सूचना और प्रसारण मंत्रालय में कभी इन्दिरा गांधी मंत्री हुआ करती थीं। आज उसी मंत्रालय का भार प्रखर वक्ता, वकील व युवा नेता मनीष तिवारी के कंधों पर है। जाहिर है कि इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं को मनीष तिवारी से कुछ नया और ऐतिहासिक कर गुजरने की उम्मीद है। ऐसी ही एक संस्था पुणे का भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) है, जो देश-विदेश में अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद नौकरशाही की कोताही के कारण पिछले 6 दशकों से लावारिस संतान की तरह उपेक्षित पड़ा है। इस संस्थान की गणना विश्व के 12 सर्वश्रेष्ठ फिल्म संस्थानों में से की जाती है। संस्थान के छात्रों ने जहां फिल्म जगत मे सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय अवार्ड जीते हैं। वही इसके छात्रों ने चाहे, वे फिल्मी कलाकार हों अन्य विधाओं के माहिर हों, सबने अपनी सृजनात्मकता से कामयाबी की मंजिले तय की हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्र बहुत गंभीरता से अध्ययन करते हैं और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक देश का सर्वश्रैष्ठ ज्ञान इन्हें देते हैं । बावजूद इसके यहां के प्राध्यापकों को न तो किसी विश्वविद्यालय केसमान दर्जा प्राप्त है। न ही वेतनमान। इतना ही नही इतने मेधावी छात्र 3 वर्ष का पोस्ट-ग्रेजुएट पाठयक्रम पूरा करने के बावजूद केवल 1 डिप्लोमा सर्टिफिकेट पाकर रह जाते हैं। उन्हे स्नातकोत्तर (मास्टर) की डिग्री तक नहीं दी जाती, जो इनके साथ सरासर नाइंसाफी है।
यह बात दूसरी है कि एफटीआईआई के छात्रों को डिग्री के बिना भी व्यवसायिक क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि जैसा शिक्षण वे पाते हैं और उनकी जो ‘ब्रांड वैल्यू‘ बनती है, वो उन्हें बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक काम दिलाने के लिए काफी होती है। यही कारण है कि यहां के छात्र वर्षों तक अपना डिप्लोमा सर्टिफिकेट तक लेने नहीं आते। पर जो छात्र देश के अन्य विश्वविद्यालयों में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देना चाहते हैं या इस क्षेत्र मं रिसर्च करना चाहते हैं, उन्हे काफी मुश्किल आती है। क्योंकि इस डिप्लोमा को इतनी गुणवत्ता के बावजूद विश्वविद्यालयों मे किसी भी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री की मान्यता प्राप्त नहीं है। इससे यह छात्र शिक्षा जगत में आगे नहीं बढ़ पाते ।
आज जब फिल्मों और टेलीविजन का प्रचार प्रसार पूरे देश और दुनिया में इतना व्यापक हो गया है तो जाहिर है कि फिल्म तकनीकी की जानकारी रखने वाले लोगों की मांग भी बहुत बढ़ गयी है। किसी अच्छी शैक्षिक संस्था के अभाव में देश भर में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देने वाली निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है। अयोग्य शिक्षकों के सहारे यह संस्थायें देश के करोड़ों नौजवानों को मूर्ख बनाकर उनसे मोटी रकम वसूल रही हैं। इनसे कैसे उत्पाद निकल रहे हैं, यह हमारे सामने है। टीवी चैनलों की संख्या भले ही सैंकड़ों में हो पर उनके ज्यादातर कार्यक्रमों का स्तर कितना भूफड और सड़कछाप है यह भी किसी से छिपा नहीं।
समयबद्ध कार्यक्रम के तहत डिग्री हासिल करने की अनिवार्यता न होने के कारण एफ टी आई आई के बहुत से छात्र वहां वर्षों पडे़ रहकर यूं ही समय बरबाद करते हैं। इससे संस्थान के शैक्षिक वातावरण पर विपरीत प्रभाव पडता है। वहां वर्षों से अकादमिक सत्र अनियमित चल रहे हैं । 1997 से आज तक वहां दीक्षांत समारोह नहीं हुआ। एफ टी आई आई की अव्यवस्थाओं पर सूचना प्रसारण मंत्रालय की अफसरशाही हर बार एक नई समिति बैठा देती है। जिसकी रिपोर्ट धूल खाती रहती है। पर सुधरता कुछ भी नहीं। कायदे से तो एफ टी आई आई को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्व संस्था होना चाहिए और इसे आईआईटी या एआईआईएमएस जैसा दर्जा प्राप्त होना चाहिए। पर सूचना प्रसारण मंत्रालय इसे छोड़ने को तैयार नहींहैं । वही हाल है कि एक मां अपने लाड़ले को से गोद से उतारेगी नहीं तो उसका विकास कैसे होगा? अच्छी मां तो कलेजे पर पत्थर रखकर अपने लाड़ले को दूर पढ़ने भेज देती है, जिससे वह आगे बढ़े।
एफटीआईआई के सुधारों के लिए एक विधेयक तैयार पड़ा है। केन्द्रीय मंत्री मनीष तिवारी को इस विधेयक को केबिनेट मे पास करावकर संसद मे प्रस्तुत करना है। यह एक ऐसा विधेयक है, जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ती नहीं है। सबका समर्थन उन्हें मिलेगा और इस तरह मनीष तिवारी अपने छोटे से कार्यकाल में भारतीय सिनेमा जगत में एक इतिहास रच जायेंगे। वैसे भी यह अजीब बात है कि देश में तमाम छोटी बड़ी धार्मिक व सामाजिक शैक्षिक संस्थाओं को संसद में विधेयक पारित कर ‘डीम्ड यूनीवर्सिटी‘ का दर्जा दिया जाता
रहा है तो फिर एफटीआईआई जैसी अतंराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्था के साथ यह उपेक्षा क्यों ?
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