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संत कहते है कि ‘पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते है, खुद शिष्य नही बनते। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य भी ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं । शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा मे किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आप अनेक शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का अनुमान भी नहीं कर सकते। इसके अपवाद संभव हैं । सूली पर चढ़ने वाले और चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशूमसीह की परंपरा को चलाने वाले पोप वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं । गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्धारों के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मो का है।
पर धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नही जा सकती। उनके द्धारा की जा रही ‘गुरू सेवा‘ को रोका भी नही जा सकता। पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए ? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग पोस्टरों और पर्चो में छपवाकर बाजारू औरत मत बनों। पर उनके ही शिष्य रातदिन अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने मे जुटे हो, तो इसे आप क्या कहेगें ? संत कहते है कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाये ? संत कहते है कि राग द्धेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो, तभी बडा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्धेष की अग्नि मे ही रात-दिन जलते रहते हैं । उन्हे लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिन्ता ज्यादा रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक पंरपरा को आगे नही बढा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं । पर संत ह्नदय नवनीत समाना। संत का ह्नदय तो मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपापात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नही कि उनके चेले हर वो काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो ?
जहां-जहां धर्माचार्यों के मठ या आश्रम है वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं । जब तक ये सेवा भजन-प्रवचन तक सीमित रहती है, तब तक समाज में कोई समस्या पैदा नही होती। पर जब उत्साही चेले शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास, जल, जंगल व जमीन के ‘विकास‘ की चिन्ता करने लगते है, तब उनके अधकचरे ज्ञान के कारण समाज को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। यह सभी समस्यायें प्रोफेशनल और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नही होता। आप अपने भजन से अस्पताल के लिए साधन तो आकर्षित कर सकते है। पर उस अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल योग्यता और अनुभव की जरूरत होगी। इसलिए बिना इस समझ के किया गया विकास प्रायः विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसी सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नही होगें। पर सुनता कौन है ? जब छप्पर-फाड़कर पैसा आता है, तब बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णयों को भी बुलडोजर की तरह बाकी लोगो पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठों मे सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बडा अहित होता है। क्योंकि चेलों की मार्फत ‘गुरू आज्ञा‘ के सन्देश पाने वाले भेाले-भाले अनुयायी चेलो की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं । यानि विनाश की गति और भी तेज हो जाती है। फिर सेवा कम और अंह तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण रोज दिखाई देते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास यदि अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा भी करना चाहते हों या पर्यावरण को सुधारना चाहते हों तो उन्हें ऐसे लोगो की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हैं । एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाये तो बडे-बडे लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसकी विपरीत भारी संसाधन खपाकर छोटा सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ? यह कार्य तो संत या गुरू को ही करना होगा। उन्हे देखना होगा कि उनकी शरण मे आये सक्षम चेलों और उनके साथ रहने वाले समर्पित चेलों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाएं ? एक फोडे़ को चीऱने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्य चिकित्सा करनी होगी। तभी उनका सत्य संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।
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