टी.वी. चैनल हों या राजनैतिक बयानबाजी ऐसा लगता है कि देश में मुद्दों का अभाव हो गया है। जिधर देखो उधर इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। दर्शक, श्रोता और पाठक हैरान हैं कि इन बातों से उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का क्या ताल्लुक ? ये किसकी बातें हो रही हैं ? किसके लिये हो रही हैं ? इनसे किसे लाभ हो रहा है? अगर आम जनता को नही तो ये बातें क्यों हो रही हैं ? या तो इन मुद्दों का चयन असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये किया जा रहा है या मुद्दों का चयन करने वालों को सूझ ही नहीं रहा कि किन मुद्दों का उठायें।
गरीब आदमी का खाना 5 रुपये में होता है, 12 रुपये में या 20 रुपये में। जब देश के अर्थशास्त्रियों ने अपने सर्वेक्षणों और अध्ययनों से बार-बार यह सिद्ध कर दिया है कि देश के 70 प्रतिशत आदमी की रोजाना आमनदनी औसतन 20 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है। तो सोचने वाली बात यह है कि वो एक बार में कितना रुपया अपने भोजन पर खर्च करने की हालत में होगा। जो लोग दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता के बाजारों में जाकर खाने की थाली के दाम पूछकर इन बयानों का मजाक उड़ा रहे हैं, लगता है उन्होंने देश के देहाती इलाकों में जाकर असली आम आदमी की हालत का जायजा ही नहीं लिया। अगर लिया होता तो वे ये समझ पाते कि देश का 70 प्रतिशत गरीब आदमी एक वक्त में 5 रु. - 7 रु. से ज्यादा अपने भोजन पर खर्च नहीं कर पाता।
इसी तरह यह देखकर सिर धुनने को मन करता है कि चुनाव का अभी कोई अता-पता नहीं, पर चुनावी परिणामों पर बहसें चालू हो चुकी हैं। चुनाव छः महिने में होंगे या साल भर में इसकी कोई गारण्टी नहीं। राजनैतिक दलों ने न तो अपने घोषणा पत्र जारी किये हैं, न ही उम्मीदवारों की सूची। न देश में कोई हवा बनी है और न ही आम जनता को अभी से चुनाव के बारे में सोचने की फुरसत है। ऐसे में बहसें की जा रही हैं कि सरकार किसकी बनेगी। इससे ज्यादा बे-सिर पैर का मुद्दा बहस के लिये क्या हो सकता है ? ऐसे विषयों का चुनाव करने वालों को तो छोड़ें, पर इन विशेषज्ञों को क्या हो गया जो आकर इन मुद्दों पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करा रहे हैं? ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’।
लगे हाथ अब बटला हाउस काण्ड को भी परख लें। जब सब कुछ तय हो चुका था। केवल अदालत का फैसला आना बाकी था। तो फिर इस काण्ड की शुरू से आखिर तक की कहानी दोहराने से क्या मकसद हासिल हो रहा था। पर ये कहानी दोहराई गई। एक-दो बार नहीं बल्कि बीसियों बार। जबकि अदालत का फैसला वही आया जो पुलिस के रिकॉर्ड में तथ्य दर्ज किये गये थे। फिर इस कहानी को बार-बार पेश करके क्या बताने की कोशिश की गई? अगर चर्चा ही करनी थी तो इस काण्ड के आरोपियों को मिलने वाली सजा और उसके कानूनी पेचों पर चर्चा की जा सकती थी। जैसी पिछले दिनों कसाब और अफजल गुरू की फांसी के दौरान चर्चायें की गईं। उससे इस तरह के अपराधों के कानूनी, सामाजिक और नैतिक पक्ष को समझने में दर्शकों और पाठकों को मदद मिलती।
पिछले दिनों बिहार में ‘मिड-डे मील’ में 23 बच्चों की मौत को लेकर एक बड़ा मुद्दा बना। बनना भी चाहिये था, आखिर गरीब के बच्चे जहरीला खाना खाने के लिये तो स्कूल भेजे नहीं जाते। अगर बिहार सरकार ने लापरवाही की तो उसे मीडिया में उछालना बिल्कुल वाज़िब बात थी। पर बात बिहार तक ही सीमित नहीं है। जब हमारा संवाददाता कैमरा या कलम लेकर देश के अलग-अलग प्रान्तों में मिड-डे मील कार्यक्रम की पड़ताल करने निकलता है, तो वह पाता है कि कमोबेश यही हाल पूरे देश के हर प्रान्त के मिड-डे मील का है। यानी बिहार को अकेला कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। जैसे ही इस बात का अंदाजा लगा, यह गम्भीर मुद्दा बहसों से गायब हो गया, क्यों? क्या इस मुद्दे पर बाकी प्रदेशों में गहरी पड़ताल कर शोर मचाने की जरूरत नहीं है?
बीच-बीच में कुछ मुद्दे बाढ़, भू-स्खलन व जमीन ध्ंसने जैसी प्रकृतिक आपदाओं के आते ही रहते हैं। उत्तराखण्ड की विपदा सामान्य आपदा से ज्यादा प्रलय जैसी घटना थी। इसलिये मीडिया को सक्रिय भी होना पड़ा और महीने भर तक उसका कवरेज भी करना पड़ा। क्योंकि इस प्रलय से देश के हर हिस्से का परिवार जुड़ा था और यह विजुअल्स की दृष्टि से दिल दहलाने वाला कवरेज था। जब यह मुद्दा उठा तो जाहिर है कि आपदा प्रबन्धन, प्रशासनिक अकुशलता व विनाशोन्मुख विकास के माॅडल पर चर्चा की जाती। की भी गई। पर इतनी बड़ी आपदा के बाद भी इस गम्भीर सवाल को हमारा मीडिया लम्बे समय तक टिकाये नहीं रख सका। इतना कि देश में इस पूरे प्रबंधन हीनता के खिलाफ एक माहौल बनता और देश भर से दबाव समूह सक्रिय होते, तो बदलाव की दिशा भी दिखने लगती। लगता है नये-नये मुद्दे तलाशने की हुलहुलाहट में हमने एक बड़ा मौका खो दिया।
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