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Monday, August 19, 2024

क्या पुलिस बलात्कार रोक सकती है?


काम की जगह पर या देश में कभी भी कहीं भी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ तेज़ी बढ़ती जा रही हैं। विशेषकर छोटी उम्र की बच्चियों का बलात्कार करके उनकी हत्या करने के मामले भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हमारे समाज का ये नासूर इतना गहरा है कि पिछले चार-पाँच दिनों में ही देश के अलग-अलग प्रांतों में हुई ऐसी वारदातों को सुनकर आपका कलेजा हिल जाएगा। 


पंजाब में एक युवा अपनी प्रेमिका को भगा करे ले गया तो उसकी प्रेमिका के घरवालों ने उस युवक की बहन के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उत्तराखण्ड में एक नर्स अस्पताल से ड्यूटी ख़त्म कर घर जा रही थी तो उसके साथ बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई। तमिलनाडू के तंजोर ज़िले में 22 वर्षीय युवती का तीन मित्रों ने सामूहिक बलात्कार किया। उड़ीसा में एक मशहूर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर को दो मरीज़ों के बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है। मुंबई के साकी नाका में 3 साल की बच्ची से 9 साल के लड़के ने बलात्कार किया। राजस्थान के जोधपुर में 11 साल की लड़की के साथ उसके पड़ोसी ने उससे बार-बार बलात्कार किया। हरियाणा में बलात्कार और हत्या के आरोपी राम रहीम को हर चुनाव के पहले पैरोल पर रिहा किया जा रहा है। इस तरह वो अब तक 235 दिन की आज़ादी का मज़ा ले चुका है। 



उत्तर प्रदेश में एक बाप ने अपने 13 साल की बेटी के साथ बलात्कार किया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में एक सरकारी अफ़सर ने दलित लड़की के घर में उससे बलात्कार किया और पुलिस ने एक बुजुर्ग मौलाना को एक बच्ची से बलात्कार से कोशिश करते हुए गिरफ़्तार किया। बिहार में 14 साल की दलित लड़की को सामूहिक बलात्कार के बाद मुज़फ़्फ़रपुर में मार डाला गया। झारखंड में एक स्कूल बस ड्राइवर ने 3 साल की छात्र के साथ बलात्कार किया। कर्नाटक में एक अध्यापक ने 11 साल की बच्ची से बलात्कार की कोशिश की और गिरफ़्तार हुआ। ये सब हादसे पिछले चार पाँच दिनों में हुए हैं। इसके अलावा सैंकड़ों अन्य मामले दबा दिए जाते हैं और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के हज़ारों मामले रोज़ होते हैं। हमारे समाज की ये भयावह तस्वीर सिद्ध करती है कि हम घोर कलयुग में जी रहे हैं।


महिलाओं के साथ बलात्कार की ये सारी वारदातें देश भर में पिछले हफ़्ते में ही हुई हैं। क्या कहीं भी पुलिस या प्रांतीय सरकार इन बलात्कारों को रोक पायी? कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज की ट्रेनी डॉक्टर से हुई दरिंदगी की खबर ने देश भर में एक बार फिर महिला सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठा दिए हैं। देश भर में मेडिकल के छात्र दिल्ली के निर्भया काण्ड की तर्ज़ पर इस हादसे के खिलाफ सड़क पर उतरे हुए हैं। 



हर कोई पुलिस की नाकामी पर सवाल उठा रहा है। परन्तु सोचने वाली बात यह है कि क्या हमारे देश में इतना पुलिस बल है कि वो देश के हर नागरिक को सुरक्षित रख सकता है? जिस तरह कोलकाता पुलिस ने अपनी सूझबूझ और तत्परता से आरजी कर मेडिकल कॉलेज की ट्रेनी महिला डॉक्टर के साथ दरिंदगी करने वाले मुख्य अभियुक्त संजय रॉय को हिरासत में लिया वो सराहनीय है। परन्तु इससे यह साबित नहीं होता कि पुलिस अपराध होने से पहले ही घटनास्थल पर पहुँच कर अपराध को रोक सकती थी।


यदि ऐसे अस्पतालों में या ऐसे ही किसी अन्य स्थान, में जहां नाईट शिफ्ट में महिलाओं की कर्मचारी मौजूद होती हैं, वहाँ पर सुरक्षा को लेकर अतिरिक्त प्रबंध भी किए जाने चाहिए। उल्लेखनीय है कि प्रायः यहाँ पर आपको सीसीटीवी कैमरे लगे ज़रूर दिखाई देंगे। परंतु ये तो अपराध होने के बाद ही सहायक साबित होते हैं। लेकिन ऐसा कुछ होना चाहिए कि यदि इन स्थानों पर लगे सीसीटीवी कैमरों की कंट्रोल रूम में निगरानी होती रहे और कैमरों के साथ एक अलार्म भी लगा हो। कंट्रोल रूम में बैठा सुरक्षाकर्मी किसी भी अप्रिय घटना को देखते ही अलार्म बजाए और तुरंत उस स्थान पर मदद भी पहुँचाए तो ऐसे अपराध होने से पहले रोके जा सकते हैं। ज़रूरत केवल लीक से हट कर सोचने की है। यदि ऐसा होता है तो देश में हज़ारों की तादाद में अस्पतालों, होटलों, स्कूल व कॉलेज में इसका प्रबंधन किया जा सकता है। ऐसा करने से रोज़गार के अतिरिक्त मौक़े भी उत्पन्न होंगे। अपराध पर भी नियंत्रण पाने में आसानी होगी।


कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।


पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वीआईपी बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वीआईपी अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 

Monday, December 18, 2023

नौजवानों में प्रदूषण से बढ़ता कैंसर का ख़तरा


पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले हर व्यक्ति के फेंफड़ों में काले रंग के धब्बे मौजूद हैं। जैसे किसी सिगरेट पीने वाले के फेंफड़ों में होते हैं। आश्चर्य और चिंता की बात तो यह है कि दिल्ली में रहने वाले किशोरों में भी यह विकृति पाई जा रही है। यह चौकने वाला खुलासा किया है दिल्ली के मशहूर छाती रोग विशेषज्ञ (चेस्ट सर्जन) डॉ अरविंद कुमार ने। उनका कहना है कि, ‘वे तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली में चेस्ट सर्जरी कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों से उन्होंने ने दिल्ली के मरीज़ों के फेंफड़ों में एक बड़ा बदलाव देखा है। जहां 1988 में अधिकतर फेंफड़ों का रंग गुलाबी होता था वहीं बीते कुछ वर्षों में फेंफड़ों में कई जगह काले-काले धब्बे दिखाई दिये हैं। पहले ऐसे काले धब्बे केवल धूम्रपान करने वालों के फेंफड़ों में ही पाये जाते थे। किंतु अब हर उम्र के लोगों में, जिसमें अधिकतर किशोरों में, ऐसे काले धब्बे पाए जाने लगे हैं, यह बड़ी गंभीर स्थिति है। इन काले धब्बों का सीधा मतलब है कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते उनके फेंफड़ों में यह धब्बे विषैला जमाव या ‘टॉक्सिक डिपोज़िट’ है।’ डॉ अरविंद कुमार का कहना है कि ‘फेंफड़ों में इन काले धब्बों के चलते निमोनिया, अस्थमा और फेंफड़ों के कैंसर के मामलों में भी तेज़ी आई है। पहले ऐसी बीमारियाँ अधिकतर 50-60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को होती थी। परंतु अब यह पैमाना घट कर 30-40 वर्ष की आयु वर्ग में होने लगा है। पहले के मुक़ाबले महिला रोगियों की तादाद भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं महिला मरीज़ों की तादाद चालीस प्रतिशत तक है जिनमें से अधिकतर महिलाएँ धूम्रपान नहीं करतीं हैं। सबसे अहम बात यह है कि 1988 में ऐसे रोगियों में 90 प्रतिशत वह लोग होते थे जो धूम्रपान करते थे। परंतु अब यह आँकड़ा बराबरी का है।’ 



डॉ कुमार बताते हैं कि, ‘जो केमिकल सिगरेट में पाए जाते हैं वही केमिकल आज की हवा में भी हैं। यानी कैंसर के मुख्य कारक माने जाने वाले जो केमिकल सिगरेट के धुएँ में पाये जाते हैं यदि वही केमिकल हमें दूषित हवा में मिलने लगें तो हम धूम्रपान करें या ना करें हमारे फेंफड़ों के अंदर यह ज़हर ख़ुद-ब-ख़ुद प्रवेश कर ही रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि दूषित हवा से हमारे फेंफड़ों में कैंसर होने के आसार भी बढ़ गये हैं। कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यह माना कि दूषित हवा भी कैंसर का कारण हो सकती है। एक महत्वपूर्ण तर्क देते हुए डॉ अरविंद कुमार ने यह भी बताया कि पहले जब फेंफड़ों के कैंसर के मरीज़ों में इस बीमारी को पकड़ा जाता था तब उनकी उम्र 50-60 के बीच होती थी क्योंकि कैंसर के केमिकल को फेंफड़ों को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए तक़रीबन बीस वर्ष लगते थे। परंतु आज जहां दिल्ली की दूषित हवा का ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है तो ऐसी दूषित हवा में जन्म लेने वाला हर वो बच्चा इन केमिकल का सेवन पहले ही दिन से कर रहा है, इस ख़तरे का शिकार बन रहा है। आम भाषा में कहा जाए तो दूषित हवा में साँस लेना 25 सिगरेट के धुएँ के बराबर है। तो यदि कोई बच्चा अपने जन्म के पहले ही दिन से ऐसा कर रहा है तो जब तक वो 25 वर्ष की आयु का होगा उसके फेंफड़ों में और धूम्रपान करने वाले के फेंफड़ों में कोई अंतर नहीं होगा। इसीलिए डॉ अरविंद कुमार को इस बात पर कोई अचंभा नहीं होता जब वे कम उम्र के मरीज़ों में फेंफड़ों के कैंसर के लक्षण देखते हैं। उल्लेखनीय है कि जहां दिल्ली में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है वहीं लंदन और न्यू यॉर्क में यह आँकड़ा 20 से भी कम है। यह बहुत भयावह स्थिति है चाहे-अनचाहे दिल्ली का हर निवासी इस ज़हरीले गैस चैम्बर में घुट-घुट कर जीने को मजबूर है। हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है।



लगातार चुनाव जीतने की राजनीति में जुटे रहने वाले दल प्रदूषण जैसे गंभीर मुद्दों पर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इस समस्या के हल के लिए केंद्र या राज्य की सरकार कोई ठोस काम नहीं कर रही। पराली जलाने को लेकर इतना शोर मचता है कि ऐसा लगता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान ही दिल्ली के प्रदूषण के लिये ज़िम्मेदार हैं। जबकि असली कारण कुछ और है। दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है। 


दिल्ली में 1987 से यह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसके लिए पहले डेनमार्क से तकनीकी का आयात किया गया था। पर यह मशीन एक हफ़्ते में ही असफल हो गई क्योंकि इसकी बुनियादी शर्त यह थी कि जलाने से पहले कूड़े को अलग किया जाए और उसमें मिले हुए ज़हरीले पदार्थों को न जलाया जाए। इतनी बड़ी आबादी का देश होने के बावजूद भारतीय प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही इस कदर है कि आजतक कूड़े को छाँट कर अलग करने का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाया है। आज दिल्ली में प्रतिदिन 7000 टन मिश्रित कूड़ा ‘इनसिनिरेटर्स’ में जलाया जाता है। जिसे जल्दी ही 10000 टन करने की तैयारी है। इस मिश्रित कूड़े को जलाने से निकलने वाला ज़हरीला धुआँ ही दिल्ली के प्रदूषण का मुख्य कारण है। जबकि इसी मशीन से सिंगापुर में जब कूड़ा जलाया जाता है तो उसमें से ज़हरीला धुआँ नहीं निकलता क्योंकि वहाँ सभी सावधानियाँ बरती जाती हैं। वैसे केवल सरकार को दोष देने से हल नहीं निकलेगा। दिल्ली और देश के निवासियों को अपने दैनिक जीवन में तेज़ी से बढ़ रहे प्लास्टिक व अन्य क़िस्म के पैकेजिंग मैटीरियल को बहुत हद तक घटाना पड़ेगा जिससे ठोस कचरा इकट्ठा होना कम हो जाए। हम ऐसा करें ये हमारी ज़िम्मेदारी है ताकि हम अपने बच्चों के फेंफड़ों को घातक बीमारियों से बचा सकें। मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने क्या खूब कहा शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा, कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा। पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था, जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा ।।
 

Monday, October 24, 2022

स्वच्छता अभियान कहाँ अटक गया ?


2014 में जब देश में मोदी जी
  ने सत्ता में आते ही स्वच्छता के प्रति ज़ोर-शोर से एक अभियान छेड़ा था तो सभी को लगा कि जल्द ही इसका असर ज़मीन पर भी दिखेगा। इस अभियान के विज्ञापन पर बहुत मोटी रक़म खर्च की गयी। कुछ ही महीनों में मोदी सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी भी शुरू हो गईं। जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भौचक्के रह गए। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया था। पर अब तक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े-बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए सरकारें हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं। आज आठ साल बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के ही पॉश इलाक़ों तक में पर्याप्त सफ़ाई नहीं दिखती। जगह जगह कूड़े के ढेर  दिखाई दिखते हैं। 


प्रश्न है कि क्या इसके लिए केवल सरकार ज़िम्मेदार है? क्या स्वच्छता के प्रति हम नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है? सोचने वाली बात है कि अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा?


देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई? रोचक बात ये है कि 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखें चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई का मामला ही है। उधर देश के 7 लाख गावों को इस अभियान से जोड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं। यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी। महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाए तो शायद सही दिशा में अच्छे परिणाम आएँगे। इसके लिए नागरिकों और सरकार की सहभागिता के बिना कुछ नहीं होगा। 



गांधी जयन्ती पर केंद्र या राज्य सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखाई देते हैं उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गई थी। यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जब तक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। इस खुद ख्याल रखने की बात पर भी गौर करना ज़रूरी है।


शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सार्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों या गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’? यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकट्ठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाए?


निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है। ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जल संसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं। इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी। पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं। आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें? दिल्ली जैसे महानगर में भी कूड़ा इकट्ठा करने के स्थान भर चुके हैं और यहाँ भी कूड़ा इकट्ठा करने के लिए नए स्थान खोजे जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय पूर्वी दिल्ली में बने कूड़े के पहाड़ों को लेकर दिल्ली सरकार की खिंचाई कर रहा है। 


गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का घनत्व बढ़ गया है। गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था। अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए। इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं।



यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं। चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए दिखते तो हैं लेकिन सफाई जैसी ‘बहुत छोटी’ या बहुत बड़ी समस्या पर गम्भीर कोई नहीं दिखता। अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों व सरोवरों या कुंडों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन होते ज़रूर दिखाई देते। 


विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मेलन होते ज़रूर हैं। लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो। और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते। जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने-अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दूसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। पर हर समस्या को समस्या बनाकर रखने की अभ्यस्त नौकरशाही इस समस्या को भी अपनी लालफ़ीताशाही की फ़ाइलों में क़ैद रखने में ही अपनी कामयाबी समझती है। इसलिये कोई हल नहीं निकल पाता। 


हिमाचल प्रदेश की मनोरम घाटी हों या सागर के रमणीक तट, तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रेलगाड़ियों की खिड़की के दोनों ओर की रेल विभाग की ज़मीने, हर ओर कूड़े का विशाल साम्राज्य देख कर कलेजा मुँह को आता है। पश्चिमी देशों की नज़र में भारत सबसे गंदे देशों में से एक है। ये हम सबके लिये शर्म की बात है। हम सबको सोचना और कुछ ठोस करना चाहिये।

Monday, May 31, 2021

सुशील कुमार कांड: टूटना भरोसे का


भारत के ध्वज को अपने कंधे पर गर्व से लिए फ़ोटो में दिखाई देने वाले मशहूर पहलवान सुशील कुमार का नाम पिछले दिनों एक अन्य पहलवान सागर धंकड़ के हत्याकांड से जोड़ा गया और उसकी गिरफ़्तारी भी हुई। असलियत क्या है यह तो जाँच का विषय है। लेकिन यहाँ चाणक्य पंडित की एक बात याद आती है, उनके अनुसार विश्वासघात विष के समान होता है। इस बहुचर्चित हत्याकांड में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ एक व्यक्ति का दूसरे से नहीं बल्कि गुरु शिष्य परम्परा का विश्वासघात हुआ है।
 


कुश्ती जगत से सम्बंधित किसी भी युवा या वरिष्ठ पहलवान से पूछा जाए तो सुशील कुमार कुश्ती जगत के एक आदर्श के रूप में पूजे जाते रहे हैं। लेकिन इस हत्याकांड में सुशील का नाम आते ही मानो सभी का विश्वास टूट सा गया है। 2008 में ओलम्पिक विजेता बने सुशील कुमार उभरते हुए पहलवानों के आदर्श थे। तभी की बात है कि सागर धंकड़ नाम के दिल्ली के एक युवा पहलवान ने तय कर लिया कि वो भी कुश्ती की शिक्षा लेकर देश का नाम रोशन करेगा। दिल्ली पुलिस के सिपाही के इस बेटे ने सुशील कुमार को अपना गुरु मान लिया और उनसे इस खेल की ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया। 



कुश्ती जगत के लोगों के अनुसार सुशील कुमार जब एक युवा पहलवान था तब वह कुश्ती के प्रति बहुत समर्पित था। उन दिनों वह हर समय अखाड़े में रह कर खूब ट्रेनिंग करता था। उसकी नज़र भी अर्जुन की नज़र की तरह ओलम्पिक के पदक पर ही गढ़ी हुई थी। खूब मेहनत और मशक़्क़त का ही नतीजा है कि उसे 2008 और फिर उसके बाद लगातार कई पदक मिले जिससे कुश्ती के खेल में देश का नाम रोशन हुआ।


मीडिया में सागर की हत्या के पीछे एक मकान के किराए की बात का काफ़ी ज़िक्र हो रहा है। पुलिस के अनुसार सागर दिल्ली के जिस मकान में रह रहा था वह सुशील की पत्नी के नाम था। कुछ महीनों से किराया न दे पाने के कारण इस हत्या को अंजाम दिया गया। ग़ौरतलब है कि पिछले साल से लॉकडाउन के चलते कई ऐसे मकान मालिक हैं जो अपने किराएदारों से किराया देने पर ज़ोर नहीं दे रहे। सागर धंकड़ भी ‘बेरोज़गार’ था, तो वह किराया कहाँ से दे पाता? पर केवल किराया न दे पाने के कारण ही उसकी हत्या कर देना, यह बात गले नहीं उतरती। 


किसी ने ठीक ही कहा है कि शौहरत को पचा पाना बहुत कठिन होता है। सुशील के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुश्ती जगत में भारत का नाम कई बार रौशन करने के बाद, एक साधारण परिवार से आए सुशील कुमार एक बेहद ‘सुशील’ व्यक्ति थे। एक बार बाबा रामदेव के बिजवासन फार्म हाउस पर जब वो मुझ से मिला और बाबा ने मेरा परिचय करवाया तो सुशील ने तपाक से मेरे पैर छुए। वो चाहता तो प्रणाम करके भी काम चला लेता। पर ये उसकी विनम्रता ही थी । 


पर शायद उसे अपनी शौहरत बहुत समय तक रास नहीं आई। भारत सरकार के रेल मंत्रालय की नौकरी और फिर दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम के सह निदेशक पद की नौकरी के बावजूद सुना है कि सुशील कुमार ने खुद को कई और धंधों में शामिल कर लिया था। इन धंधों में सबसे ख़तरनाक धंधा था विवादित प्रॉपर्टी में फ़ैसले करवाना। 


यहाँ इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि दिल्ली के पहलवानों का बहुत कम प्रतिशत ऐसे पहलवानों का है जो पहलवानी करने के साथ-साथ दूसरे धंधों में भी शामिल हों। फिर वो चाहे अभिनेताओं के, व्यापारियों के या महंगे होटलों में ‘बाउंसर’ बनना ही क्यों न हो। वे यही करते हैं। ऐसे दूसरे धंधे केवल वही पहलवान करते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। ज़्यादातर पहलवान तो अपनी कुश्ती के अभ्यास में ही लगे रहते हैं और मस्त रहते हैं। वे न तो किसी प्रकार के नशे का सेवन करते हैं और न ही ग़लत संगत में रहते हैं। सुशील कुमार जैसे पहलवान जिसके पास करोड़ों रुपया और शोहरत थी उससे ऐसी उम्मीद शायद ही किसी को होगी ।         


दिल्ली जैसे बड़े शहरों में यह आम बात है कि जब किसी महंगे इलाक़े में कोई मकान, दुकान या फार्म इत्यादि विवादित हो जाते हैं। तो इन विवादों का समाधान या तो राजनैतिक बल या फिर बाहुबल से ही निकलता है। सुशील कुमार के पास ये दोनों बल थे। बस फिर क्या होना था? कुछ लोगों के बहकावे में आने के बाद पिछले कुछ सालों में सुशील ने भी अपने इसी काम का सेटअप चालू कर दिया। 


जानकारों की मानें तो दिल्ली के मॉडल टाउन के जिस मकान से सागर धंकड़ को हत्या वाली रात उठाया गया था, उस विवादित मकान पर पहले सुशील कुमार का ही क़ब्ज़ा था। लेकिन किसी दूसरे गैंग ने उस मकान को अपने क़ब्ज़े में लेकर सागर को उस मकान में रहने के लिए रख दिया था। यह दोनों गैंग के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई थी। जो सागर के लिए जानलेवा बन गई। जिसके बाद गर्व से भारत का ध्वज उठाने वाले सुशील कुमार को अपना मुँह छिपा कर रहने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी गिरफ़्तारी से पहले वो कई हफ़्तों तक पुलिस को चकमा देता रहा।


सुशील की गिरफ़्तारी के बाद कई ऐसे तथ्य और सामने आए हैं जिनसे यह साबित होता है कि सुशील का कुख्यात अपराधियों के साथ भी उठना बैठना हो चुका था। वो इस ग़ैरक़ानूनी दुनिया, जिसे आम भाषा में अंडरवर्ल्ड कहा जाता है, का एक अहम हिस्सा बन चुका था। सच्चाई क्या है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन जिस तरह से सुशील-सागर के बीच गुरु-शिष्य का भरोसे टूटा, वह सभी के मन में कई सवाल खड़े करता है। ऐसी क्या मजबूरी थी कि सुशील जैसे अंतराष्ट्रीय ख्याति के पहलवान को ये जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा? कहावत है कि ‘फलदार पेड़ और गुणवान व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखा पेड़ और मूर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकता’। कद्र तो किरदार की होती है, वरना तो कद में साया भी इंसान से बड़ा होता है।

Monday, August 31, 2020

कोरोना महामारी: आगे का सफ़र


पिछले कुछ हफ़्तों में सरकार ने कोरोना से सम्बंधित कई दिशा निर्देश दिए हैं। ख़ासतौर पे भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से दिए गए ‘अनलॉक’ के दिशा निर्देश जिनका पालन सभी राज्य सरकारों को करना अनिवार्य है। लेकिन इन दिशा निर्देशों में प्रत्येक राज्य को अपने राज्य की मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार इनमें संशोधन करने का भी प्रावधान है। अगर किसी राज्य में संक्रमण तेज़ी से बढ़ रहा है तो वहाँ सख़्ती की ज़रूरत है। इसी प्रकार अगर संक्रमण नियंत्रण में है तो छूट भी दी जा रही है। दिल्ली में तो अब मेट्रो रेल को भी सशर्त खोलने की तैयारी है। कारण स्पष्ट है जनता को हो रही असुविधा और मेट्रो को हो रहे करोड़ों के नुक़सान से बचना अनिवार्य हो चुका है। लेकिन सावधानी तो हम सबको ही बरतनी पड़ेगी।
 

पिछले दिनों मई 2020 की एक खबर पढ़ने में आई जिसका आधार अमरीका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डा फाहिम यूनुस का शोध है। डा यूनुस मेरीलैंड विश्वविद्यालय के संक्रमण रोग विभाग के मुखिया हैं। उनके अनुसार कोरोना के वाइरस से जल्द छुटकारा पाना आसान नहीं है। हां रूस ने इसके इंजेक्शन के ईजाद का दावा ज़रूर किया है लेकिन चीन में जो लोग कोरोना से ठीक हुए थे उनमें से कुछ को कोरोना दोबारा होने की भी खबर है। डा फाहिम के अनुसार हमें इस बीमारी के साथ हंसी ख़ुशी रहने की आदत डाल लेनी चाहिए और नाहक परेशान या घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। 


उनके अनुसार अगर कोरोना का वाइरस हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका है तो अत्यधिक पानी पीने से वो बाहर नहीं निकलेगा। हम बस बाथरूम ज़्यादा जाने लगेंगे। 


इस वाइरस पे किसी भी तरह के मौसम का भी असर नहीं होगा। उनकी इस बात पर यक़ीन इसलिए होता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में भी कोरोना के मरीज़ों की संख्या विश्वभर में तेज़ी से बढ़ी ही है। 


लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है। यदि हमारे घर में कोई भी संक्रमित नहीं है तो हमें बार बार घर की वस्तुओं को डिसइन्फ़ेक्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है। 


कोरोना के वाइरस आम फ़्लू की तरह ही होते हैं जो खाने कि वस्तुओं को मंगाने से नहीं फैलते। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल पम्प और एटीएम आदि पे जाने से संक्रमण नहीं फैलता। बस हाथ धोना और दूरी बनाए रखना अहम है। 


डा यूनुस के अनुसार यदि कोई इससे संक्रमित है और वो स्टीम या सौना लेने के लिए जाता है तो उसके शरीर से वाइरस नहीं निकल सकता। ऐसी कई और एलेर्जी होती हैं जिनके कारण भी इंसान की सूंघने और स्वाद की शक्ति खो जाती है। अभी तक इस लक्षण को इसका एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता। 


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। 


इन दिनों देखा गया है कि जो लोग घर में खाना नहीं बना पाते थे, जैसे कि विद्यार्थी आदि, वो भी मजबूरन खाना बनाने लग गए हैं। लेकिन अगर आप बाज़ार से खाना मँगवाते हैं तो उसे एक बार दोबारा गर्म कर लेना बेहतर रहेगा। 


कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाती, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है लेकिन वही जूते जो आपने दिन भर पहने हैं और उनसे आपको संक्रमण नहीं हुआ तो जूतों से संक्रमण का कोई लेना देना नहीं है। 


कुछ लोग जो अधिक सावधानी बरतने के लिए दस्ताने पहनते हैं उन्हें भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि दस्तानों पे यदि वाइरस आ भी जाता है तो आसानी से जाता नहीं। उन दस्तानों को फेंका ही जाता है। हाथ धोना ही एकमात्र उपाय है जो वाइरस को बहा देता है। इसलिए अपने मुह या आँख को छूने से पहले हाथ अवश्य धोएँ। हाथों को धोने के लिए आम साबुन का प्रयोग ही करें एंटी-बेक्टीरिया साबुन का नहीं क्योंकि कोरोना एक वाइरस है बेक्टीरिया नहीं। 


अपने 20 वर्षों से अधिक अनुभव के चलते डा फाहिम यूनुस ने ये सब हिदायतें दी हैं और कहा है कि हमें सतर्क रहने की ज़रूरत है परेशान रहने की नहीं। 


ये तो डा फाहिम यूनुस के विचार हैं पर जिस तरह अभी हाल में चंडीगढ़ में हरियाणा के मुख्य मंत्री और स्पीकर व अन्य लोगों को कोरोना हुआ है, जिस तरह भारत में कोरोना संक्रमण की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है, जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसलिए जो सावधानियाँ सुझाई गई हैं उन्हें गम्भीरता से लेना चाहिए। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, November 7, 2016

जहरीली धुंध का चैंबर बन गया एनसीआर

राष्टीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। केंद्र और दिल्ली सरकार किम कर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। सत्रह साल पहले ऐसी ही हालत दिखी थी।  तब  क्या सोचा गया था? और अब क्या सोचा जाना है? इसकी जरूरत आन पड़ी है।

पर्यावरण विशेषज्ञ और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर पिछले 48 घंटों से सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोचविचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन जब सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश हो रही है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम दो तीन साल से सुनते आ रहे थे। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि पूरा का पूरा यह कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा चारा क्या बचता होगा। इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है? इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।

सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में अचानक 17 साल का रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दसियों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।

इस आपात बैठक के सोच विचार का बड़ा रोचक नतीजा निकला है। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि पांच दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर आड ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल का अनुभव है कि यह कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के ससोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकताा था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।

बहरहाल व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और जहरीलरी धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठाया जा रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी। और आगे भी करती रहेंगी।

वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब खामियां जानने से बचेंगे तो समाधान ढूंढेंगे कैसे?

Monday, November 10, 2014

ऐसे नाटक ज्यादा घातक



दिल्ली भाजपा के अधयक्ष सतीश उपाध्याय और उनके साथ शाजिया इल्मी के स्वच्छता अभियान वाले नाटक से नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को बड़ी चोट पहुंची है | यह मामला वैसे तो कोई बड़े महत्त्व का नहीं है लेकिन नई सरकार के आने के बाद जिन कार्यक्रमों की जोर-शोर से शुरुवात करने की कोशिश हुई है उसकी कमज़ोर कड़ियाँ दिखने लगी हैं |
दिल्ली के चमचमाते इलाके में ऐसे आयोजन की आखिर ज़रूरत क्या आन पड़ी थी ? इस सिलसिले में कोई अगर यह कहे कि उपाध्याय को यह इलाका किसी ने अपने हिसाब सुझा दिया होगा और उपाध्याय ने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत आने वाले किसी भी आयोजन के लिए बिना सोचे समझे हामी भर दी होगी तो यह बात गले नहीं उतरती | टीवी चैनलों पर जिस तरह से व्यंग और उपहास करते हुए पहले सूखे पत्ते और फूल बिखेरते हुए दिखाया गया और बाद में उपाध्याय के साथ इल्मी को झाड़ू लगाने के समारोह में भाग लेते हुए दिखाया गया उससे तो पूरे अभियान पर सवाल उठाना स्वाभाविक है | इतने महत्वपूर्ण और सार्थक अभियान के मकसद पर उठ रहे सवाल सभी को सोचने को मजबूर कर रहे हैं |
कोई ऐसा भी कह सकता है कि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता वाले इस अभियान का यह प्राथमिक चरण है | यानी यह सिर्फ योजना बनाने वाला चरण है | लिहाज़ा योजना बनाने में ऐसे अंदेशों का भी निराकरण कर लिया जायेगा | लेकिन यहाँ इस बात पर गौर ज़रूरी है कि दिल्ली अब विधान सभा चुनाव की तैयारियों के दौर में पहुँच चुकी है | ऐसे में दिल्ली भाजपा अधयक्ष की छीछालेदर होना छोटी बात नहीं है | अनुमान कर सकते हैं कि भाजपा के केन्द्रीय स्तर पर इसे ज़रूर ही लेखे में ले लिया गया होगा |
इस प्रकरण के बहाने हमारे पास स्वच्छता अभियान के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं पर कहने का मौका है | वैसे महीने भर पहले 6 अक्टूबर को इसी कॉलम में इसी मुद्दे पर लिखा गया था | वह 2 अक्टूबर के 4 दिन बाद का समय था | यानी तब स्वच्छता के प्रति नई सरकार की गंभीरता के रुझान बताने की शुरुआत थी | तब इस कॉलम में लिखा गया था कि सडकों और गलियों में फैले कूड़े कचरे को समेट कर एक जगह ढेर बना देने से काम पूरा नहीं हो सकता | समस्या इलाके से निकले कूड़े को शहर या गाव से बाहर फेंकने की है और उससे भी बड़ी समस्या यह कि गाव या शहर के बाहर कहाँ फेंके ? पिछले तीस साल में हर तरह से सोच के देख लिया गया और पाया गया कि कूड़े के अंतिम निस्तारण के लिए कोई भी विश्वसनीय उपाय उपलब्ध नहीं हो पाया है | जितने भी निरापद उपाय सोचे गए वे इतने खर्चीले हैं कि बेरोज़गारी और महंगाई सी जूझता देश वह खर्चा उठा नहीं सकता | अब यदि स्वच्छता को नई सरकार की प्राथमिकता में रखा ही गया है तो सबसे पहले योजनाकारों को यह हिसाब लगाना होगा कि इतने महत्वपूर्ण अभियान के लिए हम कितने धन का प्रबंध कर सकते हैं ? हो सकता है कि पांच महीने पुरानी हो गयी नई सरकार के बड़े अफसरों ने बड़ी तेज़ी से काम करके यह हिसाब लगा लिया हो | लेकिन नई सरकार की पहल या उसके क़दमों का पल-प्रतिपल हिसाब रखने वाले मीडिया में इस बारे में कोई सूचना दिखाए नहीं दी |
लोगों के बीच होने वाली बातों को देखें तो नरेंद्र मोदी के इरादों पर लोग अभी भी यकीन कर रहे हैं | बहुमत के साथ बनी सरकार का अर्थ ही ये है कि ज्यादातर लोग मन से चाहते हैं कि नई सरकार की योजनाएं परीयोजनाएं सफल हों | और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाने में लोग पीछे क्यों रहेंगे ? और इस बात से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अभिनेता या बड़े नेता या दूसरे सेलिब्रिटी सड़कों पर झाड़ू लगाते दिख रहे हैं या नहीं दिख रहे | वैसे ये मनोविज्ञान का मामला है | प्रचार में अभिनेताओं – नेताओं के इस्तेमाल की बात ठीक भी हो सकती है | फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि जागरूकता का लक्ष्य हासिल करने के बाद हमें कूड़े कचरे के जो बड़े बड़े ढेर उपलब्ध होंगे उनका निस्तारण हम कैसे करेंगे ?
अभियान का औपचारिक एलान हुए महीना भर हुआ है | अगर अभियान वाकई जोर पकड़ गया तो हमें फ़ौरन ही ठोस कचरा प्रबंधन का कोई नवोनवेशी उपाय ढूंढना पड़ेगा | बेहतर हो कि कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में शोध परियोजनाएं अभी से शुरू कर ली जाएँ और कचरा प्रबंधन के लिए संसाधनों के इंतज़ाम पर सोचना शुरू कर दिया जाए | अभी से हिसाब लगा लिया जाए कि स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता सूची में कहाँ रखा जाए | इन सुझावों को अभियान के पूर्व की सतर्कता की श्रेणी में रखा जा सकता है वरना उपाध्याय और इल्मी जैसे और भी प्रकरण सामने आते रह सकते हैं | कूड़े कचरे के बड़े बड़े ढेरों के पास कोई भी नहीं फटकना चाहेगा |