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Monday, December 9, 2024

राजनेताओं के प्रेम प्रसंग


हमेशा की तरह राजनेताओं के प्रेम प्रसंग लगातार चर्चा में रहते हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसे सभी मामलों को बल पूर्वक दबा दिया जाता है। जल्दी ही ऐसी घटनाएँ जनता के मानस से ग़ायब हो जाती हैं। पर दुनिया भर के राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है।
 



उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी। 



आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन. डी. तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं। 



घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।


प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया। 


ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं। 


मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो। 

Monday, January 1, 2024

ऑनलाइन शादी के ख़तरे


जब से सोशल मीडिया का नेटवर्क पूरी दुनिया में बढ़ा है तब से इसका प्रयोग करने वालों की संख्या भी करोड़ों में पहुँच गई है। इसका एक लाभ तो यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति से 24 घंटे संपर्क में रह सकता है। फिर वो चाहे आपसी चित्रों का आदान-प्रदान हो, टेलीफोन वार्ता हो या कई लोगों की मिलकर ऑनलाइन मीटिंग हो। इसका एक लाभ उन लोगों को भी हुआ है जो जीवन साथी की तलाश में रहते हैं। फिर वो चाहे पुरुष हों या महिलाएँ। हम सबकी जानकारी में ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्होंने इस माध्यम का लाभ उठा कर अपना जीवन साथी चुना है और सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहे हैं। पर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर एक पहलू यह है तो दूसरा पहलू ये भी है जहां सोशल मीडिया का दुरुपयोग करके बहुत सारे लोगों को धोखा मिला है और आर्थिक व मानसिक यातना भी झेलनी पड़ी है। 



भारत में किसी अविवाहित महिला का जीवन जीना आसान नहीं होता। उस पर समाज और परिवार का भारी दबाव रहता है कि वो समय रहते शादी करे। चूँकि आजकल शहरों की लड़कियाँ काफ़ी पढ़-लिख रही हैं और अच्छी आमदनी वाली नौकरियाँ भी कर रही हैं इसलिए प्रायः ऐसी महिलाएँ केवल माता-पिता के सुझाव को मान कर पुराने ढर्रे पर शादी नहीं करना चाहती। वे अपने कार्य क्षेत्र में या फिर सोशल मीडिया पर अपनी पसंद का जीवन साथी ढूँढती रहती हैं। इसके साथ ही ऐसी महिलाओं की संख्या कम नहीं है जो कम उम्र में तलाकशुदा हो गईं या विधवा हो गईं। इन महिलाओं के पास भी अपने गुज़ारे के लिए आर्थिक सुरक्षा तो ज़रूर होती है परन्तु भावनात्मक असुरक्षा के कारण इन्हें भी फिर से जीवन साथी की तलाश रहती है। इन दोनों ही क़िस्म की महिलाओं को दुनिया भर में बैठे ठग अक्सर मूर्ख बना कर मोटी रक़म ऐंठ लेते हैं। बिना शादी किए ही इनकी ज़िंदगी बर्बाद कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सत्य घटनाओं पर आधारित बीबीसी की एक वेब सीरीज ‘वेडिंग.कॉन’ इसी हफ़्ते ओटीटी प्लेटफार्म आमेजन प्राइम पर जारी हुई है। यह सीरीज इतनी प्रभावशाली है कि इसे हर उस महिला को देखना चाहिए जो सोशल मीडिया पर जीवन साथी की तलाश में जुटी हैं। बॉलीवुड की मशहूर निर्माता-निर्देशक तनुजा चंद्रा ने बड़े अनुभवी और योग्य फ़िल्मकारों की मदद से इसे बनाया है। 



इस सिरीज़ में जिन महिलाओं के साथ हुए हादसे दिखाए गए हैं उनमें से एक विधवा महिला तो अपनी मेहनत की कमाई का लगभग डेढ़ करोड़ रुपया उस व्यक्ति पर लुटा बैठी जिसे उसने कभी देखा तक न था। इसी तरह एक दूसरी महिला ने पचास लाख रुपये गवाए तो तीसरी महिला ने बाईस लाख रुपये। चिंता की बात यह है कि ये सभी महिलाएँ खूब पढ़ी-लिखी, संपन्न परिवारों से और प्रोफेशनल नौकरियों में जमी हुई थीं। शादी की चाहत में सोशल मीडिया पर ये ऐसे लोगों के जाल में फँस गईं जिन्होंने अपनी असलियत छिपा कर शादी की वेब साइटों पर नक़ली प्रोफाइल बना रखे थे। ये ठग इस हुनर में इतने माहिर थे कि उनकी भाषा और बातचीत से इन महिलाओं को रत्ती भर भी शक नहीं हुआ। वे बिना मिले ही उनके जाल में फँसती गईं और उनकी भावुक कहानियाँ सुन कर अपने खून-पसीने की कमाई उनके खातों में ट्रांसफ़र करती चली गई। इन महिलाओं को कभी यह लगा ही नहीं कि सामने वाला व्यक्ति कोई बहरूपिया या ठग है और वो बनावटी प्यार जता कर इन्हें अपने जाल में फँसा रहा है। इनमें से दो व्यक्ति तो ऐसे निकले जो तीस से लेकर पचास महिलाओं को धोखा दे चुके थे। तब कहीं जा कर पुलिस उन्हें पकड़ पाई। 


आश्चर्य की बात यह है कि सभ्रांत परिवार की यह पढ़ी-लिखी महिलाएँ इस तरह ठगों के झाँसे में आ गईं कि पूरी तरह लुट जाने के पहले उन्होंने कभी अपने माता-पिता तक से इस विषय में सलाह नहीं ली और न ही उन्हें अपने आर्थिक लेन-देन के बारे में कभी कुछ बताया।


जब इन्हें यह अहसास हुआ कि वे किसी आधुनिक ठग के जाल में फँस चुकी हैं तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इस अप्रत्याशित परिस्थिति ने उन्हें ऐसा सदमा दिया कि कुछ तो अपने होशोहवास ही गँवा बैठी। उनके माता-पिता को जो आघात लगा वो तो बयान ही नहीं किया जा सकता। फिर भी इनमें से कुछ महिलाओं ने हिम्मत जुटाई और पुलिस में शिकायत लिखवाने का साहस दिखाया। फिर भी ये ज़्यादातर ठगों को पकड़वा नहीं सकीं। साइबर क्राइम से जुड़े पुलिस के बड़े अधिकारी और साइबर क्राइम के विशेषज्ञ वकील ये कहते हैं कि मौजूदा क़ानून और संसाधन ऐसे ठगों से निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। इनमें से भी जो ठग विदेशों में रहते हैं उन तक पहुँचना तो नामुमकिन है। क्योंकि ऐसे ठगों का प्रत्यर्पण करवाने के लिए भारत की दूसरे देशों से द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि नहीं है। देसी ठगों को भी पकड़ना इतना आसान नहीं होता क्योंकि वह फ़र्ज़ी पहचान, फ़र्ज़ी आधार कार्ड, फ़र्ज़ी पैन कार्ड, फ़र्ज़ी टेलीफोन नंबर का प्रयोग करते हैं और अपने मक़सद को हासिल करने के बाद इन सबको नष्ट कर देते हैं। 

इस सिरीज़ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह करोड़ों भारतीय महिलाओं को बहुत गहराई से ये समझाने में सफल रही है कि शादी के मामले में सोशल मीडिया की सूचनाओं को और इसके माध्यम से संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को तब तक सही न माने जब तक उनकी और उनके परिवार की पृष्ठभूमि की किसी समानांतर प्रक्रिया से जाँच न करवा लें। कोई कितना भी प्रेम क्यों न प्रदर्शित करे, अपने वैभव का कितना भी प्रदर्शन क्यों न करे उसे एक पैसा भी शादी से पहले किसी क़ीमत पर न दें। शादी के बाद भी अपने धन और बैंक अकाउंट को अपने ही नियंत्रण में रखें, उसे नये रिश्ते के व्यक्ति के हाथों में न सौंप दें वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा। जिन महिलाओं के पास ओटीटी प्लेटफार्म की सुविधा नहीं है अपने मित्रों या रिश्तेदारों के घर जा कर इस सिरीज़ को अवश्य देखें और अपने साथियों को इसके बारे में बताएँ। ताकि भविष्य में कोई महिला इन ठगों के जाल में न फँसे।  

Monday, November 21, 2022

इतने बड़े घोटालों की जाँच में पक्षपात क्यों हो रहा है?



बैंकों का धन लूटकर विदेशों में धन शोधन करने वाले बड़े औद्योगिक घरानों की जाँच को लेकर जाँच एजेंसियाँ आए दिन विवादों में घिरी रहती हैं। मामला नीरव मोदी का हो, विजय माल्या का हो या मेहुल चोक्सी का हो, इन भगोड़े वित्तीय अपराधियों को जेल की सलाख़ों के पीछे भेजने में हमारे देश की बड़ी जाँच एजेंसियाँ लगातार विफल रही हैं। ऐसी नाकामी के कारण ही इन एजेंसियों पर चुनिन्दा आरोपियों के ख़िलाफ़ ही कारवाई करने के आरोप भी लगते रहे हैं। 


पिछले दिनों कानपुर की रोटोमैक पेन कंपनी के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 750 करोड़ रुपए से अधिक के बैंक फ्रॉड का मामला दर्ज किया है। पेन बनाने वाली इस नामी कंपनी पर आरोप है कि इन्होंने कई बैंकों से ऋण लेकर आज तक नहीं लौटाए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 7 बैंकों के समूह के लगभग 2919 करोड़ रुपये इस कंपनी पर बकाया हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक फ्रॉड का यह मामला नया नहीं है। बैंक को चूना लगाने वाली यह कंपनी जून 2016 में ही नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) घोषित कर दी गई थी। छह साल बाद 2022 में जब सीबीआई द्वारा इस कंपनी पर कार्यवाही शुरू हुई तब तक कंपनी के कर्ताधर्ता विक्रम कोठारी का निधन भी हो चुका था। जाँच और कार्यवाही में देरी के कारण बैंकों को करोड़ों का चूना लग चुका था। 


देश में कोठारी जैसे अनेक लोग हैं जो बैंक से लोन लेते हैं। यदि वो छोटे-मोटे लोन लेने वाले व्यापारी होते हैं तो उनके ख़िलाफ़ बहुत जल्द कड़ी कार्यवाही की जाती है। परंतु आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि बैंकों के धन की बड़ी चोरी करने वाले आसानी से जाँच एजेंसियों के हत्थे नहीं चढ़ते। इसका कारण, बैंक अधिकारी और व्यापारी की साँठ-गाँठ होता है। ऋण लेने वाला व्यापारी बैंक के अधिकारी को मोटी रिश्वत के भार के तले दबा कर अपना काम करा लेता है और किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। जब ऋण और उस पर ब्याज मिला कर रक़म बहुत बड़ी हो जाती है तो तेज़ी से कार्यवाही करने का नाटक किया जाता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 



रोटोमैक कांड के आरोपियों की सूची में कानपुर का एक और समूह है जिस पर जाँच एजेंसियों की कड़ी नज़र नहीं पड़ी। आरोप है कि इस समूह ने विभिन्न बैंकों के साथ सात हज़ार करोड़ से अधिक रुपये का घोटाला किया है। इस समूह ने फ़र्ज़ी कंपनियों का जाल बिछा कर बैंकों के साथ धोखा किया है। इस समूह के मुख्य आरोपीयों, उदय देसाई और सरल वर्मा की कंपनियाँ - एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड, रोटोमैक कांड के सह-अभियुक्त भी हैं। इसके चलते इनकी गिरफ़्तारी भी हुई थी। लेकिन कोविड और स्वास्थ्य कारणों के चलते इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दी गई। ग़ौरतलब है कि सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफ़आईओ) में इस समूह के ख़िलाफ़ 2019 से विभिन्न बैंकों द्वारा 8 एफ़आईआर दायर हो चुकी हैं। परंतु वर्मा और देसाई बंधुओं पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।  


उदय देसाई ने दिल्ली उच्च न्यायालय में विदेश जाने की गुहार लगा कर एक याचिका दायर की। कोर्ट ने जुलाई 2022 के अपने आदेश में याचिका रद्द करते हुए इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया कि विभिन्न जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अनेक गंभीर मामलों के बावजूद आरोपियों को केवल एक ही बार पूछताछ के लिए बुलाया गया। जाँच एजेंसियों ने सघन जाँच और पूछताछ की शुरुआत ही नहीं की। 



सोचने वाली बात है कि हज़ारों करोड़ के घोटाले के आरोपियों को केवल एक ही बार बुला जाँच एजेंसियों को इस बात का इत्मीनान हो गया कि आरोपियों को दोबारा पूछताछ के लिए नहीं बुलाना चाहिए? क्या एक ही बार में पूछताछ से जाँच एजेंसियाँ संतुष्ट हो गई? क्या आरोपी एक ही बार में एजेंसियों के ‘कड़े सवालों’ का संतोषजनक जवाब दे पाये? क्या ये प्रमुख जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों से ऐसे ही, केवल एक बार ही जाँच और पूछताछ करती हैं? इस से कहीं छोटे मामलों में विपक्षी नेताओं या नामचीन लोगों के ख़िलाफ़ भी इन एजेंसियों का क्या यही रवैया रहता है? क्या इन आरोपियों की करोड़ों संपत्ति को ज़ब्त किया गया? क्या इनकी बेनामी संपत्तियों तक ये एजेंसियाँ पहुँच पाईं? सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मृत्यु के बाद जिस तरह बॉलीवुड के सितारों को लगातार पूछताछ के लिए बुलाया गया था क्या वैसा कुछ इनके भी साथ हुआ? अगर नहीं तो क्यों नहीं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो, उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। जैसा हमने पिछली बार भी लिखा था कि मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो कुछ चुनिन्दा लोगों पर, अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अन्य मामलों को छोड़ अगर देसाई और वर्मा बंधुओं के मामले को ही लें तो यह बात सच साबित होती है। 


दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर को जब एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड के घोटालों से संबंधित सभी दस्तावेज़ मिले तो उन्होंने इन आरोपों को सही पाया। कपूर ने 6 मई 2022 को इन सभी एजेंसियों को सप्रमाण पत्र लिख कर देसाई और वर्मा द्वारा किए गए हज़ारों करोड़ रुपये के घोटालों की जाँच की माँग की थी। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती? 


घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, November 23, 2020

कोरोना : नज़रिया अपना अपना


पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना के क़हर से निजात मिलने का इंतेज़ार कर रही है। पर कोरोना को लेकर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग नज़रिए हैं। दुनिया में जिन परिवारों ने कोरोना के चलते अपने प्रियजनों को खो दिया है उनके लिए ये त्रासदी गहरे ज़ख़्म दे चुकी है। जो मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही पॉज़िटिव से नेगेटिव हो गए वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। जिनको कोरोना ने अबतक नहीं पकड़ा है वे पशोपेश में हैं। या तो लापरवाह हैं या किसी अनहोनी की आशंका से सहमे सहमे से दिन काट रहे हैं।
 

उधर सरकारें और चिकित्सकों की जमात भी अलग-अलग ख़ेमों में बटी हुई है। सबका सिरमौर बना विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोरोना को लेकर शुरू से विवादों के घेरों में है। इसके अध्यक्ष पर चीन से मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। जिस तरह कोरोना को लेकर इस संगठन ने शुरू में निर्देश जारी किए थे और आनन फानन में सारी दुनिया में लॉकडाउन थोप दिया गया।जिस तरह इस महामारी को लेकर चीन की रहस्यमी भूमिका रही है, उस सबसे तो ये पूरा मामला एक वैश्विक षड्यंत्र जैसा लगता है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। इस जमात में बहुत बड़ी तादाद में दुनिया के अनेक देशों के डाक्टर, शोधकर्ता और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। जो हर दिन सोशल मीडिया पर अनेक वक्तव्यों, साक्षात्कारों या तर्कों के ज़रिए कोरोना को षड्यंत्र सिद्ध करने में जुटे हैं। 

पर जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो षड्यंत्र के सिद्धांत को कोरी बकवास बताते हैं।वे हरेक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जिस तरह अतीत में ऐसे कई वैश्विक षड्यंत्र हुए हैं जिनमें नाहक दुनिया में आतंक फैलाया गया और उससे दवा कंपनियों ने खर्बों रुपय का मुनाफ़ा कमाया। 


1984 की बात है जब मै लंदन में था तो अचानक पेरिस से ख़बर उड़ी कि सुप्रसिद्ध बॉलीवुड सेलिब्रिटी रॉक हडसन को एड्स हो गया है। अगले ही वर्ष, वह अपनी एड्स की बीमारी का खुलासा करने वाली हॉलीवुड की कुछ पहली हस्तियों में से एक बन गये। 1985 में, 59 साल की उम्र में, हडसन एड्स से मरने वाली पहली प्रमुख हस्ती थे। उसके बाद पूरे विश्व में एड्स को लेकर जो भारी प्रचार हुआ, आतंक फैलाया गया, एचआईवी टेस्ट का जाल फैलाया गया। उसके मुक़ाबले एड्स से मारने वालों की संख्या नगण्य थी, अगर एड्स कोई बीमारी थी तो। पर तभी दुनिया के 1000 मशहूर डाक्टरों, जिनमें 3 नोबल पुरस्कार विजेता भी थे, ने बयान जारी करके (पर्थ उद्घोषणा) दुनिया को चेताया था कि एड्स कोई बीमारी नहीं है। ऐसी सब वैश्विक (तथाकथित) बीमारियों से मारने वालों की संख्या से कई गुना ज़्यादा लोग अशुद्ध पेयजल, सड़क दुर्घटनाओं, कुपोषण, मधुमेय और हृदयाघात से मरते हैं। जितना पैसा भारत सरकार ने एड्स के प्रचार-प्रसार पर खर्च किया, उसका एक हिस्सा अगर आम आदमी को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर खर्च किया जाता तो बहुत जानें बच सकती थीं। इन सब सवालों को 20 बरस पहले अपने इसी कॉलम में मैंने ज़ोर शोर से उठाया थ और मणिपुर और हरियाणा जैसे राज्यों में एड्स संक्रमण के ‘नाको’ के आँकड़ों को झूठा सिद्ध किया था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दिनों में कोरोना को लेकर भी किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय घोटाले का सप्रमाण पर्दाफ़ाश हो जाए।

जहां तक मौजूदा दिशा निर्देशों का सवाल है, वैश्विक माहौल को देखते हुए इन हिदायतों को मानने में कोई नुक़सान भी नहीं है। मास्क पहनना, बार-बार साबुन से हाथ धोना या सामाजिक दूरी बनाए रखना ऐसे निर्देश हैं जिन्हें मानना बहुत कठिन काम नहीं है। पर एक बात सभी चिकित्सक एक मत हो कर कह रहे हैं। चाहे वो ऐलोपैथि के हों, आयुर्वेद के हों या होमयोपैथि के - और वो ये कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने से कोविड ही नहीं अनेक दूसरी बीमारियों से भी सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। लगातार गर्म पानी पीना, दिन में कम से कम दो बार भाप लेना, आयुर्वेद में सुझाए गये काढ़े पीना, नियमित व्यायाम करना और घर का शुद्ध पौष्टिक खाना खाना। 

कोविड के आतंककारी दौर में पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों की, ख़ासकर वैदिक संस्कृति की , श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और अब अपना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के हर प्रांत में भोजन में हल्दी सदियों से प्रयोग होती आ रही है। पर 2 दशक पहले तक पश्चिमी देशों के लोग भारतीय सब्ज़ी की करी (तरी) को घृणा की निगाह से देखते थे। गोरे बच्चे भारतीय सहपाठियों के लंच बॉक्स में हल्दी पड़ी सब्ज़ी को देख कर उसे ‘टट्टी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे। आज पूरी दुनिया हल्दी की वकालत कर रही है। दूसरे व्यक्तियों से अकारण या सामाजिक शिष्टाचार के तहत गले या हाथ मिलाना वैदिक संस्कृती में वर्जित था। इसलिए भारतीय समाज में छुआछूत की प्रथा थी। घर में बालक का जन्म हो या किसी की मृत्यु या चेचक या पीलिया जैसा बुख़ार, इन सब परिस्थितियों में 15 से 40 दिन का सूतक मानने की प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जिसे आज बड़े ढोल ताशे के साथ ‘कुआरंटाइन’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इसी तरह भोजन पकाने और खिलाने की भारतीय संस्कृति में शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। आम भारतीय हरेक जगह, हर परिस्थिति में बना भोजन खाना पसंद नहीं करता था, जिसे आधुनिकता की मार ने भ्रष्ट कर दिया। 

कोरोना के आतंक में दुनिया इस बात के महत्व को भी समझ रही है। भविष्य में जो भी हो कोरोना ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 

Monday, October 19, 2015

जेट एयरवेज़ कर रहा है यात्रियों से धोखा और मुल्क से गद्दारी

    पिछले वर्ष सारे देश के मीडिया में खबर छपी और दिखाई गई कि जेट एयरवेज़ को अपने 131 पायलेट घर बैठाने पड़े। क्योंकि ये पायलेट ‘प्रोफिशियेसी टेस्ट’ पास किए बिना हवाई जहाज उड़ा रहे थे। इस तरह जेट के मालिक नरेश गोयल देश-विदेश के करोड़ों यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे थे। हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ;नई दिल्लीद्ध ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसका उल्लेख कई टीवी चैनलों ने किया। यह तो केवल एक ट्रेलर मात्र है। जेट एयरवेज़ पहले दिन से यात्रियों के साथ धोखाधड़ी और देश के साथ गद्दारी कर रही है। जिसके दर्जनों प्रमाण लिखित शिकायत करके इस लेख के लेखक पत्रकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई में दाखिल कर दिए हैं और उन पर उच्च स्तरीय पड़ताल जारी है। जिनका खुलासा आने वाले समय में किया जाएगा।

फिलहाल, यह जानना जरूरी है कि इतने सारे पायलेट बिना काबिलियत के कैसे जेट एयरवेज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहे और हमारी आपकी जिंदगी के खिलवाड़ करते रहे। हवाई सेवाओं को नियंत्रित करने वाला सरकारी उपक्रम डी.जी.सी.ए. (नागर विमानन महानिदेशालय) क्या करता रहा, जो उसने इतनी बड़ी धोखाधड़ी को रोका नहीं। जाहिर है कि इस मामले में ऊपर से नीचे तक बहुत से लोगों की जेबें गर्म हुई हैं। इस घोटाले में भारत सरकार का नागर विमानन मंत्रालय भी कम दोषी नहीं है। उसके सचिव हों या मंत्री, बिना उनकी मिलीभगत के नरेश गोयल की जुर्रत नहीं थी कि देश के साथ एक के बाद एक धोखाधड़ी करता चला जाता। उल्लेखनीय है कि जेट एयरवेज़ में अनेक उच्च पदों पर डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के बेटे, बेटी और दामाद बिना योग्यता के मोटे वेतन लेकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इन विभागों के आला अधिकारियों के रिश्वत लेने का यह तो एक छोटा-सा प्रमाण है।

डी.जी.सी.ए. और जेट एयरवेज़ की मिलीभगत का एक और उदाहरण कैप्टन हामिद अली है, जो 8 साल तक जेट एयरवेज़ का सीओओ रहा। जबकि भारत सरकार के नागर विमानन अपेक्षा कानून के तहत (सी.ए.आर. सीरीज पार्ट-2 सैक्शन-3) किसी भी एयरलाइनस का अध्यक्ष या सीईओ तभी नियुक्त हो सकता है, जब उसकी सुरक्षा जांच भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा पूरी कर ली जाय और उसका अनापत्ति प्रमाण पत्र ले लिया जाय। अगर ऐसा व्यक्ति विदेशी नागरिक है, तो न सिर्फ सीईओ, बल्कि सीएफओ या सीओओ पदों पर भी नियुक्ति किए जाने से पहले ऐसे विदेशी नागरिक की सुरक्षा जांच नागर विमानन मंत्रालय को भारत सरकार के गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय से भी करवानी होती है। पर देखिए, देश की सुरक्षा के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ किया गया कि कैप्टन हामिद अली को बिना सुरक्षा जांच के नरेश गोयल ने जेट एयरवेज़ का सीओओ बनाया। यह जानते हुए कि वह बहरीन का निवासी है और इस नाते उसकी सुरक्षा जांच करवाना कानून के अनुसार अति आवश्यक था। क्या डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के महानिदेशक व सचिव और भारत के इस दौरान अब तक रहे उड्डयन मंत्री आंखों पर पट्टी बांधकर बैठे थे, जो देश की सुरक्षा के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ होने दिया गया और कोई कार्यवाही जेट एयरवेज़ के खिलाफ आज तक नहीं हुई। जिसने देश के नियमों और कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाईं।

ये खुलासा तो अभी हाल ही में तब हुआ, जब 31 अगस्त, 2015 को कालचक्र समाचार ब्यूरो के ही प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर की आरटीआई पर नागरिक विमानन मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया। इस आरटीआई के दाखिल होते ही नरेश गोयल के होश उड़ गए और उसने रातों-रात कैप्टन हामिद अली को सीओओ के पद से हटाकर जेट एयरवेज़ का सलाहकार नियुक्त कर लिया। पर, क्या इससे वो सारे सुबूत मिट जाएंगे, जो 8 साल में कैप्टन हामिद अली ने अवैध रूप से जेट एयरवेज़ के सीओओ रहते हुए छोड़े हैं। जब मामला विदेशी नागरिक का हो, देश के सुरक्षा कानून का हो और नागरिक विमानन मंत्रालय का हो, तो क्या इस संभावना से इंकार किया जा सकता है कि कोई देशद्रोही व्यक्ति, अन्डरवर्लड या आतंकवाद से जुड़ा व्यक्ति जान-बूझकर नियमों की धज्जियां उड़ाकर इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाए और देश की संसद और मीडिया को कानों-कान खबर भी न लगे। देश की सुरक्षा के मामले में यह बहुत खतरनाक अपराध हुआ है। जिसकी जवाबदेही न सिर्फ नरेश गोयल की है, बल्कि नागरिक विमानन मंत्रालय के मंत्री, सचिव व डी.जी.सी.ए. के महानिदेशक की भी पूरी है।

    दरअसल, जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल के भ्रष्टाचार का जाल इतनी दूर-दूर तक फैला हुआ है कि इस देश के अनेकों महत्वपूर्ण राजनेता और अफसर उसके शिकंजे में फंसे हैं। इसीलिए तो जेट एयरवेज़ के बड़े अधिकारी बेखौफ होकर ये कहते हैं कि कालचक्र समाचार ब्यूरो की क्या औकात, जो हमारी एयरलाइंस को कठघरे में खड़ा कर सके। नरेश गोयल के प्रभाव का एक और प्रमाण भारत सरकार का गृह मंत्रालय है, जो जेट एयरवेज़ से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना को जान-बूझकर दबाए बैठा है। इस लेख के माध्यम से मैं केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि रजनीश कपूर की आरटीआई पर गृह मंत्रालय लगातार हामिद अली की सुरक्षा जांच के मामले में साफ जवाब देने से बचता रहा है और इसे ‘संवेदनशील’ मामला बताकर टालता रहा है। अब ये याचिका भारत के केंद्रीय सूचना आयुक्त विजय शर्मा के सम्मुख है। जिस पर उन्हें जल्दी ही फैसला लेना है। पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। 8 साल पहले की सुरक्षा जांच का अनापत्ति प्रमाण पत्र अब 2015 में तो तैयार किया नहीं जा सकता।

    कालचक्र समाचार ब्यूरो का अपना टीवी चैनल या अखबार भले ही न हो, लेकिन 1996 में देश के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, विपक्ष के नेताओं और आला अफसरों को जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाने और पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने का काम भारत के इतिहास में पहली बार कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही किया। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशों के अनेकों घोटाले उजागर करने की हिम्मत भी इसी ब्यूरो के संपादक, इस लेख के लेखक ने दिखाई थी। जुलाई, 2008 में स्टेट ट्रेडिंग कॉपोरेशन के अध्यक्ष अरविंद पंडालाई के सैकड़ों करोड़ के घोटाले को उजागर कर केंद्रीय सतर्कता आयोग से कार्यवाही करवा कर उसकी नौकरी भी कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही ली थी। ऐसे तमाम बड़े मामले हैं, जहां कालचक्र के बारे में मध्ययुगीन कवि बिहारी जी का ये दोहा चरितार्थ होता है कि कालचक्र के तीर “देखन में छोटे लगे और घाव करै गंभीर”।

अभी तो शुरूआत है, जेट एयरवेज़ के हजारों करोड़ के घोटाले और दूसरे कई संगीन अपराध कालचक्र सीबीआई के निदेशक और भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त को सौंप चुका है और देखना है कि सीबीआई और सीवीसी कितनी ईमानदारी और कितनी तत्परता से इस मामले की जांच करते हैं। उसके बाद ही आगे की रणनीति तय की जाएगी। 1993 में जब हमने देश के 115 सबसे ताकतवर लोगों के खिलाफ हवाला कांड का खुलासा किया था, तब न तो प्राइवेट टीवी चैनल थे, न इंटरनेट, न सैलफोन, न एसएमएस और न सोशल मीडिया। उस मुश्किल परिस्थिति में भी हमने हिम्मत नहीं हारी और 1996 में देश में इतिहास रचा। अब तो संचार क्रांति का युग है, इसीलिए लड़ाई उतनी मुश्किल नहीं। पर ये नैतिक दायित्व तो सीवीसी और सीबीआई का है कि वे देश की सुरक्षा और जनता के हित में सब आरोपों की निर्भीकता और निष्पक्षता से जांच करें। हमने तो अपना काम कर दिया है और आगे भी करते रहेंगे।

Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है।