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Monday, May 5, 2025

फिर गरजे केसीआर !


अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना के लिए सफल संघर्ष करने वाले नेता के चंद्रशेखर राव लगभग दो वर्ष के बाद एक बार फिर से अपने पुराने गरजने वाले तेवर में दिखाई दिए। तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के अध्यक्ष  केसीआर ने हाल ही में अपना दो वर्षीय एकांतवास तोड़ा। नवंबर 2023 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद केसीआर ने खुद को सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूर कर लिया था। इसके चलते उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों में भी दूरी बना ली थी। ज़मीन से जुड़े और संघर्षशील नेता का यूँ अचानक ख़ुद को सार्वजनिक जीवन से अलग कर लेना किसी के भी गले नहीं उतरा। 


केसीआर दो बार लगातार प्रभावशाली बहुमत से तेलंगाना के मुख्य मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने तेलंगाना का बहुत तेज़ी से विकास किया। उनकी इस मेधा को देखकर दुनिया की मशहूर और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तेलंगाना में भारी निवेश किया। केसीआर ने व्यवस्थित शहरीकरण और निरंतर बिजली और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर शहरी विकास को तीव्र गति प्रदान की, जिससे भवन निर्माण उद्योग को बहुत बढ़ावा मिला। आज हैदराबाद में ज़मीनों के भाव सबसे ज़्यादा हैं। किसानों, महिलाओं, युवाओं और दलितों के लिए उन्होंने अनेक लाभकारी योजनाएँ चालू कीं। सिंचाई के क्षेत्र में कालेश्वरम जैसी अतिमहत्वाकांक्षी योजना के प्रति दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया। इस सब के दौरान उनके विपक्षियों और आलोचकों ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। जिनकी परवाह किए बिना केसीआर एक जुनूनी की तरह अपने अभियान में जुटे रहे। पर उनसे एक भारी चूक हो गई। उन पर ये आरोप लगे कि वे ख़ुद को जनता और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से दूर रखते थे। शायद इसलिए 2023 में उन्हें जनता का समर्थन नहीं मिला और हार का सामना करना पड़ा। 



रामानुजाचार्य सम्प्रदाय के संत श्री चिन्नाजियार स्वामी की सलाह पर मेरा केसीआर से 2022 में परिचय हुआ। पहले परिचय में ही उन्होंने मुझे बहुत स्नेह और सम्मान दिया और इसके बाद पूरे वर्ष मुझे बार-बार हैदराबाद बुला कर विकास के अनेक विषयों पर मुझसे और मेरे साथियों से गहरा संवाद किया। मैंने उनमें एक दूरदृष्टि वाला नेता देखा। जिस तरह उन्होंने हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा के इलाके में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का, नक्काशीदार ग्रेनाइट पत्थर का, पहाड़ के ऊपर, एक अत्यंत भव्य मंदिर बनवाया है, वह अकल्पनीय है। गौरतलब है कि इस मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। केसीआर की सनातन धर्म में गहरी आस्था है। इस मंदिर के चारों ओर उन्होंने तिरुपति जैसा सुंदर वैदिक नगर रातों-रात स्थापित कर दिया। जहाँ उत्तर भारत के मंदिरों का तेज़ी से बाज़ारीकरण होता जा रहा है, वहीं केसीआर ने मंदिर के परिसर और उसके आस-पास फल-फूल, मिठाई, कलाकृतियों या ख़ान-पान की एक भी दुकान नहीं बनने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। ये सारी व्यावसायिक गतिविधियां पहाड़ी की तलहटी में चारों ओर बसे नवनिर्मित नगर में ही होती है।  



तेलंगाना राज्य को बनवाने के बाद केसीआर नये राज्य के मुख्य मंत्री बन कर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने किसानी के अपने अनुभव और दूरदृष्टि से सीईओ की तरह दिन-रात एक करके, हर मोर्चे पर ऐसी अद्भुत कामयाबी हासिल की है कि इतने कम समय में तेलंगाना भारत का सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला प्रदेश बन गया है। मैंने खुद तेलंगाना के विभिन्न अंचलों में जा कर तेलंगाना के कृषि, सिंचाई, कुटीर व बड़े उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में जो प्रगति देखी वो आश्चर्यचकित करने वाली है। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि दिल्ली में चार दशक से राजनैतिक पत्रकारिता करने के बावजूद न तो मुझे केसीआर की इन उपलब्धियों का कोई अंदाज़ा था और न ही केसीआर के बारे में सामान्य से ज़्यादा कुछ भी पता था।



बीते सप्ताह केसीआर ने अपनी पार्टी की रजत जयंती के उपलक्ष्य में वारंगल जिले के एलकथुर्थी गांव में एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में अपार जनसमूह के आने से यह बात सामने आई कि जिन वोटरों ने दो बरस पहले केसीआर को विधान सभा और लोक सभा चुनावों में नकार दिया था वे अब फिर लौट कर केसीआर के झंडे तले खड़े हो गए हैं। हैदराबाद और शेष तेलंगाना में अपने संपर्कों से तहक़ीक़ात करने पर पता चला कि तेलंगाना की मौजूदा कांग्रेस सरकार दो वर्षों में ही अपनी लोकप्रियता खो चुकी है। इसका मुख्य कारण ये बताया जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने जो दर्जनों वादे तेलंगाना की जनता से किए थे उनमें से ज़्यादातर को वो पूरा नहीं कर पाई। जबकि पड़ोसी राज्य कर्नाटक में कांग्रेस ने अपने काफ़ी वादे पूरे किए हैं। इस रैली में केसीआर कांग्रेस पर जमकर बरसे। केसीआर ने रैली में जनता से पूछा कि क्या अपने वादों के मुताबिक़ कांग्रेस सरकार ने आपको डबल पेंशन दी? क्या छात्रों को मुफ्त स्कूटी दिए? किसानों के कर्ज माफ किए? इस पर जनता का ज़ोर-शोर से जवाब था ‘नहीं’। वहीं केसीआर ने अपने कार्यकाल में शुरू की गई रायथु बंधु जैसी कल्याणकारी पहलों और सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं पर प्रकाश डाला। उल्लेखनीय है कि तेलंगाना का कृषि उत्पादन केसीआर के शासन काल में दुगना हो गया। इस विशाल रैली ने न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया, बल्कि यह भी संदेश दिया कि केसीआर और उनकी पार्टी अब दोबारा से तेलंगाना की जनता के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। 



इस जनसभा में केसीआर ने कांग्रेस को ‘तेलंगाना का नंबर एक खलनायक’ करार दिया। हालांकि वे स्वयं दशकों तक कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे पर इस रैली में उन्होंने आरोप लगाया कि 1956 में कांग्रेस ने तेलंगाना को आंध्र प्रदेश के साथ जबरन मिला दिया था, जिसके खिलाफ तेलंगाना की जनता ने लंबा संघर्ष किया। उन्होंने न केवल कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की, बल्कि वर्तमान मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने 420 से अधिक वादे किए, लेकिन राज्य की वित्तीय स्थिति का आकलन किए बिना किए गए ये वादे खोखले साबित हुए। इसके अलावा, उन्होंने बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे का जवाब देते हुए भगवान राम का उल्लेख किया और कहा कि उनकी प्रेरणा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ थी, जिसने उन्हें तेलंगाना आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया। यह उनके हिंदू वोट बैंक को जोड़ने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। रैली में केसीआर ने नक्सलियों और आदिवासी युवाओं का भी जिक्र किया, जो तेलंगाना के उत्तरी जिलों में महत्वपूर्ण मतदाता वर्ग हैं। उन्होंने बीजेपी पर आदिवासियों के प्रति ‘लोकतांत्रिक’ रवैया न अपनाने का आरोप लगाया। यह रणनीति बीआरएस के ग्रामीण क्षेत्रों में खिसकते जनाधार को फिर से मजबूत करने की कोशिश थी।

सोशल मीडिया पर भी इस रैली की व्यापक चर्चा हुई। एक यूजर ने लिखा, केसीआर तेलंगाना के आइकन हैं, उनकी लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। 2023 की हार के बाद उनकी यह वापसी बीआरएस को फिर से संगठित करने और आगामी चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगी। 

Monday, December 9, 2019

बलात्कारियों के एंकाउंटर पर उठे सवाल


हैदराबाद में नवयुवती पशु चिकित्सक का बलात्कार करने के आरोपी चारों युवाओं को पुलिस ने एंकाउंटर में मार दिया। इसे लेकर सारे देश में एक उत्साह का वातावरण है। देश का बहुसंख्यक समाज इन पुलिसकर्मियों को बधाई दे रहा है। जबकि कुछ लोग हैं, जो इस एंकाउंटर की वैधता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं।दरअसल दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही हैं, कैसे, इसका हम यहाँ विवेचन करेंगे। 

लोगों का हर्षोन्माद इसलिए है कि हमारी पुलिस की जांच प्रक्रिया और हमारे देश की न्याय प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और थका देने वाली होती है कि आम जनता का उस पर से लगभग विश्वास खत्म हो गया है। इसलिए बलात्कार के बाद अभागी कन्या को बेदर्दी से जलाकर मारने वालों को पुलिस ने अगर मार गिराया, तो आम जनता में इस बात का संतोष है कि अपराधियों को उनके करे की सजा मिल गई। अगर ऐसा न होता, तो हो सकता है कि अगले 20 बरस भी वे कानूनी प्रक्रिया में ही खिंच रहे होते। 

बलात्कारी को फाँसी देने की मांग भी समाज का एक वर्ग दशकों से करता रहा है। इस्लामिक देशों में प्रायः ऐसी सजा देना आम बात होती है। इतना ही नहीं मार डाले गऐ अपराधी की लाश को शहर के बीच चैराहे में ऊंचे खंभे पर लटका दिया जाता है ताकि लोगों के मन ये डर बैठ जाए कि अगर उन्होंने ऐसा अपराध किया तो उनकी भी यही दशा होगी। पर यह मान्यता सही नहीं है।

फ्रांस के एक राजा ने देश में बढ़ती हुई जेबकतरी की समस्या को हल करने के लिए एलान करवाया कि हर जेबकतरे को चैराहे पर फांसी दी जाऐगी। आश्चर्य की बात ये हुई कि जब एक जेबकतरे को चैराहे पर फांसी दी जा रही थी, तो जो सैंकड़ों तमाशबीन खड़े थे, उनमें से दर्जनों की भीड़ में जेबें कट गईं। इससे स्पष्ट है कि फांसी का खौफ भी जेबकतरे को जेब की चोरी अंजाम देने से रोक नहीं सका। इसीलिए लोगों का मानना है कि चाहे बलात्कारियों को फांसी पर ही क्यों न लटका दिया जाए, इससे भविष्य में बलात्कारों की संख्या गिर जाऐगी, ऐसा होता नहीं है। बलात्कार करने का आवेग, वह परिस्थिति, व्यक्ति के संस्कार आदि  ये सब मिलकर तय करते हैं कि वो व्यक्ति बलात्कार करेगा या अपने पर संयम रख पायेगा। केवल कानून उसे बाध्य नहीं कर पाता। 

इसलिए मानवाधिकारों की वकालत करने वाले और ईश्वर की कृति (मानव) को मारने का हक किसी इंसान को नहीं है, ऐसा मानने वाले, फांसी की सजा का विरोध करते हैं। उनका एक तर्क यह भी है कि फांसी दे देने से न तो उस अपराधी को अपने किये पर पश्चाताप् करने का मौका मिलता है और न ही किसी को उसके उदाहरण से सबक मिलता है। इन लोगों का मानना है कि अगर अपराधी को आजीवन कारावास दे दिया जाऐ, तो न सिर्फ वह पूरे जीवन अपने अपराध का प्रायश्चित करता है, बल्कि अपने परिवेश में रहने वालों को भी ऐसे अपराधों से बचने की प्रेरणा देता रहेगा । 

यहां एक तर्क ये भी है कि ये आवश्यक नहीं कि जिन्हें पुलिस एंकाउंटर में मारती है, वो वास्तव में अपराधी ही हों। भारत जैसे देश में जहां पुलिस का जातिवादी होना और उसका राजनीतिकरण होना एक आम बात हो गई है, वहां इस बात की पूरी संभावना होती है कि पुलिस जिन्हें अपराधी बता रही है या उनसे स्वीकारोक्ति करवा रही है, वास्तव में वे अपराधी हैं ही नहीं। 

अपराध करने वाला प्रायः कोई बहुत धन्ना सेठ का बेटा या किसी राजनेता या अफसर का कपूत भी हो सकता है और ऐसे हाई प्रोफाइल मुजरिम को बचाने के लिए पुलिस मनगढ़ंत कहानी बना कर उस वीआईपी सुपुत्र के सहयोगियों या कुछ निरीह लोगों को पकड़कर उनसे डंडे के जोर पर स्वीकारोक्ति करवा लेती है। फिर इन्हीं लोगों को इसलिए एंकाउंटर में मार डालती है ताकि कोई सबूत या गवाह न बचे। 

यहां मेरा आशय बिल्कुल नहीं है कि हैदराबाद कांड के चारों आरोपी बलात्कारी नहीं थे या नहीं । मुद्दा केवल इतना सा है कि बिना पूरी तहकीकात किये किसी को इतने जघन्य अपराध का अपराधी घोषित करना नैसर्गिक कानून  विरूद्ध है ।हो सकता है कि इन आरोपित चार युवाओं से जाँच में इस बलात्कार और हत्या के असली मुजरिम का पता मिल जाता और तब अपराध की सजा उसे ज्यादा मिलती, जिसने इस अपराध को अंजाम दिया। इसलिए किसी अपराधी के खिलाफ मुकदमा चलाने की वैधता लगभग सभी आधुनिक राष्ट्र मानते हैं। 

इसीलिए आज जहां एक तरफ बहुसंख्यक लोग इन बलात्कारियों को मौत के घाट उतारने की मांग करते हैं वहीं दूसरे लोग हर एक व्यक्ति को स्वाभाविक न्याय का हकदार मानते हैं। 


जो भी हो इतना तो तय है कि कोई भी अभिभावक ये नहीं चाहेंगे कि उनकी बहु-बेटियां सड़कों पर असुरक्षित रहें। वे इस मामले में प्रशासन की ओर से कड़े कदम उठाने की मांग करेंगे। अब ये संतुलन सरकार को हासिल करना है, जिससे बलात्कार के अपराधियों को सजा भी मिले और निर्दोष को झूठा फंसाया न जाए। बलात्कार को रोकना किसी भी पुलिस विभाग के लिए सरल नहीं है। शहर और गाॅव के किस कोने, खेत, गोदाम या घर में कौन किसके साथ बलात्कार कर रहा है, पुलिस कैसे जानेगी ? जिम्मेदारी तो समाज की भी है कि ऐसी मानसिकता के खिलाफ माहौल तैयार करे।

Monday, July 22, 2013

नरेन्द्र मोदी के बयानों से क्यों भड़कती है कांग्रेस ?

हैदराबाद के लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम की क्षमता 50,000 है और नरेन्द्र मोदी की आगामी जनसभा के लिए इतने ही युवाओं ने उनका संभाषण सुनने के लिए 5 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से टिकट खरीद लिये हैं। अब इस पर कांग्रेस प्रवक्ता टिप्पणी कर रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की कीमत बॉलीवुड सिनेमा की टिकटों के  मुकाबले कुछ भी नहीं है। जबकि ये टिकटें 300 रूपये से ज्यादा की बिकती हैं। कितनी हास्यादपद बात है। कद्दू का मुकाबला सेब से किया जा रहा है। उस दौर में जब हर राजनैतिक दल को  भीड़ जुटाने के लिए लोगों को 300 रूपये रोज, आने -जाने का किराया, बढ़िया भोजन और शराब भी देनी पड़ती हो, अगर हैदराबाद का पढ़ा- लिखा नौजवान नरेन्द्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 5 रूपये भी देने को तैयार हैं, तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए, कि नरेन्द्र मोदी राजनीति की संस्कृति बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

ऐसा ही नरेन्द्र मोदी के हर बयान पर हो रहा है। फिर वो चाहे कार के नीचे पिल्ले वाला बयान हो या धर्मनिरपेक्षता के बुर्के वाला। ऐसा लगता है कि कांग्रेंस नरेन्द्र मोदी के जाल में उलझती जा रही है। ऐजेन्डा मोदी तय कर रहे हैं, कांग्रेस लकीर पीट रही है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं कि जो मन में आये अनर्गल प्रलाप करें। वे हर शब्द चुनकर तय करते हैं और एक तीर से कई निशाने साधते हैं। इन बयानों से जहां उन्होंने अपने समर्पित वोट बैंक को अपनी आगामी रणनीति का संकेत दिया है, वहीं विरोधियों को भी कूटनीतिक भाषा में चेतावनी दे डाली। बस कांग्रेस उलझ गई और लगी मोदी पर ताबडतोड़ हमला करने। राजनीति का एक सामान्य सिद्धान्त है कि आप जितना विवादों में रहेंगे, उतनी आपकी चर्चा होगी और आपका जनाधार बढ़ेगा। गुजरात के पिछले हर चुनाव में कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी पर हर तरह का हमला करके देख लिया। पर विजय हर बार मोदी के हाथ लगी। इसलिए आज तक तो मोदी अपनी इस रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं।

कांग्रेस को चाहिए कि वह मोदी के बयानों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अपनी उपलब्धियों का प्रचार करे। अगर उसकी उपलब्धियां ठोस हैं और जमीनी हकीकत बदलने में कामयाब रही है तो कोई बयानबाजी उसका जनाधार डिगा नहीं पायेंगी। किन्तु अगर नरेगा से लेकर खा़द्य सुरक्षा बिल तक हर योजना कागजों तक सीमित है तो दावे और विज्ञापन जनमानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे। यह सही है कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष हमेशा फायदे में रहता है क्योंकि सरकार की कमियों पर हमला करना आसान होता है। सरकार जो कुछ भी करे वह जनआकांक्षाओं पर कभी पूरा नहीं उतरता। पर इसके अपवाद वह राज्य सरकारें हैं जो लगातार चुनाव जीतकर सत्ता में आतीं हैं। इसलिए केन्द्रीय सत्ता में शामिल दलों को अपनी दामन में झाँककर देखना चाहिए।

कांग्रेस की एक और दिक्कत है। उसमें कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं की पूछ नहीं होती। ये लोग दशकों तक मेहनत करें पर कभी भी आलाकमान की निगाहों में नहीं चढ़ पाते। बड़े नेताओं के बेटे-बेटी, भाई-भतीजे और बहू-दामाद ही चुनावों में टिकट झपट लेते हैं। ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय है और नाराज है। जिसका आक्रोश चुनावों में फूटता है। जो स्थानीय स्तर पर दूसरे दलों के उम्मीदवारों से समझौते कर अपने दल के उम्मीदवारों को हरवा देता है। जबकि दूसरी तरफ पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के चुनावी कमान संभालते ही जो भाजपा में माहौल बना उससे लगा कि बारात सजने से पहले ही बिखर जायेगी। पर जिस कुशलता से नरेन्द्र मोदी ने 65 नेताओं की टीम को एकजुट कर  अपनी सेना तैयार की है उससे तो लगता है कि यह चुनौती भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी।

नरेन्द्र मोदी के बयानों पर भड़कने का कांग्रेस का एक और भी स्वभाविक कारण है। कांग्रेस के पास नरेन्द्र मोदी की कद काठी  और तेवर का कोई नेता नहीं है या उसे उभरने नहीं दिया गया। मजबूरन कांग्रेस के युवा नेताओं को नरेन्द्र मोदी के हर बयान का जवाब बढ़ चढ़कर देना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि उनकी शब्दावली में कहीं ये ‘‘फेंकू‘‘  नेता अपने बयानों से बाजी न मार ले जाए। इसलिए वे हाथों-हाथ जवाब देते हैं। पर इससे संदेश यही जा रहा है कि कांग्रेस मोदी के लगातार हो रहे हमलों से हड़बड़ाई हुई है। उसे डर है कि कहीं मोदी की रणनीति गुजरात की तरह देश में भी काम न कर जाये।

चुनाव जब भी हो और परिणाम जो भी हो आज दिन तो ऐसा लगता है कि मोदी ने चुनाव का ऐजेन्डा सेट करने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। पर यह तेवर, नए-नए मुद्दे और आक्रामक शैली क्या मोदी चुनावों तक अपना पायेंगे ? अगर नहीं, तो परिणाम इण्डिया शाइनिंग की तरह हो सकते हैं। अगर अपना ले गए तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह इतिहास रच जायेंगे। क्योंकि तब मतदाता दलों और उनके नेताओं के इतिहास को भूलकर देश में एक सशक्त नेतृत्व की आकांक्षा से वोट करेगा। क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।