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Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, August 15, 2022

आरसीपी सिंह की असलियत


राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आरसीपी सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आरसीपी एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आरसीपी क्या क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई।

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज़ साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज़ नहीं ठहराते। इसीलिए आरसीपी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे  साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह ज़िम्मेदारी है।


आरसीपी सिंह मेरे जेएनयू में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरतंर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आईएस आरसीपी को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आरसीपी को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। ये बात यह समझने के लिए काफी है कि आरसीपी किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आरसीपी का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आरसीपी की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आरसीपी और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढता किस हद तक रही।

आरसीपी का मेरे पास फोन आया नीतीश की पत्नी मंजू जी और उनके बेटे निशांत और मंजू जी की मां वृंदावन तीर्थाटन पर आना चाहती हैं। आरसीपी ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आरसीपी सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। मंजु जी के साथ बिताए तीन दिन अच्छे रहे। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आरसीपी और नीतीश के बीच विश्वास और सम्बन्धों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आरसीपी को नीतीश ने अपने दल का राष्टीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। 

अब अगर आरसीपी ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।


बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आरसीपी से नीतीश के चुनाव सम्बन्धी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर के धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर के धवन ने आखिर साँस तक अपने उपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आरसीपी ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आरसीपी सिंह को अब लग रहा होगा कि वे शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आरसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वे अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आरसीपी का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढ़ने के लिए नीतिश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतिश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आरसीपी सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए।

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आरसीपी के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकता है। खासतौर पर आने वाले डेढ दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल पुथल मचा दी है। बेशक  निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते और मप्र कर्नाटक महाराष्ट और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आरसीपी के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।

बहरहाल हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही राजनीति में जहां देश का सभ्य समाज तटस्थ हो जाने में ही भलाई समझ रहा है वहां मुझे खुलकर यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि नीतीश और आरसीपी प्रकरण में मैं नीतीश के पक्ष में खड़ा हूं।

Monday, November 16, 2015

बिहार के परिणामों से भाजपा में टीस भरी खुशी क्यों ?

    पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।

    उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।

    समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।

    नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।

    जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे।