Monday, September 23, 2013

बाबा रामदेव का अपमान हर भारतीय का अपमान

लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर बाबा रामदेव का जो अपमान हुआ, वह हर भारतीय का अपमान है। चाहे कोई बाबा रामदेव से राजनैतिक या वैचारिक मतभेद क्यों न रखता हो फिर भी वह अपमान के इस तरीके को कभी सर्मथन नहीं देगा। बाबा रामदेव जब हीथ्रो हवाई अड्डे से आव्रजन की सभी औपचारिकताएं पूरी करके बाहर निकल आए, तब उन्हें दोबारा पूछताछ के लिए बुलाया गया और आठ घंटे तक बिठाकर रखा गया। अगले दिन फिर बुलाया और पूछताछ के बाद क्लीन चिट दे दी।
 
यहां कई प्रश्न उठते हैं। अगर उनके वीजा में कमी थी तो उन्हें पहले बाहर ही क्यों निकलने दिया ? वहीं अंदर हवाई अड्डे पर से वापिस भारत क्यों नहीं भेज दिया ? जो क्लीन चिट दूसरे दिन दी उसे पहले दिन देने में क्या दिक्कत थी ? बताया जाता है कि लंदन में किसी व्यक्ति को एक दिन में तीन घंटे से ज्यादा इस तरह पूछताछ के लिए रोकने की परंपरा नहीं है। फिर बाबा को यह मानसिक यातना क्यों दी गयी ? इससे उनके चाहने वालों को जो दिक्कत हुई सो अलग। उसके लिए तो वे अपनी सरकार से लड़ेंगे ही।
 
बाबा का कहना है अंग्रेज आव्रजन अधिकारी ने उन्हें बताया  कि बाबा के विरूद्ध रेड अर्लट जारी किया गया है। रेड अलर्ट किसी देश की सरकार द्वारा उन अपराधियों के खिलाफ जारी किया जाता है जो किसी देश में संगीन जुर्म करके फरार हो जाते हैं और दूसरे देशों की तरफ भाग जाते हैं। तो क्या बाबा के खिलाफ आर्थिक या किसी अन्य अपराध का ऐसा मामला सिद्ध हो चुका है, जिसमें भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती हो पर वो फरार हो गये हों। ऐसा अभी तक कोई मामला सामने नहीं आया है जिसमें बाबा रामदेव के अपराध सिद्ध हो गए हों? फरार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जब बाबा रात-दिन देश भर में घूम-घूम कर अपनी जनसभाएं और योग शिविर कर रहे हैं। भारत सरकार को अगर उनकी तलाश है तो उन्हें किसी भी क्षण भारत में कहीं से भी पकड़ा जा सकता है। फिर रेड अर्लट का सवाल कहां से आया ?
 
उधर बाबा रामदेव का आरोप है कि यह सब यू.पी.ए अध्यक्षा के इशारे पर हुआ। इसका कोई प्रमाण तो बाबा ने नहीं दिया है। पर उन्होंने दावा किया है कि उनके लोग इस बात के प्रमाण जुटाने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए प्रमाण के सामने आने का इतंजार करना होगा। वैसे आम तौर पर एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार से इस तरह की असंवैधानिक मांग नहीं करती है क्योंकि आतंरिक सुरक्षा उस देश का गोपनीय मामला होता है।
 
बात असल में यह है कि अंगे्रजों के दिमाग से अभी भी हुकुमत की बू नहीं गयी। उन्हें भारत छोडे़ 66 वर्ष हो गये मगर वे आज भी भारतीयों को अपनी प्रजा मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसा अनुभव हर उस भारतीय को होता है जो कभी विलायत गया हो। जबकि दूसरी ओर हमारे देश में गोरी चमड़ी को आज भी सिर पर बिठाकर रखा जाता है। चाहे वो व्यक्ति वहां कितनी भी छोटी सामाजिक हैसियत का क्यों न हो ? इतने मूर्ख तो अंग्रेज अधिकारी नहीं कि वह बाबा रामदेव की हैसियत और लोकप्रियता के बारे में कुछ न जानते हों। इसके बावजूद उनके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करना भारतीय समाज का अपमान ही माना जाना चाहिए और इसकी भत्र्सना की जानी चाहिए।
 
हमारी याद में पिछले 45 दशकों में ऐसा कोई हादसा ध्यान नहीं आता जब किसी देश के सम्मानित या लोकप्रिय नागरिक का भारतीय हवाई अड्डों पर ऐसा अपमान हुआ हो। जबकि भारत के विशिष्ट व्यक्तिओं का अमरीका और इंग्लैण्ड के हवाई अड्डों पर अक्सर अपमान होता रहता है। फिर वे चाहे  सत्तारूढ़ दल के नेता हो, विपक्ष के नेता हों या किसी अन्य क्षेत्र के मशहूर व्यक्ति। इसलिए जरूरी है कि हमारा विदेश मंत्रालय और हमारे दूतावास इन मामलों को गंभीरता से लें और सम्बन्धित सरकारों से उनका रवैया बदलने को कहें। आज संचार क्रान्ति के युग में सूचनाओं का आदान प्रदान इतनी तेजी से होता है कि किसी भी मशहूर व्यक्ति के बारे सारी सूचनाएं गूगल व अन्य माध्यमों से क्षण भर में हासिल की जा सकती है, फिर ये पुरातन पंथी रवैया क्यों ?
 
वैसे यह जिम्मेदारी उन देशों के भारत स्थित दूतावासों की भी है, जो भारत की हर गतिविधि पर बारीकी से नजर रखते हैं, फिर वे यह तो जानते ही हैं कि बाबा रामदेव हो या शाहरूख खान, राहुल गांधी हो या ए.पी.जे अब्दुल कलाम, ये ऐसी शख्सियतें नहीं है जिन्हें विदेशों के हवाई अड्डों पर अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए घंटो सफाई देनी पड़े। पर इनके साथ कभी न कभी ऐसे हादसे होते रहे हैं। इसलिए भारत सरकार को अपने राजनैतिक मतभेद पीछे रखकर देशवासियों के सम्मान के लिए इस अपमानजनक व्यवहार को रुकवाना चाहिए।

Monday, September 16, 2013

बलात्कारियों को फाँसी देने से क्या होगा ?


आखिर चारों को फाँसी की सजा हो गयी। इस वीभत्स और भयानक हत्याकांड में अदालत को फैसला करने में सिर्फ नौ महीने लगे। इस कांड पर समाज की प्रतिक्रिया अपूर्व थी। यही कारण रहा कि अदालत को तेजी से न्याय करना पड़ा। वैसे मीडिया की भी इसमें बड़ी भूमिका रही। अगर समाज और मीडिया के बीच जुगलबंदी को देखें तो कह सकते है कि इस सामाजिक प्रतिक्रिया के पीछे मीडिया की ही भूमिका हमें ज्यादा दिखती है। वरना ऐसे हत्याकांडों और इससे भी ज्यादा अमानवीय और भयानक घटनाओं पर मीडिया अकसर इतनी तत्परता नहीं दिखा पाता। मसलन धर्म, जाति और नस्लभेद में होने वाली घटनाओं की तीव्रता इस हत्याकांड से कहीं ज्यादा होती है। बस फर्क यह है कि वे घटनाएं बहुत सारे नकाब ओढ़े होती हैं। खैर अभी चर्चा चार लड़कांे को फाँसी की है।

इस रेप और हत्याकांड में मीडिया के कारण सजा को लेकर बड़ी उत्सुकता बनायी गयी। जरा बारीकी से देखें तो अदालत पर समाज के दबाव को कोई भी इनकार नहीं कर सकता। फाँसी की सजा के बाद अब समाज में, खास तौर पर प्रबुद्ध समाज में और प्रबुद्ध समाज के विशेषज्ञ वर्ग में चर्चा शुरू हो गयी है और हो भी क्यों न। क्योंकि किसी भी अपराध के लिए सजा की मात्रा या प्रकार बहुत सोच-समझकर तय की जाती हैं। उनके मुताबिक ऐसे मामले में अधितम सजा यही हो सकती थी और उसके हिसाब से समाज ने उसी का दबाव बनाया और अदालत ने तेजी से काम करके जल्दी न्याय कर दिया। इस फैसले के बाद अब विश्लेषण की जरूरत पड़ रही है। क्या समाज से हत्या और बलात्कार खत्म करने में इस सजा के बाद मदद मिलेगी ?

अपराध शास्त्री सुधीर जैन का कहना है कि अपराध शास्त्र की पढ़ाई में दण्ड के उद्देश्यों की कई व्यवस्थाएं हैं। पिछले 200 सालों में इसी पर विचार हुआ है और अलग-अलग राजनैतिक प्रणालियों में उनके मुताबिक दण्डशास्त्र विकसित हुआ है। हमारी प्रणाली लोकतंत्र है। साम्राज्यवादी व्यवस्था से मुक्त होकर हमारा लोकतंत्र बना है। अग्रेजों की दण्ड व्यवस्था के तीन उद्देश्य थे। प्रतिशोध, प्रतिरोध और प्रायश्चित। आजादी के बाद हमने इसमें दो उद्देश्य और जोडे़, सुधार और पुर्नवास। सुधार और पुर्नवास जैसे उददेश्यों पर भी समीक्षा होती रहती है। इसे लेकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ता काम भी करते रहते हैं और समाज में उनकी प्रशंसा भी होती रहती है। कहने की गर्ज यह है कि साम्राज्यवादियों की दण्ड व्यवस्था सिर्फ दण्डात्मक थी और हमारी व्यवस्था दण्ड और अपराधियों के उपाचार यानि दोंनों को मिलाकर दंडोपचारात्मक बनी है। ऐसे में अपराधियों को दण्ड दिया जाए या उनका सुधार किया जाए इसके बीच द्धन्द की स्थिति बनती है। कहीं ऐसा न हो जब यह वीभत्स और भयानक हत्याकांड समाज की स्मृति में धंुधला पड़ जाए, तब हम कुछ और बातें करने लग जाए। होने को तो यह भी हो सकता है कि हत्या और बलात्कार के लंबित पड़े दर्जनों  मामलों में हम फाँसी देने में ही हिचक जाएं। यह सोचकर कि लोकतंत्र में इतने सारे अपराधियों को फाँसी देने से भारत की दुनिया में क्या छवि बनेगी?

यानि फाँसी या उससे भी कड़ी किसी काल्पनिक सजा से भी हम समस्या के समाधान की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। अगर सोचते हैं तो यही सोच पाते हैं कि अपराधों पर नियंत्रण दण्ड से उतना नहीं हो सकता,जितनी उम्मीद हम अपराध निरोध की कोशिशों से करना चाहते हैं। मौजूदा मामले में भी यही लगता है कि हमने बलात्कारी से प्रतिशोध या बदला तो ले लिया। लेकिन इससे प्रतिरोध सुनिश्चित नहीं होता। प्रतिरोध भी दो प्रकार का होता है। विशिष्ट और सामान्य (सार्वभौमिक)। इसकी व्याख्या यह है कि हमने उस अपराधी को तो समाप्त कर दिया। यानि उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले अपराधों से हम मुक्त हो गए, यह विशिष्ट प्रतिरोध था। लेकिन उसे फाँसी पर चढ़ाकर दूसरे ऐसे और लोग ऐसा कांड करने से बचेंगे, यह सुनिश्चत नहीं होता। इसका इतिहास गवाह है कि जिन अपराधों में फाँसी दी गयी, वे अपराध रुके नहीं। आंकड़े तो यह भी बताते है कि तमाम कानूनों को लागू किए जाने के बावजूद समाज में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ ही रही है। यानि जरूरत ऐसे उपायों की है कि जहां ऐसी व्यवस्था हो जिससे हम अपराधिक प्रवृत्तियों को विकसित होने से रोक सकें। बस मुश्किल यही है कि इसके लिए काम कानूनी नहीं, सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है। जो जरा मेहनत का काम है। इसलिए शायद सामाजिक कार्यकर्ता भी कानून व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, पुलिस सुधार और कड़े कानूनों जैसी मांगों को उठाना अपने लिए ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हम अपराधों के त्वरित समाधान की बजाए अपराधों के कारणों पर विचार करना शुरू करें, फिर समाधान ढूँढें। तभी समाज में अमन कायम होगा। उस दृष्टि से इन चारों की फाँसी से भी बलात्कारों के रुकने की संभावना दिखाई नहीं देती।

Monday, September 9, 2013

धर्म का धंधा सबसे चंगा

आसाराम की गिरफ्तारी के बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रही हैं। पर इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही। धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।
 
संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।
 
आसाराम कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘ । 

Monday, September 2, 2013

आसाराम और उनका सच आमने सामने

आसाराम कांड ने एक से बड़े एक दिग्गजों को उनकी हैसियत बता दी है। यहाँ तक कि अपने चतुर सर्मथकों तक को बता दिया है कि उनकी क्या ताकत है। 10 दिन तक मीडिया भी गंभीरता के साथ आसाराम और उनके सच को उजागर करने में पूरी शिद्दत से लग रहा था। लेकिन कानून के हाथ आसाराम के पास तक नहीं पहुँच पाये। हाथ तो क्या कानून की परछाई तक आसाराम तक नही पहुँच पायी।
 
इस कांड का कोई ऐसा पारंम्परिक पक्ष नहीं है, जिस पर जोर-शोर से बहसें नहीं हुईं। लेकिन यह खुलकर समझाया नहीं जा सका कि आसाराम के पीछे ऐसी कौन सी ताकत है ? आसाराम के पास पैसे की ताकत, साम्प्रदायिक पक्ष की ताकत, राजनैतिक ताकत, अपने कर्मचारियों की फौज की ताकत या उनके पास जमा होने वाली भीड़ की ताकत, लगता है कि इन ताकतों की कोई काट पिछले 8-10 दिनों में ढूँढी नहीं जा सकी। इसलिए सवाल उठता है कि ऐसे झूठ के खिलाफ कौन सा तर्क या सच हो सकता है ? इसके शोध की जरुरत है।
 
यदि यही बात है कि आसाराम के आयोजनों में पहुँचने वाले भोले-भाले लोगों की संख्या ही उनकी ताकत है, तो हमें उनके श्रोताओं के अध्ययन की जरुरत पडे़गी जो सब कुछ देख कर भी जानना नहीं चाहते। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश में इस वक्त दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस कांड को लेकर फौरी तौर पर मुश्किल में नजर आ रहे हैं। भाजपा पर आसाराम को चतुराई के साथ बचाने के आरोप है और वारदात राजस्थान में होने के कारण वहाँ सत्तारुढ कांग्रेस पर आरोप है कि कुछ भी मुश्किलें रही हों राजस्थान पुलिस ने आसाराम को फौरन ही और सख्ती के साथ क्यों नहीं पकड़ा ? 10 दिनों मे इतनी बहसें हो जाने के बाद यह कोई भी समझ सकता है कि दोनों ही दलों के ऐसे रवैये का क्या कारण हो सकता है ?
 
सब जानते है कि कानूनी उपायों की क्या सीमाएं होती है ? हम सोचकर देखें कि अगर आसाराम को 10 दिन पहले सख्ती से पकड़ लिया जाता तो क्या होता ? हालांकि हमारे यहाँ इस तरह का सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं है। लेकिन जब ये सवाल उठ रहे हों कि राजस्थान पुलिस ने 10 दिन पहले ही आसाराम को क्यों नहीं पकड़ लिया, तो यह सवाल वाजिब है कि तब क्या होता ? इसका जवाब भी विद्धानों ने टीवी पर जारी बहसों में दिया है कि आसाराम ऐसी बुराई थे जो एक नकाब में थे और उसे बेनकाब करना जरूरी था। इन 10 दिनों में आसाराम खुलकर बेनकाब हो पाये। 10 दिन पहले उन्हें पकड़ा जाता तो उन्हें अपनी नकाबपोश छवि के कारण और उनके सर्मथकों के प्रोपेगंडा के कारण आसाराम को सहानभूति मिल जाने का भी एक बड़ा अंदेशा था। बात कुछ दार्शनिक किस्म की जरुर है लेकिन फौरी तौर पर महत्वपूर्ण इसलिए है कि आसाराम कोई एकल मुक्त बुराई नहीं लगते, बल्कि लगता है कि अभी कई आसारामों को जानने और समझने की जरुरत पड़ेगी और जब हम मुद्दे को सम्रग रुप में देखेंगे, तभी कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती है। वरना टुकड़ों-टुकड़ों में ऐसे कांड बगैर किसी निर्णायक उपायों के आते जाते रहेंगे।
 
सनसनीखेज आसाराम कांड की कुछ पाश्र्व कथाएं भी बनी है। राजनैतिक क्षेत्र में देखें तो उमा भारती से लेकर मध्य प्रदेश के नेता विजय वर्गीय तक कई नेताओं ने आसाराम को बेकसूर साबित करने में खूब जोर लगाया। हालांकि माहौल बिगड़ता देख भाजपा वरिष्ठ नेताओं और प्रवक्ताओं ने आखिर में हालात संभालने में पूरा जोर लगा दिया।
 
एक सबसे जटिल और बारीक कथा आसाराम को बीमार बताने की भी कोशिश हैं। आसाराम के पुत्र ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में बताया कि आसाराम को एक न्यूरोलोजिकल बीमारी न्यूरेल्जिय है। अब उनके डाक्टरों और कानूनी विशेषज्ञों ने एक ऐसी बीमारी का जिक्र कर दिया है जिसकी व्याख्या और निर्धारण करने में पुलिस और फौरेन्सिक मनोवैज्ञानिकों को हफ्तों क्या महीनों लग जायेंगे।
 
अपराध शास्त्र खास तौर पर अपराध मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ का कहना है कि यह एक ऐसा सामान्य रोग है जिसका न तो विश्वसनीयता के साथ यांत्रिक परीक्षण संभव है और न ही इसका कोई विश्वसनीय कारण ज्ञात हो पाया है। अनुमान के आधार पर माना जाता है कि तनाव या विशाक्ता या अदृश्य संक्रमण या किसी यांत्रिक चोट के कारण नाड़ियों में दर्द हो जाता है जिसका नाम न्यूरोलोजी के विशेषज्ञों के न्यूरेल्जिय रख लिया है। इस रोग में जब किस नाड़ी मे दर्द होता है तो उसके लक्षण थोड़ी देर के लिए चेहरे पर आ जाते हैं। अब आसाराम को ऐसी बीमारी का रोगी बताया जाना पुलिस को मुश्किल मे डालने के लिए है। इस बीमारी का न तो विश्वसनीमय परीक्षण है और न कोई आसानी से प्रमाणित कर सकता है कि रोगी को यह रोग नहीं है।
 
यानि ऊँचे स्तर के आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि मामलों को जटिल बनाने के लिए देश में इतने नुक्ते विद्धमान हैं कि कोई सिद्ध या असिद्ध कर पाये या न कर पाये लेकिन उसे उलझाकर लटका जरुर जा सकता है। इस भूल भूलैया में भटकाव के इन रास्तों को सीधा सरल बनाने का काम भी हमारे सामने है। लेकिन इसके लिए व्यवस्थित सोच, विचार, शोध और दार्शनिक विर्मशों की जरुरत पडे़गी, जिसके लिए शायद हमारे पास वक्त नहीं।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।

Monday, August 19, 2013

संसद में अराजकता का जिम्मेदार कौन

 
देश के प्रतिष्ठित मीडिया हाउस हिन्दू ने पिछले दिनों टी.वी. पर जनहित में एक विज्ञापन प्रसारित किया। जिसमें एक शिक्षिका कक्षा में आकर विद्यर्थियों से कहती है कि आज हम संसद की कार्यवाही का अभिनय करेंगे। कक्षा में बायीं ओर बैठे छात्र सत्ता पक्ष के हंै और दायीं ओर बैठे छात्र विपक्ष के। सत्ता पक्ष में से एक उन्होंने प्रधानमंत्री बनाकर चर्चा शुरू करने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही कक्षा में ज्योमेट्री बाक्स, पानी की बोतलें, कागज की गेंदें, चप्पल, जूते और कुर्सी एक दूसरे पर फेंके जाने लगे। विज्ञापन यहीं समाप्त हो गया, इस संदेश के साथ कि ‘सावधान देश आपको देख रहा है’। दरअसल देश की संसद और विधान सभाओं में यह दृश्य आम हो गया है जब हमारे कानून निर्माता ऐसा ही व्यवहार करते हैं, तो फिर बच्चों ने अभिनय में क्या गलती की?
पिछले दिनों राज्य सभा के सभापति ने उच्च सदन में सांसदों के ऐसे ही व्यवहार से क्षुब्ध होकर कहा कि क्या आप इसे ‘आराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं। इस पर सांसद काफी नाराज हो गये और अध्यक्ष के विरोध में स्वर गूंजने लगे। यहाँ तक कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसद एक सुर में बोल रहे थे। अगले दिन डा. हामिद अंसारी ने सांसदों को इस मुद्दे पर बातचीत करने की इजाजत दी और उनसे प्रश्न किया कि वे बतायें कि बार-बार संसद की कार्यवाही स्थगित क्यों करनी पड़ती है। जिसके बाद बडे शान्त वातावरण में सभी सांसदों में गम्भीर चर्चा की। सांसदों का कहना था कि ऐसी शब्दावली का प्रयोग करके अध्यक्ष ने सांसदों का अपमान किया है। उनके अनुसार अराजकता असमाजिक व्यवहार का परिचायक है। सबकी ओर से संसदीय राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने इस वार्तालाप को संसद की कार्यवाही से अलग करने की प्रार्थना अध्यक्ष महोदय से की।
दूसरी तरफ अध्यक्ष महोदय ने सांसदों को बताया कि कई देशों में ‘फेडरेशन आफ अनार्किस्ट’ बाकायदा औपचारिक संगठन हैं। लेकिन यह सही है कि भारत में इस शब्द का अर्थ असामाजिक व्यवहार ही माना जाता है। इस पूरे घटना क्रम से एक लाभ हुआ। संसद में और विधान सभाओं में बार-बार आने वाले व्यवधानों पर गम्भीर चर्चा शुरू हो गयी। इस चर्चा को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। वैसे तो संसदीय मर्यादा के व्यापक नियम हैं। पर जब हालात इतने बेकाबू हो जाये तो शायद बारीक कानूनों की जरूरत पड़ती है। मसलन संसद की कार्यवाही के दौरान कोई बिना अनुमति के खड़ा नहीं होगा। बोलेगा नहीं। दो सांसद आपस में खुसुर - पुसुर भी नहीं करेंगे। अगर बात करनी होगी तो सदन के बाहर जाकर करेंगे। देखने में यह कानून बड़े बचकाने लगेंगे मानो स्कूल के बच्चों के लिये बनाये जा रहे हों। पर जब हमारे सांसदों का व्यवहार ऐसा हो कि स्कूल के बच्चे उसका उपहास उड़ाये तो फिर वाकई बारीक कानूनों की शरण लेनी पड़ेगी।
जब ऐसी आचार संहिता को बनाने की बात आयेगी तो जाहिरन बहस लम्बी चलेंगी। कानून के बारे में कहा जाता है कि वकील ही उसकी व्याख्या करते हैं। हम जानते हैं कि वकील उसकी व्याख्या से कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं यानी एक ही कानून की व्याख्या कई तरह से हो सकती है। इसलिये संसद की आचार संहिता के प्रावधानों को अगर इतनी बारीकी तक ले जाना होगा तो भाषा के चयन पर भी काफी वक्त लगेगा। क्योंकि फिर जो उपनियम बनेंगे उन पर भी विमर्श का सिलसिला चालू हो जायेगा। इसलिये यह काम बड़ी सावधानी और धीरज के साथ करना होगा।
सोचने वाली बात यह है कि जब हमारे सांसद पढ़े-लिखे और समझदार हैं और व्यक्तिगत जीवन में बड़ी शालीनता से दूसरे दलों के सांसदों से व्यवहार करते हैं तो सत्र के दौरान यह अराजकता क्यों? क्या इसके लिये हमारी जनता भी जिम्मेदार है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनता ही अपने सांसदों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा रखती हो और उनके उत्तेजक भाषणों पर वैसे ही ताली बजाती हो जैसे सलीम जावेद के लिखे डायलाग सुनकर बजाती है। फिर तो इस आचरण के लिये जनता को ही जिम्मेदार ठहराना होगा। अगर वो ऐसा आचरण करने वाले सांसद के व्यवहार से खुश नहीं है तो उसे बार-बार चुनकर संसद में क्यों भेजती है? उसका परित्याग क्यों नहीं करती? फिर तो यह माना जायेगा कि सांसद वही करते हैं जो उनके मतदाता उनके अपेक्षा करते हैं। इसलिये यह गम्भीर प्रश्न है, जिस पर लम्बी और गहरी चर्चा होनी चाहिये। हम अपने कानून के मन्दिरों को इस तरह निरर्थक बयान बाजी की भेंट चढ़ाकर देश की जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

चिन्ता की बात यह है कि भारत ही नहीं अब और भी देशों में सांसदों का ऐसा व्यवहार दिखाई देने लगा है। क्या यह माना जाये कि यह छूत की बीमारी उन्हें भारत से लगी है या यह माना जाये कि दुनिया के लोकतंत्रों में अब बातचीत नहीं शोर-शराबा और हंगामा ही लोगों का भविष्य निर्धारित करेगा। अगर ऐसा है तो यह सबके लिये चिन्ता का विषय होना चाहिये।

Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।

Monday, August 5, 2013

छोटे राज्यों की कवायद

दशकों से उठ रही तेलांगना की मांग आखिर सरकार ने मान ली। पर इसके साथ ही एक नया हंगामा देश भर में खड़ा हो गया है। गोरखालैण्ड, हरितप्रदेश, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड, विदर्भ जैसे तमाम छोटे राज्यों की मांग अब जोर पकड़ने लगी है। छोटे राज्यों के पक्ष और विपक्ष दोनों में काफी तर्क हैं। छोटा राज्य प्रशासनिक दृष्टि से संभालना आसान होता है। अब उत्तर-प्रदेश को लें तो गाजियाबाद में रहने वाले को आजमगढ़ के रहने वाले से क्या व्यवहार हो सकता है। राज्य की कल्पना, भाषा और संस्कृति की समरूपता के आधार पर होती है तो उसकी एक पहचान बनती है। गुजरात को महाराष्ट्र से और आंध्रप्रदेश को तमिलनाडु से अलग करने का ऐसा ही आधार था।
दरअसल छोटे राज्यों में योजनाओं को जनआधारित बनाना सरल होता है। जनता की शासन तक पहुँच और पकड़ भी ज्यादा प्रभावी होती है। क्षेत्रवाद और जातिवाद के चलते होने वाली विषमतायें कम होने की संभावना रहती है। पर सवाल है कि क्या केवल छोटे राज्य की इच्छा मात्र कर लेने से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य उतना बड़ा बने जितना उसकी आर्थिक सामथ्र्य हो। अगर कोई राज्य अपने आर्थिक संसाधनों पर निर्भर रहकर जी सकता है और आगे बढ़ सकता है तो उसे बनाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये। पर अगर राज्य का निर्माण तो हो जाये लेकिन उसके प्रशासनिक और विकासात्मक खर्चों की कोई व्यवस्था न हो। इन खर्चों के लिये उस राज्य को केन्द्र पर निर्भर रहना पड़े तो यह कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं होगा। एक राज्य का निर्माण मतलब उस क्षेत्र पर अचानक भारी प्रशासनिक खर्चों का दबाव। राज्य बनेगा तो राजधानी बनेगी। जिसमें सचिवालय, विधान सभा, उच्चन्यायालय और तमाम प्रशासनिक भवन बनाये जायेंगे। जिसमें लाखों करोड़ रुपया खर्चा आयेगा। अगर वह क्षेत्र पहले से ही आर्थिक रूप से अविकसित है तो इस अनावश्यक बोझ से उसके भावी विकास की संभवना भी धूमिल पड़ जायेगी।

जहाँ तक बात है कि छोटे राज्यों से विकास ज्यादा अच्छा होता है। तो यह कोई शाश्वत सत्य नहीं। खनिज सम्पदा से भरपूर झारखण्ड राज्य भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो रहा है। वहाँ जितनी भी सरकारें बनी सब पर खनिज सम्पदा की भारी लूट के आरोप लगे हैं। अब अगर राज्य के संसाधनों की ऐसी खुली लूट होनी है तो बिहार के साथ जब झारखण्ड था तब क्या बुरा था? इसलिये यह तर्क दिया जाता है कि अगर राज्य की सरकार और उसकी नौकरशाही ईमानदार है, जनोन्मुख नीतियाँ बनाती है और नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्ठा से करती है तो बड़ा राज्य भी अपने सभी क्षेत्रों का ध्यान रख सकता है। किन्तु छोटा राज्य बने पर उसकी भ्रष्ट सरकार और भ्रष्ट नौकरशाही हो तो ऐसे छोटे राज्य का क्या लाभ?
दरअसल हमारे देश में जो भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर जगह-जगह असन्तोष और जनआन्दोलन खड़े हो रहे हैं, इनके मूल में है हमारे विकास का मॉडल। हम योजनायें तो बहुत बनाते हैं। लोगों को सपने भी बहुत दिखाते हैं। सफल लोकतंत्र होने का दावा भी करते हैं। हमारे चुनावों में केन्द्र और प्रान्त की सरकारें बिना खूनी क्रान्ति के बदल जाती हैं। पर लोगों की हालत नहीं बदलती। सरकार किसी भी बदल की आ जाये नौकरशाही उस पर हावी रहती है। योजनायें जनता को सुख पहुँचाने के लिये नहीं बल्कि कमीशन का प्रतिशत बढ़ाने के लिये बनायी जाती है। इसलिये कुछ नहीं बदलता! लोगों में असन्तोष बढ़ता है तो स्थानीय नेता उनका नेतृत्व पकड़ लेते हैं। फिर उन्हें राहत दिलाने के नाम पर सपनों के सब्जबाग दिखाते हैं। जनता बहकावे में आकर उनके पीछे चल पड़ती है। इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ तो राहत मिले। पर जब इन नेताओं को परखने का समय आता है तो पता चलता है कि नई बोतल में पुरानी शराब ही थी। फिर निराशा हाथ लगती है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि छोटे राज्यों की मांग पर अपनी ऊर्जा खर्च करने की बजाय देश के जागरूक नागरिक व्यवस्था पारदर्शी और जिम्मेदार बनाने की कोशिश करें। पिछले वर्ष टीम अन्ना ने एक कोशिश की थी पर वह अपने उद्देश्य से भटक गई। जबकि ऐसे आन्दोलन को देश भर में लगातार चलाकर दबाव बनाने की जरूरत है।
 
कोई कानून या कोई नई सरकार ऐसा जादू नहीं कर सकती जो मौजूदा व्यवस्था में सम्भव न हो। इसलिये मौजूद निजाम को ही ठीक ढ़र्रे पर लाने की जरूरत है। होता यह है कि हर आन्दोलन अच्छे मकसद से शुरू होता है। पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें और अहम् के टकराव उसे दिशा विहीन कर देते हैं। हर बार आम जनता छली जाती है। इसलिये आसानी से वह किसी आन्दोलन के उद्देश्यों पर यकीन नहीं करती। इस विषम चक्र को भी तोड़ने की जरूरत है। कुछ लोग तो ऐसे हों जो अपने उसूलों पर चलते हुये लगातार जनता को आगाह और जागरूक करते रहें।

Monday, July 29, 2013

देश में क्यों हो रही हैं इधर-उधर की बातें ?

टी.वी. चैनल हों या राजनैतिक बयानबाजी ऐसा लगता है कि देश में मुद्दों का अभाव हो गया है। जिधर देखो उधर इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। दर्शक, श्रोता और पाठक हैरान हैं कि इन बातों से उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का क्या ताल्लुक ? ये किसकी बातें हो रही हैं ? किसके लिये हो रही हैं ? इनसे किसे लाभ हो रहा है? अगर आम जनता को नही तो ये बातें क्यों हो रही हैं ? या तो इन मुद्दों का चयन असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये किया जा रहा है या मुद्दों का चयन करने वालों को सूझ ही नहीं रहा कि किन मुद्दों का उठायें।

गरीब आदमी का खाना 5 रुपये में होता है, 12 रुपये में या 20 रुपये में। जब देश के अर्थशास्त्रियों ने अपने सर्वेक्षणों और अध्ययनों से बार-बार यह सिद्ध कर दिया है कि देश के 70 प्रतिशत आदमी की रोजाना आमनदनी औसतन 20 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है। तो सोचने वाली बात यह है कि वो एक बार में कितना रुपया अपने भोजन पर खर्च करने की हालत में होगा। जो लोग दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता के बाजारों में जाकर खाने की थाली के दाम पूछकर इन बयानों का मजाक उड़ा रहे हैं, लगता है उन्होंने देश के देहाती इलाकों में जाकर असली आम आदमी की हालत का जायजा ही नहीं लिया। अगर लिया होता तो वे ये समझ पाते कि देश का 70 प्रतिशत गरीब आदमी एक वक्त में 5 रु. - 7 रु. से ज्यादा अपने भोजन पर खर्च नहीं कर पाता।

इसी तरह यह देखकर सिर धुनने को मन करता है कि चुनाव का अभी कोई अता-पता नहीं, पर चुनावी परिणामों पर बहसें चालू हो चुकी हैं। चुनाव छः महिने में होंगे या साल भर में इसकी कोई गारण्टी नहीं। राजनैतिक दलों ने न तो अपने घोषणा पत्र जारी किये हैं, न ही उम्मीदवारों की सूची। न देश में कोई हवा बनी है और न ही आम जनता को अभी से चुनाव के बारे में सोचने की फुरसत है। ऐसे में बहसें की जा रही हैं कि सरकार किसकी बनेगी। इससे ज्यादा बे-सिर पैर का मुद्दा बहस के लिये क्या हो सकता है ? ऐसे विषयों का चुनाव करने वालों को तो छोड़ें, पर इन विशेषज्ञों को क्या हो गया जो आकर इन मुद्दों पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करा रहे हैं? ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’।

लगे हाथ अब बटला हाउस काण्ड को भी परख लें। जब सब कुछ तय हो चुका था। केवल अदालत का फैसला आना बाकी था। तो फिर इस काण्ड की शुरू से आखिर तक की कहानी दोहराने से क्या मकसद हासिल हो रहा था। पर ये कहानी दोहराई गई। एक-दो बार नहीं बल्कि बीसियों बार। जबकि अदालत का फैसला वही आया जो पुलिस के रिकॉर्ड में तथ्य दर्ज किये गये थे। फिर इस कहानी को बार-बार पेश करके क्या बताने की कोशिश की गई? अगर चर्चा ही करनी थी तो इस काण्ड के आरोपियों को मिलने वाली सजा और उसके कानूनी पेचों पर चर्चा की जा सकती थी। जैसी पिछले दिनों कसाब और अफजल गुरू की फांसी के दौरान चर्चायें की गईं। उससे इस तरह के अपराधों के कानूनी, सामाजिक और नैतिक पक्ष को समझने में दर्शकों और पाठकों को मदद मिलती।

पिछले दिनों बिहार में ‘मिड-डे मील’ में 23 बच्चों की मौत को लेकर एक बड़ा मुद्दा बना। बनना भी चाहिये था, आखिर गरीब के बच्चे जहरीला खाना खाने के लिये तो स्कूल भेजे नहीं जाते। अगर बिहार सरकार ने लापरवाही की तो उसे मीडिया में उछालना बिल्कुल वाज़िब बात थी। पर बात बिहार तक ही सीमित नहीं है। जब हमारा संवाददाता कैमरा या कलम लेकर देश के अलग-अलग प्रान्तों में मिड-डे मील कार्यक्रम की पड़ताल करने निकलता है, तो वह पाता है कि कमोबेश यही हाल पूरे देश के हर प्रान्त के मिड-डे मील का है। यानी बिहार को अकेला कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। जैसे ही इस बात का अंदाजा लगा, यह गम्भीर मुद्दा बहसों से गायब हो गया, क्यों? क्या इस मुद्दे पर बाकी प्रदेशों में गहरी पड़ताल कर शोर मचाने की जरूरत नहीं है?

बीच-बीच में कुछ मुद्दे बाढ़, भू-स्खलन व जमीन ध्ंसने जैसी प्रकृतिक आपदाओं के आते ही रहते हैं। उत्तराखण्ड की विपदा सामान्य आपदा से ज्यादा प्रलय जैसी घटना थी। इसलिये मीडिया को सक्रिय भी होना पड़ा और महीने भर तक उसका कवरेज भी करना पड़ा। क्योंकि इस प्रलय से देश के हर हिस्से का परिवार जुड़ा था और यह विजुअल्स की दृष्टि से दिल दहलाने वाला कवरेज था। जब यह मुद्दा उठा तो जाहिर है कि आपदा प्रबन्धन, प्रशासनिक अकुशलता व विनाशोन्मुख विकास के माॅडल पर चर्चा की जाती। की भी गई। पर इतनी बड़ी आपदा के बाद भी इस गम्भीर सवाल को हमारा मीडिया लम्बे समय तक टिकाये नहीं रख सका। इतना कि देश में इस पूरे प्रबंधन हीनता के खिलाफ एक माहौल बनता और देश भर से दबाव समूह सक्रिय होते, तो बदलाव की दिशा भी दिखने लगती। लगता है नये-नये मुद्दे तलाशने की हुलहुलाहट में हमने एक बड़ा मौका खो दिया।

Monday, July 22, 2013

नरेन्द्र मोदी के बयानों से क्यों भड़कती है कांग्रेस ?

हैदराबाद के लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम की क्षमता 50,000 है और नरेन्द्र मोदी की आगामी जनसभा के लिए इतने ही युवाओं ने उनका संभाषण सुनने के लिए 5 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से टिकट खरीद लिये हैं। अब इस पर कांग्रेस प्रवक्ता टिप्पणी कर रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की कीमत बॉलीवुड सिनेमा की टिकटों के  मुकाबले कुछ भी नहीं है। जबकि ये टिकटें 300 रूपये से ज्यादा की बिकती हैं। कितनी हास्यादपद बात है। कद्दू का मुकाबला सेब से किया जा रहा है। उस दौर में जब हर राजनैतिक दल को  भीड़ जुटाने के लिए लोगों को 300 रूपये रोज, आने -जाने का किराया, बढ़िया भोजन और शराब भी देनी पड़ती हो, अगर हैदराबाद का पढ़ा- लिखा नौजवान नरेन्द्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 5 रूपये भी देने को तैयार हैं, तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए, कि नरेन्द्र मोदी राजनीति की संस्कृति बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

ऐसा ही नरेन्द्र मोदी के हर बयान पर हो रहा है। फिर वो चाहे कार के नीचे पिल्ले वाला बयान हो या धर्मनिरपेक्षता के बुर्के वाला। ऐसा लगता है कि कांग्रेंस नरेन्द्र मोदी के जाल में उलझती जा रही है। ऐजेन्डा मोदी तय कर रहे हैं, कांग्रेस लकीर पीट रही है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं कि जो मन में आये अनर्गल प्रलाप करें। वे हर शब्द चुनकर तय करते हैं और एक तीर से कई निशाने साधते हैं। इन बयानों से जहां उन्होंने अपने समर्पित वोट बैंक को अपनी आगामी रणनीति का संकेत दिया है, वहीं विरोधियों को भी कूटनीतिक भाषा में चेतावनी दे डाली। बस कांग्रेस उलझ गई और लगी मोदी पर ताबडतोड़ हमला करने। राजनीति का एक सामान्य सिद्धान्त है कि आप जितना विवादों में रहेंगे, उतनी आपकी चर्चा होगी और आपका जनाधार बढ़ेगा। गुजरात के पिछले हर चुनाव में कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी पर हर तरह का हमला करके देख लिया। पर विजय हर बार मोदी के हाथ लगी। इसलिए आज तक तो मोदी अपनी इस रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं।

कांग्रेस को चाहिए कि वह मोदी के बयानों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अपनी उपलब्धियों का प्रचार करे। अगर उसकी उपलब्धियां ठोस हैं और जमीनी हकीकत बदलने में कामयाब रही है तो कोई बयानबाजी उसका जनाधार डिगा नहीं पायेंगी। किन्तु अगर नरेगा से लेकर खा़द्य सुरक्षा बिल तक हर योजना कागजों तक सीमित है तो दावे और विज्ञापन जनमानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे। यह सही है कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष हमेशा फायदे में रहता है क्योंकि सरकार की कमियों पर हमला करना आसान होता है। सरकार जो कुछ भी करे वह जनआकांक्षाओं पर कभी पूरा नहीं उतरता। पर इसके अपवाद वह राज्य सरकारें हैं जो लगातार चुनाव जीतकर सत्ता में आतीं हैं। इसलिए केन्द्रीय सत्ता में शामिल दलों को अपनी दामन में झाँककर देखना चाहिए।

कांग्रेस की एक और दिक्कत है। उसमें कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं की पूछ नहीं होती। ये लोग दशकों तक मेहनत करें पर कभी भी आलाकमान की निगाहों में नहीं चढ़ पाते। बड़े नेताओं के बेटे-बेटी, भाई-भतीजे और बहू-दामाद ही चुनावों में टिकट झपट लेते हैं। ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय है और नाराज है। जिसका आक्रोश चुनावों में फूटता है। जो स्थानीय स्तर पर दूसरे दलों के उम्मीदवारों से समझौते कर अपने दल के उम्मीदवारों को हरवा देता है। जबकि दूसरी तरफ पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के चुनावी कमान संभालते ही जो भाजपा में माहौल बना उससे लगा कि बारात सजने से पहले ही बिखर जायेगी। पर जिस कुशलता से नरेन्द्र मोदी ने 65 नेताओं की टीम को एकजुट कर  अपनी सेना तैयार की है उससे तो लगता है कि यह चुनौती भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी।

नरेन्द्र मोदी के बयानों पर भड़कने का कांग्रेस का एक और भी स्वभाविक कारण है। कांग्रेस के पास नरेन्द्र मोदी की कद काठी  और तेवर का कोई नेता नहीं है या उसे उभरने नहीं दिया गया। मजबूरन कांग्रेस के युवा नेताओं को नरेन्द्र मोदी के हर बयान का जवाब बढ़ चढ़कर देना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि उनकी शब्दावली में कहीं ये ‘‘फेंकू‘‘  नेता अपने बयानों से बाजी न मार ले जाए। इसलिए वे हाथों-हाथ जवाब देते हैं। पर इससे संदेश यही जा रहा है कि कांग्रेस मोदी के लगातार हो रहे हमलों से हड़बड़ाई हुई है। उसे डर है कि कहीं मोदी की रणनीति गुजरात की तरह देश में भी काम न कर जाये।

चुनाव जब भी हो और परिणाम जो भी हो आज दिन तो ऐसा लगता है कि मोदी ने चुनाव का ऐजेन्डा सेट करने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। पर यह तेवर, नए-नए मुद्दे और आक्रामक शैली क्या मोदी चुनावों तक अपना पायेंगे ? अगर नहीं, तो परिणाम इण्डिया शाइनिंग की तरह हो सकते हैं। अगर अपना ले गए तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह इतिहास रच जायेंगे। क्योंकि तब मतदाता दलों और उनके नेताओं के इतिहास को भूलकर देश में एक सशक्त नेतृत्व की आकांक्षा से वोट करेगा। क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।

Monday, July 15, 2013

राजनीति के लिए देश की सुरक्षा से खिलवाड़ क्यों ?

पिछले कुछ दिनों से देश में सम्भावित लोकसभा चुनावों की तैयारी का माहौल बनने लगा है। जब से भाजपा के गोवा अधिवेशन में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा ने इस चुनाव की बागडोर थमायी हैं तब से भाजपा के अन्दर और बाहर भारी उथल-पुथल का माहौल है। इसके साथ ही देश में एक बार फिर राजनैतिक धुव्रीकरण होने लगा है। एक तरफ कांग्रेस व उसके सहयोगी दल हैं जो धर्मनिरपेक्षता के झंडे तले लामबंद हो रहे है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने अमित शाह को उ.प्र. का प्रभारी बनाकर हिन्दु धुव्रीकरण का आगाज किया है। इसी माहौल में केन्द्र में सत्तारूढ़ दल नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध माहौल बनाने में जुट गया है। उधर सीबीआई ने भी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ पुराने मामले निकालकर हमला शुरू कर दिया है। इस सब के बीच इशरत जंहा का मामला तेजी से उछला है। सीबीआई का कहना है कि इशरत जंहा को गुजरात पुलिस ने एक फर्जी मुठभेड में मारा। जिसमें आईबी के विशेष निदेशक रहे राजेन्द्र कुमार की भूमिका को लेकर सीबीआई उनको आरोपित करने की तैयारी कर रही है। अन्दाजा है कि श्री कुमार जब 25 जुलाई को सेवा निवृत्त होंगे तो उन्हें सीबीआई गिरफ्तार कर लेगी। उन पर आरोप है कि उन्होंने इशरत जंहा व उसके साथियों के लश्कर-ए-तायबा के साथ संबन्धों की जानकारी गुजरात पुलिस को दी और इन तथाकथित आतंकवादियों की फर्जी मुठभेड में भूमिका निभायी।

सीबीआई का यह कदम पूरे देश में बहस का विषय बना हुआ है। सभी निष्पक्ष और समझदार लोगों का मानना है कि सीबीआई के इस कदम की कड़ी भत्र्सना की जानी चाहिए। ऐसा करके सीबीआई और सत्तारुढ़ दल आईबी संस्था का कभी न भरा जाने वाला नुकसान कर रहे हैं। राजेन्द्र कुमार ने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था। आईबी के अधिकारी स्थानीय पुलिस को निर्देश नहीं देते पर जनहित में उनसे सूचनाएं जरुर साझा करते हैं। उल्लेखनीय है कि 2004 में इशरत जहां की मौत पर लश्कर-ए-तायबा ने अपने अखबार ‘गाजवा टाइम्स‘ में इशरत जंहा के प्रति श्रद्धांजली का संदेश प्रसारित किया था और उसे शहीद घोषित किया था। उधर डेविड हेडली ने अमरीकी अधिकारियों को बताया था कि लश्कर-ए-तायबा के अध्यक्ष मुज्जमिल ने 26/11 के आतंकी हमले के आॅपरेशन कमांडर जाकिर-उर-रहमान को बताया था कि इशरत उनकी ऐजेन्ट थी। अब यह ऐसे तथ्य हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इनसे इशरत जंहा के आतंकवादी होने का भी प्रमाण मिलता है। पर आश्चर्य की बात है कि ये तथ्य उन सभी लोगों द्वारा बड़ी आसानी से अनदेखा किए जा रहे हैं जो इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का राजनैतिक लाभ उठाना चाहते हैं। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इन तथ्यों पर मीडिया का भी ध्यान नहीं जा रहा। सीबीआई के इस एक कदम से पूरी आईबी की टीम हतोत्साहित होगी। क्योंकि भविष्य में देशभर में तैनात आईबी अधिकारी कोई भी ऐसी संवेदनशील सूचना स्थानीय पुलिस से साझा करने में हिचकेंगे क्योंकि उन्हें राजेन्द्र कुमार की हो रही दुर्गति का नजारा याद आ जायेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि आईबी खुफिया रहकर सूचनाएं एकत्र करती है। उसके पास कोई पुलिसिया अधिकार तो होते नहीं। अगर वह अपनी सूचनाएं केवल केन्द्र को भेजें और स्थानीय पुलिस से साझा न करे तो हो सकता है कि स्थानीय स्तर पर स्थिति बिगड़ जाये। क्योंकि जब तक सूचना केन्द्र को मिलेगी और केन्द्रीय गृह मंत्रालय उसे सम्बन्धित राज्य सरकार तक भेजेगा, तब तक काफी समय निकल सकता है। ऐसे में आतंकवादी तो आराम से अपना काम करके निकल जायेंगे पर सरकार हरकत में भी नहीं आ पायेगी। जबकि स्थानीय पुलिस से संवेदनशील सूचनाएं साझा करके आईबी अधिकारी प्रान्तीय सरकार को त्वरित कार्यवाही करने का अवसर देते हैं। अब अगर इस ‘अपराध‘ के लिए गुजरात में आईबी के विशेष निदेशक रहे राजेन्द्र कुमार को जेल भेजा जाता है तो फिर आईबी का कोई अधिकारी भविष्य में ऐसा क्यों करेगा ? परिणाम यह होगा कि आतंकवादी भारत में अपने कारनामों को खुलेआम अंजाम देकर फरार हो जायेंगे और केन्द्र और प्रान्तीय सरकारें लकीर ही पीटती रह जायेंगी। इसलिए यह बहुत खतरनाक खेल खेला जा रहा है। आईबी के मौजूदा निदेशक आसिफ इब्राहिम ने प्रधानमंत्री से मिलकर अपना विरोध दर्ज कराया है और सीबीआई को इस मामले में संयम बरतने का निर्देश देने को कहा है। प्रधानमंत्री शायद यह कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं कि इशरत जंहा का मामला न्यायालय के विचाराधीन है इसलिए सरकार दखल नहीं दे पायेगी।

उधर सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा आईबी के विशेष निदेशक राजेन्द्र कुमार के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल करने पर आमदा हैं। शायद वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि सीबीआई पिंजड़े में कैद तोता नहीं है और अपराध के मामले में किसी को भी बख्शती नहीं है। तो मैं उन्हें याद दिलाना चाहता हूँ कि जैन हवाला कांड में अपराधियों को बचाकर निकलने की आपराधिक साजिश करने वाले सीबीआई के तमाम वरिष्ठ अधिकारियों को आज तक सजा नहीं दी गयी है। सर्वोच्च न्यायालय में ‘विनीत नारायण केस‘ में उनके विरुद्ध प्रमाण सहित मेरे कई शपथपत्र जमा हैं। श्री सिन्हा को चाहिए कि वे पहले अपने विभाग के ऐसे अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करें। वे तर्क दे सकते हैं कि यह मामला तो काफी पुराना पड गया। पर यह तर्क स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आपराधिक मामलों में कोई भी केस कभी भी खत्म नहीं होता। नए तथ्य सामने आते ही उसे कभी भी खोला जा सकता है। हवाला मामले में जिन तथ्यों को मैंने सर्वोच्च अदालत में अपने शपथ पत्रों के माध्यम से दाखिल किया था उन पर सीबीआई ने बड़ी आसानी से चुप्पी साध ली। वह भी आतंकवाद से जुडा एक बडा मामला था। सीबीआई की इस बेईमानी का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिद्दीन को हवाला के जरिये दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का 20 वर्ष पहले पर्दाफाश करने के बावजूद मैं अपराधियों को सजा नहीं दिलवा सका और देश में आतंकवाद और हवाला कारोबार बढ़ता चला गया। इसलिए सीबीआई को दूसरों पर उंगली उठाने से पहले अपने दामन के दाग देखने चाहिए।    

हमें भारत सरकार से अपील करनी चाहिए कि वह राजेन्द्र कुमार के मामले में दखल देकर उनकी प्रताड़ना पर फौरन रोक लगाये। समय आ गया है कि आईबी की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की जाये और उसके काम के नियम तय किये जाये जिससे भविष्य में ऐसी दुःखद परिस्थिति पैदा न हो। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आपसी राजनैतिक लड़ाई में आगे बढ़ने के लिए देश की सुरक्षा से खिलवाड़ ना किया जाये। 

Monday, July 8, 2013

उत्तराखंड का सबक: मीडिया अपना रवैया बदले

उत्तराखंड की तबाही और मानवीय त्रासदी पर देश के मीडिया ने बहुत शानदार रिर्पोटिंग की है। दुर्गम स्थितिओं में जाकर पड़ताल करना और दिल दहलाने वाली रिर्पोट निकालकर लाना कोई आसान काम नहीं था। जिसे टीवी और प्रिंट मीडिया के युवा कैमरामैनों व संवादाताओं ने पूरी निष्ठा से किया। जैसा कि ऐसी हर दुर्घटना के बाद होता है, अब उत्तराखंड से ध्यान धीरे-धीरे हटकर दूसरे मुद्दों पर जाने लगा है। जो एक स्वभाविक प्रक्रिया है। पर यहीं जरा ठहरकर सोचने की जरुरत है। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर टीवी मीडिया में, ऐसा कवरेज हो रहा है जिससे सनसनी तो फैलती है, उत्तेजना भी बढ़ती है, पर दर्शक कुछ सोचने को मजबूर नहीं होता। बहुत कम चैनल हैं जो मुद्दों की गहराई तक जाकर सोचने पर मजबूर करते हैं। इस मामले में आदर्श टीवी पत्रकारिता के मानदंडों पर बीबीसी जैसा चैनल काफी हद तक खरा उतरता है। जिन विषयों को वह उठाता है, जिस गहराई से उसके संवाददाता दुनिया के कोने-कोने में जाकर गहरी पड़ताल करते हैं, जिस संयत भाषा और भंगिमा का वे प्रयोग करते हैं, उसे देखकर हर दर्शक सोचने पर मजबूर होता है।
 
जबकि हमारे यहां अनेक संवाददाता और एंकरपर्सन खबरों पर ऐसे उछलते हैं मानो समुद्र में से पहली बार मोती निकाल कर लाये हैं। इस हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं दूसरा यश न ले ले। फिर भी वही सूचना और वाक्य कई-कई बार दोहराते हैं। इस हद तक कि बोरियत होने लगे। अनेक समाचार चैनल तो ऐसे हैं जिनकी खबरें सुनकर लगता हैं कि धरती फटने वाली हैं और दुनियां उसमें समाने वाली है। जबकि खबर ऐसी होती है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। इस देश में खबरों का टोटा नहीं है। पहले कहा जाता था कि अगर कहीं खबरें न मिले तो बिहार चले जाओ, खबरें ही खबरें मिलेंगी। अब तो पूरे देश की यह हालत है। हर जगह खबरों का अम्बार लगा है। उन्हें पकड़ने वाली निगाहें चाहिए।
 
हत्या, बलात्कार, चोरी और फसाद की खबरें तो थोक में मिलती भी हैं और छपती भी हैं। पर विकास के नाम पर देश में चल रहे विनाश के तांडव पर बहुत खबरें देखने को नहीं मिलती। फ्लाईओवर टूटकर गिर गया, तब तो हर चैनल कवरेज को भागेगा ही, पर कितने चैनल और अखबार हैं जो देश में बन रहे फ्लाईओवरों के निर्माण में बरती जा रही कोताही और बेईमानी को समय रहते उजागर करते हैं ? ऐसी कितनी खबरें टीवी चैनलों पर या अखबारों में आती हैं जिन्हें देख या पढ़कर ऐसे निर्माण अधर में रोक देना सरकार की मजबूरी बन जाये। सांप निकलने के बाद लकीर पर लठ्ठ बजाने से क्या लाभ ?
 
आज देश में विकास की जितनी योजनाएं सरकारी अफसर बनवाते हैं, उनमें से ज्यादातर गैर जरूरी, फिजूल खर्चे वाली, जनविरोधी और पर्यावरण के विपरीत होती है। जिससे देश के हर हिस्से में रात- दिन उत्तराखंड जैसा विनाशोन्मुख ‘विकास‘ हो रहा है। इन योजनाओं को बनाने वालों का एक ही मकसद होता है, कमीशनखोरी और घूसखोरी। इसलिए ऐसे कन्सलटेन्ट रखे जाते है जो अपनी प्रस्तावित फीस का 80 फीसदी तक काम देने वाले अफसर या नेता को घूस में दे देते हैं। बचे बीस फीसदी में वे अपने खर्चे निकालकर मुनाफा कमाते हैं, इसलिए काम देने वाले कि मर्जी से उटपटांग योजनाएं बनाकर दे देते हैं। इस तरह देश की गरीब जनता का अरबों-खरबों रुपया निरर्थक योजनाओं पर बर्बाद कर दिया जाता है। जिसका कोई लाभ जनता को नहीं मिलता। हां नेता, अफसर और ठेकेदारों के महल जरूर खड़े हो जाते हैं। देश में दर्जनों समाचार चैनल और सैकड़ों अखबार हैं। उनकी युवा टीमों को सतर्क रहकर ऐसी परियोजनाओं की असलियत समय रहते उजागर करनी चाहिए। पर यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि ऐसे मुद्दें आज के युवा संवाददाताओं को ग्लैमरस नहीं लगते। वे चटपटी, सनसनीखेज खबरों और विवादास्पद बयानों पर आधारित खबरें ही करना चाहते हैं। कहते है इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है। उन्हें लगता है कि जनता विकास और पर्यावरण के विषयों में रुचि नहीं लेगी।
 
जबकि हकीकत कुछ और है। अगर उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी पर पूरा देश सांस थामें पन्द्रह दिन तक टीवी के परदे के आगे बैठा रहता है, तो जरा सोचिए कि ऐसी त्रासदियों की याद दिलाकर देश की जनता और हुक्मरानों को उनकी विनाशकारी नीतियों और परियोजनाओं के विपरीत चेतावनी क्यों नहीं दी जा सकती ? जनता का ध्यान उनसे होने वाले नुकसान की तरफ क्यों नही आकृष्ट किया जा सकता ? जब जनता को ऐसी खबरें देखने को  मिलेंगी तो उसके मन में आक्रोश भी पैदा होगा और सही समाधान ढूंढने की ललक भी पैदा होगी। आज हम टीवी बहसों में या अखबार की खबरों में भ्रष्टाचार के आरोप-प्रत्यारोपों वाली बहसें तो खूब दिखाते हैं पर किसी परियोजना के नफे -नुकसान को उजागर करने वाले विषय छूते तक नहीं। पौराणिक कहावत है- कुछ लोग दूसरों की गलती देखकर सीख लेते हैं। कुछ लोग गलती करके सीखते हैं और कुछ गलती करके भी नहीं सीखते। मीडिया को हर क्षण ऐसा काम करना चाहिए कि लोग त्रासदियों के दौर में ही संवेदनशील न बनें बल्कि हर क्षण अपने परिवेश और पर्यावरण के विरुद्ध होने वाले किसी भी काम को, किसी भी हालत में होने न दें। तभी मीडिया लोकतंत्र का चैथा खम्बा कहलाने का हकदार बनेगा और तभी उत्तराखंड जैसी त्रासदियों को समय रहते टाला जा सकेगा। 

Monday, July 1, 2013

प्राकृतिक आपदा के बहाने क्या-क्या ?

उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका की खबरें आना जारी हैं। इस आपदा की तीव्रता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2 हफ्ते बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि विभीषिका में कितनी जानें गयी। लेकिन हद की बात यह है कि उत्तराखंड की इस आपदा को लेकर कुछ लोग राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
 
राजनीति के अलावा मीडिया का रुख और रवैया दूसरा पहलू है। तबाही के तीन दिन बाद से यानि 10 दिन से मीडिया भी उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की करुण व्यथा के चित्र दिखा रहा है। इन वीभत्स और भयानक दृश्यों के जरिये कुल मिलाकर एक ही बात बतायी जाती है कि इस आपदा की विभीषिका के असर को कम करने में प्रशासन नाकाम रहा। शुरु में जिला स्तर के प्रशासन की लाचारी की बातें उठीं और बाद में प्रदेश स्तर पर शासन और प्रशासन की बेबसी की बातें होने लगीं। आज यानि 2 हफ्ते बाद भी उत्तराखंड में राजनीतिक विपक्ष और मीडिया सरकार को कटघरे में खडा कर रहा है। वैसे इस आपदा के विश्वसनीय आंकडे अभी तक किसी के पास नहीं है। सरकारी स्तर पर यानि दस्तावेजों की जानकारी के मुताबिक अब तक 1 हजार लोगों के मारे जाने का अनुमान है। उधर विपक्ष और मीडिया इससे 10 गुना ज्यादा लोगों की मौत का अंदाजा बता रहा है। इसके साथ ही 3 से 7 हजार लोगो की लापता होने की भी जानकारियां दी जा रहीं हैं। इस आपदा को लेकर टीवी चैनलों और अखबारों में खूब बहस और नोंक-झोंक हो रहीं हैं। क्या हमें इन बहसों के मकसद पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए ? इस आपदा के बारे में सोचें तो तीन बातें सामने आतीं हैं। पहली ये कि हम इस प्रकृतिक आपदा से कुछ सबक ले सकें और भविष्य में आपदा से बचने के लिए कोई विश्वसनीय व्यवस्था कर सकें। यानि ऐसा कुछ कर पायें जो आपदा प्रबंधन व्यवस्था को सुनिश्चित कर सके। दूसरी बात यह है कि प्रशासन को कटघरे में लाकर उसे जबाबदेह बनाने का इंतजाम कर सकें। और तीसरी बात यह है कि शासन को घेरकर जनता को यह बताने की कोशिश करें कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने में आपकी सरकार नाकाम रही। लेकिन यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या विगत में ऐसी आपदाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया था? इस बारे में कहा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन को लेकर पिछले 2 सालों से जिला स्तर तो क्या बल्कि तहसील स्तर पर भी जोर-शोर से कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। लेकिन ये कोशिशें जागरूकता अभियान चलाने के आगे जाती नहीं दिखीं। अब सवाल यह है कि क्या देश के 600 जिलों के लिए हम 2 लाख करोड़ रुपये का अलग से इंतजाम करने की स्थिति में हैं ? उत्तराखंड की इस विभीषिका का पूर्वानुमान करते हुए क्या कोई आपदा प्रबंधन व्यवस्था बनाने में हम आर्थिक रुप से समर्थ हैं ? सवाल यहीं नहीं खत्म होते क्योंकि ऐसी प्राकृतिक आपदा के खतरे के दायरे में उत्तराखंड के अलावा 100 से ज्यादा इलाके आते हैं।
 
जलवायु विशेषज्ञांे को पता होता है कि विलक्षण जलवायु विविधता वाले भारत वर्ष में कैसी संभावनाएं और अंदेशे हैं। उन्हें यह भी पता होता है कि जलवायु संबधी अध्ययनों मे 75 साल के आंकडों के आधार पर ही हमें अपना नियोजन करना चाहिए। लेकिन देश भर में यह स्थिति है कि 25 साल के आंकडों के आधार पर ही नियोजन होने लगा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प के लिहाज से अंदेशों वाले इलाकों में नदियों के किनारे की जमीन पर निर्माण हो रहे हैं। तालाबों को पाटकर वहां बस्तियां बसायी जा रही हैं। यानि बारिश के पानी को वहीं रोककर रखने की पारम्परिक व्यवस्था भी टूट रही है। अगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता तो हमें ऐसी विपत्तियों से कौन बचा सकता है।
 
जब हम प्रकृति के स्वभाव को बदलने का कोई उपाय कर ही नहीं सकते तो हमारे पास एक ही उपाय बचता है कि हम अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का प्रबंध और नियोजन प्रकृति की इच्छा के अनुरुप करना सीखें। हमें फौरन 75 या 100 साल के पिछले आंकडों के हिसाब से नियोजन करना होगा। नदियों के किनारे बनाए गये निर्माणों और वहां बसायी गयी बस्तियों पर फौरन गौर करना होगा। उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा से हमें यह साफ संदेश मिल रहा है, कि हम अपनी छोटी-बडी नदियों के पाटों का पुनःनिर्धारण कर लें। देश में उत्तराखंड की इस आपदा से हमें यह सबक भी मिल रहा है कि वर्षा के जल का स्थानीय तौर पर ही प्रबंधन करना बुद्धिमत्तापूर्ण है। इसके लिए यह सुझाव भी दिया जा सकता है, कि देश में पारम्परिक तौर पर मौजूद 10-12 लाख तालाबों की जलधारण क्षमता की बहाली करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। लगे हाथ यह भी याद दिलाया जा सकता है, कि टिहरी बाध की जलधारण क्षमता के कारण ही उत्तराखंड की विभीषिका के और ज्यादा भयानक हो जाने की स्थिति से हम बच गये हैं। इन सब बातों के मद्देनजर हमें अपनी नीतिओं और नियोजन के तरीके पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।

Monday, June 24, 2013

धर्मस्थलों का व्यवसायीकरण

केदारनाथ से लेकर शेष उतराखंड में भोले नाथ का तांडव और माँ गंगा का रौद्र रूप हम सबके सामने है। जिसने भोगा नहीं उसने टीवी पर देखा या अखबार में पढ़ा। सबके कलेजे दहल गये हैं पर यह क्षणिक चिन्ता है। हफ्ते-दस दिन बाद कोई नई घटना भयानक इस त्रासदी से हमारा ध्यान हटा देगी। फिर पुराना ढर्रा चालू हो जायेगा। इसलिए कुछ खास बातों पर गौर करना जरुरी है।
 
जब से देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आयी है तब से धार्मिक प्रवचनों का भी अंबार लग गया है। हर प्रवचनकर्ता पूरे देश और दुनियां के लोगों को अपने-अपने तीर्थस्थलों पर रात दिन न्यौता देता रहता है। इस तरह अपने अनुयायियों के मन पर एक अप्रत्यक्ष प्रभाव डाल देता है। इसलिए वे पहले के मुकाबले कई सौ गुना ज्यादा संख्या में तीर्थाटन को जाने लगे है। संचार और यातायात के साधनों मे आयी आशातीत प्रगति इन यात्राओं को और भी सुगम बना दिया है। इस तरह एक तरफ तो तीर्थस्थल जाने वालों का हुजूम खड़ा रहता है और दूसरी तरफ सम्बंधित राज्यों की सरकारें इतने बडे हुजूम को संभालने के लिए कोई माकूल व्यवस्था नहीं कर रही है। नतीजतन निजी स्तर पर होटल, टैक्सी, धर्मशाला, व बाजार आदि कुकुरमुत्ते की तरह इन तीर्थस्थलों पर अवैध रुप से बढ़ते जा रहे है। जिससे इन सभी तीर्थस्थलों की व्यवस्था चरमरा गई है। उतराखंड का ताजा उदाहरण उसकी एक  बानगी मात्र है। पिछले वर्षों में हमने बिहार, हिमाचल, राजस्थान और महाराष्ट्र के देवालयों मे मची भगदड मे सैकडों मौतों को इसी तरह देखा है। जब ऐसी दुर्घटना होती है तो दो-तीन दिन तक मीडिया इस पर शोर मचाता है फिर सब अगली दुर्घटना तक के लिए खामोश हो जाता है।
 
जरुरत इस बात की है कि तीर्थस्थलों के सही विकास, प्रबंधन व रखरखाव के लिए एक राष्ट्र नीति घोषित की जाये। इस नीति के तहत ऐसे सभी तीर्थस्थलों के हर पक्ष को एक केन्द्रीयकृत ईकाई अधिकार के साथ मॉनीटर करे और उस राज्य के सम्बंधित अधिकारी इस के अधीन हों। जिससे अनुभव, योग्यता, नेतृत्व की क्षमता और केन्द्र सरकार से सीधा समन्वय होने के कारण यह ईकाई देश के हर तीर्थस्थल के लिए व्यवहारिक और सार्थक नीतियाँ बना सके। जिन्हें शासन से स्वीकृत करा कर समयबद्ध कार्यक्रम के तहत लागू किया जा सके। इसके कई लाभ होंगे एक तो तीर्थस्थलों के विकास के नाम पर जो विनाश हो रहा है वो रुकेगा, दूसरा योजनाबद्ध तरीके से विकास होगाः तीसरा किसी भी संकट की घड़ी में अफरा तफरी नहीं मचेगीः
 
इसके साथ ही आवश्यक है कि हज यात्रा की तरह या कैलाश-मानसरोवर की तरह शेष तीर्थस्थलों में भी यात्रियों के जाने की सीमा को निर्धारित करके चले। देश दुनिया के लोगों देश दुनिया के लोगों से तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए आवेदन लिए जायें। उन्हें एक पारदर्शी प्रक्रिया के तहत शारीरिक क्षमता के अनुसार चुना जाये। फिर उन्हें सम्बंधित यात्राओं के जोखिम के बारे में प्रशिक्षित किया जाये, जिससे वे ऐसी अप्रत्याशित त्रासदी में भी अपनी स्थिति संभालने मे भी सक्षम हों। इसके साथ ही तीर्थस्थलों पर जो अरबों रुपया साल भर में दान में आता है। उसे नियंत्रित कर उस तीर्थ स्थल के विकास की व्यवहारिक योजनाएं तैयार की जायें। जिसमें पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से संवेदनहीनता न हो, जैसा आज तीर्थस्थलों में विकास के नाम पर दिखाई दे रहा है। जिससे इन तीर्थ स्थलों का तेजी से विनाश होता जा रहा है। इस पहल से साधनों की कमी नहीं रहेगी और दानदाताओं को अपने प्रिय धर्मक्षेत्र के सही विकास में योगदान करने का अवसर प्राप्त होगा। वरना यह अपार धन चन्द लोगों की जेबों में चला जाता है। जिसका कोई सद्उपयोग नहीं होता। यहां इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि जिस धर्म क्षेत्र में ऐसा धन एकत्र हो रहा हो उसे उसी धर्मक्षेत्र के विकास पर लगाया जाये। अन्यथा इसका भारी विरोध होगा। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि सरकारी अधिकारी सहयोग करने के लिए तैनात हों, रूकावट ड़ालने के लिए नहीं। योजनाओं के क्रियान्वन मे भी दानदाताओं के प्रतिनिधिओं का का भी नियंत्रण रहना चाहिए।
 
उतराखंड की त्रासदी पर आसूं बहाना और वहां की पिछली हर सरकार को कोसना बडी स्वाभाविक सी बात है। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस की इन सरकारों ने ही उतराखंड में प्रकृति के विरोध में जाकर अंधाधुंध अवैध निर्माण को संरक्षण प्रदान किया है। जिसका खामियाजा आज आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। पर इस बर्बादी के लिए आम जनता भी कम जिम्मेदार नहीं। इसने तीर्थ स्थाटन का मूल सिद्धान्त ही भूला दिया है। पहले मन की शुद्धि और आत्मा की वृद्धि के लिए जोखिम उठाकर तीर्थ जाया जाता था। तीर्थ जाना मानों तपस्चर्या करना। आज ऐसी भावना से तीर्थ जाने वाले उंगलियों पर गिने जाते है। हम जैसे ज्यादातर लोग तो तीर्थ यात्रा पर भी गुलछर्रे उडाने और छुट्टियाँ मनाने जाते है। इससे न सिर्फ तीर्थस्थलों की दिव्यता नष्ट होती है बल्कि वहां के प्राकृतिक संसाधनों का भी भारी विनाश होता है। जो फिर ऐसी ही सुनामी लेकर आता है। इसलिए अब जागने का वक्त है। हम अगर सनातन धर्म के अनुयायी हैं तो हमें अपने सनातन धर्म की इस अत्यावश्यक सेवा के लिए उत्साह से आगे बढ़ना चाहिए।

Monday, June 17, 2013

एफटीआईआई सुधारों के लिए मनीष तिवारी प्रयास करें

सूचना और प्रसारण मंत्रालय में कभी इन्दिरा गांधी मंत्री हुआ करती थीं। आज उसी मंत्रालय का भार प्रखर वक्ता, वकील व युवा नेता मनीष तिवारी के कंधों पर है। जाहिर है कि इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं को मनीष तिवारी से कुछ नया और ऐतिहासिक कर गुजरने की उम्मीद है। ऐसी ही एक संस्था पुणे का भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) है, जो देश-विदेश में अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद नौकरशाही की कोताही के कारण पिछले 6 दशकों से लावारिस संतान की तरह उपेक्षित पड़ा है। इस संस्थान की गणना विश्व के 12 सर्वश्रेष्ठ फिल्म संस्थानों में से की जाती है। संस्थान के छात्रों ने जहां फिल्म जगत मे सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय अवार्ड जीते हैं। वही इसके छात्रों ने चाहे, वे फिल्मी कलाकार हों अन्य विधाओं के माहिर हों, सबने अपनी सृजनात्मकता से कामयाबी की मंजिले तय की हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्र बहुत गंभीरता से अध्ययन करते हैं और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक देश का सर्वश्रैष्ठ ज्ञान इन्हें देते हैं । बावजूद इसके यहां के प्राध्यापकों को न तो किसी विश्वविद्यालय केसमान दर्जा प्राप्त है। न ही वेतनमान। इतना ही नही इतने मेधावी छात्र 3 वर्ष का पोस्ट-ग्रेजुएट पाठयक्रम पूरा करने के बावजूद केवल 1 डिप्लोमा सर्टिफिकेट पाकर रह जाते हैं। उन्हे स्नातकोत्तर (मास्टर) की डिग्री तक नहीं दी जाती, जो इनके साथ सरासर नाइंसाफी है।
 
यह बात दूसरी है कि एफटीआईआई के छात्रों को डिग्री के बिना भी व्यवसायिक क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि जैसा शिक्षण वे पाते हैं और उनकी जो ‘ब्रांड वैल्यू‘ बनती है, वो उन्हें बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक काम दिलाने के लिए काफी होती है। यही कारण है कि यहां के छात्र वर्षों तक अपना डिप्लोमा सर्टिफिकेट तक लेने नहीं आते। पर जो छात्र देश के अन्य विश्वविद्यालयों में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देना चाहते हैं या इस क्षेत्र मं रिसर्च करना चाहते हैं, उन्हे काफी मुश्किल आती है। क्योंकि इस डिप्लोमा को इतनी गुणवत्ता के बावजूद विश्वविद्यालयों मे किसी भी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री की मान्यता प्राप्त नहीं है। इससे यह छात्र शिक्षा जगत में आगे नहीं बढ़ पाते ।
 
आज जब फिल्मों और टेलीविजन का प्रचार प्रसार पूरे देश और दुनिया में इतना व्यापक हो गया है तो जाहिर है कि फिल्म तकनीकी की जानकारी रखने वाले लोगों की मांग भी बहुत बढ़ गयी है। किसी अच्छी शैक्षिक संस्था के अभाव में देश भर में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देने वाली निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है। अयोग्य शिक्षकों के सहारे यह संस्थायें देश के करोड़ों नौजवानों को मूर्ख बनाकर उनसे मोटी रकम वसूल रही हैं। इनसे कैसे उत्पाद निकल रहे हैं, यह हमारे सामने है। टीवी चैनलों की संख्या भले ही सैंकड़ों में हो पर उनके ज्यादातर कार्यक्रमों का स्तर कितना भूफड और सड़कछाप है यह भी किसी से छिपा नहीं।
 
समयबद्ध कार्यक्रम के तहत डिग्री हासिल करने की अनिवार्यता न होने के कारण एफ टी आई आई के बहुत से छात्र वहां वर्षों पडे़ रहकर यूं ही समय बरबाद करते हैं। इससे संस्थान के शैक्षिक वातावरण पर विपरीत प्रभाव पडता है। वहां वर्षों से अकादमिक सत्र अनियमित चल रहे हैं । 1997 से आज तक वहां दीक्षांत समारोह नहीं हुआ। एफ टी आई आई की अव्यवस्थाओं पर सूचना प्रसारण मंत्रालय की अफसरशाही हर बार एक नई समिति बैठा देती है। जिसकी रिपोर्ट धूल खाती रहती है। पर सुधरता कुछ भी नहीं। कायदे से तो एफ टी आई आई को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्व संस्था होना चाहिए और इसे आईआईटी या एआईआईएमएस जैसा दर्जा प्राप्त होना चाहिए। पर सूचना प्रसारण मंत्रालय इसे छोड़ने को तैयार नहींहैं । वही हाल है कि एक मां अपने लाड़ले को से गोद से उतारेगी नहीं तो उसका विकास कैसे होगा? अच्छी मां तो कलेजे पर पत्थर रखकर अपने लाड़ले को दूर पढ़ने भेज देती है, जिससे वह आगे बढ़े।
 
एफटीआईआई के सुधारों के लिए एक विधेयक तैयार पड़ा है। केन्द्रीय मंत्री मनीष तिवारी को इस विधेयक को केबिनेट मे पास करावकर संसद मे प्रस्तुत करना है। यह एक ऐसा विधेयक है, जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ती नहीं है। सबका समर्थन उन्हें मिलेगा और इस तरह मनीष तिवारी अपने छोटे से कार्यकाल में भारतीय सिनेमा जगत में एक इतिहास रच जायेंगे। वैसे भी यह अजीब बात है कि देश में तमाम छोटी बड़ी धार्मिक व सामाजिक शैक्षिक संस्थाओं को संसद में विधेयक पारित कर ‘डीम्ड यूनीवर्सिटी‘ का दर्जा दिया जाता
रहा है तो फिर एफटीआईआई जैसी अतंराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्था के साथ यह उपेक्षा क्यों ?

Monday, June 10, 2013

नरेन्द्र मोदी का आगे का सफर आसान नहीं

भाजपा का आम कार्यकर्ता जो चाहता था वो उसे गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे मिल गया। राजनैतिक क्ष्तिज  पर से अटल बिहारी वाजपेयी का हटना भाजपा के लिए एक बडा शून्य छोड़ गया। हालांकि लालकृष्ण आडवाणी ने इस शून्य को भरने का भरसक प्रयास किया। पर वे सफल नहीं हो सके। पाकिस्तान में कायदे आजम जिन्ना कि मजार पर आडवाणी का बयान उनके लिए आत्मघाती बन गया। संघ ने आडवाणी को अपनी छाया से भी दूर कर दिया। घर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के चक्कर में आडवाणी जी अपना हिन्दु वोट बैंक खो बैठै। पार्टी मे दो धडे़ साफ हो गये। एक संघ की मानसिकता का और एक आडवाणी जी का खेमा। इसलिए आडवाणी जी भाजपा पर अपना एकछत्र वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाये। उधर नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में अपने को स्थापित किया और जिस तरह मीडिया में अपनी छवि बनवायी, उससे मोदी का कद लगातार बढता गया। पिछले कुछ वर्षो से तो यह बात हमेशा चर्चा में रही कि आडवाणी-नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय नेतृत्व पर दावेदारी को पसंद नहीं करते। आडवाणी के साथ जुडे भाजपा के कई बडे नेता और मुख्यमंत्री भी इसी तरह की बयानबाजी करते रहे जिससे नरेन्द्र मोदी की भाजपा में नम्बर 1 की पोजीशन न बन पाये। जाहिर है कि इससे मोदी खेमे में नाराजगी बढ़ती गयी। हद तो यह हो गयी 2 सांसदो से 115 सांसद तक पार्टी को बढ़ाने वाले आडवाणी के घर के बाहर उन्हीं के दल के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। नरेन्द्र मोदी को जिन हालातों में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के चुनाव की कमान सौंपी है वह कार्यकर्ताओं के दबाव के कारण पैदा हुए हैं। भाजपा का युवा कार्यकर्ता भाजपा से जुडे उद्योगपति और व्यापारी व मध्यम वर्ग का हिन्दुवादी हिस्सा इस वक्त नरेन्द्र मोदी की अगुवायी से बनी सरकार देखना चाहता है। इसलिए इन सब लोगों मे भारी उत्साह है। दूसरी तरफ आडवाणी के खेमे के नेता इस गोवा घोषणा से जाहिरन नाखुश हैं। वे किस करवट बैठेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की आगे की राह अभी इतनी आसान नहीं है। वैसे भी जो सच्चाई है वह नरेन्द्र मोदी के पक्ष में नहीं है। नरेन्द मोदी एक साधारण परिवार से अपने काम के बलबूते यहां तक पहुंचे हैं। लेकिन जब कोई राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करना चाहता है तो उसे अपने ही दल के वरिष्ठ नेतृत्व का इसी तरह विरोध झेलना पडता है। क्षेत्रिय नेता जब किसी राष्ट्रीय नेता को किनारे करेगा तभी तो उसकी राष्ट्रीय पहचान बनेगी। पर पार्टी के शिखर पर काबिज नेतृत्व आसानी से किसी को ऊपर नहीं चढ़ने देता। नतीजतन दोंनो में खूब रस्साकशी चलती है। जो अब मोदी को झेलनी पडेगी।
 
दरअसल मोदी को लगने लगा था कि अब उन्हे राष्ट्रीय स्तर पर जाना है इसलिए वे अपनी छवि और अपने साधन जुटाने मे लगे रहे। जोकि राष्ट्रीय नेतृत्व की नाराजगी का कारण बना। राष्ट्रीय नेतृत्व चाहता है कि हर मुख्यमंत्री उनको नियमित हिस्सा भेजे जो पार्टी और संगठन चलाने के लिए जरूरी होता है। जो मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर पाते, उसका बोरिया बिस्तर गोल कर दिया जाता है। यह भी स्थापित तथ्य है कि पार्टी व संगठन को चलाने के लिए साधनों की जरूरत होती है। जिन्हे मुख्यमंत्री ही आसानी से जमा कर पाते हैं। नरेन्द्र मोदी इसके अपवाद नहीं हैं। ऐसे में यह साफ जाहिर कि मोदी को लगा होगा कि पार्टी के लिए धन मैं इकठ्ठा कर रहा हूँ तो क्यूं न दल की कमान भी मेरे हाथ मे दी जाये। इसलिए वे अपने मकसद मे सफल हुए। पर अभी कई इम्तिहान बाकी है। गुजरात का शेर या गुजरात के लौहपुरूष बताकर मोदी ने स्वंय को लगभग आधे गुजरातियों का नेता तो बना ही लिया। शेष आधे वो हैं जिन्होंने हाल के विधानसभा चुनाव मे मोदी को वोट नहीं दिया। इसके अलावा उ.प्र., राजस्थान और बिहार की आम जनता नरेन्द्र मोदी को वैसा भाव नहीं देती जैसा गुजरात की जनता देती है। ऐसे मे नरेन्द्र मोदी का चुनावी अभियान जहां भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को उत्साहित करेगा और उनमे जोश भरेगा वही इन राज्यों के बहुत से मतदाताओं को सशंकित करेगा। ऐसे में उन्हें गुजरात से इतर रणनीति बनाकर चुनावी अभियान चलाना होगा। जो कितना सफल होगा, अभी नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर साधारण पृष्ठ भूमि के नरेन्द्र मोदी के लिए यहां तक पहुंचना भी बहुत बडी उपलब्धि है। पर इससे देश के चुनावी समीकरण कितने बदलेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। आडवाणी - मोदी विवाद का एक लाभ भाजपा को जरूर मिला है कि उसने सारे मीडिया का ध्यान अपने दल की ओर आर्कषित करवा लिया इस विवाद से भाजपा को दोहरा लाभ होगा। धर्मनिरपेक्षता वाले लोगों को आडवाणी समर्थक लामबंद करेंगे और हिन्दूवादी सर्मथकों को मोदी खेमा लामबंद करेगा। अंततः दोंनो एक हो जायेंगे। इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक मानना चाहिए। इसलिए आने वाले दिन जहां मोदी के लिए चुनौती भरे होंगे वही राजनैतिक रंगमंच पर अनेक रंग भी बिखेरेंगे।

Monday, June 3, 2013

कैसे निपटें नक्सलवाद से ?

छत्तीसगढ में हुए नक्सली हमले से कांग्रेस पार्टी ही नहीं पूरी राजनैतिक जमात हिली हुई है। नक्सलियों ने आज एक दल के नेतृत्व का सफाया किया है। कल किसी दूसरे दल का भी कर सकते हैं । टी वी चैनलों व अखबारों में इस मुद्दे पर खूब बहस चल रही है। जो जल्दी ही ठण्डी पड जायेगी जब तक कोई दूसरा हादसा न हो। समस्या सुलझने के आसार दिखाई नहीं देते। राज्य या केन्द्र की सरकारों की नीति स्पष्ट नहीं है। अगर वे इसे एक युद्ध के रूप मे देखती है तो यह सही नहीं। क्योंकि अपने ही लोगो के खिलाफ कोई सरकार युद्ध कैसे लड़ सकती है ?
 
जहाँ तक नक्सलवाद से जुडे ज्यादातर नौजवानों के समर्पण, त्याग, निष्ठा और शहादत की भावना का सवाल है, उस पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। जो सवाल इन्होंने उठाये हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल ये नौजवान उन्हीं सवालों को उठा रहे हैं, जिन्हें हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों ने इस लोकतंत्र का लक्ष्य माना है। यह विडम्बना है कि आज आजादी के 62 वर्ष बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। देश के करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए सरकारें दर्जनों महत्वाकांक्षी योजनाऐं बनाती आयी है। इन पर अरबों रूपये के आवण्टन किये गये हैं। पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। कार्यपालिका के अलावा भी लोकतंत्र के बाकी तीन खम्बे अपनी अहमियत और स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस देश के करोड़ों बदहाल लोगों को न तो न्याय दिला पाये हैं और न ही उनका हक। इसलिए नक्सलवाद जन्म लेता है। पर जिस तरह की वीभत्स हिंसा छत्तीसगढ मे हाल मे देखने को मिली वह कोई सामाजिक परिवर्तन की लडाई का नमूना नहीं बल्कि विकृत मानसिकता का परिचायक है। भोले भाले आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर जो माओवादी गुमराह कर रहे है उनके पास इतनी भारी आर्थिक मदद और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हथियार कहाँ से आ रहे हैं ?
 
इसलिए सरकारों का सोचना भी पूरी तरह गलत नहीं हैं। अगर कुछ लोग कानून और व्यवस्था को गिरवी बना दें तो उनके साथ कड़े से कड़ा कदम उठाना ही पडता है। माओवादी हिंसा जिस तेजी से देश में फैल रही है, वह स्वाभाविक रूप से सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए। पर यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है, क्या माओवाद का यह विस्तार आत्मस्फूर्त है या इसे चीन के शासनतंत्र की परोक्ष मदद मिल रही है ? खुफिया एजेंसियों का दावा है कि भारत में बढ़ता माओवाद चीन की विस्तावादी रणनीति का हिस्सा है। जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन गया है। ऐसे में इन युवाओं को यह सोचना चाहिए कि वे किसके हाथों में खेल रहे हैं। अगर दावा यह किया जाये कि चीन सही मामलों में घोर साम्यवादी देश है तो यह ठीक नहीं होगा। जबसे चीन ने आर्थिक आदान-प्रदान के लिए अपने द्वार खोले हैं तबसे भारत से अनेक बड़े व्यापारी और उद्योग जगत के बड़े अफसर नियमित रूप से चीन जाने लगे हैं। बाहर की चमक-दमक को छोड़कर जब वे चीन के औद्योगिक नगरों में पहुँचते हैं तो वहाँ चीन के निवासियों की आर्थिक दुर्दशा देखकर दंग रह जाते हैं। बेचारों से बन्धुआ मजदूर की तरह रात-दिन कार्य कराया जाता है। लंच टाइम में उनके चावल का कटोरा और पानी सी दाल देखकर हलक सूख जाता है। ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।’ रूस की क्रांति के बाद भी क्या रूस में सच्चा साम्यवाद आ सका ? मैं अभी-अभी रूस का दौरा करके लौटा हूँ। मास्को मे आज दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं। साम्यवादी शासन ने रूस में नौकरशाही और पोलितब्यूरो के नेताओं को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट दी। वही लोग आज रूस मे सबसे ज्यादा धनी हैं। नेपाल में माओवादी क्रान्ति के बाद जो बदहाली फैली है वह किसी से छिपी नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि साम्यवादी लक्ष्यों जैसा आदर्श समाज हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक आदर्श स्थिति है। धरातल की सच्चाई नहीं।
 
एक खतरनाक बात यह भी है कि इन हिंसक माओवादी गुटों को परोक्ष रूप से देश के कुछ मशहुर नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। यह कहना है झारखण्ड मे नक्सलवाद के खिलाफ सफल अभियान चला चुके पूर्व पुलिस महानिदेशक शिवाजी महान कैरे का। सेवा निवृत्त होते ही उन्हें ‘स्टील किंग‘ लक्ष्मी मित्तल ने झारखण्ड मे नक्सलियों के खतरे के बीच अपनी लोहे की खानों से सुरक्षित खनन करवाने की ऐवज मे मुंहमांगे वेतन पर नौकरी का प्रस्ताव किया तो आध्यात्मिक रूचि वाले श्री कैरे ने यह कहकर ठुकरा दिया कि जो पैसे आप मुझे देंगे वे आप झारखण्ड और बिहार के ‘इन‘ राजनेताओं को दे दें तो आपकी समस्या का हल निकल जायेगा। उनका अनुभव और विश्वास है कि अगर सरकारें इन नक्सलवादी समूहों के नेताओं से बातचीत के रास्ते इनका दिमाग पलटने का प्रयास करें। इन्हें जो भी आश्वासन दिया जाये वह समय से पूरा किया जाये। व्यवस्था को लेकर इनकी शिकायतों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाये ताकि इनके आक्रोश का ज्वालामुखी फटने न पाये। दूसरी तरफ हिंसा पर उतारू माओवादियों से पूरी सख्ती से निपटा जाये तो समस्या का हल निकल सकता है। पर एक समस्या यह भी है कि आतंकवाद की ही तरह नक्सलवाद को पनपाये रखने में भी कुछ निहित स्वार्थो की भूमिका रहती है। जिनका खुलासा करना देश की खुफिया ऐजेन्सिओं की जिम्मेदारी है।
 
दूसरी तरफ अगर हमारे देश के कर्णधार ईमानदारी से गरीब के मुद्दों पर ठोस कदम उठाना शुरू कर दें तो नक्सलवाद खुद ही निरर्थक बन जायेगा। पर फिलहाल तो यह बड़ी चुनौती है। जिससे जल्दी निपटना होगा वरना हालात बेकाबू होते जायेंगे। भारत आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन से तो सीमाओं पर उलझा ही रहता है। ऐसे में अगर घरेलू स्थिति को माओवादी अशांत कर देंगे तो केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों के लिए भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी।

Monday, May 27, 2013

अखिलेश यादव को गुस्सा क्यों आता है ?


पिछले दिनों उद्यमियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में चल रही लालफीताशाही के लि़ए आलाअफसरों को जिम्मेदार ठहराया। उन्हें नसीहत दी कि वे अपने अधिनस्थ बाबूओं के बहकावे में न आयें और बिना देरी के तेजी से निर्णय लें। यह पहली बार नही है जब युवा मुख्यमंत्री ने अपने अधिनस्थ आलाअफसरों को इस तरह नसीहत दी हो। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही मुख्यमंत्री व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी अफसरशाही के ढीलेपन पर बार- बार सार्वजनिक बयान देते रहे हैं। उनका यह गुस्सा जायज है क्योंकि बहन जी के शासनकाल में अफसरशाही बहन जी के सामने पत्त्त्ते की तरह कांपती थी। अखिलेश यादव की भलमनसाहत का बेजा मतलब निकाल कर अब उ. प्र. की अफसरशाही काफी मनमर्जी कर रही है, ऐसा बहुत से लोगों का कहना है। ऐसा नहीं है कि पूरे कुए में भांग पड़ गयी हो। काम करने वाले आज भी मुस्तैदी से जुटे हैं। अफसरों के मुखिया प्रदेश के मुख्य सचिव होते हैं। जो खुद काफी सक्षम और जिम्मेदार अफसर हैं। पर सरकार की छवि अगर गिर रही है तो मुख्यमंत्री इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। पर क्या सारा दोष अफसरशाही का ही है या राजनैतिक नेतृत्व की भी कुछ कमी है।

सुप्रसिद्ध आईसीएस रहे जे सी माथुर ने 30 वर्ष पहले एक लेखमाला में यह लिखा था कि जब तक में इस तंत्र में अफसर बनकर रहा, मेरी हैसियत एक ऐसे पुर्जे की थी जिसके न दिल था न दिमाग। हालात आज भी बदले नही हैं। लकीर पीटने की आदी अफसरशाही लालफीताशाही के लिए हमेशा से बदनाम रही हैं। अपना वेतन, भत्तें, पोस्टिंग, प्रमोशन और विदेश यात्राएं ही उनकी प्राथमिकता में रहता है। जिस काम के लिए उन्हें तैनात किया जाता है वह बरसों न हो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने कहा था कि अफसरशाही घोडे की तरह होती है जिसे चलाना सवार की क्षमता पर निर्भर करता है। अखिलेश यादव को चाहिए कि महत्वपूर्ण विभागों में ऐसे चुने हुए अफसर तैनात करें जिनकी निर्णय लेने की और काम करने की क्षमता के बारे में कोई संदेह न हो। उन्हें आश्वस्त करे कि वे जनहित में जो निर्णय लेंगे उस पर उन्हें मुख्यमंत्री का पूरा समर्थन मिलेगा। केवल फटकारने से या सार्वजनिक बयान देने से वे अपने अफसरों से काम नहीं ले पायेगें।

देश के कई प्रदेशों में तबादलों की स्पष्ट नीति न होने के कारण अफसरशाही का मनोबल काफी गिर जाता हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार का रिर्काड अभी तक प्रभावशाली नहीं रहा। जितनी तेजी से और जितने सारे तबादले उ. प्र. शासन ने बार-बार किये जाते हैं उससे कार्यक्षमता सुधरने की बजाय गिरती जाती हैं। जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, सीडीओ व विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्ष वे अधिकारी होते हैं जो उत्तर प्रदेश में जनता का हर वक्त सामना करते हैं। इन्हें अगर ताश के पत्तों की तरह फेंटा जाता रहेगा तो सरकार कुछ भी नहीं कर पायेगी और उससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा। इनकी कार्य अवधि निश्चित की जानी चाहिए और समय से पहले इनके तबादले नहीं होने चाहिए। चार दिन पहले जिसे मथुरा का जिलाधिकारी बनाया जाता है उसे चार दिन के भीतर ही गोरखपुर का जिलाधिकारी बनाकर भेज दिया जाता है। अगर उसे उसके निकम्मेपन के कारण हटाया गया तो फिर वह दूसरे जिले में काम करने के योग्य कैसे हो गया ? इससे पहले कि वह अपना जिला और उसकी समस्याएं समझ पाता, उसे रवाना कर दिया जाता है। यह कैसी नीति है ?

दूसरी तरफ ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं जो धडल्ले से यह कहते हैं कि हम अपने मंत्री को मोटा पैसा देकर यहां आये हैं तो हमे किसी की क्या परवाह। यह दुखद स्थिति है पर नई बात नहीं। पहले भी ऐसा होता आया है। जिसका निराकरण किया जाना चाहिए। अखिलेश अभी युवा हैं और उनका लम्बा राजनैतिक जीवन सामने है। अगर उन्होने स्थिति को नहीं संभाला तो उनके लिए भविष्य में चुनौतियां बढ सकती हैं। अखिलेश को चाहिए की कार्पोरेट जगत की तरह एक ‘पब्लिक रेस्पोंस‘ ईकाई की स्थापना अपने सचिवालय मे करें । जिसमे उत्तर प्रदेश के पूर्व अधिकारी रहे राकेश मित्तल (कबीर मिशन) जैसे अधिकारियों की सरपरस्ती में कर्मठ युवा अधिकारियों की एक टीम केवल सचिवालय की कार्यक्षमता और कार्य की गति बढाने की तरफ ध्यान दें और जनता और सरकार के बीच सेतु का कार्य करें। इस ईकाई को सभी विभागों पर अपने निर्णय प्रभावी करवाने की ताकत दी जाये। इससे सरकार की छवि में तेजी से सुधार आयेगा। केवल फटकारने से नहीं। अच्छा काम करने वालों को अगर बढावा दिया जायेगा और उनके काम की सार्वजनिक प्रशंसा की जायेगी तो अफसरों में अच्छा काम करने की स्पर्धा पैदा होगी।

Monday, May 20, 2013

बहुत सोच-समझकर पाकिस्तान लौटे थे मुशर्रफ

नवाज़ शरीफ की भारी जीत ने परवेज मुशर्रफ के मंसूबों पर पानी फेर दिया। वरना पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा था उसमें अचानक परवेज मुशर्रफ का वहाँ पहुँचना कोई जल्दबाजी में लिया गया अधकचरा निर्णय नहीं था। इसके पीछे अमरीका और सऊदी अरब की सोची समझी रणनीति है। रोचक रहेगा इनसे जुड़े कुछ तथ्यों को जान लेना।
 
पाकिस्तान में हुए ब्रिटिश काउसिंल के हाल ही में एक सर्वेक्षण में 18 वर्ष से 29 वर्ष के युवाओं से जब पूछा गया कि वो अपने मुल्क में कैसा निजाम चाहते हैं तो 38% युवाओं ने कहा कि शरियत का, 32% ने कहा सेना का और केवल 29% ने कहा जम्हूरियत यानि लोकतंत्र। यह एक संकेत था जिसने मुशर्रफ को घर लौटने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि उन्हें इस माहौल में अपनी भूमिका दिखाई दी। दूसरी तरफ यह भी रोचक तथ्य है कि लगभग लाखों युवा फेसबुक पर मुशर्रफ से सम्पर्क बनाए हुए हैं। मुशर्रफ को वाकायदा स्टाफ रखकर उनके जवाब देने पड़ रहे थे। इससे उन्हें लगा कि पाकिस्तान में आज भी उनके चाहने वाले कम नहीं हैं।
 
दरअसल 2011 से मुशर्रफ लंदन में शरण लिए हुए हैं। वहाँ उनकी सुरक्षा इंग्लैंण्ड की सरकार को करनी पड़ रही है। सुरक्षा इतनी कड़ी है कि उसका स्तर वहाँ की महारानी और प्रधानमंत्री की सुरक्षा जैसा है। जिस पर भारी खर्च हो रहा है। ब्रिटेन की जनता इससे नाराज है और इस खर्च का कोई औचित्य नहीं देखती। चूँकि वहाँ सक्रिय लोकतंत्र है  इसलिए जन भावनाओं की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसलिए भी मुशर्रफ पर घर लौटने का दबाब था।
 
दूसरी तरफ इंग्लैंण्ड के वीजा नियमों के चलते मुशर्रफ के नातेदार, मित्र और समर्थक लगातार लंदन नहीं आ पा रहे थे। उनसे मिलने मुशर्रफ दम्पत्ति को बार-बार दुबई जाना पड़ता था। जिससे मुशर्रफ और उनकी पत्नी एक फ्लैट में बंद रहकर काफी घुटन महसूस कर रहे थे। हालांकि यह फ्लैट काफी आरामदायक था पर वहाँ सुरक्षा कारणों से चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी। मुशर्रफ ने सोचा होगा इस घुटन भरी जिन्दगी से अपने वतन की आबोहवा बेहतर रहेगी।
 
जहाँ तक अमरीका और सऊदी अरब की बात है तो यह सबको मालूम है कि आज पाकिस्तान पर इन्हीं दो देशों का नियंत्रण है। पाकिस्तान के जिन इलाकों में तालिबान का जोर ज्यादा है वहाँ सऊदी अरब नियंत्रण रखता है, बाकी में अमरीका की चलती है। मतलब ये कि पाकिस्तान को अब पाकिस्तानी नहीं चला रहे। कारण साफ है अफगानिस्तान में अमरीका और नाटो के सदस्य देश अब तक सेना, पुलिस व प्रशासन पर इतनी बड़ी रकम खर्च कर चुके हैं कि अब आगे अफगानिस्तान को संभाले रखना उनके लिए संभव नहीं है। क्योंकि नाटो के देश तो पहले ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। अमरीका की अर्थव्यवस्था भी मंदी के दौर से उबर नही पा रही है। ऐसे में अगर पाकिस्तान मे कोई ऐसी सरकार आ गयी जो इन देशों के साथ सम्बन्ध न रखे तो पाकिस्तान उनके हाथ से निकल जाएगा और अफगानिस्तान से इनका निकलना संभव नहीं होगा। ऐसे में अब तक का सब करा-धरा पानी हो जायेगा। दुबारा अफगानिस्तान पर इतना खर्च करने की समझ अमरीका की नहीं है। इसलिए पाकिस्तान अन्र्तराष्ट्रीय सामरिक दृष्टि से अमरीका के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए वह इस पर अपनी पकड़ ढ़ीली नहीं करना चाहता।
 
इसलिए मुशर्रफ को अमरीका और सऊदी अरब एक प्यादे के रुप में देखते हैं। अगर पाकिस्तान के राजनैतिक हालात नहीं सुधरते या अमरीका के अनुसार नहीं बनते तो वे मुशर्रफ को मोहरे की तरह मैदान में उतार देते। फिर वह चाहें जन आंदोलन का नेता बनाकर उतारते या किसी राजनैतिक दल का। रही बात अदालत में हुई छीछलेदार और अपमान की तो यह साफ है कि ऐसी घटनाएं और नहीं होने वाली। पहले ही सेना ने साफ कह दिया कि वह अपने पूर्व अध्यक्ष की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेगी। कयानी और आई एस आई में सुनिश्चित करेंगे कि मुशर्रफ नजरबंदी के नाटक के बीच ऐशों आराम से  पाकिस्तान के अपने फार्म हाउस में रहते रहें। जिससे भविष्य में जरुरत के मुताबिक मुशर्रफ की भूमिका तय की जा सकती है।
 
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तानाशाह रहे जनरल परवेज मुशर्रफ न तो इतने नासमझ है कि अपना आगा पीछा न जानते हों और  ना ही इतने मूर्ख कि जानबूझकर ओखली में सिर दे दें। उनका घर लौटना एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था जिसमें उन्हें फायदा ही फायदा हैं। सत्ता में रहें या उसके बाहर। जब तक पाकिस्तान पर उनकी सेना का दबदबा है। मुशर्रफ अपने को महफूज महसूस करते हैं।

Monday, May 13, 2013

भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने का रास्ता खोजा जाए

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेषण खूब आ चुके। हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। पर यह तो सोचना पड़ेगा कि संसद और सड़कों पर विपक्ष गत् दो वर्षो से यूपीए सरकार के स्तीफे की माँग करता रहा है। ज्यादातर टीवी चैनल भी केन्द्र सरकार के खिलाफ र्मोचा खोले हुए हैं ।
मध्यम वर्गीय लोगों के बीच मौजूदा सरकार की छवि लगातार गिर रही है या गिरायी जा रही है। फिर क्यों कर्नाटक की जनता ने सोनिया गांधी की पार्टी के सिर पर ताज रख दिया ? क्या इसलिए कि कर्नाटक की जनता के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था या फिर उन्हें भाजपा का भ्रष्टाचार यूपीए से ज्यादा लगा। पहली बात सही नहीं हो सकती। दूसरी बात अगर सही है तो भाजपा किस नैतिक आधार पर केन्द्र मे भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिन- रात तूफान मचाती आ रही है ? इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि कर्नाटक की जनता कांग्रेस के भ्रष्टाचार को अनदेखा करने को तैयार है। तो फिर कर्नाटक का संदेश क्या है ?
 
बात सुनने मे कड़वी लगेगी। नैतिकता का झंडा उठाने वाले इस पर भृकुटि टेढी करेंगे। पर अब तो यह ही लगता है कि हम शोर चाहे कितना ही मचा लें, पर  भ्रष्टाचार से हमें कोई परहेज नहीं है। सदाचारी वो नहीं है जिसे मौका ही नहीं मिला। सदाचारी तो वो होता है, जो मौका मिलने पर भी ड़गमगाता नहीं। हम अपने इर्द -गिर्द देखें तो पायेंगे कि ऐसे सदाचारी आज उगंलियों  पर गिने जा सकते हैं। वरना जिसे, जहाँ, जब मौका मिलता है, बिना मेहनत के फायदा उठाने से चूकता नहीं। इसीलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर हम चाहे जितना मचा लें, पर चुनाव मे वोट देने की प्राथमिकताएं अलग रहती हैं। इसलिए मायावती हारती हैं तो मुलायम सिंह यादव जीत जाते हैं। वे हारते हैं, तों बहन जी जीत जाती हैं। करुणानिधि हारते हैं तो जयललिता जीत जाती हैं और जब जयललिता हारती हैं तो करुणानिधि जीत जाते हैं। प्रकाश सिंह बादल हारते हैं तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह जीत जाते हैं, और उनके हारने पर बादल की जीत होती है। हर विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाता है। ये नूरा कुश्ती यूँ ही चलती रहती है और टिप्पणीकार, स्तम्भकार और टीवी एंकर उत्तेजना में भरकर ऐसा माहौल बनाते हैं मानो आज जैसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ या भविष्य में नहीं होगा। वे आरोपित मंत्रियों, अफसरों का स्तीफा मांगने मे हफ्तों और महीनों गुजार देते हैं। अगर उनकी माँग पर स्तीफे ले भी लिए जाये तो क्या गांरटी है कि उसके बाद देश मे घोटाला नहीं होगा ? मर्ज गहरा है और ऊपरी मरहम से दूर नहीं होगा। इसलिए अब ज्यादा समय और उर्जा घोटालों के उजागर होने पर खर्च करने की बजाय इसके समाधान पर लगाना चाहिए। जब किसी भी टीवी शो पर मैं ये मुद्दा उठाता हूँ तो एंकर बातचीत को मौजूदा घोटाले की ओर वापस ले आते हैं। पर आप भी जानते हैं कि ऐसे सभी हंगामे कुछ दिन तूफान मचाकर शांत हो जाते हैं। कुछ भी नही बदलता।
 
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हमें  अपनी समझ गहरी बनाने की जरूरत है। जैसे हर रोग के लिए उसका विशेषज्ञ ढूँढा जाता है वैसे ही भ्रष्टाचार से निपटने की समझ रखने वालों को आज तक विश्वास मे नहीं लिया गया। नतीजतन इस भीषण रोग को रोकने के लिए जो भी प्रयास किए जाते हैं, वे सब नाकाम रहते हैं। इसलिए नई सोच की जरूरत है ।
 
वैसे जहां भी हम रहते हों, अपने-अपने दायरे मे आने वाले लोगो से एक सर्वेक्षण करें और पूछे कि वे विकास चाहते हैं या भ्रष्टाचार मुक्त समाज ? उनसे पूछा जाये कि वे ईमानदार और पुराने ख्यालों का नेता पंसद करते हैं या उसे जो उनके काम करवा दे, चाहे भ्रष्टाचार कितना भी कर ले। जवाब चैंकाने वाले मिलेंगे। दरअसल पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज या देश आज तक नहीं हुआ। तानाशाही हो या लोकतंत्र, पूजीवादी व्यवस्था हो या साम्यवादी, सरकारी खजाना हमेशा लुटता रहा है। कड़े कानून भी हर नागरिक को ईमानदार बनने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। फिर भी ये सारे प्रयास इसलिए किये जाते हैं कि जनता के मन मे शासन व पुलिस का और दण्ड मिलने का भय बना रहे। ऐसे में अगर हम लगातार सत्ता केन्द्रों पर हमले करके उसे नाकारा और भ्रष्ट सिद्ध करें तो समाज से भ्रष्टाचार तो दूर नहीं होगा, शासन का भय समाप्त हो जायेगा। जिससे समाज में अराजकता फैल सकती है। जो देश की सुरक्षा को खतरा पैदा कर सकती है।
 
इसलिए जरूरत इस बात की है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर व्यक्तियों को निशाना न बनाकर भ्रष्टाचार विहीन समाज की स्थापना का प्रयास करना चाहिए। जो भी चर्चा हो वह समाधान मूलक होनी चाहिए। जिससे समाज मे हताशा भी कम फैले और आशा के साथ भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने के रास्ते खोजे जायें अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो देश की जनता को राहत मिलेगी वरना केवल अशांति और चिंता का वातावरण तैयार होगा जो देश के विकास मे बाधक होगा।