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Monday, November 28, 2016

नोटबंदी का आगा पीछा सोचकर रखने की जरूरत



नोटबंदी से पूरे देश में मची अफरातफरी की बात बार-बार दोहराने की जरूरत अब नहीं है। यह बात भी उजागर हो चुकी है कि कालेधन, आतंकवाद और भ्रष्टाचार का खात्मा करने का उद्देश्य लेकर जो नोटबंदी की गई है उसका क्या असर हो रहा है, यह काम अभी प्रक्रिया में है सो अभी कोई अच्छा या बुरा असर कहना मुश्किल है। इसे काफी देर तक देखते रहना पड़ेगा। तब इसका पता चार-छह महीने बाद ही चल पाएगा। हां, नोटबंदी की इस कार्रवाई का आगा पीछा जरूर सोचा जा सकता है। खासतौर पर यह बात कि पहले हमने क्या देखा है, क्या किया है और उसका क्या असर हुआ?
 
जिन उद्देश्यों को लेकर यह काम किया जा रहा है, उनमें कालेधन को उजागर करके अर्थव्यवस्था में शामिल किया जाना तो बहुत ही जटिल विषय है। इसके खात्मे के लिए कोई कार्रवाई तो क्या, किसी निरापद और निर्विवाद योजना को दुनिया में अभी तक कोई नहीं सोच पाया। सब कुछ भूल सुधार पद्धति से ही होता आया है और यह वैश्विक समस्या आज भी बनी हुई है। नोटबंदी का जो साहसी तीर मोदी जी ने चलाया है अगर वह थोड़ा बहुत भी निशाने पर लग गया तो उसका अनुभव अर्थशास्त्र में नया शोध होगा।

अब रही आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बात, तो आतंकवाद पर चोट करने के लिए 23 साल पहले हवाला कारोबार के खिलाफ मैंने जो मुहिम छेड़ी थी उसके अनुभव देश के पास हैं। हवाला की मुहिम से देश दुनिया मे उठे तूफान के बावजूद देश की कोई भी सरकार आज तक हवाला के खिलाफ कोई व्यवस्था नहीं बना सकी। यह तथ्य ये निष्कर्ष निकालने के लिए काफी है कि नीयत का होना, नीति का बनाना और नीति का कार्यान्वयन होना, तीनों ही एक साथ चाहिए। नोटबंदी की मौजूदा कार्रवाई का क्रियान्वयन भी हमें यह अनुभव दे रहा है कि नीयत और नीति जरूरी तो होते हैं लेकिन काफी नहीं होते। क्रियान्वयन का भी तरीका माकूल होना चाहिए। तभी बात बन पाएगी।

अब बचती है भ्रष्टाचार की बात। यह भी जटिल विषय है। भ्रष्टाचार खासतौर पर अपनी-अपनी सत्ताओं का दुरूपयोग करके घूस खाना, टैक्स चोरी के लिए झूठे खाते बनाना, अपने मुनाफे के लिए मजदूर यानी श्रम का शोषण करना जैसे कई रूप हैं जिन्हें हम भ्रष्टाचार के ही रूप मान चुके हैं। इसके खात्मे के लिए हम तरह तरह की राजनीतिक प्रणालियां और राजनेता आजमा चुके हैं। लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कारगर तरीका है कौन सा? पांच साल पहले की ही बात है कि देश में कानूनी उपाय से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए तूफान मचा दिया गया था। कहां तो वह तूफान गया और कहां गए वे 125 करोड़ लोग जो भ्रष्टाचार के लिए उठ बैठे बताए जा रहे ? नोटबंदी के इस गर्म महौल में हमें वे पुराने अनुभव भी क्या याद नहीं करने चाहिए? यह बात किसी निराशा के कारण नहीं बल्कि पुरानी बातों से सीख लेकर आगे बढ़ने के इरादे से कही जा रही है। चाहे इसे आज मान लें और चाहे आठ साल बाद मानें, लेकिन इसे देखना तो पड़ेगा ही।

अब एक बात और है, नोटबंदी को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखने की। एक शिक्षित अर्थशास्त्री होने के नाते मेरी इच्छा है कि भारतीय समाज की एक सुंदर प्रवृत्ति का जिक्र कर दूं। वह ये कि भारतीय समाज की सबसे मजबूत इकाई भारतीय परिवार में महिला आज भी खर्च और आमदनी का हिसाब रखने में सबसे बड़ी भूमिका निभाती है। परिवार के अर्थशास्त्र में सरप्लस या बचत पर नजर रखने वाली वह एक अकेली ताकत है। परिवार की आमदनी में से कुछ छुपा के या दबा के वह जो बूंद-बूंद धन या सोना जमा करती है, उस पर उसे बड़ी आफत आ गई जान पड़ रही है। यह धन ठोस धन है। भावना के लिहाज से इस धन की पवित्रता पर चोट होने लगे तो यह सिर्फ भावनात्मक मुददा ही नहीं समझा जाना चाहिए। क्योंकि आड़े वक्त में यह धन ही अर्थव्यवस्था को सांस लेने लायक बनाय रखता  है। इसीलिए जब-जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं ने गोता खाया तो भारत डूबने से बच गया। आज हमारी सरकार को रोज-रोज नए-नए उपायों का एलान करना पड़ रहा है तो क्या भारतीय गृहस्वामिनी के इस धन के बारे में कोई उपाय नहीं सोचना चाहिए?

गौरतलब है कि यह वैश्विक मंदी का दौर है। आठ साल पहले की भयावह वैश्विक मंदी में उस समय के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने देशवासियों से किफायत की बात कह दी थी। जबकि मंदी से निपटने के लिए सरकारों को खर्च बढ़ाने पर जोर देना होता है। उस मंदी को हम सिर्फ झेल ही नहीं ले गए थे बल्कि हमने पूरी दुनिया में अपना झंडा उंचा कर दिया था। वह चमत्कार कैसे हुआ? इसे आज तक विस्तार से समझा नहीं गया। लेकिन आठ साल बाद पूरी दुनिया में एक बार फिर से मंडराई मंदी में उस चमत्कार को समझने की जरूरत पड़ने वाली है। 

जागरूकता की बात करने वाले अर्थशास्त्र के विद्वानों को खासतौर पर यह बताने और समझाने की जरूरत है कि देश का सारा धन बाजार में ला देने से आर्थिक विकास का पहिया थोड़ी देर के लिए तेजी से तो घूम सकता है लेकिन आड़े वक्त को लेकर निश्चितता नहीं पाई जा सकती। हां अगर देश की अर्थव्यवस्था किसी भारी संकट में फंस चुकी हो और उसके बारे में हमें बताया न जा रहा हो तो बात और है। कुल मिला कर मोदी जी के इस साहसी कदम के निष्पक्ष मुल्यांकन की जरूरत है।

Monday, September 21, 2015

महंगाई और मंदी के लिए बैंक जिम्मेदार

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जॉन.एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति,  ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पंेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।