बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।
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