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Monday, April 24, 2023

सोशल मीडिया के खतरों से कैसे बचें ?


जब देश में सोशल मीडिया का इतना प्रचलन नही था तब जीवन ज्यादा सुखमय था। तकनीकी की उन्नति ने हमारे जीवन को जटिल और तानवग्रस्त बना दिया है। आज हर व्यक्ति चाहे वो फुटपाथ पर सब्जी बेचता हो या मुंबई के कॉर्पोरेट मुख्यालय में बैठकर अरबों रूपये के कारोबारी निर्णय लेता हो, चौबीस घंटे मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया के मकड़जाल में उलझा रहता है। जिसका बेहद ख़राब असर हमारे शरीर, दिमाग और सामाजिक संबंधों पर पड़ रहा है।

नई तकनीकी के आगमन से समाज में उथल पुथल का होना कोई नई बात नही है। सामंती युग से जब विश्व औद्योगिक क्रांति की और बड़ा तब भी समाज में भरी उथल पुथल हुई थी। पुरानी पीढ़ी के लोग जीवन में आए इस अचानक बदलाव से बहुत विचलित हो गए थे। गाँव से शहरों की और पलायन करना पड़ा, कारखाने खुले और शहरों की गन्दी बस्तियों में मजदूर नारकीय जीवन जीने पर विवश हो गये। ये सिलसिला आज तक रुका नही है। भारत जैसे देश में तो अभी भी बहुसंख्यक समाज, अभावों में ही सही, प्रकृति की गोद में जीवन यापन कर रहा है। अगर गाँवों में रोजगार के अवसर सुलभ हो जाएँ तो बहुत बड़ी आबादी शहर की तरफ नही जाएगी। इससे सरकारों पर भी शहरों में आधारभूत ढांचे के विस्तार का भार नही पड़ेगा। पर ऐसा हो नही रहा। आज़ादी के पिझत्तर वर्षों में जनता के कर का खरबों रुपया ग्रामीण विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गया। 


पाठकों को लगेगा कि सोशल मीडिया की बात करते-करते अचानक विकास की बात क्यों ले आया। दोनों का सीधा नाता है। जापान और अमरीका जैसे अत्याधुनिक देशों से लेकर गरीब देशों तक इस नाते को देखा जा सकता है। इसलिए चुनौती इस बात की है कि भौतिकता की चकाचौंध में बहक कर क्या हम हमारे नेता और हमारे नीति निर्धारक, देश को आत्मघाती स्थिति में धकेलते रहेंगे या कुछ क्षण ठहरकर सोचेंगे कि हम किस रस्ते पर जा रहे हैं? 

इस तरह सोचने की ज़रूरत हमें अपने स्तर पर भी है और राष्ट्र के स्तर पर भी। याद कीजिये कोरोना की पहली लहर जब आई थी और पूरी दुनिया में अचानक अभूतपूर्व लॉकडाउन लगा दिया गया था। तब एक हफ्ते के भीतर ही नदियाँ, आकाश और वायु इतने निर्मल हो गये थे कि हमें अपनी आँखों पर यकीन तक नही हुआ। कोरोना के कहर से दुनिया जैसे ही बाहर आई फिर वही ढाक के तीन पात। आज देश में अभूतपूर्व गर्मी पड़ रही है, अभी तो यह शुरुआत है। अगर हम इसी तरह लापरवाह बने रहे तो क्रमश निरंतर बढ़ती गर्मी कृषि, पर्यावरण, जल और जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा बन जायेगी। अकेले भारत में आज कम से कम दस करोड़ पेड़ लगाने और उन्हें संरक्षित करने की ज़रूरत है। अगर हम सक्रिय न हों तो कोई भी सरकार अकेले यह कार्य नही कर सकती। 


चलिए वापस सोशल मीडिया की बात करते हैं जो आज हमारे जीवन में नासूर बन गया है। राजनैतिक उद्देश्य से चौबीस घंटे झूठ परोसा जा रहा है। जिससे समाज में भ्रम, वैमनस्य और हिंसा बढ़ गई है। किसी के प्रति कोई सम्मान शेष नही बचा। ट्रॉल आर्मी के मूर्ख युवा देश के वरिष्ठ नागरिकों के प्रति जिस अपमानजनक भाषा का प्रयोग सोशल मीडिया पर करते हैं उससे हमारा समाज बहुत तेज़ी से गर्त में गिरता जा रहा है। सोशल मीडिया के बढ़ते हस्तक्षेप ने हमारी दिनचर्या से पठन-पाठन, नियम-संयम, आचार-विचार और भजन-ध्यान सब छीन लिया है। हम सब इसके गुलाम बन चुके हैं। तकनीकी अगर हमारी सेवक हो तो सुख देती है और अगर मालिक बन जाये तो हमें तबाह कर देती है। कुछ जानकार अभिभावक इस बात के प्रति सचेत हैं और वे अपने बच्चों को एक सीमा से ज्यादा इन चीजों का प्रयोग नही करने देते हैं। पर उन परिवारों के बच्चे जिनमें माता-पिता को काम से फुर्सत नही है उन पर इसका बहुत ज्यादा विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आये दिन समाचार आते रहते हैं कि स्मार्ट फोन की चाहत में युवा वर्ग चोरी, हिंसा और आत्महत्या तक के कदम उठा रहा हैं। समाज ऐसा विकृत हो जाये तो डिजिटल इंडिया बनने का क्या लाभ? समाज के व्यवहार को कानून बनाकर नियंत्रित नही किया जा सकता और इस मामले में तो बिल्कुल नही किया जा सकता। इसलिये ज़रूरत इस बात की है कि हम खुद से शुरू करके अपने परिवेश में कुछ प्राथमिकताओं को फिर से वरीयता दें। 

अपनी और अपने परिवार की एक अनुशासित दिनचर्या निर्धारित करें जिसमें भोजन, भजन, पठन-पठान, व्यायाम, मनोरंजन, सामाजिक सम्बन्ध अदि के लिए अलग से समय निर्धारित हो। इसी तरह स्मार्ट फ़ोन, इन्टरनेट व टीवी के लिए भी एक समय सीमा निर्धारित की जाए जिससे हम अपने परिवार को तकनीकी के इस मकड़जाल से बाहर निकाल कर स्वस्थ जीवन चर्या दे पायें। जहाँ तक संभव हो हम अपने घर और परिवेश को हरे भरे पेड़ पौधों से सुसज्जित करने का गंभीर प्रयास करें। विश्वभर में मंडरा रहे गहरे जल संकट को ध्यान में रखकर जल की एक-एक बूँद का किफ़ायत से  प्रयोग करें और भूजल स्तर बढ़ाने के लिए हर सम्भव कार्य करें। आधुनिक फास्टफूड के नाम पर कृत्रिम, हानिकारक रसायनों से बने खाद्य पदार्थों की मात्रा तेज़ी से घटाते हुए घर के बने ताज़े पौष्टिक व पारंपरिक भोजन को प्रसन्न मन से अपनाएं। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो हम, हमारा परिवार और हमारा समाज सुखी, संपन्न और स्वस्थ बन जायेगा। अगर हम ऐसा नही करते तो बिना विषपान  किये ही हम आत्महत्या की और बढ़ते जाएँगे।

अच्छा जीवन जीने का सबसे बढ़िया उदाहरण उज्जैन के एक उद्योगपति स्वर्गीय अरुण ऋषि हैं जिनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बने रहे हैं। हमेशा खुश रहने वाले गुलाबी चेहरे के अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने आज तक न तो कोई दवा का सेवन किया है और न ही किसी सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग किया है इसीलिये वे आज तक बीमार नहीं पड़े। पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ है? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? मतलब ये कि अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके ही हम स्वस्थ और दीर्घआयु हो सकते हैं।  

Monday, August 31, 2015

इन्द्राणी मुखर्जी: हमारी रोल मॉडल नहीं

ऐसी शोहरत, ग्लैमर व ताकत की चमक-दमक वाली दुनिया के सितारे भारतीय समाज के आदर्श नहीं हो सकते। क्योंकि इन्होंने जिस उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति का रास्ता अपनाया है उससे भारतीय समाज की हजारों साल पुरानी परंपरांओं को भारी खतरा पैदा हो गया है। खासकर उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग उन्हें अपना आदर्श मानकर फुहड़पन की भौडी संस्कृति को तेजी से अपनाता जा रहा है। फिर चाहे वो ताश के पत्तों की तरह पति या पत्नियां को बदलना हो, चाहे लिव-इन-रिश्ते में रहना हो या फिर मुक्त सैक्स का आनंद लेना हो। घर टूट रहे हैं। रिश्ते टूट रहें हैं। तनाव और घुटन बढ़ रही है। हत्याएं और आत्महत्याएं हो रही हैं। नशीली दवाओं का सेवन बढ़ रहा है। यह सब देन है टीवी सीरियलों, फिल्मों और पेज-3 संस्कृति की। जो जबरदस्ती हमारे घरों में घुसती जा रही है।

आधुनिक और मुक्त विचारों का हामी बुद्धिजीवी वर्ग इस संस्कृति पर किसी भी तरह के नियंत्रण को मानवाधिकारों का हनन मानता है। ऐसे प्रयासों को कट्टरवादी कह कर उसके विरोध में उठ खड़ा होता है। चूंकि इस वर्ग की पकड़ और पहुंच मीडिया में गहरी और व्यापक हैए इसलिए इनकी ही बात सुनी जाती है। जबकि बहुसंख्यक समाज आज भी इस संस्कृति से बचा हुआ है और इसे पसंद नहीं करता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि यह बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक वर्ग पर हावी होता जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम हम सबके सामने इस रूप में आ रहा है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।

मुक्त विचारों के समर्थक इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इंद्राणी जैसी औरत को क्या कहेंगे ? जो अपनी बेटी की हत्या करती है, अपने पुराने पति के सहयोग से। नए पति से यह राज छुपाती है कि शीना उसकी बेटी थी और हत्या करके भी नए पति के साथ आराम से सामान्य जिंदगी जीती हैं। अपनी पिछली शादी से पैदा लड़की को, उसके बाप से अलग रखकर नए पति की दत्तक पुत्री बनवा देती है ताकि उसकी दौलत इस दत्तक पुत्री को मिल सके। इन्द्राणी अकेली नहीं हैं। ऐसी ताकतवर, मशहूर और हाई सोसायटी वाली महिलाएं देश की राजधानी दिल्ली से लेकर हर बड़े शहर के कुलीन माने जाने वाले समाज की ‘शोभा’ बढ़ाती हैं और तब तक गुलछर्रे उड़ाती हैं जब तक कोई हिम्मती उनका भांड़ा न फोड़ दे। पर हमारे कुलीन समाज को क्या हो गया है? ये समाज किस रास्ते पर बढ़ चला है ? कहां इस प्रकार के घिनौने कृत्यों पर विराम लगेगा, यह चिंतनीय है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में अवैध संबंधों का इतिहास न रहा हो। वैदिक काल से आज तक ऐसे संबंधों के अनेक उदाहरण पुराणों तक में उल्लेखित हैं द्य पर उनका समाज में आदर्श की तरह यशगान नहीं किया जाता था। उन्हें सह लिया जाता थाए  महिमामंडित नहीं किया जाता था। अगर कड़ी शासन व्यवस्था हुई तो उन पर नियंत्रण भी किया जाता था।

लेकिन आज जो यह संस्कृति निर्लज्जता से साजिशन पनपाई जा रही है, इसके पीछे हैं वो बाजारू ताकतें जो अपने उत्पादनों को हमारे बाजारों में थोपने के लिए हमारी सामाजिक परिस्थिति को बदल देना चाहती हैं। जिसे हम आज आधुनिक मान रहे हैं द्य दरअसल यह संस्कृति पश्चिमी देशों में अपना खोखलापन सिद्ध कर चुकी है। इसलिए वहां के समाजों ने अब इस संस्कृतिक से काफी हद तक मुंह मोड़ लिया हैं और पारिवारिक बंधनों की ओर फिर से लौटने लगे हैं ।

जबकि हम हर आयातित चीज को अपनाने की भूख में अपने अस्तित्व की जड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। छोटे-छोटे काम ही हमें आगे चलकर बड़े पतन की ओर ले जाएंगे। आज भारत के किसी भी गांव, कस्बें में चले जाइएए फेरों बिना शादी हो जाएगी पर डीजे बिना नहीं होगी। डीजे में फटता कानफाडू शोर, अभद्र गानें और उनपर थिरकतें हमारे परिवारिजन शादी का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं। न कोई बात सुनपाता है और न मंत्रों का उच्चारण। जबकि शादी जैसे पवित्र समारोह भारतीय संस्कृति और परंपरा के उन उच्च आदर्शों का नमूना है जिन्हें अपनाने आज बड़े-बड़े मशहूर गोरे लोग तक भारत आ रहे हैं।

पारंपरिक त्यौहार जिनका संबंध हमारे मौसम और कृषि से था उन्हें भूलकर हम वेलेनटाइन-डे जैसे वाहियात नए त्यौहारों को अपना कर अपनी जड़ों से कट रहे हैं। इकबाल ने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।‘ हजारों साल भारत ने विदेशी हमलों को झेला मगर हमारी संस्कृति की जड़े इतनी गहरी थी कि कोई उन्हें हिला नहीं पाया। पर बाजार की इस संस्कृति ने जो हमला किया है, उसने हमारे गांवों तक अपनी पकड़ बना ली है। इसे रोकना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विरोधी लाख तानाशाह कहें, पर उन्हें ऐसी तानाशाही दिखानी होगी ताकि टीवी और इंटरनेट से ऐसी संस्कृति को रोकने का माहौल बन सके। इसलिए इस तरह के तथाकथित ग्लैमर, शोहरत और ताकत के बल पर अति महत्वाकांक्षी आधुनिक संस्कृति का पटाक्षेप हो सके द्य जो आने वाली हमारी पीढ़ियों के लिए जरूरी है।