हाल ही के दिनों में छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के सुपुत्र अमित जोगी के एक राजनैतिक स्टिंग ऑपरेशन में शामिल होने से बवाल मचा हुआ है। देश की राजनीति में स्टिंग ऑपरेशन राजनैतिक लड़ाई में एक शस्त्र बनता जा रहा है। जबकि इसकी खोज खोजी पत्रकारिता के एक औजार के रूप में हुई थी। जब देश में निजी टीवी चैनल नहीं थे, मात्र दूरदर्शन था, जो सरकारी प्रचारतंत्र का हिस्सा था। उस समय टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधा का कोई नाम तक नहीं जानता था। उस समय 1989 में हमने भारत में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की नींव डाली। कालचक्र वीडियो मैग्जीन में हर महीने खोजी रिपोर्ट तैयार कर हम देशभर की वीडियो लाइब्रेरियों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचा देते थे। जिन्हें उस वक्त की याद है, उन्हें खूब याद होगा कि कालचक्र ने टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी। इसी समय हमने भारत में पहली बार स्टिंग ऑपरेशन की भी शुरूआत की। जिस पर तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं। बड़े-बड़े अखबारों में हमारे पक्ष या विपक्ष में संपादकीय लिखे गए। देश में कई जगह इस पर गोष्ठियां हुईं और सेंसर बोर्ड से हमारा गला घोंटने की कोशिशें की गईं।
उस समय दिल्ली के पत्रकारों की भी आधी जमात हमारे खिलाफ थी, जिन्हें लगता था कि हमारी इस विधा से उनके आका राजनेता कभी भी बेनकाब हो सकते हैं। ऐसे सभी हमलों का जवाब देने के लिए 1990 के शुरू में दिल्ली के प्रेस क्लब में मैंने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। जिसमें लगभग 250 पत्रकारों ने शिरकत की और हम पर सवालों की छड़ी लगा दी। पर हम टस से मस नहीं हुए। हमारा ध्येय स्पष्ट था। हम स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से समाज की बुराइयों को उजागर करना चाहते थे। हमने ऐसा किया भी। पूरे देश ने देखा और माना। लेकिन बाद के दौर में जब निजी टीवी चैनलों की भरमार हो गई। टीआरपी के लिए जद्दोजहद होने लगी। चैनल चलाना आर्थिक रूप से भारी घाटे का काम हो गया, तो वही स्टिंग ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य स्वस्थ पत्रकारिता करना और समाज की मदद करना था, ब्लैकमेलिंग का माध्यम बन गया।
मैं किसी खास पत्रकार या किसी टीवी चैनल पर आक्षेप नहीं कर रहा। पर जो मैं कहने जा रहा हूं, उससे आप सभी पाठक सहमत होंगे। वह यह कि जितने स्टिंग ऑपरेशन आज आपको टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं, उनमें से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं, जिनका उद्देश्य वास्तव में जनहित होता है। दरअसल, बहुत सारे स्टिंग ऑपरेशन तो कभी सामने दिखाए ही नहीं जाते। क्योंकि जिनके विरूद्ध यह आॅपरेशन किए जाते हैं, उनसे मोटी रकम लेकर इन्हें दबा दिया जाता है। जाहिरन इनका उद्देश्य पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना होता है।
जो स्टिंग ऑपरेशन दिखाए भी जाते हैं, वे हमेशा निष्पक्ष नहीं होते। उनके पीछे किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति का निहित स्वार्थ छिपा होता है। जो उस पत्रकार या टीवी चैनल को अच्छी खासी रकम देकर अपने हित में खड़ा कर देता है। ताकि उसकी लड़ाई को जनहित की लड़ाई का आवरण पहनाया जा सके। ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले जिस मुद्दे पर किसी खास राजनैतिक दल को अपना शिकार बनाते हैं। पर जब उनके राजनैतिक आकाओं के ऐसे ही कारनामे सामने आते हैं, तो वही पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करना तो दूर, उसकी चर्चा तक करने से बचते हैं। यह कोई पत्रकारिता नहीं हुई, ये तो सीधी-सीधी कुछ लोगों के हितों की लड़ाई हुई, जो पत्रकारिता के नाम पर की जाती है।
कई बार यह बहस होती है कि आज जब स्टिंग ऑपरेशन एक सामान्य सी बात हो गया है, तो इसे कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। मतलब ये कि स्टिंग ऑपरेशन करने के कुछ नियम और निर्देश बनाए जाने चाहिए। जिसके तहत स्टिंग ऑपरेशन किया जाय। इसको करने से पहले कुछ निष्पक्ष लोगों की समिति हो, जो उस रिपोर्ट के मसौदे को देखकर स्टिंग ऑपरेशन करने की छूट दे या न दे। इस तरह का आत्मानुशासन हर टीवी चैनल को अपनाना चाहिए, अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि जबकि अदालत ही स्टिंग ऑपरेशन पर प्रतिबंध लगा देगी।
पहली बात तो ये कि स्टिंग ऑपरेशन केवल जनहित में किया जाए, किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के हित में नहीं। दूसरा जिसके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है, उसे बाद में बिना छिपे कैमरे के सामने लाना भी लाजमी होता है। उससे उन्हीं सवालों को दोबारा कैमरे के सामने पूछना चाहिए, जिन्हें छिपे कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। ताकि उसकी यह शिकायत न रहे कि मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया गया। अगर पत्रकारिता की सीमा में रहकर व्यापक जनहित में स्टिंग ऑपरेशन किया जाए, तो इसे गलत नहीं मानना चाहिए। पर जैसा कि हमने पहले कहा कि ब्लैकमेलिंग या निहित स्वार्थों के आपसी झगडेा निपटाने के लिए इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना सही नहीं है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।
उस समय दिल्ली के पत्रकारों की भी आधी जमात हमारे खिलाफ थी, जिन्हें लगता था कि हमारी इस विधा से उनके आका राजनेता कभी भी बेनकाब हो सकते हैं। ऐसे सभी हमलों का जवाब देने के लिए 1990 के शुरू में दिल्ली के प्रेस क्लब में मैंने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। जिसमें लगभग 250 पत्रकारों ने शिरकत की और हम पर सवालों की छड़ी लगा दी। पर हम टस से मस नहीं हुए। हमारा ध्येय स्पष्ट था। हम स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से समाज की बुराइयों को उजागर करना चाहते थे। हमने ऐसा किया भी। पूरे देश ने देखा और माना। लेकिन बाद के दौर में जब निजी टीवी चैनलों की भरमार हो गई। टीआरपी के लिए जद्दोजहद होने लगी। चैनल चलाना आर्थिक रूप से भारी घाटे का काम हो गया, तो वही स्टिंग ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य स्वस्थ पत्रकारिता करना और समाज की मदद करना था, ब्लैकमेलिंग का माध्यम बन गया।
मैं किसी खास पत्रकार या किसी टीवी चैनल पर आक्षेप नहीं कर रहा। पर जो मैं कहने जा रहा हूं, उससे आप सभी पाठक सहमत होंगे। वह यह कि जितने स्टिंग ऑपरेशन आज आपको टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं, उनमें से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं, जिनका उद्देश्य वास्तव में जनहित होता है। दरअसल, बहुत सारे स्टिंग ऑपरेशन तो कभी सामने दिखाए ही नहीं जाते। क्योंकि जिनके विरूद्ध यह आॅपरेशन किए जाते हैं, उनसे मोटी रकम लेकर इन्हें दबा दिया जाता है। जाहिरन इनका उद्देश्य पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना होता है।
जो स्टिंग ऑपरेशन दिखाए भी जाते हैं, वे हमेशा निष्पक्ष नहीं होते। उनके पीछे किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति का निहित स्वार्थ छिपा होता है। जो उस पत्रकार या टीवी चैनल को अच्छी खासी रकम देकर अपने हित में खड़ा कर देता है। ताकि उसकी लड़ाई को जनहित की लड़ाई का आवरण पहनाया जा सके। ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले जिस मुद्दे पर किसी खास राजनैतिक दल को अपना शिकार बनाते हैं। पर जब उनके राजनैतिक आकाओं के ऐसे ही कारनामे सामने आते हैं, तो वही पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करना तो दूर, उसकी चर्चा तक करने से बचते हैं। यह कोई पत्रकारिता नहीं हुई, ये तो सीधी-सीधी कुछ लोगों के हितों की लड़ाई हुई, जो पत्रकारिता के नाम पर की जाती है।
कई बार यह बहस होती है कि आज जब स्टिंग ऑपरेशन एक सामान्य सी बात हो गया है, तो इसे कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। मतलब ये कि स्टिंग ऑपरेशन करने के कुछ नियम और निर्देश बनाए जाने चाहिए। जिसके तहत स्टिंग ऑपरेशन किया जाय। इसको करने से पहले कुछ निष्पक्ष लोगों की समिति हो, जो उस रिपोर्ट के मसौदे को देखकर स्टिंग ऑपरेशन करने की छूट दे या न दे। इस तरह का आत्मानुशासन हर टीवी चैनल को अपनाना चाहिए, अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि जबकि अदालत ही स्टिंग ऑपरेशन पर प्रतिबंध लगा देगी।
पहली बात तो ये कि स्टिंग ऑपरेशन केवल जनहित में किया जाए, किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के हित में नहीं। दूसरा जिसके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है, उसे बाद में बिना छिपे कैमरे के सामने लाना भी लाजमी होता है। उससे उन्हीं सवालों को दोबारा कैमरे के सामने पूछना चाहिए, जिन्हें छिपे कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। ताकि उसकी यह शिकायत न रहे कि मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया गया। अगर पत्रकारिता की सीमा में रहकर व्यापक जनहित में स्टिंग ऑपरेशन किया जाए, तो इसे गलत नहीं मानना चाहिए। पर जैसा कि हमने पहले कहा कि ब्लैकमेलिंग या निहित स्वार्थों के आपसी झगडेा निपटाने के लिए इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना सही नहीं है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।