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Monday, January 10, 2022

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक


प्रधान मंत्री मोदी के क़ाफ़िले के साथ जो फ़िरोज़पुर में हुआ उससे कई सवाल उठते हैं। इस घटना का संज्ञान अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी लिया है। घटना की जाँच होगी और पता चलेगा चूक कहाँ हुई। लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर तमाम तरह के विश्लेषण भी आने लग गए हैं। इसमें ऐसे कई पत्रकार हैं जो काफ़ी समय से गृह मंत्रालय को कवर करते आए हैं। उनका गृह मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से अच्छा संपर्क होता है। उसी संपर्क के चलते कुछ पत्रकारों प्रधान मंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रूप ‘एसपीजी’ की कार्यप्रणाली से सम्बंधित सवाल भी उठाए हैं। दूसरे पंजाब सरकार को ही दोषी बता रहे हैं।
 



विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी इस घटना की निंदा करते हुए पंजाब की सरकार व केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इस घटना को लेकर अभी तक किसी भी तरह की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। 


आरोप प्रत्यारोप के बीच पंजाब के मुख्य मंत्री ने अपनी सफ़ाई भी दे डाली है। आनन-फ़ानन में फ़िरोज़पुर के एसएसपी को सस्पेंड कर दिया गया है।उधर सोशल मीडिया पर कई तरह के विडीयो भी सामने आ रहे हैं। जहां भाजपा का झंडा लिए हुए कुछ लोग ‘मोदी ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं और एसपीजी वाले चुप-चाप खड़े हैं। कुछ लोगों का तो यह तक कहना है कि प्रधान मंत्री बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के लाहोर चले गए तो उनकी जान कोई ख़तरा नहीं था। लेकिन अचानक उनके रास्ते में एक किलोमीटर आगे किसान आ गए तो उनकी जान को ख़तरा कैसे हो गया? औपचारिक घोषणा के न होने से अटकलों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। ऐसे में एक गम्भीर घटना भी मज़ाक़ बन कर रह जाती है। चूक कहाँ हुई इसकी जानकारी नहीं मिल पा रही। 


वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी जानकारी भी साझा की जा रही है जहां पूर्व प्रधान मंत्रियों पर हुए ‘हमले’ के विडीयो भी सामने आए हैं। फिर वो चाहे इंदिरा गांधी के साथ हुई भुवनेश्वर की घटना हो या राजीव गांधी पर राजघाट पर हुए हमले की हो या फिर मनमोहन सिंह पर अहमदाबाद में जूता फेंके जाने की घटना हुई हो। इन में से किसी भी घटना में किसी भी प्रधान मंत्री ने अपना कार्यक्रम रद्द नहीं किया। बल्कि उनकी सुरक्षा में तैनात कमांडो ने बहुत फुर्ती दिखाई। फ़िरोज़पुर की घटना के बाद एक न्यूज़ एजेंसी के हवाले से ऐसा पता चला है कि प्रधान मंत्री ने एक अधिकारी से कहा कि अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं ज़िंदा लौट पाया। ये अधिकारी कौन है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, क्योंकि उस अधिकारी द्वारा ऐसा संदेश औपचारिक रूप से नहीं भिजवाया गया। लेकिन घटना के बाद से ही यह लाइन काफ़ी प्राथमिकता से मीडिया में घूमने लग गई। जिससे आम जनता में एक अलग ही तरह का संदेश जा रहा है। 


फ़रवरी 1967 में जब चुनावी रैली के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भुवनेश्वर पहुँची तो वहाँ की उग्र भीड़ में से एक ईंट आ कर उनकी नाक पर लगी और खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपनी नाक से बहते हुए खून को अपनी साड़ी से रोका और अपनी चुनावी सभा पूर्ण की। उस सभा में उन्होंने उपद्रवियों से कहा, ‘ये मेरा अपमान नहीं है बल्कि देश का अपमान है। क्योंकि प्रधान मंत्री के नाते मैं देश का प्रतिनिधित्व करती हूं।’ इस घटना ने भी उनके चुनावी दौरे में परिवर्तन नहीं होने दिया और वे भुवनेश्वर के बाद कलकत्ता भी गयीं। उन्होंने अपने पर हुए हमले के बाद ऐसा कोई भी बयान नहीं दिया कि ‘मैं ज़िंदा लौट पाई!’। बल्कि एक समझदार राजनीतिज्ञ के नाते उन्होंने इस घटना को एक ‘मामूली घटना’ बताते हुए कहा कि चुनावी सभाओं ऐसा होता रहता है। 


अब फ़िरोज़पुर की घटना को लें तो प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले से काफ़ी आगे किसानों का एक शांतिपूर्ण धरना चल रहा था। प्रधान मंत्री मोदी अपनी गाड़ी में बैठे हुए थे और क़रीब 20 मिनट तक उन्हें रुकना पड़ा। न तो कोई भी प्रदर्शनकारी उनकी गाड़ी तक पहुँचा और न ही उन पर किसी भी प्रकार का हमला हुआ। इतनी देर तक प्रधान मंत्री को एक फ़्लाईओवर पर खड़े रहना पड़ा इसकी जवाबदेही तो एसपीजी की है। क्योंकि सुरक्षा के जानकारों के मुताबिक़ प्रधान मंत्री की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी एसपीजी की है न कि किसी भी राज्य पुलिस की। प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले में कई गाड़ियाँ उनकी गाड़ी से आगे भी चलती हैं। अगर एसपीजी को प्रदर्शन की जानकारी लग गई थी तो प्रधान मंत्री की गाड़ी को आगे तक आने क्यों दिया गया? दिल्ली में जब भी प्रधान मंत्री का क़ाफ़िला किसी जगह से गुजरता है तो जनता को काफ़ी दूर तक और देर तक रोका जाता है। इसका मतलब एसपीजी इसे सुनिश्चित कर लेती है कि कोई भी प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले के मार्ग में नहीं आएगा। 


यहाँ एक बात कहना चाहता हूँ जिसे मैंने भी अपने ट्विटर पर प्रधान मंत्री को सम्बोधित करते हुए लिखा है। अच्छा होता कि प्रधान मंत्री एसपीजी से कह कर प्रदर्शन करने वालों के एक प्रतिनिधि को अपने पास बुलवाते और उससे बात करते। इससे किसानों के बीच एक अच्छा संदेश जाता और आने वाले चुनावों में भी शायद इसका फ़ायदा मिलता। एक साल तक प्रदर्शन करते किसानों से तो आप मिले नहीं। अगर एक छोटे से समूह के प्रतिनिधि से मिल लेते तो सोशल मीडिया पर चल रहे मेघालय के राज्यपाल श्री सत्यपाल मालिक द्वारा आपके मेरे लिए थोड़ी मरे वाले बयान पर थोड़ी मरहम लग जाती। पर देश के प्रधानमंत्री के मुँह से मैं ज़िंदा बच कर लौट आया जैसा बयान किसी के गले नहीं उतर रहा। विपक्ष इसे नौटंकी और सत्ता पक्ष जान लेवा साज़िश बता रहा है। ये बयान प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था।

Monday, January 3, 2022

कानपुर छापा : काला धन या टर्नओवर?


पिछले दिनों कानपुर के इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहाँ जीएसटी का छापा बहुत चर्चा में रहा। इस छापे में क़रीब 300 करोड़ का ‘काला धन’, सोना, चाँदी, चंदन व अन्य सामान पकड़ा गया था। क्योंकि ये चुनाव का माहौल है और समाजवादी पार्टी का एक विधान परिषद सदस्य भी जैन है और इत्र का व्यापारी है इसलिए बिना तथ्यों को जाँचे सत्ता पक्ष के नेताओं, मीडिया व भाजपा की आईटी सेल ने सोशल मीडिया इस मामले को समाजवादी पार्टी का भ्रष्टाचार कहकर उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं देश के प्रधान मंत्री तक ने कानपुर की जनसभा में इसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कह कर तालियाँ पिटवायीं ।



पीयूष जैन का मामला शायद सामने नहीं आता अगर गुजरात में कुछ दिनों पहले जीएसटी ने ‘शिखर पान मसाला’ ले जा रहे ट्रकों को न पकड़ा होता। इस ट्रक में पान मसाले के साथ करीब 200 फर्जी ई-वे बिल भी पकड़े गए। इसके बाद डायरेक्ट्रेट जनरल ऑफ जीएसटी इंटेलीजेंस (डीजीजीआई) के अधिकारियों ने कानपुर का रुख़ किया और वहाँ डेरा डाल दिया। जो ट्रक पकड़ा गया था वह प्रवीण जैन का था। जो की इत्र कारोबारी पीयूष जैन के भाई अंबरीष जैन का बहनोई है। प्रवीण जैन के नाम पर करीब 40 से ज्यादा फर्में हैं। 


ग़ौरतलब है कि प्रवीण जैन के यहां छापेमारी में ही पीयूष जैन का सुराग मिला। पीयूष जैन को जैसे ही छापे की खबर मिली तो वो भाग गया। परिजनों के दबाव के बाद ही वह वापस लौट कर आया। पीयूष जैन के घर में छिपे हुए नोटों के बंडलों को देखकर जीएसटी की छापामार टीम की आंखें फटी की फटी रह गई। शायद इन अधिकारियों ने इससे पहले ऐसी अकूत दौलत देखी नहीं थी। इस छापे के  ट्रेल को देखें तो यह एक सामान्य सा छापा ही प्रतीत होता है। शुरुआती दौर में इस छापे में कोई भी राजनैतिक नज़रिया नज़र नहीं आता। लेकिन जैसे ही ‘जैन’ और ‘इत्र कारोबारी’ को जोड़ा गया वैसे ही अतिउत्साह में इसे समाजवादी पार्टी से भी जोड़ दिया गया और खूब शोर मचाया गया। भाजपा के सरकार में केंद्रीय  मंत्रियों ने भी इस पर ट्वीट की झड़ी लगा दी। 


यहाँ बताना ज़रूरी है कि 1991 में जब दिल्ली में हिज़बुल मुजाहिद्दीन के आतंकी पकड़े गए थे, तो उनकी जाँच कर रही दिल्ली पुलिस व बाद में सीबीआई कई जगह छापे मारने के बाद ‘जैन बंधुओं’ के घर और फार्म हाउस पहुँची। वहाँ पर पड़े छापे से एक डायरी (नम्बर दो के खाते) भी मिली जिसमें आतंकवादियों के साथ-साथ हर बड़े दल के तमाम बड़े नेताओं और देश के कई नौकरशाहों के भी नाम के साथ भुगतान की तारीख़ और रक़म लिखा था। छापे में बरामद इतने बड़े मामले की भनक जब तत्कालीन सरकार को लगी तो उस मामले को वही दबा दिया गया। 1993 में जब यह मामला मेरे हाथ लगा तब मैंने इसे उजागर ही नहीं किया बल्कि इसे सर्वोच्च न्यायालय तक ले गया। जो आगे चल कर ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से चर्चित हुआ। इस कांड ने भारत की राजनीति में इतिहास भी रचा और कई प्रभावशाली नेताओं और अफ़सरों को सीबीआई द्वारा चार्जशीट किया गया। 


चूँकि इस घोटाले में कई बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और अफ़सर आदि शामिल थे इसलिए सीबीआई ने चार्जशीट में इनके बच निकलने का रास्ता भी छोड़ दिया। अब कानपुर के कांड में भी ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। 


दरअसल, जब जीएसटी के अधिकारियों को पीयूष जैन के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में नगदी और सोना-चाँदी मिला तो ज़ाहिर सी बात है की आयकर विभाग को भी सूचित करना पड़ा। जब और जाँच हुई और पीयूष जैन से पूछ-ताछ हुई तो कई और राज खुले। यहाँ एक बात का ज़िक्र करना रोचक है कि हमारे वृन्दावन को उत्तर भारत के व्यापारियों की सूचना का केंद्र माना जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर व्यापारी श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर लगातार आते हैं और व्यापार में तरक़्क़ी की भिक्षा माँगते हैं। इन सभी व्यापारियों के वृन्दावन में तीर्थ पुरोहित या पंडे होते हैं। जिस दिन से कानपुर में यह छापा पड़ा है उस दिन से बिहारीजी के पंडों से में लगातार ये बात-चीत हो रही है कि पीयूष जैन के बारे में कानपुर के अन्य व्यापारियों ने बताया कि पीयूष जैन तो एक लम्बे अरसे से भाजपा और संघ को बड़ी मात्रा में धन और साधन प्रदान करता आया है। इसके यहाँ तो छापा गलती से पड़ गया। 


यहाँ पर वो कहावत - ‘जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वो खुद खाई में गिरता है’ सही साबित होती है। यदि अधिकारियों को समय रहते उसके भाजपाई होने का पता चल जाता तो शायद यह इतना ये  छापा ही न पड़ता।


जानकारों की मानें तो इस मामले को भी जल्दी दबाया जाएगा। अख़बारों से ऐसा पता चला है कि अब इस छापे में बरामद हुई भारी नकदी को अहमदाबाद के जीएसटी विभाग ने ‘टर्नओवर’ की रकम माना लिया है। हालाँकि इस बात की कोई औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा है तो टैक्स के जानकारों के मुताबिक यह भ्रष्टाचार के प्रति अधिकारियों की रहमदिली की पहली सीढ़ी है। 


इस ‘टर्नओवर’ में 31.50 करोड़ की टैक्स चोरी की बात कही जा रही है। टैक्स चोरी की पेनल्टी और उस पर ब्याज मिलाकर यह रकम क़रीब 52 करोड़ रुपये हो जाती है। ऐसे में पीयूष जैन केवल टैक्स व पेनल्टी की रकम अदा कर जमानत पर रिहा हो सकता है। पेनल्टी की रक़म जमा होने पर आयकर विभाग भी इस ‘काले धन’ के मामले में कार्रवाई नहीं कर पाएगा। पीयूष जैन का फिर सारा तथाकथित ‘काला धन’ पेनल्टी की गंगा नहा कर एक सफ़ेद हो जाएगा। जैसी चर्चा हो रही है कि यह सारा ‘काला धन’ जिन लोगों का है उनकी भी चाँदी हो जाएगी। मगर सोचने वाली बात यह है कि जब नोट बंदी से काले धन की समाप्ति का दावा किया गया था तो ये काला कहाँ से आ गया। भाजपा जिसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कहने लगी थी वह रातों-रात ‘टर्नओवर’ में कैसे बदल गया?

Monday, December 27, 2021

काशी : गंगा तेरा पानी अमृत


काशी विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर बन जाने से विदेशों में रहने वाले भारतीय और देश में रहने वाले कुछ लोग बहुत उत्साहित हैं। वे मानते हैं कि इस निर्माण से मोदी जी ने मुसलमान आक्रांताओं से हिसाब चुकता कर दिया। नए कोरिडोर का भव्य द्वार और तंग गलियों को तोड़कर बना विशाल प्रांगण अब पर्यटकों के लिए बहुत आकर्षक व सुविधाजनक हो गया है। वे इस प्रोजेक्ट को मोदी जी की ऐतिहासिक उपलब्धि मान रहे हैं । 


वहीं काशीवासी गंगा मैया की दशा नहीं सुधारने से बहुत आहत हैं। जिस तरह गंगा मैया में मलबा पाटकर गंगा के घाटों का विस्तार काशी कोरिडोर परियोजना में किया गया है उससे गंगा के अस्तित्व को ही ख़तरा उत्पन्न हो गया है। हज़ारों करोड़ रुपया ‘नमामी गंगे’ के नाम पर खर्च करके भी गंगा आज भी मैली है। मल-मूत्र से युक्त ‘अस्सी नाला’ आज भी गंगा में बदबदा कर गिर रहा है। लोगों का कहना है कि मोदी जी के डुबकी लगा लेने से गंगा निर्मल नहीं हो गयी। पिछली भाजपा सरकार में गंगा शुद्धि के लिये मंत्री बनी उमा भारती ने कहा था कि अगर मैं गंगा की धारा को अविरल और इसे प्रदूषण मुक्त नहीं कर पायी तो जल समाधि के लूँगी। आज वे कहाँ हैं ?



पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ। इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है।


यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि बिना यमुना का पुनरोद्धार करे गंगा का पुनरोद्धार नहीं होगा। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो गंगा-यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।


एक ओर गंगोत्री के पास विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे नदियों का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही नदियों में जल की भारी कमी हो चुकी है। नदियों में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। 


वहीं दूसरी ओर मैदान में आते ही गंगा कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी क्रूरता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद गंगा इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर काशी तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। गंगा में प्रदूषण का काफ़ी बड़ा हिस्सा केवल कानपुर व काशी वासियों की देन है। जब तक गंगा जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक उसमें निर्मल जल प्रवाहित नहीं होगा।  


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है। अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाए। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शांत करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। 


वैसे सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर पिछले चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने मतदाताओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते , तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है । जिसके बिना न प्रदेश आगे बढ़ता है और ना बन सकेगा गंगा का पानी अमृत। 


Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, October 18, 2021

टाटा के हुए ‘महाराजा’


डूबते हुए एयर इंडिया के ‘महाराजा’ का हाथ टाटा समूह ने 68 सालों बाद फिर से थाम लिया है। एवीएशन विशेषज्ञों की मानें तो टाटा के मालिक बनते ही ‘महाराजा’ को बचाने और दोबारा ऊँची उड़ान भरने के काबिल बनाने के लिए कई ऐसे फ़ैसले लेने होंगे जिससे एयर इंडिया एक बार फिर से भारत की एवीएशन का महाराजा बन जाए। टाटा ने देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कई डूबती हुई कम्पनियों को ख़रीदा है। इनमें से कई कम्पनियों को फ़ायदे का सौदा भी बना दिया है। अब देखना यह है कि अफ़सरशाही में क़ैद एयर इंडिया को उसकी खोई हुई गरिमा कैसे वापिस मिलती है।
 


मीडिया रिपोर्ट की मानें तो अब तक एअर इंडिया के विमानों पर किराए या लीज़ के तौर पर बहुत ज्यादा पैसा खर्च कर रहा था। इसके साथ ही इन पुराने हवाई जहाज़ों का कई वर्षों से सही रख रखाव भी नहीं हुआ है। यात्रियों के हित में टाटा को केबिन अपग्रेडेशन, इंजन अपग्रेडेशन समेत कई महत्वपूर्ण बदलाव लाने होंगे। विशेषज्ञों के अनुसार टाटा समूह को एअर इंडिया मौजूदा विमानों को अपग्रेड करने के लिए कम से कम 2 से 5 मिलियन डॉलर की मोटी रक़म खर्च करनी पड़ सकती है। गौरतलब है कि जब नरेश गोयल की जेट एयरवेज को ख़रीदने के लिए टाटा के बोर्ड में चर्चा हुई तो कहा गया था कि डूबती हुई एयरलाइन को ख़रीदने से अच्छा होता है कि ऐसी एयरलाइन के बंद होने पर रिक्त स्थानों पर नए विमानों से भरा जाए।

जिस तरह अफ़सरशाही ने सरकारी एयरलाइन में अनुभवहीन लोगों को अहम पदों पर तैनात किया था उससे भी एयर इंडिया को नुक़सान हुआ। किसी भी एयरलाइन को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल टीम की ज़रूरत होती है। भाई-भतीजेवाद या सिफ़ारिशी भर्तियों की एयरलाइन जैसे  संवेदनशील सेक्टर में कोई जगह नहीं होती। टाटा जैसे समूह से आप केवल प्रोफेशनल कार्य की ही कल्पना कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर टाटा समूह द्वारा भारतीय नागरिकों को पासपोर्ट जारी करने में जो योगदान दिखाई दे रहा है वो एक अतुलनीय योगदान है। जिन दिनों पासपोर्ट सेवा लाल फ़ीताशाही में क़ैद थी तब लोगों को पासपोर्ट बनवाने के लिए महीनों का इंतेज़ार करना पड़ता था। वही काम अब कुछ ही दिनों में हो जाता है। आजकल के सोशल मीडिया और आईटी युग में हर ग्राहक जागरूक हो चुका है। यदि वो निराश होता है तो कम्पनी की साख को कुछ ही मिनटों में अर्श से फ़र्श पर पहुँचा सकता है। इसलिए ग्राहक संतुष्टि की प्रतिस्पर्धा के दबाव के चलते हर कम्पनी को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना पड़ता है। 

विश्वभर में पिछले दो सालों में कोरोना की सबसे ज़्यादा मार पर्यटन क्षेत्र को पड़ी है। एवीएशन सेक्टर इसका एक अहम हिस्सा है। एक अनुमान के तहत इन दो सालों में इस महामारी के चलते एवीएशन सेक्टर को 200 बिलियन डॉलर से अधिक का नुक़सान हुआ है। माना जा रहा है कि अगर सब कुछ सही रहता है और कोविड की तीसरी लहर नहीं आती है तो 2023 से एवीएशन सेक्टर की गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाएगी। 


एयर इंडिया का निजीकरण कर टाटा को दिए जाने के फ़ैसले को ज़्यादातर लोगों द्वारा एक अच्छा कदम ही माना गया है। टाटा को इसे एक सर्वश्रेष्ठ एयरलाइन बनाने के लिए कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। जैसा कि सभी जानते हैं टाटा समूह के पास पहले से ही दो एयरलाइन हैं ‘विस्तारा’ और ‘एयर एशिया’ और अब एयर इंडिया और ‘एयर इंडिया एक्सप्रेस’। टाटा को इन चारों एयरलाइन के पाइलट और स्टाफ़ की ट्रेनिंग के लिए अपनी ही एक अकैडमी बना देनी चाहिए। जिसमें ट्रेनिंग अंतरराष्ट्रीय मानक के आधार पर हो। इससे पैसा भी बचेगा और ट्रेनिंग के मानक भी उच्च कोटि के होंगे। 

चार-चार एयरलाइन के स्वामी बनने के बाद टाटा समूह की सीधी टक्कर मध्यपूर्व की ‘क़तर एयरलाइन’ से होना तय है। मध्यपूर्व जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर होने के चलते, इस समय क़तर एयर के पास एवीएशन सेक्टर के व्यापार का सबसे अधिक हिस्सा है। कोविड काल में सिंगापुर एयर के 60 प्रतिशत विमान ग्राउंड हो चुके हैं। सिंगापुर एयरलाइन में टाटा समूह की साझेदारी होने के कारण, टाटा को सिंगापुर एयर के विमानों को अपने साथ जोड़ कर एयर इंडिया को दुनिया के हर कोने में पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। इससे क़र्ज़ में डूबी एयर इंडिया के आय के नए स्रोत भी खुलेंगे। 

टाटा को अपनी चारों विमानन कम्पनियों को अलग ही रखना चाहिए। जिस तरह टाटा समूह के अलग-अलग प्रकार के होटल हैं जैसे ‘ताज’ ‘विवांता’ व ‘जिंजर’ आदि उसी तरह बजट एयरलाइन और मुख्यधारा की हवाई सेवा को भी अलग-अलग रखना बेहतर होगा। अलग कम्पनी होने से टाटा समूह की ही दोनों कम्पनियों को बेहतर परफ़ॉर्म करना होगा और आपस की प्रतिस्पर्धा से ग्राहक का फ़ायदा होना निश्चित है। इनमें दो कम्पनी ‘एयर एशिया’ और ‘एयर इंडिया एक्सप्रेस’ सस्ती यानी ‘बजट एयरलाइन’ रहें जो मौजूदा बजट एयरलाइन व आने वाले समय में राकेश झुनझुनवाला की ‘आकासा’ को सीधी टक्कर देंगी। मौजूदा ‘विस्तारा’ को भी मध्यवर्गीय एयरलाइन के साथ प्रतिस्पर्धा में रहते हुए पड़ोसी देशों में अपने पंख फैलाने होंगे। एयर इंडिया में नए विमान जोड़ कर इसे एवीएशन की दुनिया का महाराजा बनने की ओर कदम तेज़ी से दौड़ाने होंगे। 

बीते कई वर्षों से नुकसान उठा रही एयर इंडिया की देरी और खराब सेवा को लेकर नकारात्मक छवि बनी है। इस चुनौती को भी टाटा को गम्भीरता से लेना होगा और सेवाओं की बेहतरी की दिशा में कुछ सक्रिय कदम उठाने होंगे। यह इतना आसान नहीं होगा, परंतु टाटा समूह में विषम परिस्थितियों में टिके रहने और लम्बी अवधि तक खेलने की क्षमता किसी से छुपी नहीं है। टाटा को इस चुनौतीपूर्ण कार्य के लिए एवीएशन सेक्टर के अनुभवी लोगों की टीम बनानी होगी और यह सिद्ध करना होगा कि एयर इंडिया को वापस लेकर टाटा ने कोई गलती नहीं की।    

Monday, July 19, 2021

कांग्रेस मुक्त भारत क्यों?

2014 के बाद से भाजपा के नेतृत्व ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त यानी विपक्ष मुक्त। पर ऐसा हो क्यों नहीं पाया? भाजपा ने इस लक्ष्य को पाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका खूब सहारा लिया। हर चुनाव पूरी ताक़त और आक्रामक मुद्रा में लड़े। प्रचार तंत्र बनाम मीडिया उसके पक्ष में ही रहा है। हर चुनाव में पैसा भी पानी की तरह बहाया गया है। जिसका एक लाभ तो हुआ कि ‘मोदी ब्रांड’ स्थापित हो गया। पर भारत कांग्रेस या फिर विपक्ष मुक्त नहीं हुआ। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे ज़्यादातर राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। गोवा, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा ने तोड़-फोड़ कर कैसे सरकार बनाई, वो भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में से जब नेतृत्व नहीं मिल पाया तो विपक्षी दलों के स्थापित नेताओं को धन और पद के लालच देकर भाजपा में लिया गया। तो उसकी ये नीति भी कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत के दावे को कमजोर करती है। क्योंकि इस तरह जो लोग भाजपा में आकर विधायक, सांसद या मंत्री बने, वे संघी मानसिकता के तो न थे, न बन पाएँगे। इस बात का गहरा अफ़सोस संघ परिवार को भी है।


यहाँ हमारा उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि लोकतंत्र में ऐसी अधिनायकवादी मानसिकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। लोकतंत्र का उद्देश्य ही है, वैचारिक विविधताओं का पारस्परिक सामंजस्य के साथ शासन चलाना। जब एक परिवार में दो सदस्य ही एक मत नहीं हो सकते, तो पूरे राष्ट्र को एक मत, एक रंग, एक धर्म में कैसे रंगा जा सकता है? जिन देशों ने ऐसा करने का प्रयास किया, उन देशों में तानाशाही की स्थापना हुई और आम जनता का जम कर शोषण हुआ और विरोध करने वालों पर निर्लज्जता से अत्याचार किए गए। जबकि भारत तो भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से नागालैंड तक, अपनी इस विविधता के कारण भारत की दुनिया में अनूठी पहचान है। 



समाज के विभिन्न आर्थिक व सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कोई एक विचारधारा नहीं कर सकती। क्योंकि हर वर्ग की समस्याएँ, परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। जिनका प्रतिनिधित्व उनका स्थानीय नेतृत्व करता है। भारत की संसद ऐसे विभिन्न क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से समाज के हर वर्ग के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है। इसलिए कांग्रेस या विपक्ष मुक्त नारा अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे रहा था। जिसे भारत की आम जनता ने बार-बार नकार कर ये सिद्ध कर दिया है कि उसे अनपढ़ या गंवार समझ कर हल्के में नहीं लिया जा सकता। सत्तारूढ़ दल पर मज़बूत विपक्ष का दबाव ही यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता के प्रति सरकार अपने कर्तव्य के निर्वाह करे। लोकतंत्र में जब भी विपक्ष कमजोर होगा सरकार निरंकुश हो जाएगी। 


लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए न्यायपालिका और मीडिया की भी स्वतंत्रता होना अतिआवश्यक होता है। इनके कमजोर पड़ते ही आम आदमी की प्रताड़ना बढ़ जाती है। उसका शोषण बढ़ जाता है। उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। जिसका पूरे देश की मानसिकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ सालों से भारत की न्यायपालिका का आचरण चिंताजनक रहा है। राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों को भी न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ न्यायधीशों ने स्वार्थवश जिस तरह दबा दिया, उससे जनता का विश्वास न्यायपालिका पर  घटने लगा था। ग़नीमत है कि इस प्रवृत्ति में पिछले कुछ दिनों से सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रवृत्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों तक होगा, जिससे लोकतंत्र का ये एक पाया टूटने से बच जाए। 


इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले कुछ हफ़्तों में मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह के आदेश पारित किए हैं या निर्देश दिए हैं उनका देश में अच्छा संदेश गया है। राष्ट्रद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून का जितना दुरुपयोग गत सात वर्षों में, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ। इससे देश में भय और आतंक का वातावरण बनाया गया और विरोध या आलोचना के हर स्वर को पुलिस के डंडे से दबाने का बहुत ही घृणित कार्य किया गया। ऐसा नहीं है की पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा नहीं किया, पर उसका प्रतिशत बहुत काम था। सोचने वाली बात यह है कि जब योगी आदित्यनाथ बहैसियत लोकसभा सांसद अपने ऊपर लगाए गए आपराधिक मामलों से इतने विचलित हो गए थे कि सबके सामने फूट-फूट कर रोए थे। तब लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने योगी जी को ढाढ़स बँधाया था। यह दृश्य टीवी के पर्दे पर पूरी दुनिया ने देखा था। प्रश्न है कि जब ठाकुर कुल में जन्म लेकर, कम उम्र में सन्यास लेकर, एक बड़े मठ के मठाधीश हो कर और एक चुने हुए सांसद हो कर योगी जी इतने भावुक हो सकते हैं, तो क्या उन्हें इसका अनुमान है कि जिन लोगों पर वे रोज़ ऐसे फ़र्ज़ी मुक़दमे थोप रहे हैं, उनकी या उनके परिवार की क्या मनोदशा होती होगी? क्योंकि उनकी आर्थिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि तो योगी जी की तुलना में नगण्य भी नहीं होती। 


कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोकतंत्र में बोलने की और अपना प्रतिनिधि चुनने की आज़ादी सबको होती है। ऐसे में विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने या विरोध के हर स्वर को दबाने से लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। जबकि इक्कीसवीं सदी में शासन चलाने की यही व्यवस्था सर्वमान्य है। इस में अनेक कमियाँ हो सकती हैं, पर इससे हट कर जो भी व्यवस्था बनेगी वो तानाशाही के समकक्ष होगी या उसकी ओर ले जाने वाली होगी। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को यह समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना, हमेशा ही राष्ट्र और समाज के हित के विपरीत होता है। वैसे इतिहास गवाह है कि कोई भी अधिनायक कितना ही ताकतवर क्यों न रहा हो, जब उसके अर्जित पुण्यों की समाप्ति होती है, तो उसका अंत बहुत हिंसक और वीभत्स होता है। इसलिए हर नेता, दल व नागरिक को पूरी ईमानदारी से भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए, कमजोर करने का नहीं। 

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, June 21, 2021

देश में एक धर्म नीति हो


जब देश में विदेश, रक्षा, उद्योग, शिक्षा, पर्यावरण आदि की नीतियाँ बनती हैं तो धर्म नीति क्यों नहीं बनती? सम्राट अशोक से बादशाह अकबर तक की धर्म नीति हुआ करती थी। प॰ नेहरू से श्री मोदी तक आज तक किसी भी प्रधान मंत्री ने सुविचारित व सुस्पष्ट धर्म नीति बनाने की नहीं सोची। जबकि भारत धार्मिक विविधता का देश है। हर राजनैतिक दल ने धर्म का उपयोग केवल वोटों के लिए किया है। समाज को बाँटा है, लड़वाया है और हर धर्म के मानने वालों को अंधविश्वासों के जाल में पड़े रहने दिया है। उनका सुधार करने की बात कभी नहीं सोची।
 

 

भारत में सगुण से लेकर निर्गुण उपासक तक रहते हैं। यहाँ की बहुसंख्यक आबादी सनातन धर्म को मानती है। किंतु सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान भी संविधान से मिली सुरक्षा के तहत अपने अपने धर्मों का अनुपालन करते हैं। मंदिर, गुरुद्वारे, अन्य पूजा स्थल, गिरजे और मस्जिद भारतीय समाज की प्रेरणा का स्रोत होते हैं। पर इनका भी निहित स्वार्थों द्वारा भारी दुरुपयोग होता है। जिससे समाज को सही दिशा नहीं मिलती और धर्म भी एक व्यापार या राजनीति का हथियार बन कर रह जाता है। जबकि धर्म नीति के तहत इनका प्रबंधन एक लिखित नियमावली के अनुसार, पूरी पारदर्शिता के साथ, उसी समाज के सम्पन्न, प्रतिष्ठित, समर्पित लोगों द्वारा होना चाहिए, किसी सरकार के द्वारा नहीं। इसके साथ ही उन धर्म स्थलों के चढ़ावे और भेंट को खर्च करने की भी नियमावली होनी चाहिए। इस आमदनी का एक हिस्सा उस धर्म स्थल के रख रखाव पर खर्च हो। दूसरा हिस्सा उसके सेवकों और कर्मचारियों के वेतन आदि पर। तीसरा हिस्सा भविष्य निधि के रूप में बैंक में आरक्षित रहे और चौथा हिस्सा समाज के निर्बल लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खर्च हो। 



आजकल हर धर्म में बड़े-बड़े आर्थिक साम्राज्य खड़े करने वाले धर्म गुरुओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चे धर्म गुरु वे होते हैं जो भोग विलास का नहीं बल्कि त्याग तपस्या का जीवन जीते हों। जिनके पास बैठने से मन में सात्विक विचार उत्पन्न होते हों - नाम, पद या पैसा प्राप्त करने के नहीं। जो स्वयं को भगवान नहीं बल्कि भगवान का दास मानते हों। जैसा गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है, मै हूं परम पुरख को दासा देखन आयो जगत तमाशा।, जो अपने अनुयायियों को पाप कर्मों में गिरने से रोकें। जो व्यक्तियों से उनके पद प्रतिष्ठा या धन के आधार पर नहीं बल्कि उनके हृदय में व्याप्त ईश्वर प्रेम के अनुसार व्यवहार करे। जिसके हृदय में हर जीव जंतु के प्रति करुणा हो। जिसे किसे से कोई अपेक्षा न हो। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति चाहे कितना ही प्रसिद्ध या किसी भी धर्म का क्यों न हो, धर्म गुरु नहीं हो सकता। वो तो धर्म का व्यापारी होता है। जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? पर इनका स्मरण करते ही स्वतः श्रद्धा व भक्ति जागृत होने लगती है।


सभी धर्मों के तीर्थ स्थानों में तीर्थ यात्रियों का भारी शोषण होता है। इस समस्या का भी हल धर्म नीति में होना चाहिए। जिसके अंतर्गत, स्वयंसेवी संस्थाएँ और सेवनिवृत अनुभवी प्रशासक निस्स्वार्थ भाव से अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार, अलग-अलग समूह बना कर अलग-अलग समस्याओं का समाधान करें। उल्लेखनीय है कि तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की जो प्रवृत्ति सामने आ रही है वो भारत की सनातन संस्कृति को क्रमश: नष्ट कर देगी। मनोरंजन और पर्यटन के लिए हमारे देश में सैंकड़ों विकल्प हैं। जहां ये सब आधुनिक सुविधाएँ और मनोरंजन के साधन विकसित किए जा सकते हैं। तीर्थ स्थल का विकास और संरक्षण तो इस समझ और भावना के साथ हो कि वहाँ आने वाले के मन में स्वतः ही त्याग, साधना और विरक्ति का भाव उदय हो। तीर्थ स्थलों में स्विमिंग पूल, शराब खाने और गोल्फ़ कोर्स बना कर हम उनका भला नहीं करते बल्कि उनकी पवित्रता को नष्ट कर देते हैं। इन सबके बनने से जो अपसंस्कृति प्रवेश करती है वो संतों और भक्तों का दिल तोड़ देती है। इस बात का अनुमान शहरीकरण को ही विकास मानने वाले मंत्रियों और अधिकारियों को कभी नहीं होगा। 


दुनिया भर के जिज्ञासु भारत के तीर्थस्थलों में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में आते हैं। पर भौंडे शहरीकरण ने, ज़ोर-ज़ोर से बजते कर्कश संगीत ने, कूड़े के ढेरों और उफनती नालों ने, ट्रैफ़िक की अव्यवस्था ने व बिजली आपूर्ति में बार-बार रुकावट के कारण चलते सैंकड़ों जनरेटरों के प्रदूषण ने इन तीर्थस्थलों का स्वरूप काफ़ी विकृत कर दिया है। मैं ये बात कब से कह रहा हूँ कि धार्मिक नगरों को सजाने और संवारने का काम नौकरशाही और ठेकेदारों पर छोड़ देने से कभी नहीं हो सकता। हो पाता तो पिछले 75 सालों में जो हज़ारों करोड़ रुपया इन पर खर्च किया गया, उससे इनका स्वरूप निखार गया होता।


करोड़ों रुपयों की घोषणा करने से कुछ नहीं बदलेगा। धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यकता है, आध्यात्मिक सोच और समझ की। जिसका कोई अंश भी किसी सरकार की नीतियों में कहीं दिखाई नहीं देता। सरकार का काम उत्प्रेरक का होना चाहिए, सहयोगी का होना चाहिए, अपने राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से अपने अपरिपक्व विचारों को थोपने का नहीं। उद्योग, कला, प्रशासन, पर्यावरण, क़ानून और मीडिया से जुड़े आध्यात्मिक रुचि वाले लोगों की औपचारिक सलाह से इन क्षेत्रों के विकास का नक़्शा तैयार होना चाहिए। धर्म के मामले में कोरी भावना दिखाने या उत्तेजना फैलाने से तीर्थस्थलों का विकास नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक सोच और निर्णय वाली नीति ही अपनानी होगी। जिसका समावेश देश की धर्म नीति में होना चाहिए।  

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ। 

Monday, May 17, 2021

आपदा में अवसर: एयर एम्बुलेंस


हाल ही में दिल्ली का एक नामी व्यापारी काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। इस व्यापारी नवनीत कालरा के दिल्ली में कई कारोबार हैं। इसके कारोबारों में दिल्ली के खान मार्केट में कबाब का एक मशहूर रेस्टोरेंट, चश्मों की एक चर्चित दुकान और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजन के कई और रेस्टोरेंट शामिल हैं। इन सबके अलावा कालरा की एक अंतर्राष्ट्रीय मोबाइल सिम सेवा भी शामिल है। लेकिन कालरा इन सभी व्यवसायों के कारण सुर्ख़ियों में नहीं था। वो तो कोविड आपदा में अवसर ढूँढने के चक्कर में विवादों में आया।
 


कोविड की दूसरी लहर के चलते मरीज़ों में ऑक्सीजन की कमी की पूर्ति के लिए ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटर की माँग अचानक बहुत बढ़ गई थी। इसी यंत्र को विदेशों से मंगा कर दिल्ली और आस पास के मरीज़ों को मुह माँगे दामों पर बेचने के कारण नवनीत कालरा सुर्ख़ियों में आया। चूँकि ये मामला अभी अदालत के विचाराधीन है इसलिए इस पर अभी कुछ नहीं कहें तो बेहतर होगा। हाँ अगर अदालत मानती है कि उसने कोई अपराध किया है तो नवनीत कालरा सज़ा पाएगा। 


इसी बीच पिछले हफ़्ते दो ऐसे हादसे हुए जिन्हें गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है। पहला हादसा नागपुर से मुंबई आ रही एक एयर एम्बुलेंस का था। जिसमें नागपुर से उड़ान भरते समय विमान का एक पहिया हवाई पट्टी के पास गिर गया था। ग़नीमत है कि हवाई अड्डों की सुरक्षा में तैनात सीआईएसएफ के एक सतर्क सिपाही ने इसकी सूचना तुरंत नागपुर एटीसी को दी, जिन्होंने विमान चालक से सम्पर्क किया। यह एयर एम्बुलेंस एक निजी कम्पनी द्वारा संचालित की जा रही थी। हैरानी वाली बात यह है कि इस एयर एम्बुलेंस के कप्तान को विमान द्वारा ऐसा कुछ भी संकेत नहीं मिला कि उसका पहिया नागपुर में ही गिर चुका है। उस सिपाही की सतर्कता के कारण ही विमान को मुंबई में आपातकाल लैंडिंग से उतारा गया, बिना किसी जान माल के नुक़सान के। उस विमान में सवार मरीज़ को भी समय पर कोविड की चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाया गया। 


अगर एयर एम्बुलेंस की बात करें तो नवनीत कालरा की तरह इन्हें चलाने वाली निजी कम्पनियाँ भी आजकल आपदा के दौर में खूब अवसर खोज रही हैं। पर इस हादसे से यह साबित होता है कि अंधा  पैसा कमाने के चक्कर में वे विमान के रख रखाव पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं। इसीलिए ऐसे हादसे होते हैं। इतना ही नहीं एयर एम्बुलेंस चलाने वाली इन निजी कम्पनियों की कई बड़े अस्पतालों के साथ साँठगाँठ है जिसके कारण वे सवारियों से मुह माँगे दाम वसूल रही हैं। 


मिसाल के तौर पर अगर किसी मरीज़ को पटना से किसी बड़े अस्पताल में ले जाना है तो बजाय कोलकाता या किसी नज़दीक शहर में ले जाने के ये कम्पनियाँ उस मरीज़ को हैदराबाद जैसे दूर दराज के शहर ले जाती हैं और उसके बदले में मरीज़ के घरवालों से 25-30 लाख रुपय ऐंठती हैं। जबकि आम तौर पर ऐसी चार्टेड यात्रा का खर्च 2 से 3 लाख रुपय आता है। ऐसे समय में मरीज़ों से मुह माँगे दाम ऐंठना कालाबाज़ारी से कम अपराध नहीं है। 


इतना ही नहीं इन विमानों में मरीज़ों को ले जाए जाने के लिए तय मापदंडों की भी धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। ये लापरवाही जान बचाने की बजाय जानलेवा भी हो सकती हैं। नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) को इस दिशा में कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए और निजी कम्पनियों द्वारा चलाई जा रही एयर एम्बुलेंस की निगरानी सख़्ती से होनी चाहिए। पर आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हो रहा।    


इसी क्रम में दूसरा हादसा मध्य प्रदेश में हुआ जिसमें करोड़ों रुपये का सरकारी जहाज़ बर्बाद हो गया है। मध्य प्रदेश सरकार के विमान में ले जाए जा रहे कोविड के जीवन रक्षक इंजेक्शन ‘रेमडेसिविर’ की एक बड़ी खेप इस जहाज़ में थी। करोड़ों रुपय की लागत से ख़रीदे गए इस राज्य सरकार के सवारी विमान, जोकि राज्य सरकार के अति विशिष्ट व्यक्तियों के इस्तेमाल के लिए होता है, इस हादसे के बाद, बुरी तरह से क्षतिग्रस्त होने के कारण अब किसी काम का नहीं रहा। ग़नीमत है इसमें लाए जा रहे जीवन रक्षक ‘रेमडेसिविर’ इंजेक्शन और पाइलट सुरक्षित हैं। सूत्रों की मानें तो प्राथमिक जाँच से यह पता चला है कि इस हादसे के लिए इसका पाइलट कैप्टन माज़िद अख़्तर ही ज़िम्मेदार है। 


दरअसल ऐसे सवारी वाले छोटे विमानों में कार्गो या सामान की ढ़ुलाई करने के लिए यदि विमान की सीटों को निकाला जाता है तो विमान निर्माता व डीजीसीए से विशेष अनुमति लेना अनिवार्य होता है। आपात स्थिति बताकर इस विमान में ऐसा नहीं किया गया था। यह सब भी कैप्टन माजिद अख़्तर के रसूख़ के चलते उसकी ही देख रेख में हुआ।


ग़ौरतलब है कि इस विमान के पाइलट कैप्टन माजिद अख़्तर के ख़िलाफ़ दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने डीजीसीए को कई महीने पहले पत्र लिख कर शिकायत की थी। जिसमें कैप्टन माजिद की क़ाबिलियत एवं अनुशासनहीनतापूर्ण कार्यप्रणाली को लेकर सप्रमाण कई सवाल उठाए थे। लेकिन कैप्टन माजिद के रसूख़ के चलते उन शिकायतों की अनदेखी कर न तो उसे विमान उड़ाने से रोका गया और न ही शिकायत पर कोई कार्यवाही हुई। ऐसी लापरवाही क्यों की गई? 


उल्लेखनीय है कि कैप्टन माजिद अख़्तर मध्य प्रदेश शासन के पाइलट होने के साथ साथ डीजीसीए द्वारा ‘बी 200’ विमान के परीक्षक के पद पर भी नियुक्त था। इस कार्यवाही को अंजाम देते हुए इसने कई पाइलटों के प्रशिक्षण एवं जाँच में धांधली की और ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों को अंजाम दिया। जिसकी शिकायत कालचक्र द्वारा समय-समय पर डीजीसीए से लिखकर की गई। यदि समय रहते डीजीसीए इन शिकायतों का संज्ञान लेता और जाँच करता तो इस तरह की लापरवाही भरे आचरण पर लगाम लगती और जान-माल के नुक़सानों से बचा जा सकता था।  


कैप्टन माज़िद द्वारा एक और संगीन अपराध किया गया। डीजीसीए द्वारा दिए गए दिशा निर्देश के तहत किसी भी पाइलट या क्रू, जिसने कोविड का वैक्सीन लगवाया हो, उसे अगले 48 घंटे तक उड़ान भरने की मनाई है। लेकिन कैप्टन माजिद अख़्तर के लिए सभी नियम और क़ानून केवल किताबी हैं। उसने इस नियम की भी धज्जियाँ उड़ाते हुए 17 मार्च 2021 को कोविड वैक्सीन लगवाने के कुछ ही घंटों में मध्य प्रदेश के राज्यपाल के साथ उड़ान भरी। जिसकी शिकायत डीजीसीए से की गयी। लेकिन इस शिकायत के बाद भी डीजीसीए ने माज़िद पर कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं की ? 


ठीक उसी तरह, कैप्टन अख़्तर ने बतौर परीक्षक उत्तर प्रदेश सरकार के कई पाइलटों को उड़ान जाँच योग्यता में पास कर दिया जिसमें से अधिकतर पाइलटों का आपदा प्रबंधन का अनिवार्य सर्टिफिकेट अवैध था। बिना इस गम्भीर बात की जाँच किए हुए उन्होंने ये गैर ज़िम्मेदाराना कार्य किया और इस प्रकार के दर्जनों अनुशासनहीन प्रशिक्षण कार्य कराते आए हैं। इस शिकायत को भी डीजीसीए द्वारा अनदेखा किया गया।


डीजीसीए के अधिकारियों को ऐसी गम्भीर लापरवाही करने वाले अपने लोगों के विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। इसी तरह अनुशासनहीन पाइलटों को भी विमान उड़ाने की इजाज़त न दी जाए। 


उधर निजी चार्टर विमानों में अगर सवारी की जगह मरीज़ और डाक्टर को ले जाने का प्रबंध करना है तो तय मापदंडों के अनुसार ही विमान में फेर बदल किया जाए न कि निजी कम्पनी की इच्छा अनुसार। ऐसा करने से कालाबाज़ारी कर रहे लोगों पर लगाम कसेगी और जान माल की भी रक्षा होगी।

Monday, May 3, 2021

विपदा क़ानून क्या ढिंढोरा पीटने को बनाये थे ?


जब चारों तरफ़ मौत का भय, कोविड का आतंक, अस्पताल, ऑक्सिजन और दवाओं की कभी न पूरी होने वाली माँग के साये में आम ही नहीं ख़ास आदमी भी बदहवास भाग रहा है, तब हिंदी के कुछ मशहूर कवियों का आशा जगाने वाला एक गीत फिर से लोकप्रिय हो रहा है। पर्दे पर इस गीत को सुरेंद्र शर्मा, संतोष आनंद, शैलेश लोढ़ा, आदि ने गाया है। गीत का शीर्षक ‘फिर नई शुरुआत कर लेंगे’ है।


जब से कोविड का आतंक फैला है तब से सोशल मीडिया पर ज्ञान बाँटने वालों की भी भीड़ लग गई है। दुनिया भर से हर तरह का आदमी चाहे वो डाक्टर हो या ना हो, वैद्य हो या न हो या फिर स्वास्थ्य विशेषज्ञ हो या न हो, कोविड से निपटने या बचने के नुस्ख़े बता रहा है। उसमें कितना ज्ञान सही है और कितना ग़लत तय करना मुश्किल है। उधर देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस बुरी तरह से चरमरा गई हैं कि बड़े-बड़े प्रभावशाली आदमी भी मेडिकल सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सरकारों के हाथ पाँव फूल रहे हैं। दुनिया दिल थाम कर भारत में चल रहे मौत के तांडव का नजारा देख रही है। कल तक हम सीना ठोक कर कोविड पर विजय पाने का दावा कर रहे थे पर आज दुनिया के रहमोकरम के आगे घुटने टेक रहे है। अच्छी बात यह है कि हर सक्षम देश भारत की मदद को आगे आ रहा है। अब भारत सरकार ने भी तेज़ी से हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए हैं। पर जिस तरह चेन्नई और प्रयाग में उच्च न्यायालयों ने सरकार की नाकामी पर करारा प्रहार किया है और चुनाव आयोग को हत्यारा तक कहा है। उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं तो सरकार ने भी लापरवाही की है। पर जनता भी कम ज़िम्मेदार नहीं जिसने कोविड की पहली लहर मंद पड़ जाने के बाद खुलकर लापरवाही बरती। 



जहां तक इस आपदा से निपटने की तैयारी का सवाल है तो गौर करने वाली बात यह है कि 2005 में देश में ‘आपदा प्रबंधन क़ानून’ लागू किया गया था। जिसमें राष्ट्रीय व प्रांतीय आपदा प्रबंधन समितियों के गठन का प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 2 (ई) के तहत आपदा का मूल्यांकन तथा धारा 2 (एम) के तहत तैयारियों का प्रावधान है। धारा 3 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के अध्यक्ष माननीय प्रधान मंत्री होते हैं। उक्त क़ानून की धारा 42 के तहत एक आपदा संस्थान भी स्थापित करने का प्रावधान है। इसी क़ानून के तहत आपदा कोश बनाने का भी प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 11 के तहत राष्ट्रीय योजना बनाने का भी प्रावधान है। दुर्भाग्य से न तो कोई योजना बनी, न संस्थान स्थापित हुआ। यही नहीं उक्त क़ानून की धारा 13 के तहत ये भी प्रावधान बनाया गया था की ऋण अदायगी के तहत भी छूट दी जाएगी। इसके अलावा ‘नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फ़ोर्स’ की धारा 44 व 46 के तहत नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फंड, धारा 47 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड तथा धारा 48 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड को राज्यों में भी बनाने का प्रावधान है। धारा 72 के तहत आपदा के तहत सभी मौजूदा क़ानून निशप्रभावी रहेंगे। 


2005 से 2014 तक देश में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी और 2014 से श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है। आपदा प्रबंधन के इन क़ानूनों की उपेक्षा करने के लिए ये दोनों सरकारें बराबर की ज़िम्मेदार हैं। 



उक्त क़ानून के अध्याय 10 के तहत दंडनीय अपराधों का प्रावधान भी है। धारा 55, 56 तथा 57 के तहत यदि कोई प्रांतीय सरकार या सरकारी विभाग आपदा प्रबंधन के समय उक्त क़ानून के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो यह उसका दंडनीय अपराध माना जाए। कोविड काल में देश में हुए विभिन्न धर्मों के सार्वजनिक आयोजन अन्य राजनैतिक कार्यक्रमों का इतने वृहद् स्तर पर, बिना सावधानियाँ बरते, आयोजन करवाना या उनकी अनुमति देना भी इस क़ानून के अनुसार सम्बंधित व्यक्तियों को अपराधी की श्रेणी में खड़ा करता है। ख़ासकर तब जबकि पिछले वर्ष मार्च से आपदा प्रबंधन क़ानून लागू कर दिया गया था तथा धार 72 के तहत समस्त दूसरे क़ानून निष्प्रभावी थे। ऐसे में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अनुमति के बिना, विभिन्न धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक आयोजन कराना क्रमशः राज्य सरकारों तथा भारत के चुनाव आयोग के सम्बंधित अधिकारियों को दोषी ठहराता है।


फ़िलहाल जो आपदा सामने है उससे निपटना सरकार और जनता की प्राथमिकता है। जब विधायक और सांसद तक चिकित्सा सुविधाएँ नहीं जुटा पाने के कारण गिड़गिड़ा रहे हैं क्योंकि इनकी देश भर में सरेआम काला बाज़ारी हो रही है। नौकरशाही इस आपदा प्रबंधन में किस हद तक नाकाम सिद्ध हुई है इसका प्रमाण है कि उत्तर प्रदेश के राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष तक को 12 घंटे तक लखनऊ के सरकारी अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला और जब मिला तो बहुत देर हो चुकी थी और उनका देहांत हो गया। इसलिए समय की माँग है कि ऑक्सिजन, दवाओं और अस्पतालों में बिस्तर के आवंटन और प्रबंधन का ज़िम्मा एक टास्क फ़ोर्स को सौंप देना चाहिए। प्रधान मंत्री श्री मोदी को फ़ौज और टाटा समूह जैसे बड़े औद्योगिक संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय समन्वय टास्क फ़ोर्स गठित करनी चाहिए जो इस आपदा से सम्बंधित हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो।



अब जब भारत सरकार भारतीय वायु सेना को इस आपदा प्रबंधन में लगा रही है तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि हवाई जहाज़ अन्य वाहन एवं वायु सेना के सम्बंधित कर्मचारी व अधिकारी पूरी तरह से कोविड से बचाव करते हुए काम में लगाए जाएं। ऐसा न हो कि लापरवाही के चलते वायु सेना के लोग इस महामारी की चपेट में आ जाएं। सावधानी यह भी बरतनी होगी कि कोविड उपचार में जुटे डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों का उनकी क्षमता से ज़्यादा दोहन न हो। अन्यथा ये व्यवस्था भी चरमरा जाएगी।