Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, November 7, 2022

हर साल जहरीली धुंध से क्यों घिर जाता है एनसीआर?


हर साल दिवाली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है। हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहाँ के रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज़्यादा ख़तरा तों छोटे बच्चों के लिये हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किमकर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।


पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं।उन्होंने अब तक के अपने सोच विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? 



दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।


हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरुवार सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया।यानि भयावह स्तर का प्रदूषण था। इसी से इस समय की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।


सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।



इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ओड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी। लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के सोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकता था। लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।


बहरहाल अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और ज़हरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठ  रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।ये शेख़चिल्ली के सपने जैसा है। 


वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल,जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है । अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगे? 

Monday, October 31, 2022

परदेस में कितने देसी नेता


क्या आप जानते हैं कि इंग्लैंड के अलावा भी कई देशों में भारतीय मूल के प्रधान मंत्री हैं? दीपावली के दिन जैसे ही ये खबर आई कि ऋषि सौनक निर्विरोध ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चुन लिए गये हैं, तो विश्व भर के हिंदुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, विशेषकर भारत में। लोग बल्लियों उछलने लगा। मानो भारत ने इंग्लैंड को जीत लिया हो। औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे भारतीयों के लिए निश्चय ही ये एक गर्व का विषय है कि ऋषि सौनक उन गोरों के प्रधान मंत्री हैं जो कभी भारतीयों को शासन करने में नाकारा बताते थे। यह भी सही है की ऋषि सौनक के पूर्वजों की जड़ें पूर्वी पाकिस्तान और भारत से जुड़ी हैं और वे इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति के दामाद हैं। इससे भी ज़्यादा यह कि वे स्वयं को हिंदू घोषित कर चुके हैं और उन्होंने अपनी सांसदीय शपथ भी भगवद् गीता पर हाथ रख कर ली थी। इससे आगे ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिये भारत के कुछ लोग इतने उत्साहित हैं।


ऋषि सौनक को ये संस्कार श्रील ए॰सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस्कॉन ने दिए हैं, जो मानता है कि हम हिंदू नहीं, हमारी पहचान सनातन धर्मी के रूप में है। जबकि कुछ संगठन सभी सनातन शास्त्रों व मान्यताओं के विपरीत चलते हुए अपना ही बनाया ‘हिंदुत्व’ सब पर थोपते हैं। लंदन के इस्कॉन मन्दिर में ऋषि सौनक ने सपरिवार जा कर गौ माता का पूजन किया तो कुछ लोग इसे इंग्लैंड में भारतीय संस्कृति के प्रसार की संभावना मान कर अति उत्साहित हो गये। पर अगले ही दिन ऋषि सौनक ने ट्विटर पर लिखा कि मेरा संसदीय क्षेत्र गाय और बकरों के मांस का व्यापार करने वालों का है। ये एक बढ़िया उद्योग है। कोई क्या खाए, ये उसकी पसंद से तय होता है। इसलिए मैं इस उद्योग को पूरा बढ़ावा दूँगा- देश में भी और विदेश में भी। 



इसके बाद ही ऋषि सौनक के श्वसुर नारायणमूर्ति व सास सुधा नारायण मूर्ति के काफ़ी निकट के मित्र, प्रधान मंत्री मोदी जी व आरएसएस के नेताओं के भी ख़ास सहयोगी व सलाहकार, बेंगलुरु के मशहूर उद्योगपति मोहन दास पाई ने ट्वीटर पर लिखा कि ऋषि सौनक इंग्लैंड के नागरिक हैं और उनका समर्पण इंग्लैंड के प्रति है। वे यूके के हित के सामने भारत के लिए कुछ भी नहीं करने जा रहे। भारत उनसे कोई आशा न रखे। उन्होंने ये भी लिखा कि ऋषि सौनक का भारत के प्रति कड़ा तेवर रहने वाला है इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये।  


पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर छाये रहे इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें समझनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारतीय मूल के जो युवा विदेशों में पैदा हुए और पले बढ़े और वहीं के नागरिक हैं, उनका भारत के प्रति न तो वह भाव है और न ही वह आकर्षण, जो उनके माता-पिता या पूर्वजों का रहा है, जो भारत में जन्में थे और बाद में विदेशों में जा बसे। 


ऋषि सौनक भारतीय उपमहाद्वीप मूल के पहले युवा नहीं हैं जो इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की ननिहाल तमिल नाडू में है। उन्हें दक्षिण भारतीय खाना पसंद है और वे अपने मौसी-मामाओं से जुड़ी रहती हैं। पर भारत के प्रति कमला हैरिस का रवैया वही है जो आम अमरीकी का है। मसलन वे कश्मीर को मानवाधिकार का विषय मानती हैं। जो भारतीय दृष्टिकोण के विरुद्ध है।


हम में से कितने लोग यह जानते हैं कि 2017-2020 तक आयरलैंड के प्रधान मंत्री रहे लिओ वराडकर के माता-पिता मुंबई के पास वसई के रहने वाले हैं। लिओ ने 2003 में मुंबई के केईएम अस्पताल से इण्टर्नशिप पूरी की थी। उनकी माँ आयरिश हैं और पिता भारतीय। लिओ वराडकर की इस प्रभावशाली सफलता का भारत में कोई ज़िक्र क्यों नहीं करता? क्या इसलिए कि वे ईसाई हैं? ये बहुत ओछि  मानसिकता का परिचायक है। 



इसी तरह पुर्तगाल के मौजूदा प्रधान मंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं। उनके माता-पिता का जन्म गोवा में हुआ था। ये दूसरी बार प्रधान मंत्री चुने गये हैं। विडंबना देखिए कि न तो भारत के मीडिया को इसकी खबर है और ना ही देश की जनता को। तो फिर भारत माँ के इन सपूतों की इस उपलब्धि पर जश्न कौन मनाएगा? जबकि एंटोनियो कोस्टा तो आज भी ओसीआई कार्ड के धारक हैं और लिओ वराडकर अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में आते रहते हैं। पर इसकी मीडिया में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं होती? ये प्रमाण हैं इस बात का कि देश का मीडिया कितना संकुचित और कुंद हो गया है। ये रवैया भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र के लिए घातक है।


पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्व को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर देश के करोड़ों सनातन धर्मियों के मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जिनका संतुष्टि पूर्ण उत्तर संघ परिवार के सर्वोच्च पदाधिकारियों को देना चाहिए। एक तरफ़ तो सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ऐसे वक्तव्य देते हैं जिससे लगता है कि संघ अपने कट्टरपंथी चोले से बाहर आ रहा है। जैसे मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक है। अब मस्जिदों में और शिव लिंग खोजना बंद करें। दूसरी तरफ़ संघ प्रेरित सोशल मीडिया का दिन-रात हमला मुसलमानों के विरुद्ध भावनाएँ भड़काने के लिए होता रहता है। ये विरोधाभास क्यों? 


एक तरफ़ तो संघ परिवार हिंदुत्व की जमकर पैरवी करता है और दूसरी तरफ़ सनातन धर्म की परंपराओं, वैदिक शास्त्रों और शंकराचार्य जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के विरुद्ध आचरण भी करता है। ये विरोधाभास क्यों? ऐसे में हमारे जैसा एक आस्थावान सनातन धर्मी किस मार्ग का अनुसरण करे? ये भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही हमारे समाज और राष्ट्र के हित में होगा। वरना हम इसी तरह ऋषि सौनक की उपलब्धि पर तो बल्लियों उछलेंगे और एंटोनियो कोस्टा व लिओ वराडकर की उपलब्धियों से मूर्खों की तरह बेख़बर बने रहेंगे। भागवत जी के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो ये खाई अब पटनी चाहिए।  

Monday, October 24, 2022

स्वच्छता अभियान कहाँ अटक गया ?


2014 में जब देश में मोदी जी
  ने सत्ता में आते ही स्वच्छता के प्रति ज़ोर-शोर से एक अभियान छेड़ा था तो सभी को लगा कि जल्द ही इसका असर ज़मीन पर भी दिखेगा। इस अभियान के विज्ञापन पर बहुत मोटी रक़म खर्च की गयी। कुछ ही महीनों में मोदी सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी भी शुरू हो गईं। जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भौचक्के रह गए। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया था। पर अब तक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े-बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए सरकारें हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं। आज आठ साल बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के ही पॉश इलाक़ों तक में पर्याप्त सफ़ाई नहीं दिखती। जगह जगह कूड़े के ढेर  दिखाई दिखते हैं। 


प्रश्न है कि क्या इसके लिए केवल सरकार ज़िम्मेदार है? क्या स्वच्छता के प्रति हम नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है? सोचने वाली बात है कि अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा?


देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई? रोचक बात ये है कि 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखें चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई का मामला ही है। उधर देश के 7 लाख गावों को इस अभियान से जोड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं। यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी। महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाए तो शायद सही दिशा में अच्छे परिणाम आएँगे। इसके लिए नागरिकों और सरकार की सहभागिता के बिना कुछ नहीं होगा। 



गांधी जयन्ती पर केंद्र या राज्य सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखाई देते हैं उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गई थी। यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जब तक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। इस खुद ख्याल रखने की बात पर भी गौर करना ज़रूरी है।


शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सार्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों या गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’? यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकट्ठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाए?


निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है। ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जल संसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं। इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी। पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं। आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें? दिल्ली जैसे महानगर में भी कूड़ा इकट्ठा करने के स्थान भर चुके हैं और यहाँ भी कूड़ा इकट्ठा करने के लिए नए स्थान खोजे जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय पूर्वी दिल्ली में बने कूड़े के पहाड़ों को लेकर दिल्ली सरकार की खिंचाई कर रहा है। 


गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का घनत्व बढ़ गया है। गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था। अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए। इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं।



यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं। चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए दिखते तो हैं लेकिन सफाई जैसी ‘बहुत छोटी’ या बहुत बड़ी समस्या पर गम्भीर कोई नहीं दिखता। अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों व सरोवरों या कुंडों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन होते ज़रूर दिखाई देते। 


विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मेलन होते ज़रूर हैं। लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो। और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते। जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने-अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दूसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। पर हर समस्या को समस्या बनाकर रखने की अभ्यस्त नौकरशाही इस समस्या को भी अपनी लालफ़ीताशाही की फ़ाइलों में क़ैद रखने में ही अपनी कामयाबी समझती है। इसलिये कोई हल नहीं निकल पाता। 


हिमाचल प्रदेश की मनोरम घाटी हों या सागर के रमणीक तट, तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रेलगाड़ियों की खिड़की के दोनों ओर की रेल विभाग की ज़मीने, हर ओर कूड़े का विशाल साम्राज्य देख कर कलेजा मुँह को आता है। पश्चिमी देशों की नज़र में भारत सबसे गंदे देशों में से एक है। ये हम सबके लिये शर्म की बात है। हम सबको सोचना और कुछ ठोस करना चाहिये।

Monday, October 17, 2022

‘नेता जी’ के राजकीय सम्मान में अव्यवस्था क्यों?



समाजवादी पार्टी के संस्थापक, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री व देश के पूर्व रक्षा मंत्री ‘धरतीपुत्र’ मुलायम सिंह यादव के स्वर्गवास पर देश भर से आए शोक संदेशों से सोशल मीडिया भरा रहा। उनका अंतिम सरकार उनके गाँव सैफ़ई (इटावा) में योगी सरकार द्वारा पूर्ण राजकीय सम्मान से होना घोषित किया गया। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक भी घोषित किया। बीते मंगलवार को सैफ़ई में उनका अंतिम संस्कार हुआ। देश भर से अनेकों मुख्यमंत्रियों, नेताओं व केंद्रीय मन्त्रियों के सैफ़ई आने की सूचना भी समय से आने लगी। इनमें उत्तर प्रदेश सरकार के कई मंत्री, फ़िल्म व उद्योग जगत की बड़ी हस्तियाँ भी शामिल थीं। परंतु इन सभी को जिस अव्यवस्था का सामना करना पड़ा वो योगी सरकार की व प्रशासन की मंशा पर कई सवाल उठाती है। यहाँ तक कि केंद्र सरकार में मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति की तो धक्कामुक्की में हाथ की हड्डी ही टूट गई। 


दरअसल ‘नेता जी’ की मृत्यु का समाचार मिलते ही जिस तत्पर्ता से राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री ने संवेदना व्यक्त की गृहमंत्री अमित शाह समेत कई बड़े नेताओं ने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में जा कर या अखिलेश यादव से फ़ोन पर श्रद्धांजली अर्पित की। वैसी ही तत्पर्ता अगर उनके अंतिम संस्कार की तैयारी पर दिखाई होती और प्रशासन को उचित निर्देश दिए गये होते तो शायद ऐसी बदइंतज़ामी न होती जैसी सबको उस दिन झेलनी पड़ी। 



राजकीय सम्मान का ऐलान संबंधित राज्य का मुख्यमंत्री अपने वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगियों के परामर्श के बाद ही करता है। फैसला लेने के बाद इसे मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक की मार्फ़त उस ज़िले के ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक सहित सभी अधिकारियों को सूचित किया जाता है। जिससे कि वे राजकीय अंतिम संस्कार के लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर सकें। 


राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि के दौरान पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा जाना, पूर्ण सैन्य सम्मान दिया जाना, मिलिट्री बैंड द्वारा ‘शोक संगीत’ बजाना और इसके बाद बंदूकों की सलामी देना आदि भी शामिल हैं। इसके साथ ही अंतिम संस्कार स्थल पर समुचित सुरक्षा, क़ानून व्यवस्था बनाना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। अंत्येष्टि में भाग लेने वाले अतिविशिष्ट व्यक्तियों को भीड़ से अलग बैठने की व्यवस्था करना इस व्यवस्था का अंग होता है। जिसमें इन सभी अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए समुचित प्रोटोकॉल उपलब्ध करना भी शामिल होता है। इस पंडाल में बैठने वाले अतिविशिष्ट लोग दाह संस्कार पूरा होने तक वहीं बैठे रहते हैं। संस्कार की समाप्ति पर पहले इन अतिविशिष्ट व्यक्तियों को सुरक्षित मार्ग से, बिना व्यवधान के, बाहर पहुँचाया जाता है और तब तक आम जनता को रोके रखा जाता है।        


पहले राजकीय शोक व राजकीय सम्मान का ऐलान सिर्फ प्रधानमंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों (पूर्व या वर्तमान) के निधन पर ही किया जाता था। हालांकि, अब यह सम्मान उन सभी हस्तियों को दिया जाता है, जिन्होंने राष्ट्र के नाम को ऊंचा करने के लिए काम किया हो। अलग-अलग क्षेत्रों जैसे, राजनीति, कला, कानून, विज्ञान, साहित्य आदि में बड़ा योगदान देने वाले लोगों के सम्मान में राजकीय शोक घोषित किया जाता है। उनके कद और काम को देखते हुए राज्य सरकार यह फैसला लेती है। जैसा हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने स्वर साम्रग्गी लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार के समय किया था।  



‘नेता जी’ से मेरा बहुत पुराना सम्पर्क था। इसके चलते मंगलवार को मैं भी सैफ़ई गया और ‘नेता जी’ के परिवार को अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की। परंतु सैफ़ई में जो हाल मैंने देखा वो काफ़ी विचलित करने वाला था। लाखों लोगों के लोकप्रिय ‘नेता जी’ के देहावसान पर उत्तर प्रदेश की सरकार ने सैफ़ई में ऐसा कुछ भी नहीं किया जो ‘नेता जी’ की गरिमा के अनुकूल होता। सारे देश से अनेक बड़े नेता, मुख्यमंत्री, उद्योग और फ़िल्म जगत की हस्तियाँ और लाखों लोग ‘नेता जी’ को श्र्द्धांजली अर्पित करने सैफ़ई पहुँचे। पर भारी अव्यवस्था के कारण बेहद परेशान हुए। धक्कामुक्की में तमाम नेता कुचल गए। अनेकों को चोटें भी लगी। खुद अखिलेश यादव तक अपने पिता के पार्थिव शरीर के पास सीधे खड़े नहीं रह पा रहे थे। उन्हें बार-बार भीड़ के धक्के लग रहे थे। 


पुलिस बड़ी संख्या में सारे सैफ़ई में मौजूद थी पर खड़ी तमाशा देखती रही। न तो यातायात की व्यवस्था सुचारु की और न ही अंतिम संस्कार स्थल पर भीड़ को निर्देशित और नियंत्रित करने का काम किया। प्रशासन केवल औपचारिकता निभा रहा था। आसपास के ज़िलों से बुलाए गए दर्जनों मजिस्ट्रेट व अन्य अधिकारी, जिनमें से कुछ को अतिविशिष्ट व्यक्तियों की अगवानी करनी थी, वे भी भ्रमित से नज़र आ रहे थे। जबकि ‘नेता जी’ का देहांत हुए 24 घंटे हो चुके थे। इतना समय काफ़ी होता है प्रशासन के लिए व्यवहारिक योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना। ऐसा इंतेजाम हर प्रशासनिक अधिकारी को अपने कार्यकाल में कई बार करना पड़ता है। इसलिए इसे अनुभवहीनता कह कर बचा नहीं जा सकता। प्रशासन की ऐसी लापरवाही के कारण लाखों लोग बदहवास हो कर वहाँ धक्के खा रहे थे। अपने घोर दुश्मन रावण की मृत्यु पर भगवान श्री राम ने उसका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया और लक्ष्मण जी को यह ज्ञान दिया कि मरने के बाद सारा वैर समाप्त हो जाता है। इसलिए मानना चाहिए कि इस अव्यवस्था के पीछे कोई वैर की भावना नहीं रही होगी। इसलिए योगी जी को पूरे मामले की जाँच करवानी चाहिए और दोषी अधिकारियों को सज़ा देनी चाहिए। 


यहाँ मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस अव्यवस्था के लिए समाजवादी दल के कार्यकर्ता भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। अनेक राजनैतिक दलों के समर्पित कार्यकर्ता ऐसे मौक़ों पर खुद अनुशासित रह कर अपने लाखों समर्थकों को भी अनुशासित रखने का प्रयास पूरी ज़िम्मेदारी से करते हैं। फिर वो चाहे शपथ ग्रहण समारोह हो या कोई अन्य अवसर। ‘नेता जी’ के जाने के बाद समाजवादी दल का सारा बोझ अखिलेश यादव के कंधों पर आ गया है। इसलिए दल के अनुभवी और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं, विशेषकर फ़ौज या पुलिस में नौकरी कर चुके कार्यकर्ताओं को बाक़ायदा शिविर लगा कर अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित रहने का प्रशिक्षण देना चाहिए। जिससे भविष्य में ऐसी अव्यवस्था देखने को न मिले।  

Monday, October 10, 2022

मुलायम सिंह यादव के लिए उमड़ा जन सैलाब



पिछले कुछ दिनों से उत्तर भारत के समाजवादियों का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में हुजूम उमड़ रहा है। ये सब समाजवादी पार्टी के नेता और राम मनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव की गिरती सेहत से परेशान हैं। चूँकि अस्पताल में इस तरह की भीड़ को प्रवेश नहीं दिया जाता इसलिए ये सब चाहने वाले नई दिल्ली के पंडारा पार्क में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के घर के बाहर भीड़ लगाए हुए हैं। इस नाज़ुक मौक़े पर अखिलेश थके होने के बावजूद हर आनेवाले से मिल रहे हैं और उन्हें सांत्वना दे रहे हैं। सबसे ज़्यादा व्याकुल तो उत्तर प्रदेश के हज़ारों गावों के वो लोग हैं जो गुरुग्राम तक आ नहीं सकते इसलिए स्थानीय नेताओं के घर जमा हो कर उनसे बार-बार ‘नेताजी’ का हाल पूछ रहे हैं। ‘नेताजी’ की सेहत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इससे उनके प्रेमियों में हताशा फैली है। जैसा आमतौर पर किसी मशहूर हस्ती के चाहने वाले ऐसे समय में करते हैं वैसे ही ‘नेताजी’ के प्रेमी भी अपने-अपने धर्म और आस्था के अनुसार स्वास्थ्य की कामना लेकर धार्मिक अनुष्ठान या प्रार्थना कर रहे हैं। 


जो कुछ मैंने अभी तक लिखा उसमें नया कुछ भी नहीं है। ये सब समाचारों के माध्यम से सबको पता है। जब भी देश का कोई बड़ा और लोकप्रिय नेता गम्भीर रूप से बीमार होता है या उसका देहावसान होता है तब-तब उसके चाहने वालों की ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है। फिर इस लेख को लिखने का उद्देश्य क्या है? दरअसल, आज राजनीति जिस दौर में पहुँच गई है उसमें ऐसी लोकप्रियता अब कुछ गिनें चुने नेताओं की ही बची है। वरना तो तमाम नेता ऐसे हैं कि जब वे दुनिया से जाते हैं तो लोगों की हमदर्दी का नहीं बल्कि टीका-टिप्पणी और आलोचना के शिकार बन जाते हैं। 



सब जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव ज़मीन से उठे नेता हैं। इसलिए अपने हर कार्यकर्ता से उनका सीधा जुड़ाव रहा है। उनके समर्थक, उनके उदार व्यवहार की प्रशंसा करते नहीं थकते। लाखों लोगों को ‘नेताजी’ ने अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद की। जबकि आम तौर पर सत्ता मिलते ही नेताओं के तेवर बदल जाते हैं और वे अपने कार्यकर्ताओं से मुह मोड़ लेते हैं। चालीस बरस की पत्रकारिता में मैंने राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों बड़े नेताओं को बनते और बिगड़ते देखा है। ज़्यादातर की ऐसी दुर्गति होती है कि सत्ता से हटते ही मक्खी भी उनके घर नहीं फटकती। 


अलग-अलग अवसरों पर ‘नेताजी’ के साथ इन चार दशकों में बिताए अनेक लम्हे मुझे याद हैं जो उनके व्यक्तित्व का परिचय देते हैं। 1990 की बात है मैं कालचक्र विडीयो मैगज़ीन के लिए एक टीवी रिपोर्ट तैयार कर रहा था। जिसका शीर्षक था ‘अंग्रेज़ी बिना भी क्या जीना’। इस रिपोर्ट में हमारी कैमरा टीम, समाज के विभिन्न वर्गों से अंग्रेज़ी के पक्ष और विपक्ष में विचार रिकोर्ड कर रही थी। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री ‘नेताजी’ हिंदी भाषा अपनाने पर बहुत ज़ोर दे रहे थे। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ी हमें ग़ुलाम बनाती है। इसलिए सभी सरकारी कामकाज आम आदमी की भाषा में होने चाहिए। इसलिए अपनी टीवी रिपोर्ट को और दमदार बनाने के लिए मैं मुलायम सिंह का साक्षात्कार लेने  लखनऊ गया। उन्होंने अपने कार्यालय में कैमरे के सामने बड़ी बेबाक़ी से अपनी बात रखी। ये मुलाक़ात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी। पर उन्होंने मुझ से अपने घर ले चलकर भोजन करने का आग्रह किया। घर पहुँच कर किसी मेज़-कुर्सी पर नहीं बल्कि दो पलंगों पर ‘नेताजी’ और मैं आमने-सामने बैठ गए। तभी परिवार के किशोर बाल्टी, लोटा और तौलिया लेकर हाथ धुलने आए। ‘नेताजी’ ने उनसे कहा कि चाचा जी को प्रणाम करो और सब लड़कों ने अनुशासित बच्चों की तरह बेहिचक मेरे पैर छुए। दिल्ली के आधुनिक पत्रकारिता जगत में ये संस्कार कोई महत्व नहीं रखता। पर छोटे शहरों से आनेवाले हम सब लोग अपने बच्चों को ऐसे संस्कार देते हैं। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में कहा गया है, ‘अतिथि देवो भव’। फिर पीतल की थालियों में कटोरी सज़ा कर पलंग पर ही सात्विक भोजन परोसा गया और फिर उसी तरह हाथ धुलवाए गए। ये सब कुछ इतना सहज भाव से हो रहा था फिर भी इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि यही संस्कार ‘नेताजी’ के सुपुत्र अखिलेश यादव ने उत्तराधिकार में पाए हैं। मेरा समाजवादी दल हो या कोई और राजनैतिक दल, किसी से भी सदस्यता का सम्बंध नहीं रहा। फिर भी अखिलेश यादव मेरा ही नहीं हर आनेवाले का ऐसा ही सम्मान करते हैं जैसा ‘नेताजी’ करते आए हैं। 2012-17 में जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मथुरा की भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने मुझ से कहा कि, अखिलेश बहुत अच्छे युवा हैं। मैं जो भी काम उनसे कहती हूँ वो फ़ौरन करवा देते हैं। जबकि आज तमाम नेता ऐसे हैं जो अपने विरोधी दलों के नेताओं को दुश्मन मानते हैं। 


‘नेताजी’ के साथ एक दूसरा संस्मरण और भी प्रेरक है। मेरे पिता 1988-91 में पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति थे। जौनपुर में ‘नेताजी’ की एक विशाल जनसभा थी। ऊँचे मंच पर माइक के सामने ‘नेताजी’ के लिए केवल एक कुर्सी लगी थी। मेरे पिता नीचे बने वीआईपी घेरे में प्रथम पंक्ति में बैठे थे। ‘नेताजी’ हेलीकाप्टर से उतर कर सीधे मंच पर चढ़ गए। मालाएँ पहनते वक्त उन्होंने आयोजकों से पूछा कि कुलपति महोदय कहाँ हैं? ये आवाज़ माइक पर सुनाई दी। जब उन्हें पता चला कि मेरे पिता नीचे वीआईपी घेरे में बैठे हैं, तो उन्होंने आयोजकों को फटकारा कि, आपको शर्म नहीं आती। जनपद के सबसे बड़े शिक्षाविद को नीचे बिठा दिया। उन्हें ससम्मान ऊपर लाइए। पिताजी के मंच पर पहुँचने पर ‘नेताजी’ उन्हें माला पहनाई और अपने लिए लगी कुर्सी पर बिठा कर भाषण शुरू किया। यह देख कर सब गद-गद हो गए। 



तीसरा अनुभव तब हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश के ज़मीन घोटाले उजागर करने के बाद मैं भूमिगत था क्योंकि मुझ पर अदालत की अवमानना क़ानून का मुक़दमा चल रहा था। मैं देश के कई नेताओं से इस दौरान मिलकर न्यायिक सुधारों के लिए कुछ करने की माँग करता था। जब मैं ‘नेताजी’ से मिला तो वे बहुत विचलित हो गए और बोले, तुमने हवाला कांड से लेकर आजतक किसी को नहीं छोड़ा। सबको दुश्मन बना लिया है। अब ये सब छोड़ दो। मैं तुम्हें राजनैतिक रूप से स्थापित कर दूँगा। मैंने कहा, ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? निर्भीक पत्रकारिता में तो ये होता ही है।’ 


एक अनुभव तो पाठकों को बहुत चौकाने वाला लगेगा। 1994 में लखनऊ के रविंद्रालय में पूरे उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं के संघ को सम्बोधित करने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायधीश, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल वोरा, मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव और मुझे आमंत्रित किया गया था। उस दिन अपने भाषण में मैंने ‘नेताजी’ के शासन पर कुछ तीखी टिप्पणियाँ की। जिस पर पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट हो गई। पर ‘नेताजी’ ने बिलकुल बुरा नहीं माना। आज जैसे नेता होते तो मुझ से ज़िंदगी में दोबारा बात नहीं करते या मुझे कोई हानि ज़रूर पहुँचाते। पर ‘नेताजी’ के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही आज सभी उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना कर रहे हैं।   

Monday, October 3, 2022

अंग्रेजों के अत्याचारों पर ये खामोशी क्यों ?



पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चिंता काफ़ी बढ़ गई है। हर देश अपने तरीक़े से मुसलमानों की धर्मांधता से निपटने के तरीक़े अपना रहा है। खबरों के मुताबिक़ चीन इस मामले में बहुत आगे बढ़ गया है। वैसे भी साम्यवादी देश होने के कारण चीन की सरकार धर्म को हेय दृष्टि से देखती है। पर मुसलमानों के प्रति उसका रवैया कुछ ज़्यादा ही कड़ा और आक्रामक है। इसी तरह यूरोप के देश जैसे फ़्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और इटली भी मुसलमानों के कट्टरपंथी रवैए के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपना रहे हैं। इधर भारत में मुसलमानों को लेकर कुछ ज़्यादा ही आक्रामक तेवर अपनाए जा रहे हैं। इस विषय पर मैंने पहले भी कई बार लिखा है। मैं अपने सनातन धर्म के प्रति आस्थावान हूँ। पर यह भी मानता हूँ कि धर्मांधता और कट्टरपंथी रवैया, चाहे किसी भी धर्म का हो, पूरे समाज के लिए घातक होता है। 


जहां तक भारत में हिंदू - मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बात है, तो ये जानना बेहद ज़रूरी है कि हिंदू धर्म का और हमारे देश की अर्थ व्यवस्था का जितना नुक़सान 190 वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने किया उसका पासंग भी 800 साल के शासन में मुसलमान शासकों ने नहीं किया। मुसलमान शासकों ने जो भी जुल्म ढाए हों, हमारे सनातनी संस्कारों को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि अंग्रेजों ने मैकाले की शिक्षा प्रणाली थोप कर हर भारतीय के मन में सनातनी संस्कारों के प्रति इतनी हीन भावना भर दी कि हम आजतक उससे उबर नहीं पाए। मैं गत तीस वर्षों से देश-विदेश में धोती, कुर्ता, अंगवस्त्रम पहनता हूँ और वैष्णव तिलक भी धारण करता हूँ, तो अपने को हिन्दुवादी बताने वाले भी मुझे पौंगापंथी समझते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुग़ल काल में गौ वध पर फाँसी तक की सज़ा थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत में गौ मांस के कारोबार को खूब बढ़ावा दिया और ग़ैर सवर्ण जातियों में सुअर के मांस को प्रोत्साहित किया। इससे अंग्रेज हुक्मरानों के उन दिनों मांस खाने के शौक़ को तो पूरा किया ही, बड़ी चालाकी से उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई भी पैदा कर दी।  



जहां तक मुसलमान शासकों के हिंदू और सिक्खों के प्रति हिंसक अत्याचारों का प्रश्न है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हिंदू राजाओं के सेनापति मुसलमान ही थे, जो उनकी तरफ़ से मुग़लों और अंग्रेजों की फ़ौजों से लड़े। उधर अकबर, जहांगीर और औरंगज़ेब व दक्षिण में टीपू सुल्तान जैसे मुसलमान शासकों के सेनापति हिंदू थे, जो हिंदू राजाओं से लड़े। यानी मध्य युग के उस दौर में हिंदू-मुसलमानो के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता था। अगर आप यूट्यूब पर आजकल दिखाई जा रही 1947 के विभाजन की आप बीती कहानियाँ सुने तो आपको आश्चर्य होगा की भारत और पाकिस्तान के विभाजन पूर्व पंजाब में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के पारस्परिक रिश्ते कितने मधुर थे। ये खाई और घृणा अंग्रेजों ने अपनी ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत जानबूझकर बड़ी कुटिलता से पैदा की। जिसकी परिणिति अंततः भारत के विभाजन से हुई। जिसका दंश दोनो देशों के लोग आजतक भोग रहे हैं। 


आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी लाख हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक ही बताएँ, पर आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता और इनकी आईटी सेल आजकल रात दिन हिंदुओं पर हुए मुसलमानों के अत्याचार गिनाते हैं। आश्चर्य है कि अंग्रेजों के हम भारतीयों पर दो सौ वर्षों तक लगातार हुए राक्षसी अत्याचारों और भारत की अकूत दौलत की जो लूट अंग्रेजों ने करके भारत को कंगाल कर दिया, उसका ये लोग कभी ज़िक्र तक नहीं करते, क्या आपने कभी सोचा ऐसा क्यों है?



आज हर उस व्यक्ति को जो स्वयं को देशभक्त मानता है इतिहासकार श्री सुन्दरलाल की शोधपूर्ण पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ अवश्य पढ़नी चाहिये, जिसे 1928 मार्च में प्रकाशित होने के चार दिन बाद ही अंग्रेज हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था और इसकी चार दिन में बिक चुकी 1700 प्रतियों को लोगों के घरों पर छापे डाल-डाल कर उनसे छीन लिया था। क्योंकि इस पुस्तक में अंग्रेजों के अत्याचारों की रोंगटे खड़े करने वाली हक़ीक़त बयान की गयी थी। जिसे पढ़कर हर हिंदुस्तानी का खून खौल जाता था। अंग्रेज सरकार ने पुस्तक के प्रकाशक, विक्रेताओं, ग्राहकों और डाकखानों पर ज़बरदस्त छापामारी कर इन पुस्तकों को छीनना शुरू कर दिया। देश के बड़े नेताओं ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई और लोगों से किसी भी क़ीमत पर ये किताब अंग्रेजों को न देने की अपील की। इस तरह अंग्रेज पूरी वसूली नहीं कर पाए। इस हिला देने वाली किताब की काफ़ी प्रतियाँ पाठकों के गुप्त पुस्तकालयों में सुरक्षित रख ली गईं। 



चूँकि मेरे नाना संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की विधान परिषद के उच्च अधिकारी थे, इसलिए उन्हें भी अपने अंग्रेज हुक्मरानों का डर था। उन्होंने यह किताब लखनऊ की अपनी कोठी के तहखाने में छिपा कर रखी थी। मेरी माँ और उनके भाई-बहन बारी-बारी से तहखाने में जाकर इसे पढ़ते थे। जितना पढ़ते उतनी उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और आक्रोश बढ़ता जाता था। ये बात बीसवीं सदी के चौथे दशक की है जब देश में कई जगह कांग्रेस ने सरकार चलाना स्वीकार कर लिया था। क्योंकि तब इस पुस्तक पर से प्रतिबंध हटा लिया गया था और इसे दोबारा प्रकाशित किया गया था। आज़ादी के बाद भारत सरकार के ‘नैशनल बुक ट्रस्ट’ ने इसे दो खंडों में पुनः प्रकाशित किया। तब से यह पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ बेहद लोकप्रिय है और इसकी हज़ारों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है। इस पुस्तक को हर देश भक्त भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए तभी सच्चाई का पता चलेगा वरना हम निहित स्वार्थों के प्रचार तंत्र के शिकार बन कर अपना विनाश स्वयं कर बैठेंगे। 


जहां तक बात मुसलमानों के कट्टरपंथी होने की है तो मेरा और मेरे जैसे लाखों भारतीयों का यह मानना है कि जिस तरह मुसलमानों में कुछ फ़ीसदी कट्टरपंथी हैं वैसे ही हिंदुओं में भी हैं। जिनका सनातन धर्मों के मूल्यों, वैदिक साहित्य और हिंदू जीवन पद्धति में कोई आस्था नहीं है। कई बार तो ये लोग धर्म की ध्वजा उठा कर सनातन धर्म का भारी नुक़सान भी कर देते हैं। जिसके अनेक उदाहरण हैं। इनसे हमें बचना होगा। दूसरी तरफ़ मुसलमानों को भी इंडोनेशिया जैसे देश के मुसलमानों से सीखना होगा कि भारत में कैसे रहा जाए? इंडोनेशिया के मुसलमान इस्लाम को मानते हुए भी अपने हिंदू इतिहास के प्रति उतना ही सम्मान रखते हैं।