Showing posts with label VHP. Show all posts
Showing posts with label VHP. Show all posts

Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।  

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।    

Monday, January 15, 2024

अयोध्या: प्राण प्रतिष्ठा में विवाद क्यों?

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है। गोवर्धन पीठ (पुरी, उड़ीसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है कि, मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं - कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति प्रतिष्ठा?” प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मज़दूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाक़ी शंकराचार्यों ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण प्रतिष्ठा की माँग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहाँ चर्चा करेंगे। 



पहला पक्ष यह है कि ये चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातन धर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिक विषय पर अगर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आये हैं। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं। आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, अहम् ब्रह्मास्मिका तत्व ज्ञान देने के बावजूद विष्णु षट्पदी स्तोत्रकी रचना की और भज गोविन्दमगाया। इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का ये आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसलिए हिंदुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है। 



उधर दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधान मंत्री श्री मोदी ने एक प्रबल इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिये साधते हुए, इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिंदू समाज को एक चिर प्रतीक्षित उपहार दिया है। इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए। इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्राब्दियों में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, सिख धर्म या इस्लाम तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसी तरह मुसलमान शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेज़ी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रही है। इसलिए हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है। पर इसके साथ ही देश में ये विवाद भी चल रहा है कि हिंदुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। जिसका उल्लेख हिंदू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक आरएसएस और हिंदू धर्ममें शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। 



जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिये हैं उससे स्पष्ट है कि हिंदुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिंदू राष्ट्रवाद। इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच ये वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। 



फिर भी हिंदुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इसलिए हिंदुओं का ये वर्ग मोदी जी को अपना हीरो मानता है। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। जिन्होंने राज धर्मकी बात कही थी। पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। वो जो ठान लेते हैं, वो कर गुजरते हैं। फिर वे नियमों और आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। इसीलिए जहां नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए, वहीं दूसरे कुछ मोर्चों पर उन्होंने अपनी सफलता के झंडे भी गाड़े हैं। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। क्योंकि ये उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके इस कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। 


रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदू समाज ने इन सर्वोच्च धर्म गुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। उधर पिछले सौ वर्षों में शंकराचार्यों की ओर से भी वृहद हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही उनकी क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज़्यादा धार्मिक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है। पर अगर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो वह शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। पर ऐसा नहीं है। हिंदुत्व की विचारधारा भारत के हज़ारों वर्षों से चले आ रहे सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह एक राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और अपने लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और सम्प्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और सम्प्रदायों ने सक्रिय होकर इस आन्दोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। यह दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने सामने खड़े हो गये हैं।


Monday, December 25, 2023

क्यों जरुरी था अयोध्या का भव्य विकास?


X
(ट्विटर) पर एक पोस्ट देखी जिसमें अयोध्या में रामलला के विग्रह को रज़ाई उढ़ाने का मज़ाक़ उड़ाया गया है। उस पर मैंने निम्न पोस्ट लिखी जो शायद आपको रोचक लग। वैष्णव संप्रदायों में साकार ब्रह्म की उपासना होती है। उसमें भगवान के विग्रह को पत्थर, लकड़ी या धातु की मूर्ति नहीं माना जाता। बल्कि उनका जागृत स्वरूप मानकर उनकी सेवा- पूजा एक जीवित व्यक्ति के रूप में की जाती है।


ये सदियों पुरानी परंपरा है। जैसे श्रीलड्डूगोपाल जी के विग्रह को नित्य स्नान कराना, उनका शृंगार करना, उन्हें दिन में अनेक बार भोग लगाना और उन्हें रात्रि में शयन कराना। ये परंपरा हम वैष्णवों के घरों में आज भी चल रही है। ‘जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरत देखी तीन तैसी।’


इसीलिए सेवा पूजा प्रारंभ करने से पहले भगवान के नये विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसका शास्त्रों में संपूर्ण विधि विधान है। जैसा अब रामलला के विग्रह की अयोध्या में भव्य रूप से होने जा रही है।



यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपना चुनावी एजेंडा तय करता है और उसे इस आशा में आगे बढ़ाता है कि उसके जरिये वह दल चुनाव की वैतरणी पार कर लेगा। ‘गरीबी हटाओ’, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’ या ‘बहुत हुई महंगाई की मार-अबकी बार मोदी सरकार’ कुछ ऐसे ही नारे थे जिनके सहारे कांग्रेस और भाजपा ने लोक सभा के चुनाव जीते और सरकारें बनाई। इसी तरह ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ ये वो नारा था जो संघ परिवार और भाजपा ने 90 के दशक से लगाना शुरू किया और 2024 में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। इसलिए आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर में भगवान के श्री विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि मंदिर का निर्माण पूर्ण हुए बिना ही बीच में इतना भव्य आयोजन 2024 के लोक सभा चुनावों को लक्ष्य करके आयोजित किया जा रहा है। पर ये कोई आलोचना का विषय नहीं हो सकता। 



विगत 33 वर्षों में श्रीराम जन्मभूमि को लेकर जितने विवाद हुए उनपर आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हर पक्ष के अपने तर्क हैं। पर सनातन धर्मी होने के कारण मेरा तो शुरू से यही मत रहा है कि अयोध्या, काशी और मथुरा में हिन्दुओं के धर्म स्थानों पर मौजूद ये मस्जिदें कभी सांप्रदायिक सद्भाव नहीं होने देंगी। क्योंकि अपने तीन प्रमुख देवों श्रीराम, श्री शिव व श्री कृष्ण के तीर्थ स्थलों पर ये मस्जिदें हिन्दुओं को हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी जब मुसलमान आक्रांताओं ने यहां मौजूद हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करके यहां मस्जिदें बनाईं थीं। अपने इस मत को मैंने इन 33 वर्षों में अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में प्रमुखता से प्रकाशित व प्रसारित भी किया। इसलिए आज अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हर आस्थावान हिन्दू के लिए हर्षोल्लास का विषय है।



हर्ष का विषय है कि प्रभु श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की साक्षी रही अयोध्या नगरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भव्य स्तर पर विकसित करने का संकल्प लिया और उसी प्रारूप पर आज अयोध्या का विकास हो रहा है ताकि दुनिया भर से आने वाले भक्त और पर्यटक अयोध्या का वैभव देखकर प्रभावित व प्रसन्न हों। भगवान श्री राम की राजधानी का स्वरूप भव्य होना ही चाहिए।  


एक बात और कि जब मोदी जी प्रधान मंत्री बने और मुझे उनकी ‘ह्रदय योजना’ का राष्ट्रीय सलाहकार नियुक्त किया गया, तब से यह बात मैं सरकार के संज्ञान में सीधे और अपने लेखों के माध्यम से ये बात लाता रहा हूँ कि अयोध्या, काशी और मथुरा का विकास उनकी सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप होना चाहिए एकरूप नहीं। जैसे अयोध्या राजा राम की नगरी है इसलिए उसका स्वरुप राजसी होना चाहिए।  जबकि काशी औघड़ नाथ की नगरी है जहां कंकड़-कंकड़ में शंकर बसते हैं। इसलिए उसका विकास उसी भावना से किया जाना चाहिए था न कि काशी कॉरिडोर बनाकर। क्योंकि इस कॉरिडोर में भोले शंकर की अल्हड़ता का भाव पैदा नहीं होता बल्कि एक राजमहल का भाव पैदा होता है। ऐसा काशी के संतों, दार्शनिकों व सामान्य काशीवासियों का भी कहना है। इसी तरह मथुरा-वृन्दावन में जो कॉरिडोरनुमा निर्माण की बात आजकल हो रही है वह ब्रज की संस्कृति के बिलकुल विपरीत है। यह बात स्वयं  बालकृष्ण नन्द बाबा से कह रहे हैं, नः पुरो जनपदा न ग्रामा गृहावयम्, नित्यं वनौकसतात् वनशैलनिवासिनः (श्रीमदभागवतम, दशम स्कंध, 24 अध्याय व 24 वां श्लोक), बाबा ये पुर, ये जनपद, ये ग्राम हमारे घर नहीं हैं। हम तो वनचर हैं। ये वन और ये पर्वत ही हमारे निवासस्थल हैं। इसलिए ब्रज का विकास तो उसकी प्राकृतिक धरोहरों जैसे कुंड, वन, पर्वत और यमुना का संवर्धन करके होना चाहिए, जहां भगवान श्री राधा-कृष्ण ने अपनी समस्त लीलाएं कीं। पर आज ब्रज तेजी से कंक्रीट का जंगल बनता जा रहा है। इससे ब्रज के रसिक संत और ब्रज भक्त बहुत आहत हैं। हमारे यहां तो कहावत है, ‘वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय, डाल-डाल और पात पे राधे लिखा होय।’  



यहां एक और गंभीर विषय उठाना आवश्यक है। वह यह कि नव निर्माण के उत्साह में प्राचीन मंदिरों के प्राण प्रतिष्ठित विग्रहों को अपमानित या ध्वस्त न किया जाए, बल्कि उन्हें ससम्मान दूसरे स्थान पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाए।यहाँ ये याद रखना भी आवश्यक है कि किसी भी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह की उपेक्षा करना, उनका अपमान करना या उनका विध्वंस करना सनातन धर्म में जघन्य अपराध माना जाता है। इसे ही तालिबानी हमला कहा जाता है। जैसा अनेक मुसलमान शासकों ने मध्य युग में और हाल के वर्षों में कश्मीर, बांग्लादेश व अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों ने किया। इतिहास में प्रमाण हैं कि कुछ हिंदू राजाओं ने भी ऐसा विध्वंस बौद्ध विहारों का किया था।


अगर किसी कारण से किसी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को या उसके मंदिर को विकास की योजनाओं के लिए वहाँ से हटाना आवश्यक हो तो उसका भी शास्त्रों में पूरा विधि-विधान है। जिसका पालन करके उन्हें श्रद्धा पूर्वक वहाँ से नये स्थान पर ले ज़ाया जा सकता है।

पर उन्हें यूँ ही लापरवाही से उखाड़ कर कूड़े में फेंका नहीं जा सकता। ये सनातन धर्म के विरुद्ध कृत्य माना जाएगा। हर हिंदू इस पाप को करने से डरता है। 

Monday, February 6, 2023

शालिग्राम शिला तराशी नहीं जाती


अगर आस्था और श्रद्धा के बिना सत्ता पाने के उद्देश्य से व वोट बटोरने के लिए धर्म में राजनीति का प्रवेश हो तो ये कितना घातक हो सकता है इसके उदाहरण पिछले कुछ वर्षों से निरंतर देखने को मिल रहे हैं। जिससे संत और भक्त समाज बहुत व्यथित हैं। पर सत्ता के अहंकार में सत्ताधीश किसी की भावना और आस्था की कोई परवाह नहीं करते। फिर वो चाहे किसी भी धर्म के झंडाबरदार होने का दावा क्यों न करें।
 


ताज़ा विवाद अयोध्या के श्री राम मंदिर के लिए प्रभु श्री राम और सीता माता की मूर्ति निर्माण के लिए नेपाल से लाई गयीं विशाल शिलाओं के कारण पैदा हुआ है। वैदिक शास्त्रों को न मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं संघ व भाजपा का नेतृत्व हिंदू भावनाओं का नक़दीकरण करने के लिये अपने मनोधर्म से नई-नई नौटंकियाँ करते रहते हैं। जिन शिलाओं को इतने ताम-झाम, ढोल-ताशे और मीडिया प्रचार के साथ नेपाल से अयोध्या लाया गया है उन शिलाओं को शालिग्राम बता कर उनका सारे रास्ते पूजन करवाया गया। पर अयोध्या पहुँचने पर अयोध्या का संत समाज इसके विरुद्ध खड़ा हो गया है। संत आहत हैं और आक्रोशित हैं। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार शालिग्राम की शिला साक्षात विष्णु जी का स्वरूप मानी गई है। देवी भागवत पुराण, शिव पुराण व ब्रह्म वैयवर्त आदि पुराणों में शालिग्राम शिला की विधिवत सेवा व पूजा का विवरण आता है। इसलिए शालिग्राम शिला पर कभी भी छैनी-हथौड़ी नहीं चलाई जा सकती। ये घोर अपराध है। इसलिए अयोध्या के संतों ने घोषणा कर दी है कि वे इन शिलाओं पर छैनी-हथौड़ी नहीं चलने देंगे। 

दूसरी ओर एक विवाद यह है कि ये शिलाएँ शालिग्राम की हैं ही नहीं। क्योंकि शालिग्राम की शिलाओं का आकार प्रायः काफ़ी छोटा होता है। जिन्हें हथेली पर धारण किया जा सकता है। वैसे बड़ी शिलाएँ भी होती हैं। इन शिलाओं पर भगवान विष्णु से संबंधित अनेक चिन्ह अंकित होते हैं। जैसे शंख, चक्र, गदा व पद्म आदि। इसके अलावा इन शिलाओं के रूप, रंग और आकार-प्रकार के अनुरूप इनके विविध नाम भी होते हैं। जैसे दशावतार के नामों पर आधारित दस तरह की शालिग्राम शिलाएँ नेपाल की काली गण्डकी नदी के तल में पाई जाती  हैं। इसके अलावा इन शिलाओं के अन्य नाम व प्रकार भी होते हैं जैसे: केशव, हैयग्रीव, हिरण्यगर्भ, चतुर्भुज, गदाधार, नारायण, लक्ष्मीनारायण, रूपनारायण, माधव, गोविंद, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, श्रीधर, पद्मनाभ, दामोदर, सुदर्शन व वासुदेव आदि। अब जिन विशाल शिलाओं को शालिग्राम बता कर नेपाल से अयोध्या लाया गया है वे शास्त्रों के अनुसार किस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं यह बताने का दायित्व भी श्रीराम मंदिर निर्माण समिति के सदस्यों का है। 

अगर ये शिलाएँ शालिग्राम की नहीं हैं केवल गण्डकी नदी के किनारे उपलब्ध पत्थर मात्र ही हैं तो इन्हें शालिग्राम बता कर हिंदुओं को क्यों मूर्ख बनाया जा रहा है? अगर ये शालिग्राम हैं तो फिर इन्हें तराश कर मूर्ति बनाना घोर पाप कर्म होगा। 

गोवर्धन की तलहटी में पौराणिक संकर्षण कुंड पर संकर्षण भगवान के 34 फुट ऊँचे काले ग्रेनाइट के विशाल विग्रह के निर्माण का निर्णय 2016 में जब द ब्रज फाउंडेशन ने लिया तो उसके वरिष्ठ अधिकारी आंध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति देवस्थान गये। वहाँ शास्त्रानुसार प्रशिक्षित 22 योग्य शिल्प-शास्त्रियों के नेतृत्व में तिरुमाला की पहाड़ियों पर विष्णुतत्व की 50 टन की एक विशाल शिला को खोज कर बड़ी-बड़ी क्रेनों की मदद से उसे पहाड़ों से नीचे लाए। वहाँ तिरूपति में उन योग्य शिल्प शास्त्रियों ने संकर्षण भगवान या बलराम जी के दिव्य विग्रह का एक वर्ष तक निर्माण किया। जिन्हें फिर ट्रेलर पर लाद कर तिरूपति से गोवर्धन (मथुरा) लाया गया। 

यहाँ ये  उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि तिरुमाला की पहाड़ियों पर लक्ष्मी तत्व और विष्णु तत्व की विशाल शिलाएँ पाई जाती हैं। उन्हीं को तराश कर लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम या राधा-कृष्ण के विग्रहों का निर्माण किया जाता है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्यों को शायद इस तथ्य की जानकारी नहीं थी। अगर होती तो नाहक ये विवाद न खड़ा होता। क्योंकि तब सही शिलाएँ तिरूपति से आ जाती। 

वृंदावन के 500 वर्ष पुराने सुप्रसिद्ध श्री राधारमण मंदिर में भगवान राधा-रमण जी का जो छोटा सा सुंदर विग्रह है वो श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अर्चित शालिग्राम शिला से स्वप्रकट विग्रह है। उसे छैनी-हथौड़ी से तराशा नहीं गया है। मंदिर के सेवायत गोस्वामीगण बताते हैं कि शालिग्राम जी की शिला पर अगर छैनी-हथौड़ी चले तो वह फ़ौरन टूट कर बिखर जाती है। अगर ये बात सही है तो फिर नेपाल से आई उन विशाल शिलाओं पर जब छैनी-हथौड़ी चलेगी तो वे टूट कर बिखर जाएँगी। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर ये दावा ग़लत सिद्ध होगा कि वे शालिग्राम की शिलाएँ हैं। 

श्री राम मंदिर निर्माण की पूरी यात्रा भाजपा की सत्तालोलुपता से गुथी रही है। पिछले तीन दशकों में भाजपा और संघ परिवार ने नये-नये शगूफ़े छोड़ कर हिंदू भावनाओं को भड़काने और वोट भुनाने का बार-बार काम किया है। चाहे वो शिला पूजन हो और चाहे मंदिर के लिए चंदा उघाने का। 

जबकि दूसरी तरफ़ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव ने मात्र चार वर्षों में, बिना किसी से चंदा उगाहे, शास्त्रानुसार, यादगिरी गुट्टा में पौराणिक लक्ष्मी-नरसिंह देव गुफा पर तिरूपति बाला जी जैसा विशाल मंदिर और उसके चारों ओर वैदिक नगर बसा दिया। मुख्य मंत्री केसीआर का हर काम चाहे निजी हो या सार्वजनिक बड़े भव्य स्तर पर शास्त्र पारंगत पुरोहितों और आचार्यों के निर्देशन में वैदिक अनुष्ठानों से प्रारंभ होता है। पर इसका वे कोई प्रचार नहीं करते। उनका कहना है कि भगवान के प्रति श्रद्धा और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास, दिखावे की, प्रचार की या राजनैतिक लाभ लेने की क्रिया नहीं होती। ये तो भगवत कृपा प्राप्त करने और अपनी आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिये आस्था होती है। पर संघ और भाजपा ने धर्म का ऐसा राजनीतीकरण किया है कि न तो उन्हें प्राण प्रतिष्ठित देव विग्रहों पर अयोध्या और काशी में बुलडोज़र चलाने में कोई संकोच होता है और न ही गोवर्धन (मथुरा) संकर्षण भगवान के प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पाँच वर्षों से मल-मूत्र से घिरे जलाशय में उपेक्षित खड़ा रखने में। फिर भी दावा यह कि ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’।     

Monday, January 9, 2023

राहुल की यात्रा पर संघ का रवैया


जिस दिन से राहुल गांधी ने, कन्याकुमारी से, ‘भारत जोड़ो पद यात्रा’ शुरू की है उस दिन से भाजपा के प्रवक्ता, उसकी आईटी सेल और उसके नेता राहुल गांधी का मज़ाक़ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। और इनका साथ दे रहा है इनका ‘गोदी मीडिया’। बावजूद इसके राहुल कि यात्रा हर दिन सफलता के नये सोपान तय कर रही है। भाजपा का आँकलन था कि केरल के बाहर निकलते ही ये यात्रा फुस्स हो जाएगी। पर उनकी आशा के विपरीत दक्षिण भारत के राज्यों में राहुल गांधी को जानता का जो भारी प्यार और समर्थन मिला है उसने भाजपा नेतृत्व को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। 

पिछले आठ साल से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ बताने वाली भाजपा हिंदी प्रदेशों में राहुल की यात्रा को मिल रहे भारी समर्थन से विचलित हो गई है। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है, कि इस यात्रा की सफलता इस बात की गारंटी नहीं देती कि इस लोकप्रियता को राहुल गांधी वोटों में बदल पाएँगे। अगर वे ऐसा कर पाए तो निश्चित रूप से ये उनकी ऐतिहासिक विजय होगी। अगर नहीं भी कर पाए तो भी लोगों के बीच लगातार पैदल चल कर और हर वर्ग के लोगों से आत्मीयता से मिल कर, राहुल गांधी ने वो हासिल कर लिया है जिसे आजतक देश के गिने-चुने नेता ही हासिल कर पाए थे। उस दृष्टि से राहुल का क़द बहुत बढ़ गया है। 


भाजपा की चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जो जनता राहुल को सर आँखों पर बिठा रही है वो वही जनता है जिसने 2014 व 2019 में नरेंद्र मोदी को सर आँखों पर बिठाया था। पर गत आठ वर्षों में देश में फैली भारी बेरोज़गारी, सुरसा सी बढ़ती महंगाई और माध्यम वर्गीय व्यापारियों व कारखानेदारों की तबाही ने उसी जनता को निराश और हताश कर दिया है। अब उसे भाजपा शासन में राहत मिलने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही। जनता की इसी नब्ज को पहचान कर मौक़े देख कर पाला पलटने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने अब अचानक राहुल गांधी की यात्रा की प्रशंसा करना शुरू कर दिया है।      

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने राहुल गांधी को उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के लिए पत्र लिखकर शुभकामनाएँ भेजी हैं। इस पत्र से राजनीतिक गलियारों में एक नई चर्चा शुरू हो गई है। हालांकि ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष स्वामी गोविंद देव गिरि और श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ सदस्य चंपत राय ने भी शुभकामनाएँ दी हैं। सवाल ये उठ रहा है कि ऐसी शुभकामनाओं के पीछे क्या संदेश छुपा हो सकता है?

महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने अपने पत्र में कहा, आपकी भारत जोड़ो यात्रा मंगलमय हो। आपका जो देश जोड़ने का ख्वाब है, वो पूर्ण हो, जिस लक्ष्य को लेकर आप चल रहे हैं, उसमें आपको सफलता मिले। आप स्वस्थ रहें, दीर्घायु रहें। देश के हित में जो भी कार्य कर रहे हैं, वह सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय है। इसी मंगलकामना के साथ शुभ आशीर्वाद। प्रभु रामलला का आशीर्वाद आप पर बना रहे। उधर चंपत राय ने तो राहुल गांधी की इस यात्रा को प्रशंसनीय तक कह डाला। इतना ही नहीं उन्होंने सभी को यात्रा कर भारत का अध्ययन करने को कहा।


उल्लेखनीय है कि जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की गई थी तो संघ के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने कांग्रेस के प्रति सहानुभूति जताई थी। यह तक की 1984 के लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी को मिली आशातित सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका रही थी। इसी तरह जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफ़ोर्स मामले को लेकर हल्ला मचा रहे थे तब भी संघ ने उनका समर्थन किया था। अन्ना हज़ारे के आंदोलन में भी संघ समर्थन में था। जब भी कोई दल भले ही वो संघ की विचारधारा से मेल न रखता हो, यदि राष्ट्रीय पटल पर ताक़त के साथ उभरने लगता है तो संघ फ़ौरन उसका समर्थन कर देता है। सवाल है कि ऐसे में इन बयानों से क्या संघ केंद्र की भाजपा सरकार को आईना दिखा रहा है?

बढ़ती हुई महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर संघ और भाजपा की बीच जो वैचारिक दूरी आई है वह भी किसी से नहीं छुपी है। इसलिए ऐसे बयानों को मात्र व्यंग की दृष्टि से देखा जाना ठीक नहीं होगा और इसीलिए इन संदेशों को मात्र शुभकामना संदेश भी नहीं समझा जाना चाहिए। गौर इस बात पर भी किया जा सकता है कि भाजपा नेता राहुल की यात्रा को ‘भारत तोड़ो यात्रा’ बता रहे हैं। वहीं चंपत राय के बयान को लें तो उन्होंने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यात्रा की आलोचना नहीं की है। लेकिन भाजपा नेता लगातार राहुल की यात्रा को विफल बता रहे हैं। अगला सवाल ये है कि भाजपा नेता संघ से अलग बातें क्यों कर रहे हैं? इसका तर्क यह दिया जा सकता है कि केंद्र में भाजपा सरकार चला रही है और सरकार का पक्ष लेना भाजपा  नेताओं की मजबूरी है।


यदि राहुल गांधी या किसी भी दल का कोई भी नेता भारत को ‘जोड़ने’ के लक्ष्य से कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल यात्रा करता है, तो इसके विरोध में केवल वही दल आएगा जो कि भारत को ‘जोड़ने’ के ख़िलाफ़ हो। दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर जैसे ही ये बयान आए तो राहुल की यात्रा को मीडिया में जगह मिलने लगी है।

कांग्रेस के विरोधी दल पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे थे। भाजपा समेत सभी विरोधी दल इस बात का कोई जवाब नहीं दे रहे कि जिसे वे अब तक पप्पू कह कर प्रचारित करते रहे वह हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। ऐसी हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उन नेताओं में सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? कुल मिलाकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने भाजपा के सामने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। शायद इसीलिए संघ एक बीच का रास्ता अपनाने पर मजबूर हुआ है।  

Monday, June 13, 2022

देश में आग किसने लगाई ?


जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐन्कर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐन्कर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।



भारत के कुछ टीवी, न्यूज चैनलों के ऐन्कर तो विषय के अनुसार परिधान भी बदल देते है। अगर चन्द्रयान चांद पर उतरने वाला था तो ये कार्टून एस्ट्रोनेट की ड्रेस पहनकर चांद की सतह के ब्लोअप फोटो के सामने ऐसी कलाकारी दिखाते हैं, मानो कुछ ही क्षणों में ये खुद चांद पर उतरने वाले है। जब चन्द्रयान उतरने में नाकाम रहता है तो ये मर्सिया गाने लगते है। जैसे मुर्दनी छा गई हो। जबकि पत्रकार को संत कबीर दास जी की ये वाणी याद रखनी चाहिये, ‘‘दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’ बिना राग-द्वेष के हर विषय को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना, पैनल पर बैठे मेहमानों को अपनी बात कहने देना, नाहक विवाद को उठने से पहले रोक देना और कार्यक्रम का समापन, यदि सम्भव हो तो, समाधान के साथ करना। पर दुख की बात है कि आज भारत के अधिकतर टीवी चैनल इस आचार संहिता का पालन नहीं कर रहे। जिसके लिए काफी हदतक मौजूदा केन्द्र सरकार भी जिम्मेदार है। जो अपनी कमियां या आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। नतीजन टीवी चैनलों के पास दो ही रास्ते बचते हैंः या तो सरकार का झूठा यशगान करें या इस तरह की उत्तेजक, बिना सिर पैर की बहस करवा कर टीआरपी बढ़ाएँ।


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी। 


रही बात धर्म चर्चा की तो इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिये कि उन्होंने हजारों साल पुराने वैदिक सनातन धर्म को देश की मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि पिछली सरकारें ऐसा करने से बचती रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  बहुसंख्यक हिन्दु समाज अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा। इसलिए आज वो अवसर मिलने पर इतना मुखर हो गया है कि धर्म के हर प्रश्न पर आक्रमकता के साथ सक्रिय हो जाता है। 


हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि नूपुर शर्मा ने जो कहा वो सही था या गलत। हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे  कि भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म को लेकर क्या गलत और क्या सही कहते है। पर ये तो साफ है कि धर्म के सवाल पर टीवी चैनलों में और आम जनता के बीच भी जिस स्तरहीनता की बहस आजकल हो रही है उससे न तो सनातन धर्म का लाभ हो रहा है और न ही भारत हिन्दु राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहा है। इन बहसों से हिन्दु समाज का ही नही हर धर्म के मानने वालों का अहित हो रहा है। जो एक डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने तो भारत में भविष्य में गृहयुद्व की सम्भावनाओं की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। यह हम जैसे सभी गम्भीर नागरिकों और सनातन धर्मियों के लिए बहुत चिन्ता का विषय है। इसलिए सभी राजनैतिक दलों व संगठनों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे टीवी चैनलों पर विषयों के जानकार और गम्भीर प्रवक्ताओं को ही भेजे। स्तरहीन डिबेट में अपने प्रतिनिधी भेजे ही नहीं, जो असंसदीय भाषा का प्रयोग करें। टीवी चैनलों को भी धर्म चर्चा में पोंगे पण्डितों, फर्जी धर्माचार्यों और कठमुल्लों को न बुलाएं।


धर्म के विषय पर अगर ये टीवी चैनल गम्भीरता से बहस करवाये तो समाज का बहुत लाभ हो सकता है। सदियों की उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती है। भारत अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत की पुनः स्थापना कर सकता है। बशर्ते इन बहसों में धर्म के धुरंधर और विद्वान शामिल हो। उन्हें अपनी बात कहने दी जाये। ऐन्कर भी पढ़े लिखे हो, मूर्ख नहीं हो, आत्ममुग्ध नहीं हो और विषय पर शोध करके आयें। इस तरह की बहसों से सरकार को भी कोई अपत्ति नहीं होगी। टीआरपी भी धीरे-धीरे बढ़ेगी और स्वास्थ्य समाज व राष्ट्र का निर्माण होगा। राष्ट्र निर्माण का दावा करने वाले संगठनों की सत्ता में भी अगर धर्म के विषयों पर ऐसी गम्भीर बहसें नहीं होंगी, तो फिर कब होंगी ? इसलिए इन संगठनों को भी सोचना होगा कि क्या वे वाकई राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है या आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके, केवल अपना राजनैतिक हित साधना चाहते है?

Monday, June 6, 2022

संघ को सोचना पड़ेगा



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा॰ मोहन भागवत जी के ताज़ा बयान का देश के धर्मनिरपेक्षवादियों, वामपंथियों, समाजवादियों व कांग्रेसियों द्वारा भरपूर स्वागत किया जा रहा है। उन्हें ख़ुशी है कि भागवत जी के इस बयान से देश में अमन चैन पैदा होगा। हिंसा रुकेगी और हिंदू मुसलमानों के बीच सौहार्द बढ़ेगा। इन विचारधाराओं के वो लोग जो कल तक सोशल मीडिया पर संघ और भाजपा के कट्टर हिंदुवाद को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, आज अचानक भागवत जी के बयान की खुलकर प्रशंसा कर रहे हैं। भागवत जी ने कहा कि अब संघ किसी मंदिर की मुक्ति के लिए आंदोलन नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि मस्जिदों के नीचे शिवलिंगों को खोजना बंद करें। हालांकि ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मस्थान मथुरा के विषय में उनके विचार भिन्न थे।



किंतु भागवत जी के इस बयान ने हिंदू जनमानस को विचलित कर दिया है। उनके इस बयान पर सोशल मीडिया में हिंदुओं की तीखी प्रतिक्रियाएँ भी आनी शुरू हो गई हैं। ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ नाम का संगठन, जो 40 हज़ार मस्जिदों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने की सूची लेकर बैठा है और लगातार उनके विषय में जानकारियाँ प्रकाशित करता रहता है, उसने तो इस बयान को हिंदुओं के साथ धोखा और अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम संगठनों के साथ करार बताया है। देश के हिंदू संत भी इस वक्तव्य से बहुत आहत हैं और इस विषय पर माननीय भागवत जी से गंभीर वार्ता करने की तैयारी कर रहे हैं। वृंदावन के सोहम आश्रम के विरक्त संत त्यागी बाबा का कहना है, भागवत जी के इस बयान से तो यह तय हो गया कि अब हिंदू राष्ट्र का हमारा स्वप्न अधूरा रह जाएगा और अब भारत कभी हिंदू राष्ट्र नहीं बन पाएगा। 


यहाँ यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि भागवत जी को अचानक संघ और भाजपा की धारा के विरुद्ध ये बयान क्यों देना पड़ा? पिछले 32 वर्षों से भाजपा, संघ और उसके अनुसांगिक संगठनों जैसे विहिप आदि ने देश भर में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक सघन अभियान चलाया हुआ है। 1990 की विहिप की दिल्ली के बोट क्लब पर हुई उस विशाल रैली को याद करें जिसमें लगभग 10 लाख हिंदू दिन भर मंच से भाजपा व संघ के नेताओं का आह्वहन  सुनते रहे थे, हिंदू राष्ट्र बनाना हमको हिंदुस्तान हमारा। मशहूर सिने संगीतकार रविंद्र जैन का ये गाना, राम जी की सेना चली तो इतना प्रभावी हो गया कि लाखों हाथ अति उत्साह में त्रिशूल और भाले लेकर हवा में लहराने लगे। इसके बाद तो देश के हर गली मोहल्ले में संघ परिवार ने घर-घर जा कर हिंदू राष्ट्र बनाने की अलख जगानी शुरू कर दी। उनके ही इस प्रयास का ये परिणाम है कि आज भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधान मंत्री तीनों संघ परिवार से हैं। आज हिंदुओं का बहुसंख्यक हिस्सा ये तय कर चुका है कि अब भारत हिंदू राष्ट्र बन कर रहेगा। 


पिछले 8 वर्षों में देश में हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए जो सक्रियता संघ और भाजपा ने दिखाई उसका भारी असर पड़ा है। फिर वो चाहे गोरक्षा का मामला हो, मॉब लिंचिंग का मामला हो, मस्जिदों पर भगवा झंडे फहराने की कोशिशों का मामला हो, बॉलीवुड के मुसलमान सितारों की फ़िल्मों के बहिष्कार का मामला हो, तबलीकी जमात को भारत में कोरोना फैलने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का मामला हो, सदगुरु जग्गी वासुदेव का ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ के समर्थन में लगातार बयान देना हो, आर्यन खान को अंतरराष्ट्रीय ड्रग माफिया का सदस्य बता कर जेल में डालने का मामला हो, ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ जैसी फ़िल्म को संघ व भाजपा सरकार द्वारा प्रोत्साहित कर जनता के बीच लोकप्रिय बनाने में सक्रिय भूमिका निभाने का मामला हो या ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मभूमि के साथ ही देश भर की मस्जिदों व क़ुतुब मीनार जैसी इमारतों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने का मामला हो, इन सब मुद्दों ने हिंदू जनमानस को गहराई तक प्रभावित किया है। 


सबसे ज़्यादा असर तो हिंदुओं की युवा पीढ़ी पर पड़ा है। जिसके ज्ञान का स्रोत कुछ चुनिंदा टीवी चैनल और सोशल मीडिया है। रोज़गार के अभाव में ख़ाली बैठे ये युवा अब इतने उत्तेजित हो चुके है कि बात-बात पर हिंसक हो जाते हैं। कानपुर और बरेली के दंगे और पिछले वर्षों में इसी तरह के विषयों पर हुई हिंसक वारदातें इसका परिणाम हैं। देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को जैसे नारों ने आग में घी का काम किया है। सांप्रदायिक हिंसा के लिए पहले से बदनाम रहे मुसलमानों की भी युवा पीढ़ी इस माहौल में और ज़्यादा उत्तेजित और आक्रामक हुई है। आनेवाले समय में इस सब से देश की क़ानून व्यवस्था को बनाए रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में सरकार चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। जिसका भरपूर लाभ विपक्षी दल आने वाले चुनावों में उठाएँगे। इसी ख़तरे को भाँप कर माननीय भागवत जी ने ये बयान दिया है। जिससे भाजपा की सरकारों को बचाया जा सके। 


पहले संघ और भाजपा के बीच सम्मानजनक दूरी रहती थी। संघ की घोषित नीति थी कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। वो केवल सामाजिक संगठन है। पर पिछले कुछ वर्षों में यह अंतर समाप्त हो गया है। अब भाजपा का संघ में विलय हो गया है। भाजपा वही करती है जो संघ चाहता है। इसलिए इस पूरे संघ व भाजपा परिवार के मुखिया होने के नाते माननीय भागवत जी को ये बयान देना पड़ा है। जिससे हालात बेक़ाबू होने से पहले संभल जाएं। पर भाजपा और संघ के शुभचिंतकों, हिंदू संतों और हिंदुओं के बहुसंख्यक हिस्से को इस बयान से भाजपा और संघ के अस्तित्व पर ख़तरा नज़र आ रहा है। इस वर्ग का मानना है कि जिस विचारधारा को लेकर संघ पिछले 100 वर्षों से चला, उसे ही इस तरह शिखर पर पहुँचने के बाद, नकार देने से संघ और भाजपा की सार्थकता क्या रह जाएगी? पिछले कुछ वर्षों में विकास के मुद्दों और सामाजिक सुरक्षा के सवालों को उठने से पहले ही संघ की इस विचारधारा ने हमेशा पीछे धकेला। हिंदू गर्व से कहता है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वो महंगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को भी भूलने को तैयार है। ऐसे में भागवत जी का ये बयान तपते तवे  पर ठंडे पानी की बौछार जैसा है। यहाँ ये याद रखना असंगत न होगा कि पिछले दशकों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चलाने वाले प्रांतीय और राष्ट्रीय नेता जब सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार को नहीं रोक पाए और उसमें स्वयं भी लिप्त हो गए तो भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया। इसी तरह इन परिस्थितियों में अब इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदू राष्ट्र बनाने का मुद्दा भी समाप्त हो जाएगा। इस पर देश में हिंदुओं की क्या प्रतिक्रिया होती है और संघ परिवार उससे कैसे निपटता है, ये तो वक्त ही बताएगा।