अमृतसर में अन्ना हजारे ने जनता से पूछा है कि वह बताये कि भ्रष्टाचार से लडाई कैसे लडी जाए ? यह तो ऐसी बात हुई कि भगवान श्री कृष्ण कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से कहे कि तुम मुझे गीता का उपदेश दो। जनता तो बेचारी भ्रष्टाचार की शिकार है। उसे तो खुद समाधान की तलाश है। अगर उसके पास समाधान होता तो देश मे अन्ना हजारे मशहूर कैसे होते ? दरअसल समाधान अन्ना हजारे के पास भी नही है और उनका मकसद समाधान ढूँढना भी नही है। मकसद है समाज मे असन्तोष पैदा करना और दुनिया को यह बताना कि भारत मे प्रजातंत्र विफल हो गया है। वैसे भ्रष्टाचार के विरोध मे उठने वाली जो भी मुहिम प्रचार के साथ उठायी जाती है और जिसका मकसद सत्तारूढ दल को ही निशाना बनाना होता है। उस मुहिम का एक ही लक्ष्य होता है जो सत्ता मे है उन्हे हटाओं और हमे सत्ता सौंपो या हमारे चेलों को सत्ता सौंपो। यह बात दूसरी है ऐसी मुहिम चलाने के बाद जो दल सत्ता मे आता है वो भी भ्रष्टाचार दूर नही कर पाता। वायदे केवल कोरे वायदे बनकर रह जाते हैं। भ्रष्टाचार कभी खत्म नही होता। उसकी मात्रा घटती बढ़ती रहती है।
दरअसल भ्रष्टाचार के विरूद्ध हर मुहिम के असफल होने के कई कारण होते है। जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि भ्रष्टाचार के कारणों की ही सही समझ अभी तक विकसित नही हुई है। हम ढोल की पोल बजा रहे है। जिसे आम जनता भ्रष्टाचार मानती है, वो तो बहुत सतही नमूना है। असली भ्रष्टाचार तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कर जाते है या उद्योगपति करते है और बाकी देश को पता ही नही चलता। पर भीड़ की उत्तेजना को बढ़ाकर ‘डेमोगोग‘ समाज मे प्रायः अशान्ति पैदा करते हैं। भ्रष्टाचार की मुहिम लेकर चलने वाले अन्ना हजारे खुद यह दावा नही कर सकते जो लोग उन्हे बार-बार मैदान मे खींचकर लाते है उनके दामन भ्रष्टाचार के रंग मे नही रंगे है। पूरी तरह भ्रष्टाचार विहीन समाज कभी कोई हुआ ही नही। उसके स्वरूप अलग अलग हो सकते है। इसलिए भ्रष्टाचार से लडाई के तरीके भी अलग-अलग होंगे। पर जब तक भ्रष्टाचार के कारणों की सही समझ न हो, जब तक इस लड़ाई के लड़ने वाले के दिल राग-द्धेष से मुक्त न हों, जब तक इस लडाई का मकसद किसी एक दल को फायदा पहुचाना और दूसरे को नुकसान पहुंचाना न हो तब तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जोर पकड़ती रहती है। जैसा इण्डिया अगेस्ट करप्शन के साथ हुआ। पर जैसे ही इस मुहिम का नेतृत्व करने वाले के चरित्र का दोहरापन उजागर होता है वैसे ही ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है।
कहने को तो हर आदमी भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था चाहता है। पर तकलीफ उठाकर भ्रष्टाचार से लड़ने वाले बिरले ही हाते है। पर वे इसलिए विफल हो जाते है क्योंकि उन्हे समाज के किसी भी ताकतवर वर्ग का समर्थन नही मिलता। ऐसे योद्धा जान हथेली पर लेकर लड़ते है और गुमनामी के अधेरे मे खो जाते हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हीरो असलियत में अनेकों समझौते किये हुए पाये जाते हैं। इसलिए वे मशहूर तो हो जाते हैं सफल नहीं। अभी तो यह भी तय नही कि भ्रष्टाचार समाज शास्त्र का विषय है, अपराध शास्त्र का, मनोविज्ञान का या दर्शन शास्त्र का। जब रोग का स्वरूप ही नही पता तो उसका निदान देने वाला डॉक्टर कहां से आयेगा। नतीजा यह है कि 2500 साल पहले यूनान के शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद जनता की जो राय होती थी वह आज भी वैसे की वैसी है। फिर भी न कुछ बदला न कुछ खत्म हुआ। दुनिया अपनी चाल से चल रही है।
इसका अर्थ यह नही कि भ्रष्टाचार से लड़ा न जाए। पर जब भ्रष्टाचार का कारण आर्थिक विकास का मॉडल हो, धर्माचार्यो का आचरण हो, समाज का वर्ग विभाजन हो, प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो, इन संसाधनों पर आाम आदमी के नैसर्गिक अधिकारों की उपेक्षा हो तो आप किससे कैसे और कहां तक लड़ेंगे ? जब हम पड़ोसी के घर भगतसिंह पैदा होने की कामना करेंगे, तो बदलाव कैसे आयेगा ? इसलिए जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठती है, तो हम जैसे लोगो को, जो तकलीफ उठाकर ऐसी लम्बी लडाई लड़ चुके है, ऐसी आवाज उठाने वालों के मकसद को लेकार तमाम संशय होते हैं। जिनका समाधान न तो अन्ना के पास हैं और न उस जनता के पास जिससे वे समाधान पूछ रहे हैं।
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