भगवान बुद्ध ने एक चेतावनी दी थी की जब बौध संघों में भ्रष्टाचार आ जाएगा तो बुद्ध धर्म का पतन हो जाएगा और यही हुआ। कहावत है ‘संघे शक्ति कलियुगे’। कलयुग में संगठन में ही बल होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी इसी सिद्धांत को लेकर चला है। इसकी आईटी टीम लगातार यह याद दिलाती है कि यह संगठन कितना विशाल है। कितने करोड़ स्वयंसेवक हैं। कितने सर्वोच्च पदों पर संघ के स्वयंसेवक पदासीन हैं, आदि। संघ हिंदू धर्म की रक्षा करने की भी बात करता है। एक बार वृंदावन के एक प्रतिष्ठित संत, जिन्होंने 106 वर्ष की आयु में समाधि ली, उनसे मैंने पूछा कि संघ और भाजपा के इस दावे के विषय में उनका क्या मत है? स्वामी जी बोले, “कोई संगठन या व्यक्ति धर्म की क्या रक्षा करेगा? धर्म ही हमारी रक्षा करता है।”
प्रश्न उठता है कि क्या सनातन धर्म पर, जिसे संघ हिंदू धर्म कहता है संघ या भाजपा का एकाधिकार है? यह असम्भव है। क्योंकि वैदिक काल से आज तक भारत में सभी दार्शनिक मतभेदों को सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता रहा है। इसलिए चार्वाक से गौतम बुद्ध तक को इस परम्परा में समायोजित किया गया है। एक किताब, एक भगवान और एक नियम, ये मान्यता तो ईसाईयत या इस्लाम की है। जो भारतीय दार्शनिक परम्परा के बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो तैंतीस करोड़ देवी देवता और दर्जनों सम्प्रदायों में बँटा हो कर भी सनातन धर्म की मूल धारा एक ही है।
पर जिस तरह संघ की सोच और व्यवहार सामने आता है उसे देख कर यह चिंता होती है कि संघ भी इस्लाम या ईसाईयत से प्रतिस्पर्धा में उन्हीं के ढर्रे पर चल रहा है। वैसे तो संघ इन आयातित धर्मों के विरुद्ध कट्टरता सिखाता है और देशज धर्म को ही भारत का धर्म मानता है। पर व्यवहार में वो स्वयं भारत के सनातन हिंदू धर्म के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। सनातन का अर्थ ही है जो कभी न बदला जाए।यही कारण है कि सदियों से सैंकड़ों हमले सह कर भी सनातन धर्म ज्यों का त्यों खड़ा रहा है। पर संघ के विचारक गुरु गोलवलकर जी ने अपनी पुस्तक में सनातन परम्पराओं और शास्त्रों को देश, काल और आवश्यकता के अनुरूप व्याख्या करने की वकालत की थी। जिसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए भारत के सर्वाधिक सम्मानित रहे धर्म सम्राट स्वामी करपात्रि जी महाराज अपने ग्रंथ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिंदू धर्म’ में लिखते हैं कि अगर इस तरह शास्त्रों की मनमाने ढंग से व्याख्या करने की छूट दी जाएगी तो फिर वो सनातन धर्म कहाँ रहा? फिर तो संघ के हर सरसंघचालक अपनी मान्यताओं को सनातन धर्म पर आरोपित कर उसे चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देंगे। करपात्रि जी महाराज ने तो साफ़ लिखा है कि, ‘जिस हिंदुत्व को संघ स्थापित करना चाहता है उसका भारत के सनातन वैदिक धर्म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।’ अर्थात् संघ का हिंदुत्व भारत का दार्शनिक पक्ष न होकर केवल संघ की राजनैतिक महत्वाकांक्षा का वैचारिक प्रारूप है।
संघ के बड़े-बड़े अधिकारियों से भी वार्ता में यही पक्ष उजागर होता है। 2019 में सहकार्यवाह डा॰ कृष्ण गोपाल जी से मथुरा में मेरी लम्बी वार्ता हुई। जिसके बीच उन्होंने कहा कि “राधा कोई नहीं थीं। ये तो ब्रजवासियों की कोरी कल्पना है। जिसका बाहर मज़ाक़ उड़ता है।” प्रत्युत्तर में यह पूछने पर, ‘तो फिर आप राम मंदिर क्यों बनवा रहे हैं?’ वे बोले, “उसे छोड़िए, वो दूसरा विषय है।”
पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के पहले संघ का प्रचार तंत्र ऐसे निर्देश जारी करता है जिससे लगे कि वे लोग धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। कभी निर्देश आता है कि आज राम नाम की माला जपो, कभी निर्देश आता है कि पीपल को जल चढ़ाओ, कभी आता है कि फ़लाँ त्योहार पर घर के बाहर इतने दीपक जलाओ। और तो और सदियों से प्रचलित सम्बोधन ‘राम-राम’ या ‘जय सिया राम’ की जगह ‘जय श्री राम’ कहने पर ज़ोर देते हैं।
जबकि कोई भी आस्थावान धार्मिक परिवार अपने त्योहार कैसे मनाए इसका निर्णय उस परिवार की पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं के या उनके सम्प्रदाय के आचार्यों के या शास्त्रों में वर्णित निर्देशों के अनुसार होता है। संघ के कार्यकर्ता कब से धर्माचार्यों की श्रेणी में आ गए, जो एक तरफ़ तो राधा जी को कोरी कल्पना बताते हैं और दूसरी तरफ़ हमें इस तरह निर्देश देकर पूजा करने की विधि सिखाते हैं? साफ़ है कि संघ के नेतृत्व को सत्ता पाने में ही रुचि है और यह सारा प्रपंच सत्ता पाने तक ही सीमित रहता है। उसके बाद न तो धार्मिकता, न नैतिकता, न सिद्धांतों की कोई बात की जाती है। बात करना तो दूर उनको नकारने या उपेक्षा करने में भी संकोच नहीं होता। तो फिर ये लोग धर्म की बात ही क्यों करते हैं? खुलकर राजनैतिक दल के रूप में सामने क्यों नहीं आते? धर्म में राजनीति का और राजनीति में धर्म का यह घालमेल राष्ट्र और धर्म दोनों के लिए घातक है। इस पर हिंदुओं को भी गम्भीरता और विवेक से विचार करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’।
गत 35 वर्षों से टीवी और प्रिंट पत्रकारिता के माध्यम से हिंदू धर्म से जुड़े हर सवाल पर मैं दृढ़ता से समर्थन में खड़ा रहा हूँ। बिना ये सोचे कि उस समय की सरकार इससे नाखुश होगी या इसके कारण मुझे क्या व्यावसायिक हानि होगी। पर दुःख होता है कि जब संघ का शीर्ष नेतृत्व धर्म और संस्कृति को लेकर पिछले चार वर्षों में मेरे द्वारा लगातार उठाए गए गम्भीर प्रश्नों पर रहस्यमयी चुप्पी सधे बैठा है। जिसके परिणाम स्वरूप धर्म के कार्यों में भी अनैतिकता और भ्रष्टाचार को खुला संरक्षण मिल रहा है। तो फिर मुसलमानों का डर दिखा कर हिंदुओं को वोटों के लिए एकजुट करने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाकर अनैतिकता और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना ही हिंदू राष्ट्र माना जाएगा? ज़रा सोचें !