पोंटी चढ्डा और उनके भाई हरदीप चढ्डा के दोहरे हत्याकांड के लिए पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। जिनके अनुसार इन दोनों भाईयों की हत्या उनके अपने ही लोगों ने की है। जिनमें उनके विश्वसनीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह बिल्कुल बॉलीवुड फिल्म की तरह की कहानी है। मुरादाबाद में चढ्डा परिवार ने अपनी कारोबारी जिन्दगी शुरू की, यह बात सन् 1967-68 के दौरान की होगी। हम भी उसी शहर में रहते थे। हम इस परिवार के बारे में जानते थे। मुरादाबाद के रामपुर रोड पर तब पोंटी चढ्डा के पिता ने अपनी पहली शराब की दुकान खोली थी। उसके कुछ दिन बाद चढ्डा टॉकिज के नाम से सिनेमाहॉल भी खोला। फिर ये शराब के कारोबार में घुस गये। देखते ही देखते पंजाब, हरियाणा, उ0प्र0, उत्तराखण्ड में इनका शराब का भारी कारोबार फैल गया। हाल के वर्षों में तो यह बात हर आदमी जानता था कि बसपा की सरकार हो या सपा की, पोंटी चढ्डा इन दोनों ही सरकारों के साथ हजारों करोड़ के कारोबार में शामिल था।
पर अंत में क्या मिला? जिस वैभव को जमा करने के लिए इस खानदान ने धरती और आकाश एक कर दिया, उसे भोगने से पहले इस खानदान के दो स्तंभ धराशायी हो गये। ऐसी कहानियां धर्म ग्रंथों से लेकर फिल्मों में बार-बार दोहराई जाती हैं। पर फिर भी हमें कोई सबक नहीं मिलता। बिना मेहनत किये अगर आसानी से हम धन, सम्पत्ति को दिन दूना और रात चैगुना करने का मौका मिले तो हममें से शायद बहुत कम होंगे जो इस लोभ से बच पायेंगे। आज की दुनिया का माहौल ऐसा बन गया है कि जिसके पास दौलत है, उसकी तूती बोलती है। फिर चाहें वो राजनीति में हो, उद्योग व्यापार में हो, धन के कारोबार में हो, नौकरशाही में हो या फिर मीडिया में। कोई नहीं पूछता कि तुमने इतना धन कैसे और कहां से कमाया? पैसे से समाज के लिए वे आदर्श समाप्त होते जा रहे हैं, जो कभी ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की प्रेरणा दिया करते थे। इसलिए चारों तरफ होड़ लगी है, किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की। नैतिकता, समाज की संवेदनशीलता और समाज में अपनी छवि की परवाह किये बिना आदमी आगे बड़ रहा है। पहले एक हाजी मस्तान का नाम ऐसे उदाहरण के तौर पर लिया जाता था। आज हर शहर में हाजी मस्तानों की कतार लग गयी है। इसका सबसे ज्यादा बुरा असर नौजवानों पर पड़ रहा है। ये नये पनपते हाजी मस्तान अपने कारोबार में इन नौजवानों को प्रलोभन देकर खींच लेते हैं। फिर इनसे हर वो अवैध काम करवाते हैं जिसमें कभी भी पकड़े जाने या मारे जाने का खतरा होता है। इस तरह ये नौजवान अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। जिसका इनाम इनकी औकात से कई गुना ज्यादा मिलता है। शुरू में तो इनके घरवालों और परिजनों को आश्चर्य होता है कि अचानक उनका सपूत ऐसी मोटी कमाई किस धंधे में कर रहा है? पर जल्दी ही उसके रंग-ढंग से उन्हें संदेह होने लगता है। पर तब तक उन्हें भी मुफत की कमाई का मजा आने लगता है। इसलिए वे रोकते नहीं। एक दिन ऐसा भी आता है जब वही सपूत संगीन अपराध में पकड़ा जाता है या हत्या जैसे किसी जुर्म में शामिल होता है। पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों की भी ऐसी ही कहानी मिलेगी।
अब सवाल उठता है कि क्या पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों को सजा मिलने भर से समाज में ऐसे अपराधों के प्रति डर पैदा हो जायेगा? क्या इन लोगों को जल्दी सजा मिल पायेगी? क्या उस सजा से ऐसे अपराध होना बंद हो जायेंगे? उत्तर है, नहीं। तो फिर क्या किया जाये? अभी भारत की परिस्थितियां इतनी नहीं बिगड़ी हैं कि पानी सिर से गुजर जाये। छोटे कस्बों और देहातों का समाज अभी भी नैतिकता के मूल्यों से जुड़ा है। यह गंदगी तो महानगरीय संस्कृति के साथ उभरे उपभोक्तावाद ने पैदा की है। इसलिए पूरे देश के नेतृत्व को आत्ममंथन की जरूरत है। अगर हम चाहते हैं कि समाज में शांति, नैतिकता और मेहनत के प्रति आस्था बनी रहे, तो हमें तेजी से पनप रही इन प्रवृत्तियों पर रोक लगानी होगी। अन्यथा हमारा समाज भी मैक्सिको के ड्रग माफिया जैसे नियन्त्रकों के हाथ में चला जायेगा और तब हम उसके सामने असहाय होंगे।
इसके लिए केवल सख्त कानून बनाने से ही काम नहीं चलेगा। मीडिया नीति भी बदलनी होगी। मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों की राय पर ध्यान देना होगा। धर्म गुरूओं को हीरे-जवाहरात और मुकुट मणियों के अलंकरण से मुक्त होकर गुरूनानक देव, कबीर और रैदास जैसे आचरण से समाज को सद्ज्ञान देना होगा। कुल मिलाकर समाज का हर वह व्यक्ति या वर्ग जो एशोआराम में डूबा है, उसे आत्ममंथन करना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ का ऐशोआराम बाकी समाज के लिए अभिशाप बन जाये।
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