Monday, May 13, 2013

भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने का रास्ता खोजा जाए

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेषण खूब आ चुके। हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। पर यह तो सोचना पड़ेगा कि संसद और सड़कों पर विपक्ष गत् दो वर्षो से यूपीए सरकार के स्तीफे की माँग करता रहा है। ज्यादातर टीवी चैनल भी केन्द्र सरकार के खिलाफ र्मोचा खोले हुए हैं ।
मध्यम वर्गीय लोगों के बीच मौजूदा सरकार की छवि लगातार गिर रही है या गिरायी जा रही है। फिर क्यों कर्नाटक की जनता ने सोनिया गांधी की पार्टी के सिर पर ताज रख दिया ? क्या इसलिए कि कर्नाटक की जनता के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था या फिर उन्हें भाजपा का भ्रष्टाचार यूपीए से ज्यादा लगा। पहली बात सही नहीं हो सकती। दूसरी बात अगर सही है तो भाजपा किस नैतिक आधार पर केन्द्र मे भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिन- रात तूफान मचाती आ रही है ? इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि कर्नाटक की जनता कांग्रेस के भ्रष्टाचार को अनदेखा करने को तैयार है। तो फिर कर्नाटक का संदेश क्या है ?
 
बात सुनने मे कड़वी लगेगी। नैतिकता का झंडा उठाने वाले इस पर भृकुटि टेढी करेंगे। पर अब तो यह ही लगता है कि हम शोर चाहे कितना ही मचा लें, पर  भ्रष्टाचार से हमें कोई परहेज नहीं है। सदाचारी वो नहीं है जिसे मौका ही नहीं मिला। सदाचारी तो वो होता है, जो मौका मिलने पर भी ड़गमगाता नहीं। हम अपने इर्द -गिर्द देखें तो पायेंगे कि ऐसे सदाचारी आज उगंलियों  पर गिने जा सकते हैं। वरना जिसे, जहाँ, जब मौका मिलता है, बिना मेहनत के फायदा उठाने से चूकता नहीं। इसीलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर हम चाहे जितना मचा लें, पर चुनाव मे वोट देने की प्राथमिकताएं अलग रहती हैं। इसलिए मायावती हारती हैं तो मुलायम सिंह यादव जीत जाते हैं। वे हारते हैं, तों बहन जी जीत जाती हैं। करुणानिधि हारते हैं तो जयललिता जीत जाती हैं और जब जयललिता हारती हैं तो करुणानिधि जीत जाते हैं। प्रकाश सिंह बादल हारते हैं तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह जीत जाते हैं, और उनके हारने पर बादल की जीत होती है। हर विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाता है। ये नूरा कुश्ती यूँ ही चलती रहती है और टिप्पणीकार, स्तम्भकार और टीवी एंकर उत्तेजना में भरकर ऐसा माहौल बनाते हैं मानो आज जैसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ या भविष्य में नहीं होगा। वे आरोपित मंत्रियों, अफसरों का स्तीफा मांगने मे हफ्तों और महीनों गुजार देते हैं। अगर उनकी माँग पर स्तीफे ले भी लिए जाये तो क्या गांरटी है कि उसके बाद देश मे घोटाला नहीं होगा ? मर्ज गहरा है और ऊपरी मरहम से दूर नहीं होगा। इसलिए अब ज्यादा समय और उर्जा घोटालों के उजागर होने पर खर्च करने की बजाय इसके समाधान पर लगाना चाहिए। जब किसी भी टीवी शो पर मैं ये मुद्दा उठाता हूँ तो एंकर बातचीत को मौजूदा घोटाले की ओर वापस ले आते हैं। पर आप भी जानते हैं कि ऐसे सभी हंगामे कुछ दिन तूफान मचाकर शांत हो जाते हैं। कुछ भी नही बदलता।
 
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हमें  अपनी समझ गहरी बनाने की जरूरत है। जैसे हर रोग के लिए उसका विशेषज्ञ ढूँढा जाता है वैसे ही भ्रष्टाचार से निपटने की समझ रखने वालों को आज तक विश्वास मे नहीं लिया गया। नतीजतन इस भीषण रोग को रोकने के लिए जो भी प्रयास किए जाते हैं, वे सब नाकाम रहते हैं। इसलिए नई सोच की जरूरत है ।
 
वैसे जहां भी हम रहते हों, अपने-अपने दायरे मे आने वाले लोगो से एक सर्वेक्षण करें और पूछे कि वे विकास चाहते हैं या भ्रष्टाचार मुक्त समाज ? उनसे पूछा जाये कि वे ईमानदार और पुराने ख्यालों का नेता पंसद करते हैं या उसे जो उनके काम करवा दे, चाहे भ्रष्टाचार कितना भी कर ले। जवाब चैंकाने वाले मिलेंगे। दरअसल पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज या देश आज तक नहीं हुआ। तानाशाही हो या लोकतंत्र, पूजीवादी व्यवस्था हो या साम्यवादी, सरकारी खजाना हमेशा लुटता रहा है। कड़े कानून भी हर नागरिक को ईमानदार बनने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। फिर भी ये सारे प्रयास इसलिए किये जाते हैं कि जनता के मन मे शासन व पुलिस का और दण्ड मिलने का भय बना रहे। ऐसे में अगर हम लगातार सत्ता केन्द्रों पर हमले करके उसे नाकारा और भ्रष्ट सिद्ध करें तो समाज से भ्रष्टाचार तो दूर नहीं होगा, शासन का भय समाप्त हो जायेगा। जिससे समाज में अराजकता फैल सकती है। जो देश की सुरक्षा को खतरा पैदा कर सकती है।
 
इसलिए जरूरत इस बात की है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर व्यक्तियों को निशाना न बनाकर भ्रष्टाचार विहीन समाज की स्थापना का प्रयास करना चाहिए। जो भी चर्चा हो वह समाधान मूलक होनी चाहिए। जिससे समाज मे हताशा भी कम फैले और आशा के साथ भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने के रास्ते खोजे जायें अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो देश की जनता को राहत मिलेगी वरना केवल अशांति और चिंता का वातावरण तैयार होगा जो देश के विकास मे बाधक होगा।

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