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Monday, February 22, 2016

जेएनयू पर हमले का सच

 इसमें शक नहीं कि अपनी स्थापना के तीन दशक बाद तक दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) माक्र्सवादियों का गढ़ रहा। इस दौरान माक्र्सवादियों ने दूसरी विचारधाराओं को न तो पनपने दिया और न ही उनका सम्मान किया। इतना ही नहीं माक्र्सवाद के नाम पर बड़ी तादाद में अयोग्य लोगों को यहां नौकरियां दी गईं। जबकि योग्य लोगों को दरकिनार कर दिया गया। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करना आज उन्हें शोभा नहीं देता। अगर माक्र्सवादी दल लोकतांत्रिक ही होते तो उनके शासित राज्य पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद का जन्म क्यों होता ? जाहिर है कि हर विचारधारा के अंदर गुण-दोष होते हैं और कोई विचारधारा अपने आप में संपूर्ण नहीं होती। ऐसा दुनिया का इतिहास भी सिद्ध करता है।
 
रही बात माक्र्सवाद बनाम हिंदू राष्ट्रवाद की तो स्पष्टता दोनों में बुनियादी टकराव है। पर इसका मतलब ये नहीं कि हिंदू राष्ट्रवाद की भावना में इस राष्ट्र और समाज के हित की कोई बात ही न हो। फिर भी माक्र्सवादियों का हिंदू राष्ट्रवादी विचार पर लगातार इकतरफा हमला गले नहीं उतरता। मार्क्स के आयातित विचारों के मुकाबले हजारों वर्षों से भारत के ऋषिमुनियों द्वारा संचित ज्ञान भारतीय समाज के लिए कहीं ज्यादा सार्थक है, यह बात मार्क्सवादी आज तक नहीं समझ पाये। इधर हिन्दू राष्ट्रवादी भी अपनी बात भावुकता से ज्यादा और तर्क से कम रखते हैं, इसलिए उन पर हमले होते हैं, वरना उनकी बात कहीं ज्यादा जन उपयोगी है। हम लोग जो जेएनयू की दूसरी पीढ़ी के छात्र रहे, विचाराधाओं के ऐसे चरम किनारों के बीच चलते रहे हैं। जो अच्छा लगा, उसे अपनाया और जो गलत लगा, उसकी खुली आलोचना की। अपने इसी मापदंड से हम जेएनयू के मौजूदा माहौल का आंकलन करेंगे।
 

अभी तक के उपलब्ध प्रमाणों से ऐसा नहीं लगता कि छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया ने देशद्रोह का कोई काम किया। कन्हैया उस शोषित समाज का युवा है, जिसके मन में सदियों के सामाजिक शोषण और मौजूदा भ्रष्ट आर्थिक व्यवस्था के विरोध में भारी आक्रोश है। इसलिए ऐसे युवा मन का उत्तेजना में बह जाना तो समझा जा सकता है। पर उसे राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता। इसलिए उसके साथ जो कुछ हो रहा है, उससे कोई भी स्वतंत्र चिंतन वाला व्यक्ति सहमत नहीं है। ये जरूर है कि कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े कुछ युवा उस दिन की घटना के पीछे रहे हों, जिसकी जांच दिल्ली पुलिस कर रही है। हो सकता है उन्होंने कन्हैया का इस्तेमाल अपने राजनैतिक लाभ के लिए किया हो। पर ये एक ऐसी घटना थी, जिसे विश्वविद्यालय के स्तर पर निपटाया जाना चाहिए था। जो घटना हुई और कुछ चैनलों ने जिस तरह उसे बढ़ा-चढ़ाकर देशद्रोह की तरह पेश किया व जिस तरह वहां पुलिस कार्यवाही हुइ उससे साफ जाहिर है कि जेएनयू की छवि खराब करने की एक साजिश रची गई। जिससे हम सब लोगों को बहुत तकलीफ है। क्योंकि हम सब आज जो कुछ हैं, उसमें जेएनयू का महत्वपूर्ण योगदान है। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, पृष्ठभूमियों से देशभर के नौजवान जेएनयू आते रहे हैं और इसी स्वतंत्र चिंतन के माहौल में उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। फिर उन्होंने देश और विदेश में अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और आज भी दे रहे हैं।
 
 विरोध की तो जेएनयू में ऐसी परंपरा रही है कि इसके छात्रों और शिक्षकों ने अपनी चांसलर व भारत की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी तक का खुला और जबर्दस्त विरोध किया था। हो सकता है कि विरोध के ये तेवर कई बार सीमाएं लांघ जाते हों। पर जहां दूसरे तमाम विश्वविद्यालयों में डिग्री बांटने का कारोबार धंधे की तरह चल रहा हो, वहां ऐसे स्वतंत्र चिंतन के अनुभवों से युवाओं में जो आत्मविश्वास और विश्लेषणात्मक व तार्किक बुद्धि का विकास होता है, वह उन्हें जीवन भर खड़े रहने की ताकत देता है। यह सही है कि कोई भी सरकार ऐसे स्वतंत्र वातावरण को बर्दाश्त नहीं करती। पर फिर विश्वविद्यालय का तो उद्देश्य ही होता है, विचारों का स्वतंत्र आदान-प्रदान करना। इसलिए विश्वविद्यालयों के मामलों में सरकारों को अति संवेदनशीलता के साथ निर्णय लेने होते हैं, जो मौजूदा घटनाक्रम में दिखाई नहीं दिया।
 
 जिस तरह कुछ टीवी एंकरों और वैचारिक प्रतिबद्धता वाले लोगांे ने जेएनयू को टीवी चैनलों पर बार-बार देशद्रोही करार दिया, उससे हम सब बहुत आहत हैं। क्योंकि जेएनयू परिवार देशद्रोही नहीं है। मैं याद दिलाना चाहूंगा कि जेएनयू का पूर्व छात्र होते हुए भी मैं राष्ट्रवादी हूं और इसलिए 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को विदेशों से आ रही अवैध आर्थिक मदद के ‘जैन हवाला कांड’ का पर्दाफाश किया तो मुझे विश्वास था कि भाजपा, संघ और विहिप जैसे संगठन खुलकर मेरे साथ खड़े होंगे और देशद्रोह के इस कांड की ईमानदारी से जांच कराने की मांग करेंगे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, कारण देशद्रोह के इस घोटाले में उनके बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी व अन्य भी फंसे थे। मुझे आजतक इस बात का दुख है कि अगर इन संगठनों ने अपने नेताओं को बचाने के चक्कर में राष्ट्रधर्म की बलि न दी होती, तो देश में आतंकवाद इतने पैर न पसार पाता। इसलिए आज जब वे पूरे जेएनयू को देशद्रोही करार दे रहे हैं, तो जेएनयू के छात्र उनसे भी मेरा यह सवाल दोहरा सकते हैं कि उन्होंने ‘हवाला कांड’ में ऐसी खतरनाक चुप्पी क्यों साधी थी ?
 
इन टीवी एंकरों से भी मुझे पूछना है कि ‘जैन हवाला कांड’ को दबाए जाने के कानूनी पक्षों पर उन्होंने आज तक वैसे ही तेवर क्यों नहीं दिखाए, जैसे वे जेएनयू को देशद्रोही कहते वक्त उठा रहे हैं ? जबकि वे दशकों पुराने ‘पुरलिया कांड’ तक को अचानक चुनावों के बीच उठाने में गुरेज नहीं करते ? कहावत है कि जब हम एक ऊंगली किसी पर उठाते हैं, तो तीन हम पर उठ जाती हैं और वे पूछती हैं कि जो आरोप हम दूसरों पर लगा रहे हैं क्या वह अपराध हमने, हमारे परिवार ने या हमारे परिकरों ने तो नहीं किया ? जेएनयू के मौजूदा संकट को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखने की जरूरत है, तभी असली सच सामने आएगा। क्योंकि अक्सर जो दिखाया या बताया जाता है, वो सच नहीं होता।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।