Monday, May 6, 2013

सीवीसी और सीबीआई को बाहरी दवाब से मुक्त करना होगा

हाल ही में कोल गेट मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कानून मंत्री व सीबीआई के बीच हुई बैठक पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा कि 15 वर्ष पहले इसी अदालत के ‘विनीत नारायण फैसले‘ में सीबीआई की स्वायत्ता के जो निर्देश दिए गए थे, उनका आज तक अनुपालन नहीं हुआ। ‘कोलगेट केस‘ में उपलब्ध साक्ष्यों से यह स्पष्टतः स्थापित हो रहा है कि सीबीआई के लिए पेश होने वाले कानूनी अफसर, जाँच ऐजेन्सी की तर्ज पर ही चलते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनसे अदालत को सच तक पहुँचने में मदद करने की अपेक्षा की जाती है। जैसा कि पहले कई बार इस कॉलम में उल्लेख किया जा चुका है कि जैन हवाला केस में भी कानूनी अधिकारियों ने सर्वोच्च अदालत से तथ्य छिपाने में सीबीआई की मदद की थी। इसलिए सीबीआई द्वारा नियुक्त किए जाने वाले कानूनी अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

अभी तक तो यही हुआ है कि हवाला मामले में 1997 दिसम्बर का वह ‘प्रसिद्ध फैसला‘ एक दन्तविहीन सीवीसी का गठन कर दरकिनार कर दिया गया। इसलिए यह देश के हित में बहुत महत्वपूर्ण है कि माननीय न्यायधीशगणों द्धारा 1997 के फैसले के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए समुचित निर्देश जारी किये जाएं। आगामी 8 मई को कोल गेट मामले में सुनवाई के दौरान इसकी संभावना व्यक्त की जा रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि सीवीसी अधिनियम मे सुधार कर इसे 8/10 सदस्यों वाला ‘केन्दªीय सतर्कता आयोग‘ बना देना चाहिए, जोकि लोकपाल के लिए सोची जा रही भूमिका का निर्वहन कर सके। सीवीसी के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया को व्यापक बनाते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसमें चहेते और विवादास्पद व्यक्ति सदस्य न बनें। मौजूदा तीन सदस्यों मे से एक आइएएस, दूसरा आइपीएस व तीसरा बैंकिग सेवाओं से लिया जाता है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भी नियुक्त किया जाना चाहिए। जिनका चयन भारत के मुख्य न्यायाधीश अपने बाद वरिष्ठता क्रम में तीन न्यायधीशों की सहमति से करें। क्योंकि विधायिका का हमारे देश के लोकतंत्र और शासन में भारी महत्व है इसलिए संसद के दोनों सदनों के वरिष्ठतम सांसदों मे से एक का चयन भी इस आयोग के सदस्य के रुप मे किया जाना चाहिए। इसके अलावा काँमनवैल्थ खेलों के घोटाले जैसे मामलों की जाँच के लिए इंजीनियरिंग योग्यता वाले दो-तीन विशेषज्ञ व वित्तीय घोटालों को समझने के लिए एक चार्टर्ड एकाउटेन्ट को भी इस आयोग का सदस्य बनाना चाहिए। ये सभी चयन यथासम्भव पारदर्शी होने चाहिए।
सीवीसी की सलाहाकार समिति मे कम से कम 11 सदस्य अपराध शास्त्र विज्ञान और फोरेन्सिक विज्ञान के विशेषज्ञ होने चाहिए। जो इस आयोग की कार्य क्षमता में प्रोफेशनल योगदान करेगें। साथ ही कार्य बोझ कम करने के लिए सीवीसी को बाहर से विशेषज्ञों को बुलाने की छूट होनी चाहिए, जो शिकायतों के ढ़ेर को छाँटने मे मदद करें। सीवीसी के दायरे मे फिलहाल केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के सभी कर्मचारी आते हैं, यह व्यवस्था ऐसे ही रहे। पर इस व्यवस्था को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए मंत्रालयों व विभागों के सीवीओ के चयन और कार्य पर सीवीसी का पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
सीवीसी को जाँच करने के लिए तकनीकी रुप से अनुभवी और सक्षम लोगो की टीम दी जानी चाहिए जो शिकायत की गंभीरता को जाँच कर यह तय कर सके कि किस मामले की जाँच सीबीआई को सौंपी जानी है या सीवीसी की टीम ही करेगी। शिकायत को पूरी तरह परख लेने के बाद की कारवाई के लिए सीवीसी को सरकार से पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। जिन मामलों को सीवीसी सीबीआई को सौंपती है उनकी जाँच के लिए सीबीआई को सरकार के मंत्रालय या विभाग के वित्तीय नियन्त्रण से मुक्त रहना चाहिए। सीबीआई की जाँच पर निगरानी का अधिकार केवल सीवीसी का होना चाहिए, इसकी मौजूदा व्यवस्था मे सुधार किया जाना चाहिए। इसी तरह सीवीसी के सदस्यों की भाँति सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति भी व्यापक पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए और सीबीआई के बाकी अधिकारियों की नियुक्ति और निगरानी का अधिकार सीवीसी को दिया जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों और इससे सम्बन्धित शिकायतों के संदर्भ मे शिकायतकर्ताओं के मामलों को सीवीसी के अधीन कार्यक्षेत्र में दे देना चाहिए जिससे इन सबके बीच बेहतर तालमेल स्थापित हो सके। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का प्रभावी तरीके से लागू होना भी सुशासन के लिए अनिवार्य है। इसलिए यह जरूरी होगा कि राज्यों की भ्रष्टाचार विरोधी ऐजेन्सियों को भी राज्य सरकारों के हस्तक्षेप से इसी तरह मुक्त किया जाए।
यह सभी प्रस्ताव हमने सर्वोच्च न्यायालय के  माननीय न्यायधीशों के विचारार्थ भेज दिए हैं। पर इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि व्यवस्था कोई भी बना लो, जब तक उसको चलाने वाले ईमानदार नहीं हैं, वो नहीं चल सकती। रिश्वत लेने वालों से ज्यादा दोष देने वालों का होता है। अपने फायदे के लिए मोटी रिश्वत लेने वाले व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। जब तक रिश्वत देने वाले रिश्वत देना बंद नहीं करेंगे, तब तक लेने वाले मौजूद रहेंगे। सिंहासन तो चीज ही ऐसी है जहां बैठकर बड़े-बड़े फिसल जाते है।  ‘माया तू ठगनी, हम जानी।‘ 

Friday, May 3, 2013

Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures


May 3rd 2013
To
Hon’ble Chief Justice of India & his brother Judges
Supreme Court of India
New Delhi

Through
Registrar General
Supreme Court of India
New Delhi

Written Submissions in the matter titled
Manohar Lal Sharma Vs. The Principle Secretary & Others
Writ Petition (Criminal) 120 / 2012


Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures

Your Lordships !

Your observations in the above matter regarding the functioning of CBI in reference to the 1997 judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) of this Hon’ble Court has encouraged me to submit this written submission for your kind perusal and for consideration.

Your Lordships ! twenty years ago, when I petitioned in this Court, against the criminal negligence of CBI in a militancy and corruption related Jain Hawala Case, my expectation was that under the monitoring of the Apex Court, CBI, DRI and Income Tax agencies will do their duties to ensure proper investigations and will take the case to its logical conclusions. This was the time when there were no 24x7 TV channels, email and SMS facilities to mobilize public opinion on issue of corruption and militancy. Hence in 1993 it was a difficult fight against the 115 most powerful people of this country.

Due to the initiative of this Court, the matter did progress to some extent, but for various reasons, could not reach to its logical conclusions. For example 22 names mentioned in the Jain Diary have not been de-coded / deciphered, by the CBI till this date, when the author of the same is easily available to decode the same. Who knows that these payees could be hardened militants, narcotic operators or powerful people? Two affidavits filed by the petitioner (Vineet Narain Vs. Union of India case no. 340-43 of 1993) dated 08.04.1995 & 09.01.1996 were never answered by the CBI with the result the concerned file of the CBI was concealed from this Court. The evidence regarding the dilution of investigation and the manner in which the beneficiaries in the diary were saved is available in black & white but not a single delinquent official of the CBI responsible for inaction from June 1991 to March 1995 was even asked to explain his conduct which was adversely commented by the Apex Court in very strong words. In other words all the delinquents were saved rather rewarded. Inspite of intervention of this Hon’ble Court, the CBI, who kept the investigation in cold storage for more than 40 months ultimately succeeded in their original plan when all the accused persons were saved. However, the ‘famous’ judgement was pronounced, which gave the hope to the nation that things will change in future.

As Your Lordships have rightly observed that even after 15 years, nothing substantial has happened to make the investigating agencies free from the political interference. As pointed out above had the delinquents been punished, the misconduct could not have been repeated. In the absence of any deterrence the agency would continue to disregard the directions of the Apex Court with impunity. Inputs in the present Coalgate Case clearly establish that the law officers appearing for CBI tow the line of the investigating agency, forgetting that they are required to assist the Hon’ble Court in arriving at the truth. As pointed out above, the role of the law officers in the Hawala Case certainly helped the CBI in concealing the truth from the Apex Court. Therefore the appointment of law officers in the CBI also deserves to be reviewed.
The famous judgement has been sidelined by creating a toothless CVC. Hence, it is very important for the nation that Your Lordships’ review the situation and issue further guidelines to ensure effective implementation of the 1997 judgement. However, based on my experience of fighting corruption at the highest levels of governance, I would like to submit some suggestions and observations, which may assist this Hon’ble Court.
1.    The CVC Act should be amended providing for a 5/7 member Central Vigilance Commission which could broadly assume the role visualized for the Lokpal. The selection process of the CVC members could be made more broad based to prevent favorites or controversial persons from being appointed. Presently, three members are drawn from IAS, IPS and Banking services. However, it should include one retired judge of the Supreme Court appointed by the CJI in consultation with next four senior most judges. Since, legislative wing of our democracy is very important for the matters of governance, it would be worthwhile to include one Member of Parliament, selected from those, who have been the members of the either house for the longest duration. In addition to this two to three members should be of engineering expertise, to assess the scams like commonwealth games and one from the background of Chartered Accountancy to examine the financial scams. These selections should be made as transparent as possible. Co-opting a representative of Civil Societies will create unnecessary controversy because of their diverse backgrounds and agendas, hence, the role of Civil Society should be to generate awareness and act as a pressure group only.

2.    The CVC should constitute an Advisory Committee of at least 11 members drawn from the Criminologists and Forensic Science experts. This will augment the professional input in their functioning. Furthermore, to reduce the burden on CVC, it should be given the power to outsource any expert or professional to assist it in screening the loads of complaints.

3.    The jurisdiction of CVC, which presently covers all employees of the Central Govt. and the CPSUs, should remain unchanged. Already there is an administrative arrangement to delegate the vigilance administration over class II and lower formations to the ministries/departments concerned. However, if the lower formations are involved with the class I officers in a composite case, the CVC exercises a natural jurisdiction over all of them. To make this arrangement more effective, it would be important that the CVC exercises complete control over the selection, appointment and functioning of the CVOs.

4.    The CVC should have adequately experienced team to technically examine and assess the gravity of a complaint, which can then be assigned to CBI for investigation or can be investigated by this team. After assessing a complaint by this broad-based CVC, there should be no necessity to seek prior permission from the govt.

5.  In the cases assigned to it by the CVC, the CBI should be made functionally and financially independent of the controls of any Govt. Ministry/Department. The professional supervision over the investigations of CBI should rest only with the CVC and its nature should be decisively improved from what exists today.

6.    The methodology of appointment of the Director CBI should be similarly broad based as in the case of the CVC members, whereas the other inductions/appointments in the CBI should be brought under the overarching supervision of the CVC.

7.    For achieving better synergy between the Anti Corruption Laws and grievance handling, the laws relating to the whistleblowers and grievance redressal should be placed within the jurisdiction of the CVC.

8.  Effective administration of anti corruption laws at the grass roots level is the key to responsible governance. The state and their anti corruption agencies would therefore require to be equally insulated from the State Government’s interference on similar patterns.

Vineet Narain
Sr. Journalist and Petitioner in case titled WP340-43/93 in the Supreme Court of India
C-6/28, SDA, Hauz Khas, New Delhi – 110016

Tuesday, April 30, 2013

Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores


“Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores. I have been boldly saying so since 1993, when I exposed the Jain Hawala Case. It is unfortunate that the 1998 SC judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) in this case, which gave clear directions for the autonomy of CBI under CVC and not under Govt control has not been implemented by the successive governments. It should now be accepted by the nation that CBI is not an independent agency to investigate high profile cases. Hence, it is an opportunity for the opposition parties and the vigilant section of media to come up with an alternate model of creating a new agency which can function without fear, prejudice, pressure or temptations. There should be a national debate on such alternative, if available, so to pressurize the govt. to act.”

Monday, April 29, 2013

अमेरिकी हवाई अडडों पर भारतीयों का अपमान क्यों

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और वरिष्ठ मंत्री आाजम खां के साथ उनके सहयोगी अमेरिका से नाराज होकर लौट आये हैं। उन्हें वहां हार्वर्ड विश्वविद्यालय मे कुंभ मेले के इंतजामात पर व्याख्यान देना था, जो उन्होंने नहीं दिया। क्योंकि बोस्टन के हवाई अड्डे पर अमेरिका के सुरक्षा अधिकारियों ने आजम खां से दुव्यवहार किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज, युवा राहुल गांधी, फिल्मी सितारे शाहरूख खान जैसे कई मशहुर लोग है, जिन्हें अमेरिका के सुरक्षा अधिकारी हवाई अड्डों पर परेशान कर चुके हैं, इसलिए अखिलेश यादव और आजम खां का यह फैसला सराहनीय रहा। इससे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों की मार्फत पूरे अमेरिकी समाज को यह संदेश गया कि
भारत के गणमान्य नागरिकों के साथ उनकी सरकार का व्यवहार सम्मानजनक नहीं रहा।
 
जब न्यूयॉर्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ‘ये बेइज्जती’ बर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि,‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम नॉट ए टैरेरिस्ट’ मैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुके हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है।
 
पर यहां एक फर्क यह है कि जिस तरह भारत में हर ‘एैरा गैरा नत्थू खैरा‘ अपने को वीआईपी बताकर कानून तोड़ता रहता है, वैसा पश्चिमी देशों में नहीं होता। राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य लोग तो सामान्य नागरिकों की तरह रहते हैं। दरसल वहां वीआईपी लिखा बोर्ड कहीं दिखाई ही नही देता। जबकि हमारे यहां वीआईपी होने के तमाम फायदे है, जिनमें से एक फायदा यह भी है कि कोई सामान्य पुलिसकर्मी आपसे वाजिब सवाल भी नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करना वीआईपी की शान में गुस्ताखी माना जाता है। इसलिए कई बार हमारे देश के वी आईपी जब विदेशों में जाते हैं तो उन्हें शायद इस बात की आदत नहीं होती कि सुरक्षा कर्मी उन्हें रोकें या टोकें । ऐसा होने पर वह भिड़ जाते हैं। पर यह भी सही है कि अमेरिका के सुरक्षाकर्मी जान बूझकर ऐसा व्यवहार करते हैं कि आप अपमानित महसूस करते हैं । मैं स्वयं इसका भुगतभोगी हूँ साउथकैरोलीना के शार्लेट हवाई अड्डे पर सुबह के 5 बजे थोडे़ से मुसाफिर थे पर अमेरिकी सुरक्षाकर्मी ने मेरी सुरक्षा जाँच में नाहक इतनी देर लगा दी कि मेरा हवाई जहाज छूट गया। जबकि बार-बार एयरलाइंस की तरफ से मेरे नाम की उद्घोषणा हो रही थी। मेरी आगे की यात्रा का सारा कार्यक्रम बिगड गया। ऐसा भी नही कि मेरे पास बहुत सारा सामान था, जिसे जाँचने मे देर लगती। एक छोटा सा बैग था, जिसकी तलाशी 5 मिनट में ली जा सकती थी। जाहिरन उनका यह व्यवहार मुझको अपमानित करने के लिए था। यद्यपि ऐसा मेरी अनेकों अमेरिकी यात्राओं में एक ही बार हुआ। इसलिए इसे मानने में कोई संकोच नहीं कि मोहम्मद आजम खां के साथ अमेरिका में दुव्र्यवहार हुआ होगा। जबकि इसके विपरीत अमेरिकी मेहमानों का भारत में अतिविशिष्ट व्यक्ति के रूप मे सम्मान होता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश का विदेश मंत्रालय अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि देश के विशिष्ट व्यक्तियों को अमेरिकी हवाई अड्डों पर इस तरह नाहक अपमानित न किया जाये।
 
आतंकवाद को लेकर अमेरिकी सरकार की चिंता समझी जा सकती है। इसलिए उन्होंने सुरक्षा जांच के इंतजामों को चाकचैबंद किया हुआ है और इसका उन्हें लाभ भी मिला है। 9/11 के बाद पिछले हफ्ते तक अमेरिका में आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई थी। इस बात की तारीफ की जानी चाहिये कि उनके सुरक्षाकर्मी किसी दूसरे देश की आधिकारिक सूचनाओं पर भी यकीन नहीं करते, अपनी जांच खुद करते हैं। क्योंकि कुछ देशों की सरकारें भी आतंकवाद को छिपा सहारा देती हैं। हमें भी अपनी सुरक्षा व्यवस्था ऐसी ही चुस्त बनानी चाहिए। जिससे आतंकवादियों को बचने का मौका न मिले। पर इसका मतलब यह नहीं कि नाहक विदेशी मेहमानों को अपमानित किया जाये, कहीं न कहीं अमेरिकी सरकार से चूक हो रही है। जिसके खिलाफ विरोध का स्वर प्रखर होना चाहिए। अखिलेश यादव और आजम खां ने अपना विरोध इस प्रखरता के साथ दर्ज करा दिया है।

Monday, April 22, 2013

क्यों संवेदनाशून्य है हमारी पुलिस ?

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलि
स के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, April 15, 2013

भूकम्प मुक्त शहरी विकास क्यों नहीं चाहती सरकार?

विज्ञान का जीवन से सीधा नाता है। यह जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। भारत में वैज्ञानिक समझ की हजारों वर्ष पुरानी परपंरा है। जिसे नरअंदाज करने के कारण हम बार-बार धोखा खा रहे हैं और पश्चिम की आयातित वैज्ञानिक सोच पर निर्भर रहकर अपना नुकसान कर रहे हैं। आज शहरी विकास हो, औद्योगिक विकास हो,बांधों का निर्माण हो या न्यूक्लियर रिएक्टर की स्थापना हो, बिना इस बात का ध्यान दिए की जा रही है कि उस क्षेत्र में भूकंप आने की संभावना कितनी प्रबल है घ् ऐसा नहीं है कि भूकंप आने की संभावना का पता न लगाया जा सके। देश में ही ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर भारत सरकार को एक दशक पहले ही इस समझ के बारे में प्रस्ताव दिया था। पर उनकी उपेक्षा कर दी गयी। नतीजा आज बार-बार भूकंपों में तबाही मच रही है। पर उससे बचने के ठोस और सार्थक उपायों पर आज भी सरकार की नजर नहीं है।

श्री सूर्यप्रकाश कूपर एक ऐसे ही वैज्ञानिक हैं, जिनकी खोज न केवल चैंकाने वाली होती है, बल्कि प्रकृति के रहस्यों को समझकर जीवन से जोड़ने वाली भी। पर सरकारी तंत्र का हिस्सा न बनने के कारण उनके सार्थक शोधपत्रों को भी वांछित तरजीह नहीं दी जाती। भूकंप के मामले में श्री कपूर का कहना है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया ने जो ‘सीजमिक जोन मैप ऑफ इण्डिया’ पिछले 15 सालों से जारी किया हुआ है और वही भूचाल के विषय में प्रमाणिक आधार माना जाता है, भारी दोषों से भरा है। उदाहरण के तौर पर इस नक्शे में भूचाल की संभावना वाले जो क्षेत्र इंगित किये गये हैं, वे कश्मीर, पंजाब और हिमाचल, उत्तर-पूर्वी राज्यों और उत्तरी गुजरात तक सीमित है। जबकि हमने इन क्षेत्रों के बाहर भी लाटूर, किल्लारी, कोइना, जबलपुर व भ्रदाचलम आदि में भूचालों की भयावहता को झेला है। सरकार की इस नासमझी का कारण यही नक्शा है, जो किसी ठोस सिद्धांत पर आधारित नहीं है। बल्कि तुक्के के आधार पर इसमें निष्कर्ष निकाले गये हैं। दूसरी तरफ भूचाल की सही संभावना जानने का एक ज्यादा प्रमाणिक मापदण्ड है। जिसका आधार है ‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू’। इस आधार पर जो नक्शा तैयार किया जाता है, वह भी ज्योलिजकल सर्वे ऑफ इण्डिया के द्वारा ही तैयार होता है। फिर भी इस जानकारी को भूचाल की प्रकृति समझने में प्रयोग नहीं किया जा रहा। जबकि इसकी भारी सार्थकता है।

‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू’ का आधार वह नई वैज्ञानिक खोज है, जिसमें दुनिया के वैज्ञानिकों ने यह माना है कि पृथ्वी के केन्द्र (नाभि) में आठ किमी व्यास का एक ‘न्यूक्लियर फिशन रिएक्टर’ लगातार चल रहा है। जिसमें से लगातार भारी मात्रा में गर्मी पृथ्वी की सतह पर आती है और वायुमण्डल में निकल जाती है। पृथ्वी सूर्य से जितनी गर्मी लेती है, उससे ज्यादा गर्मी वापस आकाश में फैंकती है। जहाँ इस ऊर्जा की तीव्रता अधिक है, वहाँ ही ज्वालामुखी फटते हैं। जिनकी संख्या दुनिया में 550 से ऊपर है। इनमें वो ज्वालामुखी शामिल नहीं है जो शांत हैं। इसके अलावा लगभग एक लाख गरम पानी के चश्मे भी इसी ऊर्जा के कारण पृथ्वी की सतह पर जगह-जगह सक्रिय हैं, जिनसे गरम पानी के अलावा गर्मी और भाप वायुमण्डल में जाती है। इस ‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू मैप (नक्शे)’ को अगर ध्यान से देखा जाये और पिछले तीन हजार साल के बड़े भूकंपों के भारत के इतिहास पर नजर डाली जाये तो यह साफ हो जायेगा कि जहाँ-जहाँ ‘हीट फ्लो वैल्यू’ 70 मिली वॉट प्रति वर्गमीटर से ज्यादा है, वहीं-वहीं भारी भूकंप आते रहे हैं। कितनी सीधी सी बात है कि जब हमारे पास हीट फ्लो का प्रमाणिक नक्शा मौजूद है, वह भी सरकार की एजेंसी द्वारा तैयार किया गया, फिर हम क्यों उन इलाकों में शहरी विकास, औद्योगिक विकास, बड़े बांध व नाभिकीय रिएक्टरों का निर्माण करते हैं? क्या हमारी सरकार को अपने देश के लोगों की जान और माल की चिंता नहीं? सामान्य जानकारी है कि भूचाल तब आते हैं जब पृथ्वी के अन्दर की यह गर्मी जमा होकर तीव्रता के साथ पृथ्वी की सतह को फाड़ती हुई बाहर निकलती है, ठीक उसी तरह जैसे प्रेशर कुकर में अगर सेफ्टी वॉल्व से भाप न निकाली जाये तो कुकर फट जाता है।

स्वतंत्र आविष्कारक श्री कपूर का कहना है कि अगर गरम पानी के इन चश्मों या कुण्डों पर एक उपकरण, जिसे ‘वाईनरी साइकिल पावर प्लाण्ट’ कहते हैं, लगा दिये जायें, तो यह संयत्र उस गरमी की ही बिजली बना देगा। उससे दो लाभ होंगे, एक तो यह ऊर्जा विनाशकारी होने की वजाय दस हजार छः सौ मेगावाट तक बिजली का उत्पादन कर देगी और दूसरा इसकी जमावट पृथ्वी के भीतर कभी उस सीमा तक नहीं हो पायेगी कि वह भूकंप का कारण बने। सोचने वाली बात यह है कि इतनी सरल सी जानकारी देश के कर्णधारों को रास नहीं आती। वे पश्चिमी देशों की तरफ समाधान की तलाश में भागते हैं और अपनी मेधा को सामने नहीं आने देते। ऐसा नहीं है कि श्री कपूर की बात को हल्के तरीके से लिया जाये। स्वंय तत्कालीन विज्ञान एवं तकनीकि मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने सुनामी के बाद श्री कपूर के संभाषण ‘सिस्मोलॉजी डिवीजन’ की कॉन्फ्रेंस में करवाया था। यानि देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने इनकी बात को सुना और सराहा, फिर क्यों उस पर अमल नहीं किया जाता?

Monday, April 1, 2013

क्यों विफल होते है भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ?

अमृतसर में अन्ना हजारे ने जनता से पूछा है कि वह बताये कि भ्रष्टाचार से लडाई कैसे लडी जाए ? यह तो ऐसी बात हुई कि भगवान श्री कृष्ण कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से कहे कि तुम मुझे गीता का उपदेश दो। जनता तो बेचारी भ्रष्टाचार की शिकार है। उसे तो खुद समाधान की तलाश है। अगर उसके पास समाधान होता तो देश मे अन्ना हजारे मशहूर कैसे होते ? दरअसल समाधान अन्ना हजारे के पास भी नही है और उनका मकसद समाधान ढूँढना भी नही है। मकसद है समाज मे असन्तोष पैदा करना और दुनिया को यह बताना कि भारत मे प्रजातंत्र विफल हो गया है। वैसे भ्रष्टाचार के विरोध मे उठने वाली जो भी मुहिम प्रचार के साथ उठायी जाती है और जिसका मकसद सत्तारूढ दल को ही निशाना बनाना होता है। उस मुहिम का एक ही लक्ष्य होता है जो सत्ता मे है उन्हे हटाओं और हमे सत्ता सौंपो या हमारे चेलों को सत्ता सौंपो। यह बात दूसरी है ऐसी मुहिम चलाने के बाद जो दल सत्ता मे आता है वो भी भ्रष्टाचार दूर नही कर पाता। वायदे केवल कोरे वायदे बनकर रह जाते हैं। भ्रष्टाचार कभी खत्म नही होता। उसकी मात्रा घटती बढ़ती रहती है।

दरअसल भ्रष्टाचार के विरूद्ध हर मुहिम के असफल होने के कई कारण होते है। जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि भ्रष्टाचार के कारणों की ही सही समझ अभी तक विकसित नही हुई है। हम ढोल की पोल बजा रहे है। जिसे आम जनता भ्रष्टाचार मानती है, वो तो बहुत सतही नमूना है। असली भ्रष्टाचार तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कर जाते है या उद्योगपति करते है और बाकी देश को पता ही नही चलता। पर भीड़ की उत्तेजना को बढ़ाकर ‘डेमोगोग‘ समाज मे प्रायः अशान्ति पैदा करते हैं। भ्रष्टाचार की मुहिम लेकर चलने वाले अन्ना हजारे खुद यह दावा नही कर सकते जो लोग उन्हे बार-बार मैदान मे खींचकर लाते है उनके दामन भ्रष्टाचार के रंग मे नही रंगे है। पूरी तरह भ्रष्टाचार विहीन समाज कभी कोई हुआ ही नही। उसके स्वरूप अलग अलग हो सकते है। इसलिए भ्रष्टाचार से लडाई के तरीके भी अलग-अलग होंगे। पर जब तक भ्रष्टाचार के कारणों की सही समझ न हो, जब तक इस लड़ाई के लड़ने वाले के दिल राग-द्धेष से मुक्त न हों, जब तक इस लडाई का मकसद किसी एक दल को फायदा पहुचाना और दूसरे को नुकसान पहुंचाना न हो तब तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जोर पकड़ती रहती है। जैसा इण्डिया अगेस्ट करप्शन के साथ हुआ। पर जैसे ही इस मुहिम का नेतृत्व करने वाले के चरित्र का दोहरापन उजागर होता है वैसे ही ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है।

कहने को तो हर आदमी भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था चाहता है। पर तकलीफ उठाकर भ्रष्टाचार से लड़ने वाले बिरले ही हाते है। पर वे इसलिए विफल हो जाते है क्योंकि उन्हे समाज के किसी भी ताकतवर वर्ग का समर्थन नही मिलता। ऐसे योद्धा जान हथेली पर लेकर लड़ते है और गुमनामी के अधेरे मे खो जाते हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हीरो असलियत में अनेकों समझौते किये हुए पाये जाते हैं। इसलिए वे मशहूर तो हो जाते हैं सफल नहीं।  अभी तो यह भी तय नही कि भ्रष्टाचार समाज शास्त्र का विषय है, अपराध शास्त्र का, मनोविज्ञान का या दर्शन शास्त्र का। जब रोग का स्वरूप ही नही पता तो उसका निदान देने वाला डॉक्टर कहां से आयेगा। नतीजा यह है कि  2500 साल पहले यूनान के शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद जनता की जो राय होती थी वह आज भी वैसे की वैसी है। फिर भी न कुछ बदला न कुछ खत्म हुआ। दुनिया अपनी चाल से चल रही है।

इसका अर्थ यह नही कि भ्रष्टाचार से लड़ा न जाए। पर जब भ्रष्टाचार का कारण आर्थिक विकास का मॉडल हो, धर्माचार्यो का आचरण हो, समाज का वर्ग विभाजन हो, प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो, इन संसाधनों पर आाम आदमी के नैसर्गिक अधिकारों की उपेक्षा हो तो आप किससे कैसे और कहां तक लड़ेंगे ? जब हम पड़ोसी के घर भगतसिंह पैदा होने की कामना करेंगे, तो बदलाव कैसे आयेगा ? इसलिए जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठती है, तो हम जैसे लोगो को, जो तकलीफ उठाकर ऐसी लम्बी लडाई लड़ चुके है, ऐसी आवाज उठाने वालों के मकसद को लेकार तमाम संशय होते हैं। जिनका समाधान न तो अन्ना के पास हैं और न उस जनता के पास जिससे वे समाधान पूछ रहे हैं।

Monday, March 25, 2013

आतंकवाद, संजय दत्त और हवाला कारोबार


दिल्ली की एक अदालत ने जैन हवाला काण्ड की 1991 में जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा को इस केस में टाडा नहीं लगाने की ऐवज में 10 लाख रूपये की रिश्वत लेने के आरोप में सजा सुनाई है। उधर टाडा के आरोपी संजय दत्त को सर्वोच्च न्यायालय से सजा सु
यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए सार्थक है कि दोनों घटनाऐं एक ही वर्ष में एक साथ घटीं थीं। हवाला काण्ड का उजागर होना और संजय दत्त पर मुम्बई बम विस्फोट की साजिश में शामिल होने का आरोप लगना। दोनों मामलों में पैसा या हथियार का स्रोत दाउद इब्राहिम था। दोनों आतंकवाद की घटनाओं से जुड़े मामले थे। अंतर इतना है कि एक में एक फिल्मी सितारा आरोपित था, जिसे 20 वर्ष बाद ही सही, उसके आरोप के मुताबिक सजा मिल गयी। जबकि दूसरे मामले में केवल 5 वर्ष बाद, 1998 में ही हवाला काण्ड में आरोपित देश के 115 बड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, विपक्ष के नेता और आला अफसर बाइज्जत बरी हो गए। सबसे ज्यादा चैंकाने और निराश करने वाली बात यह रही कि मेरी जनहित याचिका में हवाला काण्ड के आतंकवाद वाले पक्ष पर सी0बी0आई0 को निर्देशित कर निष्पक्ष जाँच कराने की जो प्रार्थना की गयी थी, उसे बड़ी होशियारी से दरकिनार कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे0एस0 वर्मा ने इस केस को प्रारम्भ में सबूतों से युक्त अभूतपूर्व बताते हुए भी बाद में इसे खारिज करवाने की शर्मनाक भूमिका निभाई।

यहाँ मैं संजय दत्त को मिली सजा से अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर रहा, बल्कि यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि 25 मार्च, 1991 को जब दिल्ली पुलिस ने हिज्बुल मुजाहिदीन के डिप्टी चीफ ऑफ इंटेलीजेंस अशफाक हुसेन लोन और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के छात्र शाहबुद्दीन गौरी को हिज्बुल मुजाहिदीन की मदद के लिए भेजे जा रहे लाखों रूपयों और बैंक ड्राफ्टों के साथ पकड़ा था, तब यह आतंकवाद का ही मामला दर्ज हुआ था। उसी क्रम में आगे छापे पड़े और 3 मई, 1991 को जैन बंधुओं के अवैध खाते पकड़े गये, जिसमें देश के सर्वोच्च सत्ताधीशों को मिले भुगतानों का विस्तृत ब्यौरा था। इसलिए यह टाडा, फेरा, भ्रष्टाचार निरोधक कानून व आयकर कानून के तहत मामला था। सी0बी0आई0 ने टाडा और फेरा के तहत इसे दर्ज भी किया। पर बाद में टाडा वाले पक्ष की उपेक्षा कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय में बार-बार इस बात को मेरे द्वारा शपथपत्रों के माध्यम से उठाने के बावजूद जे0एस0वर्मा ने परवाह नहीं की। इस सारे घटनाक्रम का सिलसिलेवार और तथ्यों सहित विवरण मेरी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में है। पिछले हफ्ते सी0बी0आई0 के पूर्व डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा पर दिल्ली की निचली अदालत ने इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही न करने का आरोप लगाकर सजा सुनाई है। जबकि ओ0पी0शर्मा की हवाला केस फाइल में दर्ज टिप्पणीयों में बार-बार आरोपियों को टाडा के तहत गिरफ्तार करने की सिफारिश की गयी थी। उधर 16 जून, 1991 के बाद से इस मामले की जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 आमोद कंठ ने अगले साढ़े चार साल तक भी इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही नहीं की। बावजूद इसके हवाला आरोपियों को बचाने की ऐवज में वे लगातार तरक्कीयां लेते गए और अरूणाचल के पुलिस महानिदेशक तक बने। अब यह मामला एक बार फिर दिल्ली उच्च न्यायालय में खुलेगा। कुल मिलाकर यह साफ है कि हवाला केस के टाडा पक्ष को जानबूझकर दबा दिया गया और आरोपियों को बचने के रास्ते दे दिए गए।

इस आपबीते अनुभव के बाद क्या मुझ जैसे पत्रकार और आम नागरिक को देश की सर्वोच्च अदालत से यह प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है कि आतंकवाद से जुड़े दो मामलों में न्यायालयों के मापदण्ड अलग-अलग क्यों हैं? 1993 के बाद के उस दौर में ईमेल, एस.एम.एस. या टी.वी. चैनल तो थे नहीं, जो मैं अपनी बात मिनटों में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ की तर्ज पर दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा देता। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और 1993 से 1998 तक छात्रों, पत्रकारों, वकीलों व नागरिकों के निमन्त्रण पर देश के कोने-कोने में जाकर उन्हें सम्बोधित करता रहा और इस केस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी।

1996 में जब देश के इतिहास में पहली बार इतने सारे ताकतवर लोग एक साथ चार्जशीट हुए तो पूरी दुनिया के मीडिया में हड़कम्प मच गया। दुनियाभर से हर भाषा के टी.वी. चैनलों ने दिल्ली आकर मेरे साक्षात्कार लिये और विश्वभर में प्रसारित किये और यह मामला पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। फिर भी इन्हीं लोगों ने इस तरह साजिश रची कि न्यायमूर्ति वर्मा ने बड़ी आसानी से अपनी ही लाइन से यू-टर्न ले लिया। दिसम्बर, 1998 से तो एक-एक करके सब बरी होते गए और देश में प्रचारित कर दिया कि इस मामले में कोई सबूत नहीं हैं। मेरी पुस्तक पढ़ने वाले यह जानकर हतप्रभ रह जाते हैं कि इतने सारे टी.वी. चैनल देश में होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि जो तथ्य सप्रमाण इस पुस्तक में दिए गए हैं, वे इनकी जानकारी तक नहीं पहुँचे?

चार हफ्ते बाद संजय दत्त एक बार फिर जेल के सीखचों के पीछे होंगे और अगले साढ़े तीन वर्षों में अपनी गलती पर चिंतन करेंगे। पर न्यायपालिका के इस फैसले के बावजूद देश के आतंकवादियों को हवाला के जरिए आ रही आर्थिक मदद पर कोई रोक नहीं लगेगी। क्योंकि ऐसे तमाम मामले आज भी सी0बी0आई0 की कब्रगाह में दफन हैं। जबकि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमरीका ने हवाला कारोबार पर इतनी प्रभावी रोक लगाई है कि वहाँ आज तक दूसरी आतंकवादी घटना नहीं हुई।

नाई गयी है। सितम्बर, 1993 की बात है, मैं और मेरे सहयोगी मुम्बई के नरीमन प्वाइंट स्थित वकील राम जेठमलानी के चैम्बर में पहुँचे। वहाँ फिल्मी सितारे और इंका नेता सुनील दत्त और उनका युवा बेटा संजय दत्त पहले से बैठे थे। श्री जेठमलानी ने दफ्तर आने में काफी देर कर दी तो हम लोग बैठे बतियाते रहे। संजय बहुत नर्वस था। लगातार चहल-कदमी कर रहा था। सुनील दत्त जी से पूर्व परिचय होने के कारण उन्होंने हमारे आने का कारण पूछा। तब तक मैं अपनी वीडियो मैग्जीन कालचक्र का वह अंक जारी कर चुका था, जिसमें कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का मैंने खुलासा किया था, जो बाद में जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर हुआ। पर राजनेताओं ने सैंसर बोर्ड से प्रतिबंध लगवाकर कालचक्र के इस अंक को बाजार में नहीं आने दिया था। इसलिए मैं श्री जेठमलानी से अपनी जनहित याचिका तैयार करवाने मुम्बई गया था। संजय दत्त की घबराहट देखकर मैंने संजय से कहा कि तुम्हारे अपराध से कहीं बड़ा संगीन अपराध करने वाले देश के अनेक बड़े नेताओं और अफसरों को तो मैंने ही पकड़ लिया है। अब देखना यह होगा कि अदालत उनका क्या करती है? इससे ज्यादा मैंने संजय को कुछ नहीं बताया और लंच करने उसी ईमारत की सीढ़ियों से उतरने लगा। मुझे याद है कि संजय दो मंजिल तक दौड़ता हुआ मेरे पीछे आया और बोला, ‘‘सर प्लीज बताईये कि ऐसा कौन सा मामला आपने उजागर किया है, जो मेरे ऊपर लगे आरोप से बड़ा है।’’ मैंने कहा कि अभी नहीं, समय आने पर तुम खुद जान जाओगे। उसके बाद संजय जेल चला गया। उसका सचिव पंकज मुझसे कभी-कभी फोन पर बात करता था। एक बार मैंने उसे भगवत्गीता व अन्य धार्मिक पुस्तकें संजय को ऑर्थर जेल में देने के लिए भी भेजीं। बाद में हवाला काण्ड को लेकर जो कुछ हुआ वह जगजाहिर इतिहास है।

Monday, March 18, 2013

आए थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास

पहले संत दशकों तक जंगलों में तप करते थे। सिद्धि प्राप्त होने पर भी अपना प्रचार नहीं करते थे। स्वयं को छिपा कर रखते थे। चेले बनाने से बचते थे। तब संतो का जीवन न्यूनतम आवश्यकताओं के कारण प्रकृति के साथ संतुलनकारी होता था। पर जब से धार्मिक टी वी चैनल बढे हैं त
ब से धर्म का कारोबार भी खूब चल निकला है। अब कथावाचकों और धर्माचार्यों का यश रातों-रात विश्वभर में फैल जाता है। फिर चली आती है चेलों की बारात, लक्ष्मी की बरसात और लगने लगती है ‘गुरू सेवा‘ की होड़। नतीजतन हर चेला अपनी क्षमता से ज्यादा ‘गुरू सेवा‘ में जुट जाता है। भावातिरेक में गुरू के उपदेशों का पालन करने की भी सुध नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि चेले गुरू के जीवनकाल में ही गुरू के आदर्शो की अर्थी निकाल देते है। रोकने टोकने वाले को गुरूद्रोह का आरोप लगाकर धमका देते है। गुरू की आड़ में अपनी दबी हुई महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं।

संत कहते है कि ‘पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते है, खुद शिष्य नही बनते। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य भी ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं । शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा मे किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आप अनेक शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का अनुमान भी नहीं कर सकते। इसके अपवाद संभव हैं । सूली पर चढ़ने वाले और चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशूमसीह की परंपरा को चलाने वाले पोप वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं । गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्धारों के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मो का है।
 
पर धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नही जा सकती। उनके द्धारा की जा रही ‘गुरू सेवा‘ को रोका भी नही जा सकता। पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए ? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग पोस्टरों और पर्चो में छपवाकर बाजारू औरत मत बनों। पर उनके ही शिष्य रातदिन  अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने मे जुटे हो, तो इसे आप क्या कहेगें ? संत कहते है कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाये ? संत कहते है कि राग द्धेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो, तभी बडा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्धेष की अग्नि मे ही रात-दिन जलते रहते हैं । उन्हे लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिन्ता ज्यादा रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक पंरपरा को आगे नही बढा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं । पर संत ह्नदय नवनीत समाना। संत का ह्नदय तो मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपापात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नही कि उनके चेले हर वो काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो ?
 
जहां-जहां  धर्माचार्यों के मठ या आश्रम है वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं । जब तक ये सेवा भजन-प्रवचन तक सीमित रहती है, तब तक समाज में कोई समस्या पैदा नही होती। पर जब उत्साही चेले शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास, जल, जंगल व जमीन के  ‘विकास‘ की चिन्ता करने लगते है, तब उनके अधकचरे ज्ञान के कारण समाज को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। यह सभी समस्यायें प्रोफेशनल और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नही होता। आप अपने भजन से अस्पताल के लिए साधन तो आकर्षित कर सकते है। पर उस अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल योग्यता और अनुभव की जरूरत होगी। इसलिए बिना इस समझ के किया गया विकास प्रायः विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसी सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नही होगें। पर सुनता कौन है ? जब छप्पर-फाड़कर पैसा आता है, तब बुद्धि भ्रष्ट  हो जाती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णयों को भी बुलडोजर की तरह बाकी लोगो पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठों मे सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बडा अहित होता है। क्योंकि चेलों की मार्फत ‘गुरू आज्ञा‘ के सन्देश पाने वाले भेाले-भाले अनुयायी चेलो की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं । यानि विनाश की गति और भी तेज हो जाती है। फिर सेवा कम और अंह तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण रोज दिखाई देते हैं।
 
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास यदि अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा भी करना चाहते हों या पर्यावरण को सुधारना चाहते हों तो उन्हें ऐसे लोगो की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हैं । एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाये तो बडे-बडे लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसकी विपरीत भारी संसाधन खपाकर छोटा सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ? यह कार्य तो संत या गुरू को ही करना होगा। उन्हे देखना होगा कि उनकी शरण मे आये सक्षम चेलों और उनके साथ रहने वाले समर्पित चेलों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाएं ? एक फोडे़ को चीऱने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्य चिकित्सा करनी होगी। तभी उनका सत्य संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।

Monday, March 11, 2013

भाई-भतीजावाद नहीं चलेगा जजों की नियुक्ति में

न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाने की कोशिश में दो दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका के आधार पर सरकार से न्यायधीशों को नियुक्त करने का अधिकार छींन लिया था। तब इसे एक क्रान्तिकारी कदम माना गया था। पर आज अगर पीछे मुडकर देखें तो यह साफ हो जायेगा कि न्यायपालिका ने अपने इस अधिकार का सदुपयोग नहीं किया। इस व्यवस्था के दौरान देश के उच्च न्यायालयों में नियुक्त हुए न्यायधीशों की अगर पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि ज्यादातर किसी न्यायधीश के परिवारजन है या किसी बड़े वकील के। इसमे न तो योग्यता का ध्यान रखा जाता है और न ही अनुभव  का। इस कदर भाई-भतीजावाद चलता है कि पूरे देश के वकीलों में इस व्यवस्था के खिलाफ भारी आक्रोश है। एक आईएएस अधिकारी को भारत सरकार मे सचिव बनने के लिए 58 साल पूरे होने का इंतजार करना पड़ता है। जबकि उच्च न्यायालय में अपने सपूतो को जज बनाकर न्यायपालिका 40-42 साल की उम्र में ही उन्हें  भारत सरकार के सचिव के समकक्ष खड़ा कर देती है। ताकत, जलवा और राजकीय अतिथि होने का लाभ अलग से मिलता है।
 
सोचा यह गया था कि इस व्यवस्था से न्यायपालिका के कामकाज में ज्यादा पारदर्शिता और ईमानदारी आयेगी। पर न्यायपालिका की जो छवि पिछले दो दशक में बनी है वो देश में किसी से छिपी नहीं है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के कई मुख्य न्यायाधीश यह बात खुलेआम कह चुके है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार व्याप्त है। ऐसे में सरकार का यह मानना कि न्यायधीशों की नियुक्ति की इस व्यवस्था को बदलना चाहिए, उचित लगता है। देश के कानून मंत्री अश्विनी कुमार के अनुसार सरकार जो व्यवस्था अब बनाने जा रही है उसमे न्यायधीशों के चयन के लिए जो समिति बनेगी उसमे भारत के मुख्य न्यायधीश के अलावा कानूनमंत्री, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष व राष्ट्रपति के मनोनीत न्यायविद् रहेगें। नामों का प्रस्ताव पहले की तरह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ही करेगें। पर यहां भी एक पेंच है। प्राय: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश दूसरे राज्यों से आते है और बहुत कम समय के लिए उच्च न्यायालय में रहते हैं। या तो उनके तबादले हो जाते हैं या पदोन्नति होकर वे सर्वोच्च न्यायालय चले जाते हैं । ऐसे में इतने अल्प समय में वे कैसे यह तय कर पाते हैं कि उनके उच्च न्यायालय में प्रेक्टिस करने वाला कौन वकील न्यायधीश बनने के योग्य है ? होता यही है कि नातेदार, चाटुकार या सिफारिशी का ही नाम आगे भेज दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली उच्च न्यायालय के  मुख्य न्यायधीश अगर दक्षिण भारतीय मूल के थे तो उन्होने अपने इलाके के वकीलों के नाम प्रस्तावित कर दिये।
 
केवल न्यायपालिका के एकाधिकार से न्यायधीशों की नियुक्ति की परंपरा ज्यादातर देशों में नहीं है। वहां वही व्यवस्था है जिसमें नियुक्ति पर सरकार का अधिकार रहता है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था में खामियां नही है। पाठकों को याद होगा कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश के चुनाव सम्बन्धी विवाद वाली याचिका पर फ्लोरिडा के न्यायधीशों ने जो निर्णय दिया उस पर उगंलिया उठीं थीं। क्योंकि ये न्यायधीश रिपब्लिकन  पार्टी की सरकार द्धारा नियुक्त थे । इसी कमी को दूर करने के लिए अब प्रस्तावित व्यवस्था में नेता प्रतिपक्ष को भी अहम स्थान दिया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस व्यवस्था से न्यायधीशों की नियुक्ति में हो रही धांधली कम होगी। फिर भी ऐसा मानना नादानी होगा कि इस व्यवस्था से क्रान्तिकारी सुधार आ जायेगा। अभी कुछ वर्ष पहलें की बात है कि भारत के एक पूर्व न्यायधीश के कई घोटाले उजागर हुए थे पर भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नेता प्रतिपक्ष सोनिया गांधी को राजी कर उस पूर्व मुख्य न्यायधीश को भारत के मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। ऐसा भविष्य में नही होगा इसकी क्या गारंटी है ? पर ऐसे अपवाद रोज नही हुआ करते। अब जनता और मीडिया काफी जागरूक है। इसलिए ऐसे मामलों में शोर अवश्य मचेगा। उधर अपने अधिकार छिन जाने के बाद न्यायपालिका भी खामोश नही बैठेगी। मौका मिलते ही ऐसी नियुक्तियों  पर दखलंदाजी जरूर करेगी।
 
चाणक्य पण्डित ने कहा है कि व्यवस्था चाहे कोई भी बना ली जाये, तभी कामयाब होती है जब उसे चलाने वालों की मंशा साफ हो। अगर नई व्यवस्था में हर सदस्य यह तय कर ले कि न्यायपालिका के गिरते स्तर को सुधारनें की उसकी नैतिक जिम्मेदारी है तो फिर सही लोगों का चुनाव होगा। देखना होगा कि आने वाले दिनों मे नई व्यवस्था न्यायधीशों की नियुक्ति में क्या बदलाव लाती है।

Monday, March 4, 2013

यूं नहीं आयेगा यमुना में जल

पिछले डेढ़ वर्ष से ब्रज में यमुना में यमुना जल लाने की एक मुहिम उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में चलायी जा रही है। यमुना रक्षक दल नाम से बना संगठन इस मुहिम को भारतीय किसान यूनियन के एक टूटे हुए हिस्से के सहयोग से चला रहा है। इनकी मांग है कि यमुना में यमुना जल लाया जाये। जिसके लिए ये दिल्ली के हथिनी कुण्ड बैराज को हटाकर यमुना की अविरल धारा बहाने की मांग कर रहे हैं। यह मांग कानूनी और भावनात्मक दोनों ही रूप में उचित है कि यमुना में यमुना जल बहे। जबकि आज उसमें दिल्ली वालों का सीवर और प्रदूषित जल ही बह रहा है। मथुरा के हजारों देवालयों में श्रीविग्रह के अभिषेक के लिए हर प्रातः यही जल भरकर ले जाया जाता है। जिससे भक्तों और संतों को भारी पीड़ा होती है। यमुना स्नान करने वाले भी जल के प्रदूषित होने के कारण अनेक रोगों के शिकार हो जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यमुना का जल उसकी सहनशीलता से एक करोड़ गुना अधिक प्रदूषित है। यमुना एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। वैसे भी देवी भागवत नाम के पौराणिक ग्रंथ में यह उल्लेख मिलता है कि कलियुग में गंगा और यमुना दोनों अदृश्य हो जायेंगी। इसलिए पूरा ब्रज क्षेत्र इस मांग का भावना से समर्थन करता है। पर प्रश्न यह है कि क्या हथिनी कुण्ड बांध को हटाये जाने की मांग ही यमुना के जीर्णोद्धार का मात्र और सही विकल्प है?

 
हमने इसी कॉलम में कई वर्ष पहले उल्लेख किया था कि यमुना को पुनः जागृत करने के लिए अनेक कदम उठाने होंगे। हथिनी कुण्ड से जल प्रवाहित करना एक भावुक मांग अवश्य हो सकती है, पर यह इस समस्या का समाधान कदापि नहीं। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? दिल्ली तक पैदल मार्च करना ठीक उसी तरह है कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकॉल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?
 
ब्रज यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।
 
दूसरी तरफ गंगोत्री के बाद विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे यमुना का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही यमुना जल की भारी कमी हो चुकी है। यमुना में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। दूसरी तरफ मैदान में आते ही यमुना कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी कू्ररता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद यमुना इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर दिल्ली तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। यमुना में प्रदूषण का सत्तर फीसदी प्रदूषण केवल दिल्ली वासियों की देन है। जब तक यमुना जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक यमुना में जल प्रवाहित नहीं होगा। हथिनी कुण्ड बैराज खोल दिया जाये या तोड़ दिया जाये, दोनों ही स्थितियों में यमुना में यमुना जल निरंतर बहने वाला नहीं है। यह एक भावातिरेक में उठाया गया मूर्खतापूर्ण कदम होगा। यमुना रक्षक दल के इस आव्हान से भावनात्मक रूप से जुड़ने वाले ब्रज के संतों और ब्रजवासियों को भी इस बात का अहसास है कि इस आन्दोलन ने मुद्दा तो सही उठाया पर समस्या का समाधान देने की इसके नेतृत्व के पास क्षमता नहीं है। इसलिए लोगों को यह आशंका है कि इतनी ऊर्जा और धन इस यमुना आन्दोलन में झौंकने के बाद चंद लोगों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा भले ही पूरी हो जाये पर कोई सार्थक हल नहीं निकलेगा। ईश्वर करे कि उनकी यह आशंका निमूल साबित हो और यमुना में यमुना जल बहे। बाकी समय बतायेगा। 

Monday, February 25, 2013

महाकुम्भ की व्यवस्था सराहनीय

इलाहाबाद का कुम्भ अब अपने अंतिम दौर में है। इस बार कुम्भ की व्यवस्थाओं को लेकर हर ओर उ0प्र0 शासन की वाहवाही हो रही है। हालांकि भाजपा नेता डा0 मुरली मनोहर जोशी ने कुम्भ के लिए केन्द्र सरकार से मिले सैंकड़ों करोड़ के अनुदान के दुरूपयोग की जांच का मुद्दा उठाया है। इतने बड़े आयोजन में इस तरह का आरोप लगना कोई असामान्य बात नहीं है। अगर घोटाला हुआ होगा तो जांच भी होगी और जांच होगी तो कुछ तथ्य बाहर भी आयेंगे। अभी हम उस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते।
व्यवस्था में खामियां देखने की आदत वाले लोग चाहें विपक्ष में हों या मीडिया में, सबने एक सुर से इलाहाबाद कुम्भ के आयोजन की खूब तारीफ की है। मौनी अमावस्या को रेलवे स्टेशन पर हुए हादसे को अगर एक अप्रत्याशित दुःखद घटना माना जाऐ तो बाकी सब मामलों में कुम्भ मेला अब तक पूरी तरह सफल रहा है। उ0प्र0 सरकार का आरोप है कि रेलवे स्टेशन का हादसा रेल मंत्रालय की लापरवाही से हुआ, जबकि रेल मंत्रालय इसके लिए मेला प्रशासन को जिम्मेदार ठहराता है। इसके अलावा कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई जहाँ जान और माल की हानि हुई हो। यह तारीफ की बात है। वरना करोड़ों लोगों के जमावाड़े को अनुशासित और नियन्त्रित रखना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। जिसके लिए मेला प्रभारी आजम खान, उ0प्र0 के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उ0प्र0 के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी विशेषरूप से बधाई के पात्र हैं। जिन्होंने रात-दिन बड़ी तत्परता से अपने अफसरों की टीम को निर्देश दिये और उनके काम पर निगरानी रखी।
इससे यह सिद्ध होता है कि कोई भी आयोजन क्यों न हो, अगर आयोजक कमर कस लें और संभावित समस्याओं के हल पहले ही ढूंड लें, तो इन सामाजिक उत्सवों और मेलों में कोई अप्रिय हादसे होए ही न। इसके लिए जरूरत होती है ऐसे अफसरों की टीम की, जिसे इस तरह के आयोजन का पूर्व अनुभव हो। जरूरत होती है ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था की जो निर्बाध गति से चलता रहे। इसके साथ ही जरूरत होती है ऐसी एजेंसियों की जो मेलों में जमा होने वाले कूड़े-करकट और गन्दगी को आनन-फानन में साफ कर दे ताकि वहाँ गन्दगी न फैले और बीमारी फैलने की संभावना न रहे। इसके साथ ही शहर में जब करोड़ों लोग बाहर से आते हैं, तो फल सब्जी, दूध, राशन आदि की मांग अचानक हजारों गुना बढ़ जाती है। ऐसे में दुकानदार दाम बढ़ाकर तीर्थयात्रियों को निचोड़ने में कसर नहीं रखते। पर इतने बड़े आयोजन के बावजूद इलाहाबाद के कुम्भ के कारण इलाहाबाद शहर में कहीं कोई अभाव नहीं रहा और दाम भी बाजिव रहे।  इन सब मामलो में इस बार के कुंभ की व्यवस्थाओं की काफी तारीफ हुई है।
जहाँ एक तरफ प्रशासन ने कुम्भ मेले के आयोजन में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं देश के नामी मठाधीशों ने अपने-अपने सम्प्रदाय के अखाड़े गाढ़कर कुंभ को काफी रंग-बिरंगा बना दिया। कुछ अखाड़े तो पाँच सितारा होटलों को भी मात कर रहे हैं। जहाँ सबसे ज्यादा विदेशी और अप्रवासी आकर ठहर रहे हैं। इतने विशाल आयोजन में बच्चों के अपहरण और महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार की काफी संभावना रहती है। लेकिन उ0प्र0 पुलिस की मुस्तैदी से ऐसी घटनाओं की यहाँ झलक देखने को नहीं मिली।
पिछले बारह सालों में देश का टी.वी. मीडिया कई गुना बढ़ गया है। इसलिए इस बार का विशेष आकर्षण यह रहा कि पचासों चैनलों ने रात-दिन इलाहाबाद कुम्भ के हर पल को खूब विस्तार से प्रस्तुत किया। इसका असर यह हुआ कि सीमांत भावना वाले वे लोग जो प्रायः ऐसे धार्मिक मेले उत्सवों में जाने से घबराते हैं, बड़ी तादाद में इलाहाबाद कुम्भ नहाने पहुँचे। खासकर युवाओं में इसका भारी क्रेज देखा गया। देश के कोने-कोने से युवा व अन्य लोग संगम पर डुबकी लगाने आये।
यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि देश के मन्दिरों व अन्य तीर्थस्थलों पर मेलों और पर्वों के समय बदइंतजामी के कारण अक्सर बड़ी-बड़ी दुर्घटनाऐं होती रहती हैं, जिनमें सैंकड़ों जाने चली जाती हैं। पर फिर भी स्थानीय प्रशासन कोई सबक नहीं सीखता। जिस तरह भारत सरकार ने आपदा प्रबन्धन बोर्ड़ बनाया है उसी तरह देश को एक उत्सव प्रबन्धन बोर्ड की भी जरूरत है। जिसमें ऐसे योग्य और अनुभवी अधिकारी विभिन्न राज्यों से बुलाकर तैनात किये जायें। यह बोर्ड मेले आयोजनों की आचार संहिता तैयार करें और कुछ मानक स्थापित करें। जिनकी अनुपालना करना हर जिले व राज्य में अनिवार्य किया जाये। इससे न सिर्फ हादसे होने से बचेंगे, बल्कि पूरे देश में उत्सवों के प्रबन्धन की कार्यक्षमता में गुणात्मक सुधार आयेगा। इसके साथ ही ऐसी परिस्थितियों में राज्य सरकारों को अनुभवहीन अधिकारियों के निर्णयों पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा। उनके पास हमेशा कुशल और अनुभवी सलाह मौजूद रहेगी। इसके साथ ही मेलों के आयोजन में काम आने वाले ढांचों को स्थायी, फोल्डिंग और व्यवहारिक बनाने की जरूरत है। जिससे साधनों का दुरूपयोग बचे और हर मेले के आयोजन में एक सुघड़ता दिखाई दे। फिलहाल इलाहाबाद कुंभ में भारी मात्रा में बांस, बल्ली और रस्सी का सहारा लिया गया है। जबकि इस सबके लिए प्री-फैब्रिकेटेड ढांचे तैयार किये जा सकते थे। कई दशकों से गणतंत्र दिवस की परेड की तैयार ऐसे ही बांस, बल्ली गाढ़कर की जाती थी। पर पिछले कुछ वर्षों से इसमें गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब राजपथ पर लगने वाले स्टॉल प्री-फैब्रिकेटेड होते हैं। वे जल्दी लगते हैं। टिकाऊ और मजबूत होते हैं और जल्दी ही उन्हें समेटा जा सकता है। इससे पैसे की भी भारी बचत होगी।

Monday, February 18, 2013

अपनों ने मारा पोंटी को?

 
पोंटी चढ्डा और उनके भाई हरदीप चढ्डा के दोहरे हत्याकांड के लिए पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। जिनके अनुसार इन दोनों भाईयों की हत्या उनके अपने ही लोगों ने की है। जिनमें उनके विश्वसनीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह बिल्कुल बॉलीवुड फिल्म की तरह की कहानी है। मुरादाबाद में चढ्डा परिवार ने अपनी कारोबारी जिन्दगी शुरू की, यह बात सन् 1967-68 के दौरान की होगी। हम भी उसी शहर में रहते थे। हम इस परिवार के बारे में जानते थे। मुरादाबाद के रामपुर रोड पर तब पोंटी चढ्डा के पिता ने अपनी पहली शराब की दुकान खोली थी। उसके कुछ दिन बाद चढ्डा टॉकिज के नाम से सिनेमाहॉल भी खोला। फिर ये शराब के कारोबार में घुस गये। देखते ही देखते पंजाब, हरियाणा, उ0प्र0, उत्तराखण्ड में इनका शराब का भारी कारोबार फैल गया। हाल के वर्षों में तो यह बात हर आदमी जानता था कि बसपा की सरकार हो या सपा की, पोंटी चढ्डा इन दोनों ही सरकारों के साथ हजारों करोड़ के कारोबार में शामिल था।
पर अंत में क्या मिला? जिस वैभव को जमा करने के लिए इस खानदान ने धरती और आकाश एक कर दिया, उसे भोगने से पहले इस खानदान के दो स्तंभ धराशायी हो गये। ऐसी कहानियां धर्म ग्रंथों से लेकर फिल्मों में बार-बार दोहराई जाती हैं। पर फिर भी हमें कोई सबक नहीं मिलता। बिना मेहनत किये अगर आसानी से हम धन, सम्पत्ति को दिन दूना और रात चैगुना करने का मौका मिले तो हममें से शायद बहुत कम होंगे जो इस लोभ से बच पायेंगे। आज की दुनिया का माहौल ऐसा बन गया है कि जिसके पास दौलत है, उसकी तूती बोलती है। फिर चाहें वो राजनीति में हो, उद्योग व्यापार में हो, धन के कारोबार में हो, नौकरशाही में हो या फिर मीडिया में। कोई नहीं पूछता कि तुमने इतना धन कैसे और कहां से कमाया? पैसे से समाज के लिए वे आदर्श समाप्त होते जा रहे हैं, जो कभी ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की प्रेरणा दिया करते थे। इसलिए चारों तरफ होड़ लगी है, किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की। नैतिकता, समाज की संवेदनशीलता और समाज में अपनी छवि की परवाह किये बिना आदमी आगे बड़ रहा है। पहले एक हाजी मस्तान का नाम ऐसे उदाहरण के तौर पर लिया जाता था। आज हर शहर में हाजी मस्तानों की कतार लग गयी है। इसका सबसे ज्यादा बुरा असर नौजवानों पर पड़ रहा है। ये नये पनपते हाजी मस्तान अपने कारोबार में इन नौजवानों को प्रलोभन देकर खींच लेते हैं। फिर इनसे हर वो अवैध काम करवाते हैं जिसमें कभी भी पकड़े जाने या मारे जाने का खतरा होता है। इस तरह ये नौजवान अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। जिसका इनाम इनकी औकात से कई गुना ज्यादा मिलता है। शुरू में तो इनके घरवालों और परिजनों को आश्चर्य होता है कि अचानक उनका सपूत ऐसी मोटी कमाई किस धंधे में कर रहा है? पर जल्दी ही उसके रंग-ढंग से उन्हें संदेह होने लगता है। पर तब तक उन्हें भी मुफत की कमाई का मजा आने लगता है। इसलिए वे रोकते नहीं। एक दिन ऐसा भी आता है जब वही सपूत संगीन अपराध में पकड़ा जाता है या हत्या जैसे किसी जुर्म में शामिल होता है। पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों की भी ऐसी ही कहानी मिलेगी।
अब सवाल उठता है कि क्या पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों को सजा मिलने भर से समाज में ऐसे अपराधों के प्रति डर पैदा हो जायेगा? क्या इन लोगों को जल्दी सजा मिल पायेगी? क्या उस सजा से ऐसे अपराध होना बंद हो जायेंगे? उत्तर है, नहीं। तो फिर क्या किया जाये? अभी भारत की परिस्थितियां इतनी नहीं बिगड़ी हैं कि पानी सिर से गुजर जाये। छोटे कस्बों और देहातों का समाज अभी भी नैतिकता के मूल्यों से जुड़ा है। यह गंदगी तो महानगरीय संस्कृति के साथ उभरे उपभोक्तावाद ने पैदा की है। इसलिए पूरे देश के नेतृत्व को आत्ममंथन की जरूरत है।  अगर हम चाहते हैं कि समाज में शांति, नैतिकता और मेहनत के प्रति आस्था बनी रहे, तो हमें तेजी से पनप रही इन प्रवृत्तियों पर रोक लगानी होगी। अन्यथा हमारा समाज भी मैक्सिको के ड्रग माफिया जैसे नियन्त्रकों के हाथ में चला जायेगा और तब हम उसके सामने असहाय होंगे।
इसके लिए केवल सख्त कानून बनाने से ही काम नहीं चलेगा। मीडिया नीति भी बदलनी होगी। मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों की राय पर ध्यान देना होगा। धर्म गुरूओं को हीरे-जवाहरात और मुकुट मणियों के अलंकरण से मुक्त होकर गुरूनानक देव, कबीर और रैदास जैसे आचरण से समाज को सद्ज्ञान देना होगा। कुल मिलाकर समाज का हर वह व्यक्ति या वर्ग जो एशोआराम में डूबा है, उसे आत्ममंथन करना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ का ऐशोआराम बाकी समाज के लिए अभिशाप बन जाये।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।

Monday, February 4, 2013

राज्यों में मजबूत लोकपाल गठित करने कि जरूरत

सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जो प्रस्ताव सरकार को सौंपे, वे प्रशंसनीय हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकपाल के गठन और अधिकारों को लेकर जो कुछ इस समिति ने सुझाया है, वह काफी हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक मॉडल है, जिस पर संसद में आम सहमति होनी चाहिए। जहाँ तक लोकपाल के अधिकारों की बात है, उसे केवल मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। अन्यथा उसका कार्यक्षेत्र इतना बढ़ जाऐगा कि लोकपाल एक कागजी शेर बनकर रह जाऐगा। इतना ही नहीं अगर सरकार के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन किया जाता है, तो इसे कम से कम 6 लाख जांच अधिकारियों को नियुक्त करना पड़ेगा। जिनका चयन, उनकी ईमानदारी की परीक्षा और उनको दिए जाने वाला वेतन, यह इतने जटिल सवाल हैं कि इनका हल असंभव है। इसलिए टीम अन्ना की यह मांग उचित नहीं। पर टीम अन्ना की इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि अगर उच्च पदासीन मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच के बाद लोकपाल को उनके विरूद्ध भ्रष्टाचार के समुचित प्रमाण मिलते हैं तो इन लोगों को मिलने वाली सजा के अलावा इनकी अवैध सम्पत्ति जब्त करने का अधिकार लोकपाल को मिलना चाहिए। तभी भ्रष्टाचारियों के मन में भय पैदा होगा।
लोकपाल और सीबीआई के संबन्धों पर जो सुझाव इस समिति ने दिए हैं, वे निश्चित रूप से एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं, जिनका परीक्षण किया जाना चाहिए। अगर परिणाम उत्साहजनक आते हैं, तो इस दिशा में और भी प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक सीबीआई को पूरी स्वायत्तता देने की बात है, ऐसा किसी भी दल की कोई सरकार कभी नहीं मानेगी। लेकिन सीबीआई को सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किया जाना चाहिए। अभी सीवीसी को केवल सीबीआई के कामकाज पर निगरानी रखने का अधिकार मिला है, जो नाकाफी है। सीबीआई अभी भी सरकार के सीधे आधीन है। सीबीआइ और सीवीसी दोनों को ही वित्तीय स्वायत्तता नहीं है। इसलिए वे सरकार के रहमो करम पर निर्भर रहती हैं। जब तक इन्हें वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिलेगी, तब तक सरकार में बैठे अफसर चाहें जब इनकी कलाई मरोड़ते रहेंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल और सीवीसी के बीच कार्य का विभाजन किस तरह हो? जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं कि आदर्श स्थिति तो यह है कि लोकपाल केवल मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों के भ्रष्ट आचरण की जांच करे और सीवीसी उच्च अधिकारियों से लेकर मझले स्तर तक के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच करे। इस तरह दोनों के कार्यक्षेत्र स्पष्टतः विभाजित रहेंगे। सी0बी0आई0 को इन दोनों ही संस्थाओं के आदेशानुसार मामला दर्ज करने, जांच करने, समय-समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के प्रावधान किये जाऐं। जिससे लोकपाल व सी0वी0सी0 अपने-अपने कार्यक्षेत्र में मिलने वाली शिकायतों के अनुरूप सीबीआई को समुचित दिशानिर्देश दे सकें। इसके साथ ही लोकपाल की चयन समिति को ही सीवीसी के सदस्यों का भी चयन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, स्पीकर लोकसभा व भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर लोकपाल और सीवीसी के सदस्यों का चयन करें। एक लोकतांत्रिक देश में इससे अच्छी परंपरा और क्या हो सकती है। हां, इसमें एक सुधार अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का भी नाम इस समिति के संज्ञान में चयन के लिए लाया जाता है, उन व्यक्तियों के नाम और क्रियाकलापों की सूची लोकपाल और सीवीसी की वेबसाइट पर डाली जाऐं और देश की जनता को यह न्यौता दिया जाए कि वह अगले निर्धारित समय सीमा के भीतर इन व्यक्तियों में से यदि किसी के विरूद्ध भी भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के कोई प्रमाण हों, तो  चयन समिति के सामने प्रस्तुत करें। इससे चयन प्रक्रिया में और भी पारदर्शिता आयेगी। कम से कम उन लोगों के नाम तो कभी भी विचारार्थ नहीं आयेंगे, जिनके आचरण पर पहले कभी कोई विवाद उठ चुका है।
इस पूरी लड़ाई में जो असली मुद्दा खो रहा है, वह है आम जनता के सामने हर दिन आने वाले भ्रष्टाचार जनित संकट। राशन की दुकान, थाना बिजली, अस्पताल, परिवहन व स्थानीय प्रशासन, ये ऐसे विभाग हैं जिनसे आम जनता का रोज नाता पड़ता है। इन्हीं के भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा दुखी है। लोकपाल बने या न बने, आम लोगों को कोई राहत मिलने वाली नहीं। उसके लिए तो लोकायुक्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि केन्द्र का लगभग सारा पैसा राज्यों को जाता है। इसलिए उस पैसे के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। पर चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों में लोकायुक्त का चयन और उसके अधिकार तय करने का जिम्मा राज्य सरकारों पर टाल दिया गया है। जाहिर है ऐसा क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण किया गया है। क्योंकि पिछले सत्र में क्षेत्रीय दलों ने लोकायुक्त थोपे जाने का भारी विरोध किया था। लोकायुक्त के गठन के मौजूदा कानून के बावजूद गुजरात जैसे कई राज्यों ने लोकायुक्त के गठन में भारी कोताही बरती है। इसलिए देशवासियों को चाहिए कि वे अपने-अपने प्रांतों की सरकारों पर दबाव बनाकर प्रांतों में सशक्त लोकायुक्त के गठन को सुनिश्चित करें। जिससे उनके दैनिक जीवन में आने वाले अवरोधों के अपराधी पकड़े जा सकें।
अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक, आर्थिक, मनौवैज्ञानिक व आपराधिक आचरण है। जिसका समाधान केवल कानून और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन से कभी भी नहीं निकाला जा सकता, जब तक कि समाज खुद उठकर खड़ा न हो और अपने व सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार संघर्ष न करे। 

Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, January 14, 2013

सिर्फ नारों से नहीं बनेगा उत्तम प्रदेश

पिछले दिनों कई मंचों पर उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बार-बार दोहराया है कि वे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। पर क्या ऐसा होना सिर्फ नारों से सम्भव है?
उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक तंत्र पिछले दो दशकों में बुरी तरह चरमरा गया था। जिसे मायावती ने अपने डण्डे के जोर पर नियन्त्रित करने की कोशिश की। उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की नौकरशाही बहनजी के आगे थरथर कांपती थी। इसका पूरा फायदा मायावती ने उठाया। अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को उन्होंने डण्डे के जोर पर समयबद्ध तरीके से पूरा करवा लिया। फिर चाहे वो अम्बेडकर पार्क हो, कांशीराम पार्क हों या उनकी अन्य वैचारिक योजनाऐं। लेकिन इसका अधिक लाभ आम जनता को नहीं मिला। क्योंकि नौकरशाही केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्राथमिकता देती थी, जिन पर बहनजी की नजर थी।
जबसे अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली है, तब से स्थिति बदल गयी। नए विचारों के, ऊर्जावान और युवा अखिलेश ने प्रशासनिक तंत्र को शुरू से ही भयमुक्त कर दिया। उनका उद्देश्य रहा होगा कि ऐसा करने से सक्षम अधिकारी स्वतंत्रता से निर्णय ले सकेंगे। पर अभी तक इसके वांछित परिणाम सामने नहीं आये हैं। एक तो वैसे उत्तर प्रदेश में साधनों का अभाव है, दूसरा प्रशासन तंत्र अब हर तरह के नियन्त्रण और जबावदेही से मुक्त है। तीसरा उत्तर प्रदेश में सत्ता के चार केन्द्र बने हैं। नतीजतन नौकरशाही किसी एक केन्द्र की शरण लेकर बाकी को ठेंगा दिखा देती है। ऐसे में कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए दो तरीके हैं। एक तो मौजूदा संसाधनों का प्रभावी तरीके से प्रयोग हो और दूसरा बाहर से संसाधनों को आमंत्रित किया जाऐ। जहाँ तक उपलब्ध साधनों के इस्तेमाल की बात है, उत्तर प्रदेश की नौकरशाही संसाधनों का दुरूपयोग करने में किसी से कम नहीं। फिर वो चाहे मायावती का शासन रहा हो या अखिलेश यादव का। विकास की जितनी भी योजनाऐं बन रही हैं, उन्हंे बनाने वाली वह निचले स्तर की नौकरशाही है, जिसे न तो स्थानीय मुद्दों की समझ है, न उसके पास आधुनिक ज्ञान व दृष्टि है और न ही कुछ अच्छा करके दिखाने की इच्छा। होता यह है कि मुख्यमंत्री कोई घोषणा करते हैं तो मुख्य सचिव सचिवों की बैठक बुला लेते हैं। सचिवों को लक्ष्य दे दिए जाते हैं। वे अपने अधीनस्थों से योजनाऐं बनवा लाते हैं और अगली बैठक में उन योजनाओं को पास करवा लेते हैं। इन योजनाओं को बनाते वक्त न तो स्थानीय जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है और न ही इन सबसे होने वाले लाभ या नुकसान पर। एक लम्बी फेहरिस्त है जहाँ ऐसी सैंकड़ों करोड़ की योजनाऐं बन चुकी हैं और लागू भी हो चुकी हैं जिनमें सीमित साधनों की असीमित बर्बादी हो रही है। फिर वो चाहें पर्यटन विभाग की योजनाऐं हों, नगर विकास की हों, ग्रामीण विकास की हों या सड़क विभाग की। सबमें मूल भावना यही निहित रहती है कि इस योजना में कितना ज्यादा से ज्यादा माल उड़ाया जा सकता है।
जैसा हमने पहले कहा कि तमाम सख्ती के बावजूद मायावती की सरकार इस दुष्प्रवत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई। इधर अखिलेश यादव की सरकार भी ऐसी मानसिकता से निपटने में अभी तक असफल रही है। स्वंय मुख्यमंत्री के अधीनस्थ विभागों में भी ऐसी योजनाओं पर धन आवण्टन हो रहा है, जिनसे कोई लाभ जनता को मिलने वाला नहीं है। पर बेचारे भोले-भाले मुख्यमंत्री शायद इस सबसे अनिभिज्ञ हैं या फिर उन्होंने अन्य सत्ता केन्द्रों के आगे हथियार डाल दिये हैं। दोनांे ही स्थिति में खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। देखते-देखते ऐसे ही पांच साल गुजर जाऐंगे और अगर यही हाल रहा तो तमाम बड़े दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन पाऐगा।
साधनों की कमी दूर करने का दूसरा तरीका है बाहर से विनियोग आकर्षित करना। बाहर यानि देश के अन्य राज्यों से या विदेशों से। विदेशी निवेश तो उत्तर प्रदेश में आने से रहा। क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां रास नहीं आतीं। देशी उद्योगपति भी उत्तर प्रदेश में विनिवेश करने से घबराते हैं। जबकि दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का नारा देते हैं तो बड़े-बड़े निवेशकर्ता लाइन लगाकर भागे चले आते हैं। क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक व्यवस्था पर भरोसा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रशासनिक तंत्र और अफसरशाही को यथासंभव पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाया है। अखिलेश यादव को भी उनका यह गुर सीखना होगा। ताकि वे अपने प्रशासन पर पकड़ मजबूत कर सकें और उसे जनता के प्रति जबावदेह बना सकें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में देशी विनिवेशकर्ता भी उनके आव्हान को गंभीरता से नहीं लेंगे। फिर कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने युवाओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते हैं, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते हैं और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते हैं तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता है। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। जिसके बिना नहीं बन सकेगा उत्तम प्रदेश।

Monday, January 7, 2013

इन हालातों में जनता क्या करे?

बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।