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Monday, March 25, 2013

आतंकवाद, संजय दत्त और हवाला कारोबार


दिल्ली की एक अदालत ने जैन हवाला काण्ड की 1991 में जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा को इस केस में टाडा नहीं लगाने की ऐवज में 10 लाख रूपये की रिश्वत लेने के आरोप में सजा सुनाई है। उधर टाडा के आरोपी संजय दत्त को सर्वोच्च न्यायालय से सजा सु
यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए सार्थक है कि दोनों घटनाऐं एक ही वर्ष में एक साथ घटीं थीं। हवाला काण्ड का उजागर होना और संजय दत्त पर मुम्बई बम विस्फोट की साजिश में शामिल होने का आरोप लगना। दोनों मामलों में पैसा या हथियार का स्रोत दाउद इब्राहिम था। दोनों आतंकवाद की घटनाओं से जुड़े मामले थे। अंतर इतना है कि एक में एक फिल्मी सितारा आरोपित था, जिसे 20 वर्ष बाद ही सही, उसके आरोप के मुताबिक सजा मिल गयी। जबकि दूसरे मामले में केवल 5 वर्ष बाद, 1998 में ही हवाला काण्ड में आरोपित देश के 115 बड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, विपक्ष के नेता और आला अफसर बाइज्जत बरी हो गए। सबसे ज्यादा चैंकाने और निराश करने वाली बात यह रही कि मेरी जनहित याचिका में हवाला काण्ड के आतंकवाद वाले पक्ष पर सी0बी0आई0 को निर्देशित कर निष्पक्ष जाँच कराने की जो प्रार्थना की गयी थी, उसे बड़ी होशियारी से दरकिनार कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे0एस0 वर्मा ने इस केस को प्रारम्भ में सबूतों से युक्त अभूतपूर्व बताते हुए भी बाद में इसे खारिज करवाने की शर्मनाक भूमिका निभाई।

यहाँ मैं संजय दत्त को मिली सजा से अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर रहा, बल्कि यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि 25 मार्च, 1991 को जब दिल्ली पुलिस ने हिज्बुल मुजाहिदीन के डिप्टी चीफ ऑफ इंटेलीजेंस अशफाक हुसेन लोन और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के छात्र शाहबुद्दीन गौरी को हिज्बुल मुजाहिदीन की मदद के लिए भेजे जा रहे लाखों रूपयों और बैंक ड्राफ्टों के साथ पकड़ा था, तब यह आतंकवाद का ही मामला दर्ज हुआ था। उसी क्रम में आगे छापे पड़े और 3 मई, 1991 को जैन बंधुओं के अवैध खाते पकड़े गये, जिसमें देश के सर्वोच्च सत्ताधीशों को मिले भुगतानों का विस्तृत ब्यौरा था। इसलिए यह टाडा, फेरा, भ्रष्टाचार निरोधक कानून व आयकर कानून के तहत मामला था। सी0बी0आई0 ने टाडा और फेरा के तहत इसे दर्ज भी किया। पर बाद में टाडा वाले पक्ष की उपेक्षा कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय में बार-बार इस बात को मेरे द्वारा शपथपत्रों के माध्यम से उठाने के बावजूद जे0एस0वर्मा ने परवाह नहीं की। इस सारे घटनाक्रम का सिलसिलेवार और तथ्यों सहित विवरण मेरी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में है। पिछले हफ्ते सी0बी0आई0 के पूर्व डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा पर दिल्ली की निचली अदालत ने इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही न करने का आरोप लगाकर सजा सुनाई है। जबकि ओ0पी0शर्मा की हवाला केस फाइल में दर्ज टिप्पणीयों में बार-बार आरोपियों को टाडा के तहत गिरफ्तार करने की सिफारिश की गयी थी। उधर 16 जून, 1991 के बाद से इस मामले की जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 आमोद कंठ ने अगले साढ़े चार साल तक भी इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही नहीं की। बावजूद इसके हवाला आरोपियों को बचाने की ऐवज में वे लगातार तरक्कीयां लेते गए और अरूणाचल के पुलिस महानिदेशक तक बने। अब यह मामला एक बार फिर दिल्ली उच्च न्यायालय में खुलेगा। कुल मिलाकर यह साफ है कि हवाला केस के टाडा पक्ष को जानबूझकर दबा दिया गया और आरोपियों को बचने के रास्ते दे दिए गए।

इस आपबीते अनुभव के बाद क्या मुझ जैसे पत्रकार और आम नागरिक को देश की सर्वोच्च अदालत से यह प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है कि आतंकवाद से जुड़े दो मामलों में न्यायालयों के मापदण्ड अलग-अलग क्यों हैं? 1993 के बाद के उस दौर में ईमेल, एस.एम.एस. या टी.वी. चैनल तो थे नहीं, जो मैं अपनी बात मिनटों में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ की तर्ज पर दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा देता। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और 1993 से 1998 तक छात्रों, पत्रकारों, वकीलों व नागरिकों के निमन्त्रण पर देश के कोने-कोने में जाकर उन्हें सम्बोधित करता रहा और इस केस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी।

1996 में जब देश के इतिहास में पहली बार इतने सारे ताकतवर लोग एक साथ चार्जशीट हुए तो पूरी दुनिया के मीडिया में हड़कम्प मच गया। दुनियाभर से हर भाषा के टी.वी. चैनलों ने दिल्ली आकर मेरे साक्षात्कार लिये और विश्वभर में प्रसारित किये और यह मामला पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। फिर भी इन्हीं लोगों ने इस तरह साजिश रची कि न्यायमूर्ति वर्मा ने बड़ी आसानी से अपनी ही लाइन से यू-टर्न ले लिया। दिसम्बर, 1998 से तो एक-एक करके सब बरी होते गए और देश में प्रचारित कर दिया कि इस मामले में कोई सबूत नहीं हैं। मेरी पुस्तक पढ़ने वाले यह जानकर हतप्रभ रह जाते हैं कि इतने सारे टी.वी. चैनल देश में होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि जो तथ्य सप्रमाण इस पुस्तक में दिए गए हैं, वे इनकी जानकारी तक नहीं पहुँचे?

चार हफ्ते बाद संजय दत्त एक बार फिर जेल के सीखचों के पीछे होंगे और अगले साढ़े तीन वर्षों में अपनी गलती पर चिंतन करेंगे। पर न्यायपालिका के इस फैसले के बावजूद देश के आतंकवादियों को हवाला के जरिए आ रही आर्थिक मदद पर कोई रोक नहीं लगेगी। क्योंकि ऐसे तमाम मामले आज भी सी0बी0आई0 की कब्रगाह में दफन हैं। जबकि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमरीका ने हवाला कारोबार पर इतनी प्रभावी रोक लगाई है कि वहाँ आज तक दूसरी आतंकवादी घटना नहीं हुई।

नाई गयी है। सितम्बर, 1993 की बात है, मैं और मेरे सहयोगी मुम्बई के नरीमन प्वाइंट स्थित वकील राम जेठमलानी के चैम्बर में पहुँचे। वहाँ फिल्मी सितारे और इंका नेता सुनील दत्त और उनका युवा बेटा संजय दत्त पहले से बैठे थे। श्री जेठमलानी ने दफ्तर आने में काफी देर कर दी तो हम लोग बैठे बतियाते रहे। संजय बहुत नर्वस था। लगातार चहल-कदमी कर रहा था। सुनील दत्त जी से पूर्व परिचय होने के कारण उन्होंने हमारे आने का कारण पूछा। तब तक मैं अपनी वीडियो मैग्जीन कालचक्र का वह अंक जारी कर चुका था, जिसमें कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का मैंने खुलासा किया था, जो बाद में जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर हुआ। पर राजनेताओं ने सैंसर बोर्ड से प्रतिबंध लगवाकर कालचक्र के इस अंक को बाजार में नहीं आने दिया था। इसलिए मैं श्री जेठमलानी से अपनी जनहित याचिका तैयार करवाने मुम्बई गया था। संजय दत्त की घबराहट देखकर मैंने संजय से कहा कि तुम्हारे अपराध से कहीं बड़ा संगीन अपराध करने वाले देश के अनेक बड़े नेताओं और अफसरों को तो मैंने ही पकड़ लिया है। अब देखना यह होगा कि अदालत उनका क्या करती है? इससे ज्यादा मैंने संजय को कुछ नहीं बताया और लंच करने उसी ईमारत की सीढ़ियों से उतरने लगा। मुझे याद है कि संजय दो मंजिल तक दौड़ता हुआ मेरे पीछे आया और बोला, ‘‘सर प्लीज बताईये कि ऐसा कौन सा मामला आपने उजागर किया है, जो मेरे ऊपर लगे आरोप से बड़ा है।’’ मैंने कहा कि अभी नहीं, समय आने पर तुम खुद जान जाओगे। उसके बाद संजय जेल चला गया। उसका सचिव पंकज मुझसे कभी-कभी फोन पर बात करता था। एक बार मैंने उसे भगवत्गीता व अन्य धार्मिक पुस्तकें संजय को ऑर्थर जेल में देने के लिए भी भेजीं। बाद में हवाला काण्ड को लेकर जो कुछ हुआ वह जगजाहिर इतिहास है।

Sunday, May 2, 2010

बुलेटप्रूफ जैकेट या सिपाहियों की जिंदगी से खिलवाड़


भारत सरकार के गृहमंत्रालय के दो वरिष्ठ अधिकारी रिश्वत लेते गिरफ्तार हो गये। आपदा प्रबंधन के संयुक्त सचिव ओ. रवि को 25 लाख रूपये की रिश्वत लेते पकड़ा गया। जबकि निदेशक राधे श्याम शर्मा को बुलेटप्रूफ जैकेट खरीद में रिश्वत लेने के आरोप में। साथ ही रिश्वत देने के आरोप में युवा इंजीनियर आर. के. गुप्ता व उनकी पत्नी लवीना गुप्ता को भी गिरफ्तार किया गया। इस केस के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य हैं जिन पर देश को विचार करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि आंतकवाद और नक्सलवाद के बढ़ते खतरों के बीच गृहमंत्रालय को बुलेटप्रूफ जैकेटों की भारी आवश्यकता पड़ने लगी है। दंतेवाड़ा में नक्सली हमले में मारी गयी सीआरपीएफ की पूरी कंपनी के बाद तो सिपाहियों की सुरक्षा को लेकर और भी सवाल उठने लगे हैं। पर चिंता की बात यह है कि गृहमंत्रालय बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद के मामले में जो प्रक्रिया अपनाता रहा है वह पारदर्शी नहीं है। यह खरीद भी पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल के जमाने से विवादों में रही है। चयन प्रक्रिया में खुले आम धांधली होती है और चहेतों को आर्डर देने के लिए हर हथकंडा अपनाया जाता है। जरूरी नहीं कि जिस निर्माता की बनाई बुलेटप्रूफ जैकेटें खरीदी जांए उसका उत्पाद सर्वश्रेष्ठ हो। क्योंकि गुणवत्ता से ज्यादा कमीशन की रकम पर खरीदार मंडली का ध्यान रहता है। फिर चाहे जाबांज सिपाहियों की जिंदगी से ही समझौता क्यों न करना पड़े।
26 नवम्बर, 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले की रात ए.टी.एस चीफ हेमंत करकरे की बुलेटप्रूफ जैकेट गायब हो गयी थी। यह समाचार सभी टीवी चैनलों पर बार-बार आता रहा। फिर अचानक चार दिन बाद यह बुलेटप्रूफ जैकेट मिल गयी। इतने संवेदनशील मामले में इससे बड़ा मजाक कोई हो नहीं सकता। जानकारों का कहना है कि जब श्री करकरे पर आतंकी गोली चली तो उनकी बुलेटप्रूफ जैकेट उसे झेल नहीं पायी। क्योंकि वह नकली थी और देश ने एक कर्तव्यनिष्ठ जाबांज अधिकारी को खो दिया। जानकारों का कहना है कि चार दिन बाद मिली बुलेटप्रूफ जैकेट वह नहीं थी जिसे करकरे ने हमले के समय पहना हुआ था। बल्कि यह बाद में उसी कोण से गोली चलाकर तैयार की गयी दूसरी जैकेट थी। चाहे इंदिरा गांधी के हत्यारों को पकड़े जाने के बाद भी मारने का हादसा हो या राजीव हत्याकांड के महत्वपूर्ण गवाह की पुलिस हिरासत में आत्महत्या का मामला हो या फिर करकरे की बुलेटप्रूफ जैकेट का, कभी सच सामने आ ही नही ंपाता। वर्षों जांच का नाटक चलता रहता है।

गृहमंत्रालय के ताजा हादसे के संदर्भ मंें यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस आर. के. गुप्ता और उसकी पत्नी लवीना को गिरफ्तार किया गया है वे दोनों काफी अर्से से बुलेटप्रूफ जैकेटों का यह आर्डर लेने के लिए लगे हुए थे। उनका दावा था कि उनका माल सर्वश्रेष्ठ होने के बावजूद इसलिए परीक्षण में फेल कर दिया गया क्योंकि खरीदार मंडली किसी और को ठेका देना चाहती थी। इसलिए आर. के. गुप्ता ने गृहमंत्रालय के कुछ महत्पूर्ण अधिकारियों के खिलाफ उनके अनैतिक आचरण के कई प्रमाण और रिकार्डिंग इकठा कर ली थी। वे इसे लेकर दिल्ली के मीडिया सर्किल में घूम रहे थे। इसी बीच गृहमंत्रालय के अधिकारियों को भनक लग गयी और वे डर गये। पर उन्होंने होशियारी से आर. के. गुप्ता से डील करने का प्रस्ताव रखा। व्यापारी बुद्धि का व्यक्ति कोई योद्धा तो होता नहंीं जो एक बार जंग छेड़कर मैदान मेें टिका रहे। उसे तो पैसा कमाना होता है। लगता है इसी लालच में आर. के. गुप्ता फिसल गया और इन अधिकारियों के जाल में फंस गया। जहां तक उसके रिश्वत देने का मामला है तो यह अपराध करते हुए वह रंगे हाथ पकड़ा गया है। अगर अभियोग पक्ष अपना आरोप अदालत में सिद्ध कर पाता है तो उसे कानूनन सजा मिलेगी। पर साथ ही क्या यह भी जरूरी नहीं कि गृहमंत्रालय के अधिकारियों के विरूद्ध जो सबूत आर. के. गुप्ता लेकर घूम रहा था उसकी भी पूरी ईमानदारी से जांच की जाए। यह भी जांच की जाए कि बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद के परीक्षण में जो प्रक्रिया अपनाई गयी वह पूरी तरह पारदर्शी थी या नहीं। अगर यह पता चलता है कि बेईमानी से, कम गुणवत्ता वाले निर्माता को यह ठेका दिया जा रहा था तो सांसदों, मीडिया और जागरूक नागरिकों को सवाल खड़े करने चाहिए। एक तरफ तो हम आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के लंबे चौड़े दावे रोज टीवी पर सुनते हैं और दूसरी तरफ अपनी जान खतरे में डालने वाले गरीब माताओं के नौनिहाल सिपाहियों की जिंदगी के साथ घटिया माल लेकर इस तरह खिलवाड़ किया जाता है।

वैसे सरकारी ठेकों में बिना कमीशन तय किये केवल गुणवत्ता के आधार पर ठेका मिल जाता हो ऐसा अनुभव शायद ही किसी प्रांत या केन्द्र सरकार से व्यापारिक संबंध रखने वाले किसी व्यापारी का होगा। कमीशन के बिना सरकार में पत्ता भी नहंी हिलता। अभी पिछले ही दिनों हमने भारतीय पर्यटन विकास निगम लि0 की टैंडर प्रक्रिया में ऐसा ही एक घोटाला पकड़ा और उसे केंन्द्रीय सतर्कता आयोग को थमा दिया। आयोग के अधिकारियों ने जांच के बाद हमारे आरोप सही पाये और अब इस घोटाले में शामिल उच्च अधिकारियों के खिलाफ मेजर पैनल्टी यानी बड़ी सजा दिये जाने का प्रस्ताव किया गया है। सांप छछूदर वाली स्थिति है। आप कमीशन न दो तो ठेका नहीं मिलेगा। कमीशन दो तो भी गारंटी नहीं कि आपको ही मिलेगा। क्यांेकि कमीशन के अलावा भी अन्य कई बातें होती हैं जिनका ध्यान खरीदार मंडली के जहन में रहता है। इसलिए आपका उत्पादन सर्वश्रेष्ठ हो, कीमत भी मुनासिब हो तो भी गारंटी नहीं कि ठेका आपको मिलेगा।

आर. के. गुप्ता जैसे निर्माता तो अपनी बेवकूफी से कभी-कभी पकड़े जाते हैं पर सच्चाई यह है कि अगर सरकार से व्यापार करना है तो आप पारदर्शिता और गुणवत्ता की अपेक्षा नहीं कर सकते। ऐसे में जो पकड़ा जाए वो चोर और बच जाए वह शाह। सोचने वाली बात है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध तमाम संस्थायें और भाषणबाजी होने के बावजूद भ्रष्टाचार और तेजी से बढ़ रहा है। फिर जिसे व्यापार करना है वो क्या करे। महाराजा हरीशचन्द्र बनकर बनारस के मंणिकर्णिका घाट पर शवदाह का कर वसूले या हाकिमों को मोटे कमीशन देकर ठेके हासिल करे। जब तक इस मकड़जाल को खत्म नहीं किया जायेगा ऐसे हादसे होते रहेंगे। देशवासी तो रोजमर्रा की मंहगाई को लेकर ही रोते रहेंगे और घोटाले करने वाले करोड़ों-अरबों डकारते रहेंगे।