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Tuesday, July 2, 2024

धर्मगुरुओं के बीच यूट्यूब संग्राम


जब से सोशल मीडिया का प्रभाव तेज़ी से व्यापक हुआ है तब से समाज का हर वर्ग, यहाँ तक कि ग्रहणियाँ भी 24 घंटे सोशल मीडिया पर हर समय छाए रहते हैं। इसके दुष्परिणामों पर काफ़ी ज्ञान उपलब्ध है। सलाह दी जाती है कि यदि आपको अपने परिवार या मित्रों से संबंध बनाए रखना है, अपना बौद्धिक विकास करना है और स्वस्थ और शांत जीवन जीना है तो आप सोशल मीडिया से दूर रहें या इसका प्रयोग सीमित मात्रा में करें। पर विडंबना देखिए कि समाज को संयत और सुखी जीवन जीने का और माया मोह से दूर रहने का दिन रात उपदेश देने वाले संत और भागवताचार्य आजकल स्वयं ही सोशल मीडिया के जंजाल में कूद पड़े हैं। विशेषकर ब्रज में ये प्रवृत्ति तेज़ी से फैलती जा रही है। 


अभी पिछले ही दिनों वृंदावन के विरक्त संत प्रेमानंद महाराज और प्रदीप मिश्रा के बीच सोशल मीडिया पर श्री राधा तत्व को लेकर भयंकर विवाद चला। ऐसे ही पिछले दिनों वृंदावन में नये स्थापित हुए भगवताचार्य अनिरुद्धाचार्य के भी वक्तव्य विवादों में रहे। 



इसी बीच बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा द्वारा लीला के मंचन में राधा स्वरूप धारण कर बालाकृष्ण से पैर दबवाने पर विवाद हुआ। ये सब ब्रज की विभूतियाँ हैं। हर एक के चाहने वाले भक्त लाखों करोड़ों की संख्या में हैं। जैसे ही कोई विवाद पैदा होता है इनका चेला समुदाय भी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय हो जाता है। ठीक वैसे ही राजनैतिक दलों की ट्रोल आर्मी, जो बात का बतंगड़ बनाने में मशहूर है, सक्रिय हो जाती है। ये सब सोशल मीडिया में अपनी पहचान बनाने का एक तरीक़ा बन गया है। अब प्रेमानंद जी वाले विवाद को ही लीजिए, कितने  ही कम मशहूर भागवताचार्य भी इस विवाद में कूद पड़े। जिनके फ़ॉलोवर्स चार-पाँच सौ ही थे पर जैसे ही वे इस विवाद में कूदे तो उनकी संख्या 20 हज़ार पार कर गई। यानी बयानबाज़ी भी फ़ायदे का सौदा है। 


परंपरा से शास्त्र ज्ञान का आदान-प्रदान गुरुओं द्वारा निर्जन स्थलों पर किया जाता था। जहां जिज्ञासु अपने प्रश्न लेकर जाता था और गुरु की सेवा कर ज्ञान प्राप्त करता था। यही पद्धति भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को बताई थी। भगवद् गीता के चौथे अध्याय का चौंतीसवाँ श्लोक इसी बात को स्पष्ट करता है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।



परंतु सोशल मीडिया ने आकर ऐसी सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। अब धर्म गुरु चाहें न चाहें पर उनके शिष्य, उनके प्रवचनों का सोशल मीडिया पर प्रसारण करने को बेताब रहते हैं और फिर अलग-अलग गुरुओं के शिष्य समूहों में आपसी प्रतिद्वंदता चलती है कि किस गुरु के कितने चेले या श्रोता हैं। जिस संत के फ़ॉलोवर्स की संख्या लाखों में होती है उन पर टिप्पणी करना या उन्हें विवाद में घसीटना लाभ का सौदा माना जाता है। क्योंकि वैसे तो ऐसा विवाद खड़ा करने वालों की कोई फॉलोइंग होती नहीं है। पर इस तरह उन्हें बहुत बड़ी तादाद में फॉलोवर और लोक प्रियता मिल जाती है। मतलब ये कि आप में योग्यता है कि नहीं, पात्रता है कि नहीं, आपको उस विषय का ज्ञान है कि नहीं, इसका कोई संकोच नहीं किया जाता। केवल सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच में बड़े बड़े संतों के साथ नाहक विवाद खड़ा किया जाता है। आजकल ऐसे विवादों की भरमार हो गई है। 


वैसे तो तकनीकी के हमले को कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता। पर कभी-कभी इंसान को लगता है कि उसने भयंकर भूल कर दी। 2003 की बात है जब मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा के प्रवचन नियमित रूप से हर सप्ताह बरसाना जा कर सुनना शुरू किया, बाबा की भक्ति और सरलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। और मुझे लगा कि बाबा के प्रवचन पूरी दुनिया के कृष्ण भक्तों तक पहुँचने चाहिए। तब ऐसा होना केवल टीवी चैनल के माध्यम से ही संभव था। क्योंकि तब तक सोशल मीडिया इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। मैंने इसके लिए प्रयास करके श्री मान मंदिर में टीवी रिकॉर्डिंग स्टूडियो की स्थापना कर दी। उस दौर में मान मंदिर के विरक्त साधुओं ने मेरा कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि बाबा की बात अगर इस तरह प्रसारित की जाएगी तो बरसाना में कलियुग का प्रवेश कोई रोक नहीं पाएगा। पर बाबा ने मुझे अनुमति दी तो काम शुरू हो गया। इसका लाभ मान मंदिर को यह हुआ कि उसके भक्तों की संख्या में देश विदेशों में तेज़ी से बढ़ौतरी हुई और वहाँ धन की वर्षा होने लगी। तब मुझे विरोध करने वाले अव्यवहारिक प्रतीत होते थे। पर आज जब मैं पलट कर देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वाक़ई इस प्रयोग में मान मंदिर के पवित्र, शांत और निर्मल वातावरण को बहुत सारे झमेलों में फँसा दिया। अगर वहाँ टीवी का प्रवेश न हुआ होता तो वहाँ का अनुभव पारलौकिक होता था। जिसे अनुभव करने मेरे साथ नीतीश कुमार, अर्जुन सिंह, सुषमा स्वराज, लालू यादव, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक उस दौर में वहाँ गए और गदगद हो कर लौटे। 


हमने बात शुरू की थी सोशल मीडिया पर बाबाओं के संग्राम से और बात पहुँच गई अध्यात्म की एकांतिक अनुभूति से शुरू होकर उसके व्यवसायी करण तक। इस आधुनिक तकनीकी ने जहां श्री राधा-कृष्ण की भक्ति का और ब्रज की संस्कृति का दुनिया के कोने कोने में प्रचार किया वहीं इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन, बरसाना व मथुरा आदि अपना सदियों से संचित आध्यात्मिक वैभव व नैसर्गिक सौंदर्य तेज़ी से समेटते जा रहे हैं। हर ओर बाज़ार की शक्तियों ने हमला बोल दिया है। कहते हैं कि विज्ञान अगर हमारा सेवक बना रहे तो उससे बहुत लाभ होता है। पर अगर वो हमारा स्वामी बन जाए तो उसके घातक परिणाम होते हैं। एक ब्रजवासी होने के नाते और संतों के प्रति श्रद्धा होने के नाते मेरा देश भर के संतों से विनम्र निवेदन है कि वे सोशल मीडिया के संग्राम से बचें और अपने अनुयायियों को होड़ में आगे आकर अपना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने से रोकें। जिससे वे अपना ध्यान भजन साधन के अलावा तीर्थ स्थलों के सौंदर्यकरण और रख-रखाव में लगा सकें। ताकि तीर्थ यात्रियों को ब्रज जैसे तीर्थों में जाने पर सांस्कृतिक आघात न लगे।जो आज उन्हें लगने लगा है।        

Monday, March 18, 2013

आए थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास

पहले संत दशकों तक जंगलों में तप करते थे। सिद्धि प्राप्त होने पर भी अपना प्रचार नहीं करते थे। स्वयं को छिपा कर रखते थे। चेले बनाने से बचते थे। तब संतो का जीवन न्यूनतम आवश्यकताओं के कारण प्रकृति के साथ संतुलनकारी होता था। पर जब से धार्मिक टी वी चैनल बढे हैं त
ब से धर्म का कारोबार भी खूब चल निकला है। अब कथावाचकों और धर्माचार्यों का यश रातों-रात विश्वभर में फैल जाता है। फिर चली आती है चेलों की बारात, लक्ष्मी की बरसात और लगने लगती है ‘गुरू सेवा‘ की होड़। नतीजतन हर चेला अपनी क्षमता से ज्यादा ‘गुरू सेवा‘ में जुट जाता है। भावातिरेक में गुरू के उपदेशों का पालन करने की भी सुध नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि चेले गुरू के जीवनकाल में ही गुरू के आदर्शो की अर्थी निकाल देते है। रोकने टोकने वाले को गुरूद्रोह का आरोप लगाकर धमका देते है। गुरू की आड़ में अपनी दबी हुई महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं।

संत कहते है कि ‘पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते है, खुद शिष्य नही बनते। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य भी ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं । शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा मे किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आप अनेक शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का अनुमान भी नहीं कर सकते। इसके अपवाद संभव हैं । सूली पर चढ़ने वाले और चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशूमसीह की परंपरा को चलाने वाले पोप वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं । गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्धारों के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मो का है।
 
पर धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नही जा सकती। उनके द्धारा की जा रही ‘गुरू सेवा‘ को रोका भी नही जा सकता। पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए ? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग पोस्टरों और पर्चो में छपवाकर बाजारू औरत मत बनों। पर उनके ही शिष्य रातदिन  अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने मे जुटे हो, तो इसे आप क्या कहेगें ? संत कहते है कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाये ? संत कहते है कि राग द्धेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो, तभी बडा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्धेष की अग्नि मे ही रात-दिन जलते रहते हैं । उन्हे लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिन्ता ज्यादा रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक पंरपरा को आगे नही बढा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं । पर संत ह्नदय नवनीत समाना। संत का ह्नदय तो मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपापात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नही कि उनके चेले हर वो काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो ?
 
जहां-जहां  धर्माचार्यों के मठ या आश्रम है वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं । जब तक ये सेवा भजन-प्रवचन तक सीमित रहती है, तब तक समाज में कोई समस्या पैदा नही होती। पर जब उत्साही चेले शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास, जल, जंगल व जमीन के  ‘विकास‘ की चिन्ता करने लगते है, तब उनके अधकचरे ज्ञान के कारण समाज को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। यह सभी समस्यायें प्रोफेशनल और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नही होता। आप अपने भजन से अस्पताल के लिए साधन तो आकर्षित कर सकते है। पर उस अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल योग्यता और अनुभव की जरूरत होगी। इसलिए बिना इस समझ के किया गया विकास प्रायः विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसी सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नही होगें। पर सुनता कौन है ? जब छप्पर-फाड़कर पैसा आता है, तब बुद्धि भ्रष्ट  हो जाती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णयों को भी बुलडोजर की तरह बाकी लोगो पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठों मे सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बडा अहित होता है। क्योंकि चेलों की मार्फत ‘गुरू आज्ञा‘ के सन्देश पाने वाले भेाले-भाले अनुयायी चेलो की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं । यानि विनाश की गति और भी तेज हो जाती है। फिर सेवा कम और अंह तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण रोज दिखाई देते हैं।
 
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास यदि अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा भी करना चाहते हों या पर्यावरण को सुधारना चाहते हों तो उन्हें ऐसे लोगो की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हैं । एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाये तो बडे-बडे लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसकी विपरीत भारी संसाधन खपाकर छोटा सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ? यह कार्य तो संत या गुरू को ही करना होगा। उन्हे देखना होगा कि उनकी शरण मे आये सक्षम चेलों और उनके साथ रहने वाले समर्पित चेलों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाएं ? एक फोडे़ को चीऱने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्य चिकित्सा करनी होगी। तभी उनका सत्य संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।