटा सुबह से रात तक हर दिन, महीनों, सालों अगर बेरोजगार घूमता है, तो वह कितना विध्वंसक बन सकता है ? ऐसे युवा परिवार के लिए कितना  बड़ा बोझ हैं ? देश के लिए यह कितनी बड़ी शर्म की बात है ? पर हमारे हुक्मरानों को कोई चिंता नहीं। बेरोजगारी और गरीबी की बात करना तो अब मध्यमवर्गीय समाज में भी ‘आउट आॅफ फैशन’ हो गया है। ड्राइंग रूम और टीवी स्टूडियो में बड़ी-बड़ी लच्छेदार बाते करो, संसद में कुर्ते की बांहें चढ़ाकर लंबे-लंबे बयान दो, मगर करोड़ों किसान-मजदूरों और उनके नौजवान बेटे-बेटियों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दो। वाह रे मेरे हिंदुस्तान, क्या खूब तरक्की कर रहा है तू ?

Monday, November 16, 2015

बिहार के परिणामों से भाजपा में टीस भरी खुशी क्यों ?

    पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।

    उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।

    समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।

    नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।

    जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। 

Monday, November 9, 2015

आधुनिक शिक्षा को कड़ी चुनौती


 अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय से लेकर भारत के आई.आई.टी. तक में क्या कोई ऐसी शिक्षा दी जाती है कि छात्र की आंखों पर रूई रखकर पट्टी बांध दी जाए और उसे प्रकाश की किरण भी दिखाई न दे, फिर भी वो सामने रखी हर पुस्तक को पढ़ सकता   हो ? है ना चैंकाने वाली बात ? पर इसी भारत में किसी हिमालय की कंद्रा में नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात के महानगर अहमदाबाद में यह चमत्कार आज साक्षात् हो रहा है। तीन हफ्ते पहले मुझे इस चमत्कार को देखने का सुअवसर मिला। मेरे साथ अनेक वरिष्ठ लोग और थे। हम सबको अहमदाबाद के हेमचंद्र आचार्य संस्कृत गुरूकुल में विद्यार्थियों की अद्भुत मेधाशक्तियों का प्रदर्शन देखने के लिए बुलाया गया था। निमंत्रण देने वालों के ऐसे दावे पर यकीन नहीं हो रहा था। पर, वे आश्वस्त थे कि अगर एक बार हम अहमदाबाद चले जाएं, तो हमारे सब संदेह स्वतः दूर हो जाएंगे और वही हुआ। छोटे-छोटे बच्चे इस गुरूकुल में आधुनिकता से कोसों दूर पारंपरिक गुरूकुल शिक्षा पा रहे हैं। पर उनकी मेधा शक्ति किसी भी महंगे पब्लिक स्कूल के बच्चों की मेधा शक्ति को बहुत पीछे छोड़ चुकी है।
 
 आपको याद होगा पिछले दिनों सभी टी.वी. चैनलों ने एक छोटा प्यारा सा बच्चा दिखाया था, जिसे ‘गूगल चाइल्ड’ कहा गया। यह बच्चा स्टूडियो में हर सवाल के सेकेंडों में उत्तर देता था। जबकि उसकी आयु 10 वर्ष से भी कम थी। दुनिया हैरान थी उसके ज्ञान को देखकर। पर, किसी टीवी चैनल ने यह नहीं बताया कि ऐसी योग्यता उसमें इसी गुरूकुल से आयी है।
 
 
 दूसरा नमूना, उस बच्चे का है, जिसे आप दुनिया के इतिहास की कोई भी तारीख पूछो, तो वह सवाल खत्म होने से पहले उस तारीख को क्या दिन था, ये बता देता है। इतनी जल्दी तो कोई आधुनिक कम्प्यूटर भी जवाब नहीं दे पाता। तीसरा बच्चा गणित के 50 मुश्किल सवाल मात्र ढ़ाई मिनट में हल कर देता है। यह विश्व रिकार्ड है। ये सब बच्चे संस्कृत में वार्ता करते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, देशी गाय का दूध-घी खाते हैं। बाजारू सामानों से बचकर रहते हैं। यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीते हैं और घुड़सवारी, ज्योतिष, शास्त्रीय संगीत, चित्रकला आदि विषयों का इन्हें अध्ययन कराया जाता है। इस गुरूकुल में मात्र 100 बच्चे हैं। पर उनको पढ़ाने के लिए 300 शिक्षक हैं। ये सब शिक्षक वैदिक पद्धति से पढ़ाते हैं। बच्चों की अभिरूचि अनुसार उनका पाठ्यक्रम तय किया जाता है। परीक्षा की कोई निर्धारित पद्धति नहीं है। पढ़कर निकलने के बाद कोई डिग्री भी नहीं मिलती। यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे 15-16 वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग सभी बच्चे अत्यंत संपन्न परिवारों के हैं। इसलिए उन्हें नौकरी की चिंता भी नहीं है, घर के लंबे-चैड़े कारोबार संभालने हैं। वैसे भी डिग्री लेने वालों को नौकरी कहां मिल रही हैं ? एक चपरासी की नौकरी के लिए 3.5 लाख पोस्ट ग्रेजुएट लोग आवेदन करते हैं। ये डिग्रियां तो अपना महत्व बहुत पहले खो चुकी हैं।
 
 इसलिए इस गुरूकुल के संस्थापक उत्तम भाई ने ये फैसला किया कि उन्हें योग्य, संस्कारवान, मेधावी व देशभक्त युवा तैयार करने हैं। जो जिस भी क्षेत्र में जाएं, अपनी योग्यता का लोहा मनवा दें और आज यह हो रहा है। दर्शक इन बच्चों की बहुआयामी प्रतिभाओं को देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं।
 
 
 खुद डिग्रीविहीन उत्तम भाई का कहना है कि उन्होंने सारा ज्ञान स्वाध्याय और अनुभव से अर्जित किया है। उन्हें लगा कि भारत की मौजूदा शिक्षा प्रणाली, जोकि मैकाले की देन है, भारत को गुलाम बनाने के लिए लागू की गई थी। इसीलिए भारत गुलाम बना और आज तक बना हुआ है। इस गुलामी की जंजीरें तब टूटेंगी, जब भारत का हर युवा प्राचीन गुरूकुल परंपरा से पढ़कर अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं पर गर्व करेगा। तब भारत फिर से विश्वगुरू बनेगा, आज की तरह कंगाल नहीं। उत्तम भाई चुनौती देते हैं कि भारत के 100 सबसे साधारण बच्चों को छांट लिया जाए और 10-10 की टोली बनाकर दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में भेज दिया जाए। 10 छात्र उन्हें भी दे दिए जाएं। साल के आखिर में मुकाबला हो, अगर उत्तम भाई के गुरूकुल के बच्चे शेष दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों के विद्यार्थियों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मेधावी न हों, तो उनकी ‘‘गर्दन काट’’ दी जाय और अगर ये बच्चे सबसे ज़्यादा मेधावी निकले, तो भारत सरकार को चाहिए कि वो गुलाम बनाने वाले देश के इन सब स्कूलों को बंद कर दे और वैदिक पद्धति से चलने वाले गुरूकुलों की स्थापना करे।
 
 उत्तम भाई और उनके अन्य साथियों के पास देश को सुखी और समृद्ध बनाने के ऐसे ही अनेक कालजयी प्रस्ताव हैं। जिन्हें अपने-अपने स्तर पर प्रयोग करके सिद्ध किया जा चुका है। पर, उन्हें चिंता है कि आधुनिक मीडिया, लोकतंत्र की नौटंकी, न्यायपालिका का आडंबर और तथाकथित आधुनिक शिक्षा इस विचार को पनपने नहीं देंगे। क्योंकि ये सारे ढांचे औपनिवेशिक भारत को झूठी आजादी देकर गुलाम बनाए रखने के लिए स्थापित किए गए थे। पर, वे उत्साहित हैं यह देखकर कि हम जैसे अनेकों लोग, जो उनके गुरूकुल को देखकर आ रहे हैं, उन सबका विश्वास ऐसे विचारों की तरफ दृढ़ होता जा रहा है। समय की देर है, कभी भी ज्वालामुखी फट सकता है।

 

Monday, November 2, 2015

लौटाना ताजपोशी का

 गए वो जमाने, जब राजा कलाकारों, साहित्यकारों और संतों से प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले के आभूषण, स्वर्ण मुद्राएं या जागीरें दान में दिया करते थे। लोकतंत्र की स्थापना के बाद जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जब सरकार बनाते हैं, तो वे कोई राजा नहीं होते, जो पत्रकारों, साहित्यकारों या कलाकारों को सम्मान दें। इन सब लोगों का सम्मान तो वह प्यार है, जो इन्हें इनके दर्शकों और श्रोताओं से मिलता है।




1989 में जब हमने देश का पहला हिंदी टेलीविजन समाचार ‘कालचक्र वीडियो’ शुरू किया था, तब मशहूर पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, गिरीलाल जैन और अरूण शौरी जैसे पत्रकारों को अलग-अलग सरकारों ने पद्मभूषण या पद्मश्री दिए। निखिल चक्रवर्ती ने वह पद्मभूषण लेने से मना कर दिया। हमने तब कालचक्र वीडियो समाचार के दूसरे अंक में एक रिपोर्ट तैयार की ‘पत्रकारों की ताजपोशी’। जिसका मूल यह था कि सरकार का पत्रकारों को कोई भी अवार्ड देना, उन पत्रकारों की निष्पक्षता और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। यही कारण है कि मैंने आजतक श्रेष्ठ पत्रकारिता का कोई अवार्ड किसी संस्था से नहीं लिया। हालांकि मेरे पाठक और श्रोता जानते हैं कि पिछले 30 वर्षों में पत्रकारिता में मैंने कितनी बार इस देश में इतिहास रचा है। यहां यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि किसी सरकार ने मुझे ऐसा कोई ईनाम देने की कभी कोई पेशकश नहीं की। जाहिर है कि जब हम डंडा लेकर निष्पक्षता से हर दल की सरकार के पीछे पड़े रहेंगे और उसकी कमियों को उजागर करेंगे, तो कौन सरकार इतनी मूर्ख है, जो हमें सम्मानित करेगी। अब वो दिन थोड़े ही हैं, जब कहा जाता था कि, ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करें सुभाय।।’ अब तो उन पत्रकारों, साहित्यकारों और कलाकारों को राज्यसभा का सदस्य बनाया जाता है या अवार्ड दिए जाते हैं या राजदूत बनाया जाता है, जो किसी एक राजनैतिक दल की चाटुकारिता में लगे रहते हैं और जब वह दल सत्ता में आता है, तो उनको इस तरह के ईनाम देकर पुरूस्कृत किया जाता है।

 
 इसलिए जो लोग आज अवार्ड लौटा रहे हैं, हो सकता है कि वो वाकई देश के सामाजिक ढांचे में तथाकथित रूप से पैदा की जा रही विसंगतियों से आहत हों। हमें इस विषय में कुछ नहीं कहना। पर, यह जरूर है कि वे लोग अपने मन में जानते हैं कि जो अवार्ड इन्हें मिले, वो केवल इसलिए नहीं मिले कि ये अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कलाकार, पत्रकार या साहित्यकार थे। इन्हें पता है कि इनके समय में इनसे भी ज्यादा योग्य लोग थे, जिनका नाम तक ऐसे किसी अवार्ड की सूची में विचारार्थ नहीं रखा गया। क्योंकि ऐसी सूचियों में नाम स्वतः ही प्रकट नहीं हो जाते। अवार्ड लेने के लिए आपको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। नौकरशाही और राजनेताओं के तलवे चाटने पड़ते हैं। बड़े-बड़े ताकतवर लोगों से सिफारिशें करवानी पड़ती हैं और ये सब तब, जब आप पहले से ही सत्तारूढ़ दल के चाटुकार रहे हों। क्योंकि चाटुकारों की कोई कमी थोड़े ही होती है। उनकी भी एक बड़ी जमात होती है। उनमें से कुछ ही को तो अवाॅर्ड मिलता है, बाकी को कहां पूछा जाता है ?
 
 इसलिए इनका अवार्ड लौटाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। क्योंकि अगर ये आज की सरकार के समय में दावेदार होते, तो जाहिर है, इन्हें यह अवाॅर्ड नहीं मिलते। मतलब साफ है कि जिसने अवार्ड दिए, उसकी राजनीति चमकाने के लिए अगर हम आज अवाॅर्ड लौटा भी दें और खुदा-न-खास्ता कल वो फिर से सत्ता में आ जाएं, तो इस ‘बलिदान’ के लिए दुगना-चैगुना पुरूस्कार मिलेगा। अगर वे सत्ता में न भी आएं, तो भी उनके प्रति कुछ फर्ज तो अदा करना चाहिए। वैसे भी इन पुरूस्कारों को कौन पूछ रहा है। सबको पता है कि कैसे मिलते हैं और किसको मिलते हैं ? जो यश तब लेना था, वो तो मिल चुका। अब तो लौटने में भी वाहवाही है।
 
 
 इसका मतलब यह नहीं कि मैं समाज में सामाजिक वैमनस्य पैदा करने वालों के हक में बोल रहा हूं। ऐसा कार्य तो जिस भी दल के कार्यकर्ता करते हैं, वह राष्ट्रद्रोह से कम नहीं हैं और अगर ऐसा भाजपा के कार्यकर्ता कर रहे हैं, तो मोदीजी को उनकी लगाम कसनी चाहिए। पर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब संसद में भाजपा के मात्र 2 सांसद होते थे, तब भी तो देश में सामाजिक वैमनस्य होता था। सांप्रदायिक दंगे होते थे और खूब लोग मरते थे। क्या कश्मीर में जब हिंदूओं को मार-मारकर निकाला गया और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी गई, तब इन सब लोगों ने क्या अपने अवार्ड लौटाए थे ? तब तो सबको सांप सूंघ गया था।
 
 
इसलिए अवार्ड लौटाने का यह नाटक बंद होना चाहिए। इसलिए जगह मांग उठनी चाहिए कि किसी भी सरकार को किसी कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार को कोई भी अवार्ड देने का कोई हक नहीं हो। जितने अवार्ड आजतक दिए गए हैं, वे सब राष्ट्रपति का अध्यादेश लाकर निरस्त किए जाएं। अब आप ही सोचिए कि अमिताभ बच्चन को 50 हजार रूपए महीने की पेंशन का अवार्ड देने के पीछे क्या तुक है ? वो तो खुद ऐसी पेंशन हर महीने 50 लोगों को दे सकते हैं। हां, अगर कोई पत्रकार, साहित्यकार या कलाकार गरीबी में जी रहा हो और उसके पास इलाज को भी पैसे न हों और समाज उसकी मदद को आगे न आए, तो सरकारों का फर्ज बनता है कि उसकी मदद करें। अच्छे भले खाते-पीते संपन्न लोगों को आर्थिक अवार्ड या तमगे देना उनके स्वाभिमान को कुचलने जैसा है। जिसे रोकने की पहल हम सबको करनी चाहिए। अवार्ड लौटाकर नहीं, बल्कि आजतक मिले सभी अवार्ड निरस्त करवाकर।

Monday, October 26, 2015

केजरीवाल की नौटंकी

2011 में जब जनलोकपाल कानून की मांग को लेकर अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नाटक मंडली जोड़ी तभी इसके रंगढंग देखकर मुझे लगा कि देश की जनता के साथ एक बार फिर बड़ा भारी छल होने जा रहा है। इसलिए वर्षों की चुप्पी तोड़कर हर टीवी चैनल और अपने लेखों के माध्यम से मैंने इस नाटक मंडली पर करारा हमला बोला। अर्णव गोस्वामी और दूसरे टीवी एंकर हतप्रभ थे कि जब सारो देश, यहां तक कि कालेधन से चलने वाला बालीवुड तक इस नाटक में सड़़कों पर उतर रहा था, तो मुझ जैसा शख्स क्यों इनके विरोध में अकेला खड़ा था। कारण साफ था। मुझे अरविन्द की नीयत पर भरोसा नहीं था। हालांकि उस बेचारे ने मुझे भी किरन बेदी, आनंद कुमार, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, स्वामी अग्निवेश, मयंक गांधी जैसे लोगों की तरह अपने मंच पर आने का न्यौता दिया था। गनीमत है कि मैं उसके झांसे में नहीं आया वरना इन सब की तरह उसने मुझे भी इस्तेमाल कर टोपी पहना दी होती। एक आत्ममुग्ध तानाशाह की तरह अरविन्द हर उस पायदान को लात मारता जा रहा है जिस पर पैर रखकर वह ऊपर चढ़ा।

मेरे ब्लॉग पर 2011 से 2014 तक के लेख देखिए या यू-ट्यूब पर जाकर वो दर्जनों टीवी शो देखिए, जो-जो बात इस नाटक मंडली के बारे में मैंने तब कही थी वो सब आज सामने आ रही हैं। लोग हैरान है अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक अवसरवादिता और छलनीति का करिश्मा देखकर। आज तो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के विरोधाभासों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई है। पर इससे उसे क्या ? अब वो सब मुद्दे अरविन्द के लिए बेमानी है जिनके लिए वो और उसके साथी सड़कों पर लोटे और मंचों पर चिंघाड़े थे। क्योंकि पहले दिन से मकसद था सत्ता हासिल करना, सो उसने कर ली। अब और आगे बढ़ना है तो संघर्ष के साथियों और उत्साही युवाओं को दरकिनार करते हुए अति भ्रष्ट राजनेताओं के साथ गठबंधन करने में केजरीवाल को कोई संकोच नहीं है। आज दिल्ली की जनता दिल्ली सरकार की नाकामियों की वजह से शीला दीक्षित को याद कर रही है। पर केजरीवाल की बला से। उसने तो झुग्गी-झोपड़ी पर अपना फोकस जमा रखा है। क्योंकि जहां से ज्यादा वोट मिलने हैं उन पर ध्यान दो बाकी शासन व्यवस्था और विकास जाए गढ्ढे में।

भ्रष्टाचार से तो इस देश में आजादी के बाद सबसे बड़ी लड़ाई बिना झंडे-बैनर और सड़कों पर आंदोलन के हमने नैतिक बल से लड़ी और 1996 में ही देश के दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और आला अफसरों को भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वाया और जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाया। पर सत्ता के पीछे नहीं भागे। आज भी ब्रज क्षेत्र में आम जनता के हित के लिए विकास का ठोस काम कर रहे हैं और संतुष्ट हैं। पर दुःख इस बात का होता है कि हमारे देश की जनता बार-बार नारे और मीडिया के प्रचार से उठने वाले आत्मघोषित मसीहाओं से ठगी जाती है। पर ऐसे ढोंगी मसीहाओं का कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

इस स्थिति से कैसे ऊबरे ये एक बड़ा सवाल हैं ? जिनके पास विचार हैं, ईमानदारी हैं, विश्वसनीयता है और देश के लिए काम करने का जज्बा हैं उनके पास साधन नहीं है। जिनके पास देशभर में पांच सितारा पंडाल खड़े करके, लाखों मीटर कपड़े के तिरंगे-झंडे बनवाकर, ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपियां बांटकर, हजारों वेतनभोगी युवाओं को स्वयंसेवक बता और 24 घंटे दर्जनों टीवी चैनलों को लपेट कर रखने की शक्ति और साधन हैं उनके पास ईमानदारी कैसे हो सकती है ? इसलिए जनता हर बार छली जाती हैं।

पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में ऐसे लोगांे और युवाओं से फिर से मिलना हुआ जिन्हें मैं गत 3 दशकों से देखता रहा हूं। ये सब युवा बहुत शिक्षित हैं। अच्छे परिवारों से हैं और बाजार में इन्हें बढियां नौकरियां मिल सकती थी और आज भी मिल सकती हैं। पर इन्हें देश की चिंता हैं। ये रातदिन सोच रहे हैं, लिख रहे हैं और 1857 के गदर के सन्यासियों की तरह देशभर में घूम-घूम कर अलख जगा रहे हैं। ये ना तो विदेशी मदद लेते हैं और ना ही किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं। इनमें घोर आस्तिक भी हैं और कुछ नास्तिक भी। इन्हें भारतीय संस्कृति से गहरा प्रेम हैं। पर ये हैरान हैं कि भाजपा की सरकार भी विकास का वो माॅडल क्योंकि नहीं अपना रही जिसकी बात स्वदेशी जागरण मंच वर्षों से करता आया था। इनमें से ज्यादातर केजरीवाल के साथ तन, मन, धन से जुड़े थे। पर आज इनका मोह उससे भंग हो गया हैं और इनका कहना है कि केजरीवाल भी दूसरे नेताओं की तरह एक नौटंकीबाज ही निकला, जिसे ठोस काम करने में नहीं केवल सत्ता हथियाने, अपना प्रचार करने और नए-नए विवाद खड़े करके मीडिया में बने रहने की ही लालसा है। जबकि देश को ऐसे नेतृत्व की जरूरत हैं जो औपनिवेशिक शिकंजे से भारत को निकाल कर अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं के अनुरूप मजबूत राष्ट्र बना सके।

इन्हें विश्वास है कि लोकतंत्र, न्यायपालिका, मीडिया और कार्यपालिका के नाम पर खड़ा किया गया यह ढांचा अब ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा। क्योंकि देश के करोडों लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर पश्चिम की जो जूठन गत 200 वर्षों में परोसी गई है उसने भारत की जड़ों को खोखला कर दिया हैं। विकास का मौजूदा ढांचा देश की बहुसंख्यक आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान व स्वास्थ्य-शिक्षा-रोजगार नहीं दे सकता। इसलिए देशभर में एक बड़ी बहस की जरूरत है। जिसकी ये सब तैयारी कर रहे हैं।

Monday, October 19, 2015

जेट एयरवेज़ कर रहा है यात्रियों से धोखा और मुल्क से गद्दारी

    पिछले वर्ष सारे देश के मीडिया में खबर छपी और दिखाई गई कि जेट एयरवेज़ को अपने 131 पायलेट घर बैठाने पड़े। क्योंकि ये पायलेट ‘प्रोफिशियेसी टेस्ट’ पास किए बिना हवाई जहाज उड़ा रहे थे। इस तरह जेट के मालिक नरेश गोयल देश-विदेश के करोड़ों यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे थे। हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ;नई दिल्लीद्ध ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसका उल्लेख कई टीवी चैनलों ने किया। यह तो केवल एक ट्रेलर मात्र है। जेट एयरवेज़ पहले दिन से यात्रियों के साथ धोखाधड़ी और देश के साथ गद्दारी कर रही है। जिसके दर्जनों प्रमाण लिखित शिकायत करके इस लेख के लेखक पत्रकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई में दाखिल कर दिए हैं और उन पर उच्च स्तरीय पड़ताल जारी है। जिनका खुलासा आने वाले समय में किया जाएगा।

फिलहाल, यह जानना जरूरी है कि इतने सारे पायलेट बिना काबिलियत के कैसे जेट एयरवेज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहे और हमारी आपकी जिंदगी के खिलवाड़ करते रहे। हवाई सेवाओं को नियंत्रित करने वाला सरकारी उपक्रम डी.जी.सी.ए. (नागर विमानन महानिदेशालय) क्या करता रहा, जो उसने इतनी बड़ी धोखाधड़ी को रोका नहीं। जाहिर है कि इस मामले में ऊपर से नीचे तक बहुत से लोगों की जेबें गर्म हुई हैं। इस घोटाले में भारत सरकार का नागर विमानन मंत्रालय भी कम दोषी नहीं है। उसके सचिव हों या मंत्री, बिना उनकी मिलीभगत के नरेश गोयल की जुर्रत नहीं थी कि देश के साथ एक के बाद एक धोखाधड़ी करता चला जाता। उल्लेखनीय है कि जेट एयरवेज़ में अनेक उच्च पदों पर डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के बेटे, बेटी और दामाद बिना योग्यता के मोटे वेतन लेकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इन विभागों के आला अधिकारियों के रिश्वत लेने का यह तो एक छोटा-सा प्रमाण है।

डी.जी.सी.ए. और जेट एयरवेज़ की मिलीभगत का एक और उदाहरण कैप्टन हामिद अली है, जो 8 साल तक जेट एयरवेज़ का सीओओ रहा। जबकि भारत सरकार के नागर विमानन अपेक्षा कानून के तहत (सी.ए.आर. सीरीज पार्ट-2 सैक्शन-3) किसी भी एयरलाइनस का अध्यक्ष या सीईओ तभी नियुक्त हो सकता है, जब उसकी सुरक्षा जांच भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा पूरी कर ली जाय और उसका अनापत्ति प्रमाण पत्र ले लिया जाय। अगर ऐसा व्यक्ति विदेशी नागरिक है, तो न सिर्फ सीईओ, बल्कि सीएफओ या सीओओ पदों पर भी नियुक्ति किए जाने से पहले ऐसे विदेशी नागरिक की सुरक्षा जांच नागर विमानन मंत्रालय को भारत सरकार के गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय से भी करवानी होती है। पर देखिए, देश की सुरक्षा के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ किया गया कि कैप्टन हामिद अली को बिना सुरक्षा जांच के नरेश गोयल ने जेट एयरवेज़ का सीओओ बनाया। यह जानते हुए कि वह बहरीन का निवासी है और इस नाते उसकी सुरक्षा जांच करवाना कानून के अनुसार अति आवश्यक था। क्या डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के महानिदेशक व सचिव और भारत के इस दौरान अब तक रहे उड्डयन मंत्री आंखों पर पट्टी बांधकर बैठे थे, जो देश की सुरक्षा के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ होने दिया गया और कोई कार्यवाही जेट एयरवेज़ के खिलाफ आज तक नहीं हुई। जिसने देश के नियमों और कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाईं।

ये खुलासा तो अभी हाल ही में तब हुआ, जब 31 अगस्त, 2015 को कालचक्र समाचार ब्यूरो के ही प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर की आरटीआई पर नागरिक विमानन मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया। इस आरटीआई के दाखिल होते ही नरेश गोयल के होश उड़ गए और उसने रातों-रात कैप्टन हामिद अली को सीओओ के पद से हटाकर जेट एयरवेज़ का सलाहकार नियुक्त कर लिया। पर, क्या इससे वो सारे सुबूत मिट जाएंगे, जो 8 साल में कैप्टन हामिद अली ने अवैध रूप से जेट एयरवेज़ के सीओओ रहते हुए छोड़े हैं। जब मामला विदेशी नागरिक का हो, देश के सुरक्षा कानून का हो और नागरिक विमानन मंत्रालय का हो, तो क्या इस संभावना से इंकार किया जा सकता है कि कोई देशद्रोही व्यक्ति, अन्डरवर्लड या आतंकवाद से जुड़ा व्यक्ति जान-बूझकर नियमों की धज्जियां उड़ाकर इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाए और देश की संसद और मीडिया को कानों-कान खबर भी न लगे। देश की सुरक्षा के मामले में यह बहुत खतरनाक अपराध हुआ है। जिसकी जवाबदेही न सिर्फ नरेश गोयल की है, बल्कि नागरिक विमानन मंत्रालय के मंत्री, सचिव व डी.जी.सी.ए. के महानिदेशक की भी पूरी है।

    दरअसल, जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल के भ्रष्टाचार का जाल इतनी दूर-दूर तक फैला हुआ है कि इस देश के अनेकों महत्वपूर्ण राजनेता और अफसर उसके शिकंजे में फंसे हैं। इसीलिए तो जेट एयरवेज़ के बड़े अधिकारी बेखौफ होकर ये कहते हैं कि कालचक्र समाचार ब्यूरो की क्या औकात, जो हमारी एयरलाइंस को कठघरे में खड़ा कर सके। नरेश गोयल के प्रभाव का एक और प्रमाण भारत सरकार का गृह मंत्रालय है, जो जेट एयरवेज़ से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना को जान-बूझकर दबाए बैठा है। इस लेख के माध्यम से मैं केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि रजनीश कपूर की आरटीआई पर गृह मंत्रालय लगातार हामिद अली की सुरक्षा जांच के मामले में साफ जवाब देने से बचता रहा है और इसे ‘संवेदनशील’ मामला बताकर टालता रहा है। अब ये याचिका भारत के केंद्रीय सूचना आयुक्त विजय शर्मा के सम्मुख है। जिस पर उन्हें जल्दी ही फैसला लेना है। पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। 8 साल पहले की सुरक्षा जांच का अनापत्ति प्रमाण पत्र अब 2015 में तो तैयार किया नहीं जा सकता।

    कालचक्र समाचार ब्यूरो का अपना टीवी चैनल या अखबार भले ही न हो, लेकिन 1996 में देश के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, विपक्ष के नेताओं और आला अफसरों को जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाने और पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने का काम भारत के इतिहास में पहली बार कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही किया। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशों के अनेकों घोटाले उजागर करने की हिम्मत भी इसी ब्यूरो के संपादक, इस लेख के लेखक ने दिखाई थी। जुलाई, 2008 में स्टेट ट्रेडिंग कॉपोरेशन के अध्यक्ष अरविंद पंडालाई के सैकड़ों करोड़ के घोटाले को उजागर कर केंद्रीय सतर्कता आयोग से कार्यवाही करवा कर उसकी नौकरी भी कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही ली थी। ऐसे तमाम बड़े मामले हैं, जहां कालचक्र के बारे में मध्ययुगीन कवि बिहारी जी का ये दोहा चरितार्थ होता है कि कालचक्र के तीर “देखन में छोटे लगे और घाव करै गंभीर”।

अभी तो शुरूआत है, जेट एयरवेज़ के हजारों करोड़ के घोटाले और दूसरे कई संगीन अपराध कालचक्र सीबीआई के निदेशक और भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त को सौंप चुका है और देखना है कि सीबीआई और सीवीसी कितनी ईमानदारी और कितनी तत्परता से इस मामले की जांच करते हैं। उसके बाद ही आगे की रणनीति तय की जाएगी। 1993 में जब हमने देश के 115 सबसे ताकतवर लोगों के खिलाफ हवाला कांड का खुलासा किया था, तब न तो प्राइवेट टीवी चैनल थे, न इंटरनेट, न सैलफोन, न एसएमएस और न सोशल मीडिया। उस मुश्किल परिस्थिति में भी हमने हिम्मत नहीं हारी और 1996 में देश में इतिहास रचा। अब तो संचार क्रांति का युग है, इसीलिए लड़ाई उतनी मुश्किल नहीं। पर ये नैतिक दायित्व तो सीवीसी और सीबीआई का है कि वे देश की सुरक्षा और जनता के हित में सब आरोपों की निर्भीकता और निष्पक्षता से जांच करें। हमने तो अपना काम कर दिया है और आगे भी करते रहेंगे।

Monday, October 12, 2015

अमृतानंदमयी मां हमारी समझ से परे हैं

केरल के कोल्लम गांव जाने से पहले मैंने दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से माता अमृतानंदमयी मां के विषय में राय पूछी। केरल के ही एक राजनैतिक व्यक्ति ने यह कहकर बात हल्की कर दी कि अम्मा के पास बहुत पैसा है और वो खूब धन लुटाती हैं। मीडिया से जुड़े एक व्यक्ति ने कहा कि जिस तरह वे लोगों का आलिंगन करती हैं, उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक तीसरे व्यक्ति ने कहा कि अम्मा को अज्ञात स्रोतों से विदेशों से भारी मात्रा में पैसा आ रहा है और वे ऐश्वर्य का जीवन जीती हैं। दूसरी तरफ तमाम ऐसे प्रतिष्ठित लोग थे, जिन्होंने अम्मा के उच्च आध्यात्मिक स्तर का यशगान किया। पेरिस में रहने वाले श्रीविद्या, जो मूलतः तमिलनाडु से हैं, पर पेरिस में वैदिक विज्ञान पर शोध कर रहे हैं और हर महीने भारत आते-जाते रहते हैं। जब उनसे मैंने अम्मा के विषय में पूछा, तो वे कपकपा उठे और बोले अम्मा अन्य आत्मघोषित संतों की तरह नहीं है। उनका चेतना का स्तर मानवीय सीमा के बाहर है। उनमें इतनी आध्यात्मिक शक्ति है कि मैं आज तक उनके दर्शन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूं। इतना कहकर वे रोने लगे। अब ऐसे विरोधाभासी बयानों के बीच मैं कोचीन से कोल्लम के रास्ते के बीच यही सोचता गया कि मुझे कैसा अनुभव होगा ?
 
विस्तार में न जाकर अगर निचोड़ प्रस्तुत करूं तो कहना अतिशोक्ति न होगी कि अम्मा का दिल एक विशाल सागर की तरह है। जिसमें छोटी मछली से लेकर व्हेल मछली तक सबको उन्होंने समा रखा है। उनके आलिंगन का लाभ धनिकों और सत्ता के निकट रहने वालों तक सीमित नहीं है। उनका दरबार तो खुला है। पहले आओ पहले पाओ। उनके दर्शनार्थ आने वालों में बहुसंख्यक लोग दरिद्र हैं, जो अपनी बेबसी का, लाइलाजी का या पारिवारिक कलह का रोना लेकर आते हैं। मां सबको गले लगाती है, उनके आंसू पोंछती है और अपने स्वयंसेवकों से ऐसे लोगों की हर तरह से मदद करने का निर्देश देती हैं। गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के क्षेत्र में अम्मा ने अभूतपूर्व कार्य किया है और आज भी कर रही हैं। यह सुनकर बहुत रोमांच हुआ कि कोल्लम के आश्रम के शौचालय से जुड़े ‘सोकपिट’ जब साफ करने होते हैं, तो उसमें भरे मल और मूत्र को बाल्टी से बाहर निकालने के काम में अम्मा सबसे आगे खड़ी होती हैं। सबरीमलई एक ऐसा तीर्थ है केरल में, जहां सालाना करोड़ों लोग आते हैं और स्थानीय मान्यता के अनुरूप अपने वस्त्र वहीं उतार देते हैं। नतीजतन, वहां की नदी, बगीचे और खुली जगह कूड़े-करकट और उतारे हुए कपड़ों के पहाड़ से ढक जाती है। यह है हमारी धार्मिक आस्था का प्रमाण। हम जिस भी तीर्थ स्थल पर जाते हैं, वहां ढे़रों कूड़ा छोड़कर आते हैं। पर अम्मा, जिनके शिष्यों की संख्या पूरे विश्व में करोड़ों में है, वो हर साल डेढ़ हजार स्वयंसेवकों को लेकर सबरीमलई जाते हैं और उत्सव के बाद जमा हुआ सारा कूड़ा भारी मशीनों की मदद से तीन दिन में साफ कर देते हैं। आप बताइये कि आपकी दृष्टि में भारत में ऐसा कौन-सा संत है, जो भगवान कृष्ण के उस उदाहरण का अनुकरण करता हो, जब उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में झूठे पत्तल उठाने की सेवा ली थी। ऐसा कोई संत या भागवताचार्य दिखाई नहीं देता।
 
चैथी कक्षा पढ़ी अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं। पर, कोल्लम के समुद्रतट पर, नारियल के पेड़ों की छांव में एक तख्त पर बैठकर हजारों देशी-विदेशी शिष्यों के आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर वे इतने विस्तार से देती हैं कि बड़े-बड़े शास्त्र पारंगत नतमस्तक हो जाएं। इसमें अचम्भा भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सूर, कबीर व तुलसी जैसे संत ने बिना पढ़े-लिखे होकर भी ऐसा साहित्य रच गए, जिस पर आज पीएचडी के लिए शोध किया जाता है। अम्मा का आध्यात्मिक ज्ञान किताबों से पढ़ा हुआ नहीं लगता। ये तो उनकी चेतना है, जो ब्रह्मांड की शक्तियों से संपर्क साधकर अपने चैत्य गुरू के निर्देश पर सारे दर्शन का निचोड़ जान चुकी हैं। मैं तीन बार अम्मा से मिला और तीनों बार उन्होंने आलिंगन कर मेरे सिर पर हाथ फेरे और मुझे लगा कि मैं साक्षात् यशोदा मैया की गोद में आ गया हूं। आंखों से बरबस आंसू झलक आए। वह माहौल ही कुछ ऐसा था, जहां एक मां की हजारों संतानें सामने बैठकर भजन सुन रही थीं। अम्मा का गायन और भजन में तल्लीनता इहलौकिक नहीं है। अम्मा के आश्रम में हर व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा या व्यवसाय की सर्वश्रेष्ठ स्थिति से निकलकर अम्मा के पास आकर बस गए हैं और निष्काम भावना से शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन जैसे कार्यों में रात-दिन दरिद्र नारायण की सेवा कर रहे हैं। सबके चेहरे पर एक पारलौकिक मुस्कान हमेशा दिखाई देती है।
 
मैं तो यही कहूंगा कि अम्मा का व्यक्तित्व देखकर यह लगता है कि वे वास्तव में जगतजननी हैं। ग्रामीण विकास के और ग्रामीण स्वास्थ्य के जितने बड़े अभियान देश में दिख रहे हैं, उन सबसे कहीं आगे है अम्मा का ग्राम विकास का सार्थक प्रारूप। ऐसी भगवती स्वरूपा को हम अम्मा न कहें तो और क्या कहें। जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा मिलीं अम्मा, जो भी उनके पास जाएगा, उनका कृपा प्रसाद अवश्य पाएगा।

Monday, October 5, 2015

भारत सरकार ही बनाए देश का पैसा

    बैंकों के मायाजाल पर जो दो तथ्यपरक लेख पिछले हफ्तों में हमने लिखे, उन पर देशभर से जितनी प्रतिक्रियाएं आईं हैं, उतनी आज तक किसी लेख पर नहीं आईं। हर पाठक अब इस समस्या का समाधान पूछ रहा है। इसलिए इस कड़ी का यह तीसरा और अंतिम लेख समाधान के तौर पर है। ऐसा समाधान जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत बनें और हर भारतीय कर्ज के दबाव से मुक्त होकर सम्मानजनक जीवन जी सके। इसके लिए जरूरी होगा कि भारत सरकार देश का पैसा खुद बनाए और इन व्यवसायिक बैंकों को देश लूटने की छूट न दे। इसे हम विस्तार से आगे समझाएंगे। पहले देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति पर एक नजर डाल लें। 2015-16 वित्तीय वर्ष के लिए जो बजट सरकार ने बनाया, उसमें 14,49,490 करोड़ रूपए एकत्रित किए। इसमें से 5,23,958 करोड़ रूपए राज्यों को उनके हिस्से के रूप में दे दिए। इस प्रकार जो बचा, उसमें सरकार ने अपनी आमदनी 2,21,733 करोड़ रूपए जोड़ ली और उसकी कुल आय हो गई 11,41,575 करोड़ रूपए। इस आय में से शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, विद्युत, संचार, परिवहन, विज्ञान व प्रौद्योगिकी जैसे जनकल्याण कार्यों में मात्र 58,127 करोड़ रूपए खर्च करने का प्रावधान किया। जबकि इसमें से 6,81,719 करोड़ रूपया बैंकों को ब्याज और किस्त के रूप में दे दिया। अब आप स्वयं ही देख लीजिए कि भारत सरकार अपने हिस्से के बजट का 60 फीसदी केवल बैंकों को दे देती है, फिर क्या खाक विकास होगा और हम कभी इस कर्जे के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो पाएंगे। आप चाहे जितनी मेहनत कर लो। जितना उत्पादन कर लो। जितना कर दे दो सरकार को। सबका सब ये बैंक हजम कर जाते हैं, तो कैसे होगा आपका विकास ?

   
शोध से यह निकलकर आ रहा है कि लगभग 25 लाख करोड़ रूपया सालाना भारत की सरकार, राज्य सरकारों और जनता से लूटकर ये बैंक ले जा रहे हैं और अपनी तिजोरी भर रहे हैं। इस तरह हमारे रूपए की कीमत लगातार तेजी से गिरती जा रही है। इस व्यवस्था के पहले अगर हमारे पास 100 रूपए होते थे, तो उसका मतलब था 100 तौला यानि 1 किलो चांदी। पर आज अगर हमारे पास 100 रूपए हैं, तो उसकी कीमत रह गई मात्र 25 पैसे। 99.75 रूपए इस बैकिंग व्यवस्था ने डकार लिए और हमें और हमारे देश को कंगाल कर दिए, केवल खातों में कर्जे दिखाकर।

    समाधान के रूप में हमें अपनी इस पिरामिड वाली बैकिंग व्यवस्था को पलटना होगा। इंग्लैंड के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति और बैंक आॅफ इंग्लैंड के डायरेक्टर सर जोशिया स्टाम्प ने टैक्सास विश्वविद्यालय में 1927 को भाषण देते हुए कहा था कि, ‘आधुनिक बैंकिंग प्रणाली जादुई तरीके से पैसा बनाती हैं। यह प्रक्रिया शायद जादू का अभी तक सबसे बड़ा अविष्कार है। बैकिंग की कल्पना में अन्याय है और यह पाप से जन्मा है। बैंकर पृथ्वी के मालिक हैं। अगर इसे तुम उनसे छीन भी लो, पर उन्हें पैसे बनाने की शक्ति देकर रखो, तो वे कलम के एक झटके के साथ, सारी धरती को फिर से खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे बना लेंगे। उनसे यह भारी ताकत छीन लो। फिर ये दुनिया ज्यादा खुशहाल और रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। परंतु अगर आप बैंकरों के गुलाम बने रहना चाहते हो और अपनी खुद की ही गुलामी की लागत का भुगतान देना जारी रखना चाहते हों, तो बैंकरांे को पैसे बनाने और उसे नियंत्रित करने की शक्ति उन्हीं के पास रहने दो।’

    अगर भारत सरकार अपना पैसा खुद बनाए, तो उसे ब्याज देने की जरूरत नहीं होगी। आज की व्यवस्था के अनुसार कुल बजट का 40 फीसदी ही सरकार खर्च कर पाती है, शेष कर्जे में चला जाता है। अगले आर्थिक वर्ष से अगर सरकार ये 40 फीसदी पैसा खुद बना लें, तो पुराना कर्ज तो चुकाती रहे, पर नया कर्ज उस पर कुछ नहीं चढ़ेगा और जब नया कर्ज नहीं चढ़ेगा, तो उसे कर बढ़ाने की भी आवश्यकता नहीं होगी और इसके तुरंत प्रभाव से सरकार का बजट 3 गुना बढ़ जाएगा। ऐसा करने से सरकार अपनी आवश्यकता का पैसा खुद बना लेगी और उसे विकास योजनाओं के लिए कोई कर्ज नहीं लेना पड़ेगा। धीरे-धीरे पुराना कर्ज खत्म हो जाएगा और कुछ ही वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाएगी कि उसका अपना बजट चीन के बजट से भी ज्यादा हो जाएगा और तब भारत दुनिया के अर्थव्यवस्थाओं में पहले नंबर पर पहुंच जाएगा, जैसा सन् 1700 में था।

दरअसल, ये कोई अजीब बात नहीं है। 1969 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इस ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया था। जिससे बैकिंग उद्योग में खलबली मच गई और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किंसिजर ने इंदिरा गांधी को और भारतीयों को भद्दी गालियां दीं और भारत पर पाकिस्तान से हमला करवाकर हमें जबर्दस्ती युद्ध में धकेल दिया। 1971 में की गई उनकी यह निजी बातचीत अमेरिकी सरकार के दस्तावेजों के 2005 में सार्वजनिक होने पर प्रकाश में आई। ये बात दूसरी है कि भारत ने पाकिस्तान को 1971 के युद्ध में हरा दिया। इस तरह इंदिरा गांधी ने देश को बैंकरों के शिकंजे से छुड़ाने में एक मजबूत और सफल कदम बढ़ाया। ये बात आगे जाती, पर इंदिरा गांधी कुछ भ्रष्टाचार में फंस गईं। जिसकी आड़ में बैंकिंग समुदाय ने उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका। बाद की सरकारों ने बैंकों को फिर से निजी हाथों में देना शुरू कर दिया और हम फिर इनके मायाजाल में फंस गए। अब अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पैसा खुद बनाने का छोटा, लेकिन कड़ा निर्णय लेते हैं, तो जनता और व्यापारी वर्ग को कर और कर्ज से मुक्त कर सकते हैं, देश को कर्जमुक्त कर सकते हैं और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ कर सकते हैं। तब देश को कभी भी महंगाई और मंदी का मुंह नहीं देखना पड़ेगा और तब फिर से बनेगा भारत सोने की चिड़िया।

Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है। 

Monday, September 21, 2015

महंगाई और मंदी के लिए बैंक जिम्मेदार

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जॉन.एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति,  ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पंेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।

Monday, September 14, 2015

जगत जननी है अमृतानंदमयी मां

    दक्षिण भारत के केरल राज्य में मछुआरों की बस्ती में एक दरिद्र परिवार में जन्मीं माता अमृतानंदमयी मां ने वित्त मंत्री अरूण जेटली को ‘नमामी गंगे अभियान’ के लिए 100 करोड़ रूपए का चैक दिया। इसके पहले सुनामी के समय भी उन्होंने गरीब मछुआरों की मदद के लिए लगभग एक हजार करोड़ रूपया खर्च किया था। उनकी संस्था द्वारा चलाई जा रही सेवाओं का मुख्य उद्देश्य दीनहीन लोगों की निःस्वार्थ मदद करना है। मसलन, उनके सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में गरीब और अमीर दोनों का एक जैसा इलाज होता है। पर गरीब से फीस उसकी हैसियत अनुसार नाम मात्र की ली जाती है। आज जब आसाराम, राधे मां, रामलाल जैसे वैभव में आंकठ डूबे ढोंगी धर्मगुरूओं का जाल बिछ चुका है, तब गरीबों के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली ये अम्मा कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं हो सकतीं। 

    आज टी.वी. चैनलों पर स्वयं को परम पूज्य बताकर या बाइबल की शिक्षा के नाम पर जादू-टोने दिखाकर या इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे बताकर धर्म की दुकानें चलाने वालों की एक लंबी कतार है। ये ऐसे ‘धर्मगुरू’ हैं, जिनके सानिध्य में आपकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत नहीं होती, बल्कि भौतिक इच्छाएं बढ़ जाती हैं। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था। पर, प्रचार का जमाना है। चार आने की लागत वाले स्वास्थ्य विरोधी शीतल पेयों की बोतल 15 रूपए की बेची जा रही है। इसी तरह धर्मगुरू विज्ञापन एजेंसियों का सहारा लेकर टीवी, चैनलों के माध्यम से, अपनी दुकान अच्छी चला रहे हैं और हजारों करोड़ के साम्राज्य को भोग रहे हैं। उनके द्वार पर केवल पैसे और ताकत वालों की पूछ होती है। गरीब या गाय की सेवा के नाम पर सिर्फ ढांेग होता है। अगर उनकी आमदनी व खर्चे का हिसाब मांगा जाए, तो यह पता चलेगा कि यह आत्मघोषित गुरू जो माया का मोह त्यागने की सलाह देते हैं, गरीब के हित में 1 फीसदी रकम भी खर्च नहीं करते। ये लोग आश्रम के नाम पर 5 सितारा होटल बनाते हैं और उससे भी कमाई करते हैं। 

    जबकि दूसरी ओर केरल की ये अम्मा गरीबों का दुख निवारण करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। इसका ही परिणाम है कि केरल में जहां गरीबी व्याप्त थी और उसका फायदा उठाकर भारी मात्रा में धर्मांतरण किए जा रहे थे, वहीं आज अम्मा की सेवाओं के कारण धर्मांतरण बहुत तेजी से रूका है। हिंदू धर्मावलंबी अब अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मिशनरियों के प्रलोभनों में फंसकर अपना धर्म नहीं बदलते। पर, इस स्थिति को पाने के लिए अम्मा ने वर्षों कठिन तपस्या की है। 

    कृष्ण भाव में तो वे जन्म से ही डूबी रहती थीं। पर उनके अनाकर्षक रूप, रंग और इस असामान्य व्यवहार के कारण उन्हें अपने परिवार से भारी यातनाएं झेलनी पड़ीं। वयस्क होने तक अपने घर में नौकरानी से ज्यादा उनकी हैसियत नहीं थी। जिसकी दिनचर्या सूर्योदय से पहले शुरू होती और देर रात तक खाना बनाना, बर्तन मांझना, कपड़े धोना, गाय चराना, नाव खेकर दूर से मीठा पानी लाना, क्योंकि गांव में खारा पानी ही था, गायों की सेवा करना, बीमारों की सेवा करना, यह सब कार्य अम्मा को दिन-रात करने पड़ते थे। ऊपर से उनके साथ हर वक्त गाली-गलौज और मारपीट कर जाती थी। उनके बाकी भाई-बहिनों को खूब पढ़ाया लिखाया गया। पर, अम्मा केवल चैथी पास रह गईं। इन विपरीत परिस्थितियों में भी अम्मा ने कृष्ण भक्ति और मां काली की भक्ति नहीं त्यागी। इतनी तीव्रता से दिन-रात भजन किया कि उनकी साधना सिद्ध हो गई। कलियुग के लोग चमत्कार देखना चाहते हैं, पर अम्मा स्वयं को सेविका बताकर चमत्कार दिखाने से बचती रहीं। पर ये चमत्कार क्या कम है कि वे आज तक दुनियाभर में जाकर 5 करोड़ लोगों को गले लगा चुकी हैं। उनको सांत्वना दे चुकी हैं, उनके दुख हर चुकी हैं और उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रही हैं। 

    इस चमत्कार के बावजूद हमारी ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था ने एक महान आत्मा को मछुआरिन मानकर वो सम्मान नहीं दिया, जो संत समाज में उन्हें दिया जाना चाहिए था। ये बात दूसरी है कि ढांेगी गुरूओं के मायजाल के बावजूद दुनियाभर के तमाम पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक, सफल व्यवसायी, भारी मात्रा में उनके शिष्य बन चुके हैं और उनके आगे बालकों की तरह बिलख-बिलख कर अपने दुख बताते हैं। मां सबको अपने ममतामयी आलिंगन से राहत प्रदान करती हैं। उनके आचरण में न तो वैभव का प्रदर्शन है और न ही अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता का अहंकार। उनके द्वार पर कोई भी, कभी भी, अपनी फरियाद लेकर जा सकता है। ऐसा वहां जाकर आए बहुत से लोगों ने बताया है। 

    मुझे इत्तफाकन पिछले हफ्ते ही उनकी जीवनी पढ़ने को मिली। यह जीवनी इतनी रोमांचककारी है कि मैं पूरी पुस्तक बिना पढ़े रह नहीं सका और तब मुझे एहसास हुआ कि 20 वर्ष पहले जब अम्मा ने भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन और मेरा आलिंगन किया था, तब मैंने अम्मा को क्यों नहीं जाना। उनका आश्रम दिल्ली में मेरे आवास से मात्र 500 कदम दूर है। पर, यह दूरी मैंने 20 वर्ष बाद आज पूरी की और अब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ उनके दर्शन करने केरल जा रहा हूं। लौटकर, अपनी अनुभूति और अनुभव आपसे बाटूंगा।

Monday, August 31, 2015

इन्द्राणी मुखर्जी: हमारी रोल मॉडल नहीं

ऐसी शोहरत, ग्लैमर व ताकत की चमक-दमक वाली दुनिया के सितारे भारतीय समाज के आदर्श नहीं हो सकते। क्योंकि इन्होंने जिस उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति का रास्ता अपनाया है उससे भारतीय समाज की हजारों साल पुरानी परंपरांओं को भारी खतरा पैदा हो गया है। खासकर उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग उन्हें अपना आदर्श मानकर फुहड़पन की भौडी संस्कृति को तेजी से अपनाता जा रहा है। फिर चाहे वो ताश के पत्तों की तरह पति या पत्नियां को बदलना हो, चाहे लिव-इन-रिश्ते में रहना हो या फिर मुक्त सैक्स का आनंद लेना हो। घर टूट रहे हैं। रिश्ते टूट रहें हैं। तनाव और घुटन बढ़ रही है। हत्याएं और आत्महत्याएं हो रही हैं। नशीली दवाओं का सेवन बढ़ रहा है। यह सब देन है टीवी सीरियलों, फिल्मों और पेज-3 संस्कृति की। जो जबरदस्ती हमारे घरों में घुसती जा रही है।

आधुनिक और मुक्त विचारों का हामी बुद्धिजीवी वर्ग इस संस्कृति पर किसी भी तरह के नियंत्रण को मानवाधिकारों का हनन मानता है। ऐसे प्रयासों को कट्टरवादी कह कर उसके विरोध में उठ खड़ा होता है। चूंकि इस वर्ग की पकड़ और पहुंच मीडिया में गहरी और व्यापक हैए इसलिए इनकी ही बात सुनी जाती है। जबकि बहुसंख्यक समाज आज भी इस संस्कृति से बचा हुआ है और इसे पसंद नहीं करता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि यह बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक वर्ग पर हावी होता जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम हम सबके सामने इस रूप में आ रहा है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।

मुक्त विचारों के समर्थक इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इंद्राणी जैसी औरत को क्या कहेंगे ? जो अपनी बेटी की हत्या करती है, अपने पुराने पति के सहयोग से। नए पति से यह राज छुपाती है कि शीना उसकी बेटी थी और हत्या करके भी नए पति के साथ आराम से सामान्य जिंदगी जीती हैं। अपनी पिछली शादी से पैदा लड़की को, उसके बाप से अलग रखकर नए पति की दत्तक पुत्री बनवा देती है ताकि उसकी दौलत इस दत्तक पुत्री को मिल सके। इन्द्राणी अकेली नहीं हैं। ऐसी ताकतवर, मशहूर और हाई सोसायटी वाली महिलाएं देश की राजधानी दिल्ली से लेकर हर बड़े शहर के कुलीन माने जाने वाले समाज की ‘शोभा’ बढ़ाती हैं और तब तक गुलछर्रे उड़ाती हैं जब तक कोई हिम्मती उनका भांड़ा न फोड़ दे। पर हमारे कुलीन समाज को क्या हो गया है? ये समाज किस रास्ते पर बढ़ चला है ? कहां इस प्रकार के घिनौने कृत्यों पर विराम लगेगा, यह चिंतनीय है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में अवैध संबंधों का इतिहास न रहा हो। वैदिक काल से आज तक ऐसे संबंधों के अनेक उदाहरण पुराणों तक में उल्लेखित हैं द्य पर उनका समाज में आदर्श की तरह यशगान नहीं किया जाता था। उन्हें सह लिया जाता थाए  महिमामंडित नहीं किया जाता था। अगर कड़ी शासन व्यवस्था हुई तो उन पर नियंत्रण भी किया जाता था।

लेकिन आज जो यह संस्कृति निर्लज्जता से साजिशन पनपाई जा रही है, इसके पीछे हैं वो बाजारू ताकतें जो अपने उत्पादनों को हमारे बाजारों में थोपने के लिए हमारी सामाजिक परिस्थिति को बदल देना चाहती हैं। जिसे हम आज आधुनिक मान रहे हैं द्य दरअसल यह संस्कृति पश्चिमी देशों में अपना खोखलापन सिद्ध कर चुकी है। इसलिए वहां के समाजों ने अब इस संस्कृतिक से काफी हद तक मुंह मोड़ लिया हैं और पारिवारिक बंधनों की ओर फिर से लौटने लगे हैं ।

जबकि हम हर आयातित चीज को अपनाने की भूख में अपने अस्तित्व की जड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। छोटे-छोटे काम ही हमें आगे चलकर बड़े पतन की ओर ले जाएंगे। आज भारत के किसी भी गांव, कस्बें में चले जाइएए फेरों बिना शादी हो जाएगी पर डीजे बिना नहीं होगी। डीजे में फटता कानफाडू शोर, अभद्र गानें और उनपर थिरकतें हमारे परिवारिजन शादी का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं। न कोई बात सुनपाता है और न मंत्रों का उच्चारण। जबकि शादी जैसे पवित्र समारोह भारतीय संस्कृति और परंपरा के उन उच्च आदर्शों का नमूना है जिन्हें अपनाने आज बड़े-बड़े मशहूर गोरे लोग तक भारत आ रहे हैं।

पारंपरिक त्यौहार जिनका संबंध हमारे मौसम और कृषि से था उन्हें भूलकर हम वेलेनटाइन-डे जैसे वाहियात नए त्यौहारों को अपना कर अपनी जड़ों से कट रहे हैं। इकबाल ने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।‘ हजारों साल भारत ने विदेशी हमलों को झेला मगर हमारी संस्कृति की जड़े इतनी गहरी थी कि कोई उन्हें हिला नहीं पाया। पर बाजार की इस संस्कृति ने जो हमला किया है, उसने हमारे गांवों तक अपनी पकड़ बना ली है। इसे रोकना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विरोधी लाख तानाशाह कहें, पर उन्हें ऐसी तानाशाही दिखानी होगी ताकि टीवी और इंटरनेट से ऐसी संस्कृति को रोकने का माहौल बन सके। इसलिए इस तरह के तथाकथित ग्लैमर, शोहरत और ताकत के बल पर अति महत्वाकांक्षी आधुनिक संस्कृति का पटाक्षेप हो सके द्य जो आने वाली हमारी पीढ़ियों के लिए जरूरी है।

Monday, August 10, 2015

राधे मैया की हो गई ‘राधे-राधे‘

मीडिया से घिरी और पुलिस वालों के फंदे में फंसी मुंबई की पांच सितारा राधे मां की अब ‘राधे-राधे’ हो गई। कैसी विड़बना है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण की अंतरंगा शक्ति कृपामयी, करूणामयी श्री राधारानी के दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ हैं। जिनके चरणाश्रय के लिए सकल ब्रह्मांड के संत और भक्त सदियों साधना करते हैं। जिनके चरणों के नख की कांति कोटि चंद्रमाओं को भी लजा देती है। जिनको आकर्षित करने के लिए हमारे प्यारे श्यामसुंदर ब्रज के वनों और कुंजों में फेरे लगाया करते हैं। उन राधारानी का ढ़ोग धरने की हिमाकत अगर संसारी जीव करें, तो उनकी यही दशा होगी, जो आज तथाकथित राधे मां की हो रही है। आज से 2 वर्ष पूर्व जब आसाराम बापू गिरफ्तार हुए थे, तो मैंने धर्म के धंधे पर एक लेख लिखा था। विड़बना देखिये कि आत्मघोषित राधे मां को पकड़े जाने के बाद वह लेख ज्यों का त्यों आज फिर प्रासंगिक हो गया है। उसके कुछ बिंदु यहां दोहरा रहा हूं।

दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।

संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरू या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

राधे मां कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाली शब्दों की जादूगर हैं, जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगी रही हैं। जिनके जिस्म पर लदे करोड़ों रूपए के आभूषण, फिल्मी हिरोइनों की तरह चेहरे का मेकअप, विदेशी इत्रों की खुशबू, भड़काऊ या पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरूद्ध आचरण देखने के बाद भी उनके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग- मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘।

Monday, August 3, 2015

हिंदू संस्कृति से इतना परहेज क्यों ?


याकूब मेमन की फांसी के बाद सुना है 25 हजार लोग उसके जनाजे में गए। ये वो लोग थे, जिनके शहर के वाशिंदों को 22 बरस पहले याकूब मेमन और उसके साथियों ने बिना वजह मौत के घाट उतार दिया था। दो-चार नहीं, दस-बीस नहीं, सैकड़ों लोगों के चिथड़े उड़ गए। उनमें हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, पारसी भी थे और दूसरे मजहब के लोग भी। इनका कोई कसूर नहीं था। बस, मुल्क के दुश्मनों, दहशतगर्दों और तस्करों ने ठान लिया कि हिंदुस्तान की हुकूमत को एक झटका देना है और इस तरह 1993 में मुंबई शहर में एक साथ दर्जनों जगह ब्लास्ट हुए। 
फिर भी इन हमलों के लिए दोषी याकूब मेनन की फांसी रूकवाने के लिए हिंदुस्तान के कई मशहूर लोगों ने तूफान खड़ा कर दिया। यहां तक कि सर्वोच्च अदालत को भी सुबह 3 बजे तक अदालत चलानी पड़ी। अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोग याकूब मेमन की तरफदारी में सिर्फ इसलिए कूद पड़े कि उन्हें मुसलमानों की सहानुभूति मिले या उनके वोट मिले। वैसे, हकीकत यह भी है कि इस तरह का बबेला मचाने वालों को खाड़ी के देशों से मोटी रकम पेशगी दी जाती है। जिससे वो अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे मंचों पर उन सवालों को उठाए, जिनके लिए उन्हें विदेशी हुकूमत पैसा देती है। ये बात बार-बार उठी कि जब सरबजीत जैसे किसी हिंदू या सिक्ख को पाकिस्तान में फांसी दी जाती है, तब इन धर्मनिरपेक्षवादियों का खून क्यों नहीं खोलता ? अगर यह लोग वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं, तो इन्हें कश्मीर की घाटी से आतंकित करके निकाले गए हिंदूओं के लिए भी ऐसे ही चिल्लाना चाहिए था, पर, ये चुप रहे। 
    आज देश में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडियाकर्मियों जैसे शोर मचाने वाले लोग दो खेमों में बंटे हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर आजाद भारत में 1947 से अपनी रोटियां सेंक रहे हैं, दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्हें भारत की सनातन सांस्कृतिक पहचान को लेकर भारी उत्तेजना है। इन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, वो देश की अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाएगी। पहले की तरह बहुसंख्यक समाज की भावनाओं और उनके मुद्दों को सांप्रदायिक कहकर दबाने की कोशिश नहीं करेगी। इसलिए लोगों में कुछ ज्यादा उत्साह है। इसमें मुश्किल तो हम जैसे लोगों की है। न तो हम धर्मनिरपेक्षवादियों की तरह खुद को हिंदू कहने से बचते हैं और न ही ‘गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं’ कहने वालों की हर बात से सहमत हैं। हम तो वो कहते हैं, जो समाज के हित में हमें ठीक लगता है। इसलिए हमें सारे मुसलमान गद्दार नजर नहीं आते और हिंदू धर्म के सारे झंडाबरदार हमें हिंदू संस्कृति के रक्षक नहीं लगते। धर्म का व्यापार उधर भी खूब चमकता है और इधर भी खूब चमकता है। इसलिए लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने की बजाय धर्म के ठेकेदार दूसरे धर्म वालों को दुश्मन बताकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और सांप्रदायिकता भड़काते हैं। 
     पर, ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति इन खेमों में ही बंटा हो। आज ही वाट्सअप पर मैंने एक पाकिस्तानी विद्वान का इंटरव्यू देखा, जो स्वयं कनाडा में रहते हैं। पर उनकी ससुराल भारत के गुजरात प्रांत में है। ये सज्जन कह रहे थे कि पाकिस्तान के मुसलमान और हिंदुस्तान के मुसलमान अशिक्षा के कारण कठमुल्लों के पीछे चलकर अपना बेड़ागर्क कर रहे हैं। जबकि हिंदू धर्म इतना विशाल हृदय है कि उनके हर शहर में आप 4 बजे लाउडस्पीकर पर अजान लगाकर पूरे शहर को जगाते हैं, फिर भी वे विरोध नहीं करते। जबकि उनका कहना था कि ऐसी जुर्रत अगर पाकिस्तान के किसी शहर में कोई हिंदू कर बैठे, तो उसे मार-मार कर खत्म कर दिया जाएगा और शहर में दंगा हो जाएगा। उनका कहना था कि कश्मीर पर हमारा कोई हक नहीं है। अगर ऐतिहासिक हक की बात करें, तो लाहौर जैसे शहर, जिन्हें भगवान राम के पुत्रों ने बसाया था, को वापिस लेने की मांग भारत भी कर सकता है। पर, ये वाहियात ख्याल है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि सिंधु नदी के इस पार रहने वाला हर आदमी हिंदुस्तानी है। चाहे वह पाकिस्तान में रहता हो, चाहे बांग्लादेश में। उनका यह जुमला तो मुझे बहुत ही जोरदार लगा कि ‘हमारे मुसलमान भाई बड़े भाई का कुर्ता और छोटे भाई का पाजामा पहनकर अपनी पहचान अलग रखते हैं और कार्टून नजर आते हैं।’ उनका मानना था कि हिंदुस्तान की पुरानी तहजीब हम सबकी जिंदगी का इतिहास है और उसे संजीदगी से समझना और उसका सम्मान करना चाहिए। अब ऐसी बात कोई मुसलमान भारत में क्यों नहीं करता, वह भी मीडिया पर। क्योंकि उसे डर है कि कोई कठमुल्ला फतवा जारी करके उसकी जान खतरे में डाल सकता है। इसलिए वह चुप रह जाने में ही अपनी भलाई समझता है। जिसका फायदा ऐसे धर्मांध छुठभइये नेता उठा लेते हैं, जो आवाम को लगातार हिंदूओं के खिलाफ भड़काकर समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करते हैं। 
     हकीकत यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले किसी भी मुसलमान को खाड़ी के देशों में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता। उनका अलग नाम रख दिया गया है। फिर भी ये मुसलमान अपनी पहचान खाड़ी के देशों से जोड़ना चाहते हैं। अगर वे भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं का सम्मान करना सीख लें, तो वे पाकिस्तान के मुसलमानों से कहीं ज्यादा आगे निकल जाएंगे। इसी तरह जरूरत इस बात की है कि हल्ला मचाने वाले धर्मनिरपेक्षता का सही मतलब समझें और समाज के हित में लिखते और बोलते वक्त ये ध्यान रखें कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यकवाद नहीं है। 

Monday, July 27, 2015

हृदय योजना से होगा प्राचीन नगरों का संरक्षण


    इस साल जनवरी में शहरी विकास मंत्री श्री वैकैया नायडू ने प्रधानमंत्री की चहेती योजना ‘हृदय’ की शुरुआत की। इस योजना का लक्ष्य भारत के पुरातन शहरों को सजा-संवारकर दुनिया के आगे प्रस्तुत करना है। जिससे भारत की आत्मा यानि यहां की सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण हो सके। इसीलिए अंग्रेजी में जो नाम रखा गया है, उसके प्रथम अक्षरों को मिलाकर ‘हृदय’ शब्द बनता है। 

     योजना का उद्देश्य बहुत ही प्रशंसनीय है, क्योंकि जागरूकता के अभाव में भारत की ऐतिहासिक धरोहरों को बहुत तेजी से नष्ट किया जा रहा है। विशेषकर पिछले दो दशकों में, जब से शहरी जमीन के दाम दिन दूने रात चैगने बढ़े हैं, तब से इन धरोहरों की तो शामत आ गई है। भूमाफिया इन्हें कौडि़यों के मोल खरीद लेते हैं और रातोंरात धूलधूसरित कर देते हैं। जो कुछ कलाकृतियां, भित्ति चित्र, पत्थर की नक्काशियां या लकड़ी पर कारीगरी का काम इन भवनों में जड़ा होता है, वह भी कबाड़ी के हाथ बेच दिया जाता है। यह ऐसा हृदयविदारक दृश्य है, जिसे देखकर हर कलाप्रेमी चीख उठेगा। पर भ्रष्ट नौकरशाही, नाकारा नगर पालिकाएं और संवेदनाहीन भूमाफिया के दिल पर कोई असर नहीं होता। 

    प्रधानमंत्री ने इस दर्द को समझा और देशभर में धरोहरों के प्रति जाग्रति पैदा करने के उद्देश्य से ‘हृदय’ योजना शुरू की। शुरू में इसमें केवल 12 पुराने शहर लिए गए हैं, जैसे-अमृतसर, अजमेर, वाराणसी, मथुरा, जगन्नाथपुरी आदि। बाद में इस सूची का और विस्तार किया जाएगा। अब इन शहरों की धरोहरों की रक्षा पर केवल पुरातत्व विभाग को ही ध्यान नहीं देना होगा, बल्कि समाज के अनेक वर्ग जो अपनी धरोहरों से प्रेम करते हैं, वे भी अब अपने शहर की धरोहरों को बचाने में सक्रिय हो जाएंगे। 

योजना का दूसरा पहलु है कि इन धरोहरों के आसपास के आधारभूत ढांचे को सुधारा जाए, जिससे देशी-विदेशी पर्यटक इन धरोहरों को देखने आ सकें। इस योजना की तीसरी खास बात यह है कि इसमें निर्णय लेने का अधिकार केवल नौकरशाही के हाथ में ही नहीं है, बल्कि काफी हद तक निर्णय लेने का काम उस क्षेत्र के अनुभवी लोगों पर छोड़ दिया गया है। इससे जीर्णोद्धार के काम में कलात्मकता और सजीवता आने की संभावना बढ़ गई है। पर ये काम इतना आसान नहीं है। 

    किसी भी पुराने शहर के बाजार में जाइए, तो आपको नक्काशीदार झरोखों से सजी दुकानें मिलेंगी। इन दुकानों की साज-सज्जा अगर प्राचीन तरीके से करवा दी जाए, तो ये बाजार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकते हैं। इस योजना के तहत ऐसे तमाम पुरातन शहरों की धरोहरों को सजाने-संवारने का एक सामान्तर प्रयास किया जा सकता है। उससे ये बाजार बहुत ही आकर्षक बन जाएंगे। पर इस पहल में व्यापारियों को सहयोग देने के लिए आगे आना पड़ेगा। उनके प्रतिष्ठान अंदर से चाहें जैसे हों, पर बाहरी स्वरूप कलात्मक, पारंपरिक और एक-सा बनाना पड़ेगा। 

इस पूरे प्रयास में सबसे बड़ी तादाद पुरातन धरोहरों के ऊपर हजारों नाजायज कब्जों की है। ये लोग दशाब्दियों से यहां काबिज हैं और बिना किसी दस्तावेज के और बिना किसी अधिकार के इन संपत्तियों के ऊपर अवैध कब्जे जमाए बैठे हैं, उन्हें निकालना एक टेढ़ी खीर होगा। पर अगर जिला प्रशासन, प्रदेश शासन और केंद्र सरकार मिलकर कमर कस लें, तो छोटी सी जांच में यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये लोग बिना किसी कानूनी अधिकार के अरबों की संपत्ति दबाए बैठे हैं और उसे बेच रहे हैं। 

जिनके पास कानूनी अधिकार न हों, उन्हें बेदखल करना जिला प्रशासन के लिए चुटकियों का खेल है। अगर ऐसा हो सका तो इन भवनों को संस्कृति और पर्यटन के विस्तार के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा। तब इनकी वास्तुकला और शिल्पकला देखने आने वाले स्कूली बच्चों की तादाद बहुत बढ़ जाएगी। साथ ही इनका जीर्णोद्धार होने से इनकी आयु बढ़ जाएगी और इनके छत्र तले अनेक स्थानीय कलाओं के विस्तार और प्रदर्शन के माॅडल तैयार किए जा सकेंगे। 

हृदय स्कीम के तहत कुछ नौजवानों को रोजगार देने की भी बात है, जिन्हें प्रशिक्षित कर क्षेत्रीय पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सके। 

समस्या उन राज्यों में ज्यादा है, जहां का राजनैतिक नेतृत्व हर तरह के काम में अपने चेले-चाटुकार घुसाकर आवंटित राशि का 70 फीसदी तक खाना चाहता है। इसका मतलब विकास के लिए मात्र 30 फीसदी धन बचा। इससे कैसा विकास हो सकता है, इसका पाठक अंदाजा लगा सकते हैं। 

दरअसल, हर पुरातन शहर के नागरिकों, कलाप्रेमियों, कलाकारों, समाज सुधारकों, वकीलों और पत्रकारों को साथ लेकर एक जनजाग्रति अभियान चलाना पड़ेगा। जिससे जनता हर निर्माणाधीन प्रोजेक्ट की निगरानी करने लगे। तभी कुछ सार्थक उपलब्धि हो पाएगी, वरना हृदय योजना अपने लक्ष्य प्राप्ति में गति नहीं पकड़ पाएगी। 

Monday, July 20, 2015

ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर महाराष्ट्र में नहीं, असम में है

कभी-कभी इतिहास गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है और नई परंपराएं इस तरह स्थापित हो जाती हैं कि लोग सच्चाई भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा है भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक का, जिन्हें हम भीमाशंकर जी के नाम से जानते हैं और उनकी उपस्थिति महाराष्ट्र के पुणे नगर में मानकर उनके दर्शन और आराधना करने जाते हैं। यूं तो कण-कण में व्याप्त भगवान एक ही समय अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं। उस तरह तो पुणे नगर के ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर ऐसी सभी मान्यताओं का आधार हमारे पुराण हैं। विदेशी या विधर्मी इन्हें एतिहासिक न मानें, मगर हर आस्थावान हिंदू पुराणों को सनातन धर्म का इतिहास मानता है। उस दृष्टि से हमें ज्योतिर्लिंगों की अधिकृत जानकारी के लिए श्री शिवपुराण का आश्रय लेना होगा।

पिछले हफ्ते जब मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर था, तो मेरे मेजबान मित्र ने भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के विषय में अद्भुत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पौराणिक भीमाशंकर जी महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि असम की राजधानी गोवाहटी की पहाड़ियों के बीच विराजते हैं। असम के वैष्णव धर्म प्रचारक श्री शंकरदेव की वैष्णव भक्ति की आंधी में असम के सभी शिवभक्तों को या तो वैष्णव बना लिया गया था या वे स्वयं ही असम छोड़कर भाग गए थे। इसलिए भीमाशंकर जी पिछली कुछ सदियों से गुमनामी के अंधेरे में खो गए। वे मुझे भीमाशंकर के दर्शन कराने ले गए। उनके साथ उनकी सुरक्षा में लगा असम पुलिस का लंबा-चैड़ा लाव-लश्कर था। हम लंबी पैदल यात्रा और कामरूप के मनोहारी पर्वतों और वनों के बीच चलते हुए एक निर्जन घाटी में पहुंचे। जहां शहरीकरण से अछूता प्राकृतिक वातावरण था, जो दिल को मोहित करने वाला था। वहां कोई आधुनिकता का प्रवेश नहीं था। हां, कभी सदियों पूर्व वहां स्थापित हुए किसी भव्य मंदिर के कुछ भगनावेश अवश्य इधर-उधर छितरे हुए थे। फिलहाल तो वहां केवल वनों की लकड़ियों से बनी रैलिंग, बैंचे और लता-वृक्षों की छाया थी। भोलेनाथ अपने भव्य रूप में पहाड़ी नदी के बीच में इस तरह विराजे हैं कि 24 घंटे उनका वहां जल से अभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतु में तो वे पूरी तरह नदी में डुबकी लगा लेते हैं। उनकी सेवा में लगे पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं, बल्कि जनजातिय हैं। जो सैकड़ों वर्षों से भीमाशंकर महादेव की निष्ठा से चुपचाप पूजा-अर्चना करते रहते हैं। यहां काशी से लेकर देशभर से संत और शिवभक्त आकर साधना करते हैं। मगर अभी तक इस स्थान का कोई प्रचार प्रसार देश में नहीं हुआ है।

पुजारी जी ने बताया कि शिवपुराण के 20वें अध्याय में श्लोक संख्या 1 से 20 तक व 21वें अध्याय के श्लोक संख्या 1 से 54 तक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा बताई गई है। जिसके अनुसार ये ज्योतिर्लिंग कामरूप राज्य के इन पर्वतों के बीच यहीं स्थापित हैं। असम का ही पुराना नाम कामरूप था। दर्शन और अभिषेक करने के बाद मैंने आकर शिवपुराण के ये दोनों अध्याय पढ़े, तो मैं हतप्रभ रह गया। जैसा पुजारीजी ने बताया था, बिल्कुल वही वर्णन शिवपुराण में मिला। इसमें कहीं भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के महाराष्ट्र में होने का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के तौर पर 20वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि -
कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया।
अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम्।।
इसी क्रम में भोलेनाथ के अवतीर्ण होने की संपूर्ण कथा के बाद 53वें श्लोक में कहा गया है कि -
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः।
एतल्लिंगम् सदा पूज्यं सर्वपद्विनिवारकरम्।।

आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी खोज देश के मीडिया और शिवभक्तों से कैसे छिपी रह गई। हालांकि इस लेख को लिखते समय मेरी कलम कांप रही है। कारण ये कि लाखों वर्षों से प्रकृति की मनोरम गोद में शांति से भोलेनाथ जिस तरह गोवाहाटी के पर्वतों की घाटी में विराजे हैं, वह शांति इस लेख के बाद भंग हो जाएगी। फिर दौड़ पड़ेंगे टीवी चैनल और शिवभक्त देशभर से असली भीमाशंकर जी के दर्शन करने के लिए। बात फिर वहीं नहीं रूकेगी। फिर कोई वहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगा। यात्रियों की भीड़ को संभालने के लिए खानपान, आवास आदि की व्यवस्थाएं की जाएंगी और व्यवसायिक गतिविधियों की तीव्रता एकदम बढ़ जाएगी। जिससे यहां का नैसर्गिक सौंदर्य कुछ वर्षों में ही समाप्त हो जाएगा।

पर, एक पत्रकार के जीवन में ऐसी दुविधा के क्षण अनेक बार आते हैं, जब उसे यह तय करना पड़ता है कि वह सूचना दे या दबा दे। चूंकि द्वादश ज्योतिर्लिंग सनातनधर्मियों विशेषकर शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए श्रावण मास में शिवभक्तों को यह विनम्र भेंट इस आशा से सौंप रहा हूं कि गोवाहटी स्थित भीमाशंकर महादेव जी के दर्शन करने अवश्य जाएं। पर उस परिक्षेत्र का विकास करने से पूर्व उसके प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह बचाया जा सके या उसका कम से कम विनाश हो, इसका ध्यान अवश्य रखा जाए।