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Monday, August 25, 2025

निसंदेह गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस

बचपन से हमें पढ़ाया गया की हवाई दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को ताइपे (ताइवान) में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। पर उनकी मौत के विवाद को सुलझाने के लिए बने ‘मुखर्जी आयोग’ ने ताइपे (ताइवान) जाकर उनकी सरकार से संपर्क किया तो पता चला कि उस तारीख को ही नहीं बल्कि उस पूरे महीने ही वहाँ कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था। यानी नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत नहीं हुई थी। ये झूठी कहानी गढ़ी गई। तो प्रश्न उठता है कि फिर नेताजी गए कहाँ? इस पर बाद में चर्चा करेंगे।


बाद के कई दशकों तक देश में चर्चा चलती रही कि नेताजी अचानक प्रगट होंगे। बाबा जयगुरुदेव ने देश भर की दीवारों पर बड़ा-बड़ा लिखवाया कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जल्दी ही देश के सामने प्रगट होंगे। पर वे नहीं हुए। मेरी माँ बहुत राष्ट्रभक्त थीं और बड़े राजनैतिक परिवारों के बच्चे उनके साथ पढ़ते थे, सो उनकी शुरू से राजनीति में रुचि थी। उन्होंने मुझे 1967 में कहा था कि ‘नेता जी अभी ज़िंदा हैं और गुमनाम रूप से कहीं संत भेष में पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहते है।’



पर्दे वाले बाबा नाम से एक संत पचास के दशक में नेपाल के रास्ते भारत आए और गोपनीय रूप से बस्ती, लखनऊ, नैमिषारण्य, फैजाबाद व अयोध्या के मंदिरों या घरों में रहे। इस दौरान उनसे मिलने बहुत से लोग आते थे। पर सबको हिदायत थी कि उनके सामने कोई सुभाष नाम नहीं लेगा। इनमें 13 लोग जो वहीं के थे, जो उनके अंतरंग थे। उनमें से दो परिवारों ने तो उन्हें परदे के पीछे जाकर भी देखा था। बाक़ी अनेक लोग बंगाल से लगातार उनसे मिलने आते थे। उनमें दो लोग नेता जी की ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ की ‘इंटेलिजेंस विंग’ के सदस्य थे। ये लोग हर 23 जनवरी को आते थे और बड़े हर्षोल्लास से पर्दे वाले बाबा का जन्मदिन मना कर लौट जाते थे। गौरतलब है कि 23 जनवरी ही नेताजी का जन्मदिन होता है।जिसे मोदी जी ने ‘शौर्य दिवस’ घोषित किया है। यही लोग हर वर्ष दोबारा दुर्गा पूजा के समय उनके पास आते थे। इसके अलावा बाबा की जरूरत के हिसाब से बीच-बीच में भी लोग आते जाते रहते थे। देश के कई बड़े नामी राजनेता व बड़े सैन्य अधिकारी भी लगातार उनसे मिलने आते थे। पर सब उनसे पर्दे के सामने से ही बात करते और सलाह लेते थे। 


पत्रकार अनुज धर और पर्यावरणवादी चंद्रचूड़ घोष, इन दो लोगों ने अपनी जवानी के बीस वर्ष इसे सिद्ध करने में लगा दिए कि ‘पर्दे वाले बाबा’ जिन्हें बाद में लोग ‘गुमनामी बाबा’कहने लगे, जिन्हें उनके निकट के लोग ‘भगवन जी’ कहते थे, वही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। पिछले हफ़्ते ये दोनों मेरे दिल्ली कार्यालय आए और विस्तार से मुझे इस विषय में जानकारी दी। उन्होंने अपनी लिखी हिंदी व अंग्रेज़ी की कई पुस्तकें भी दीं। जिनमे वो सारे तथ्य, दस्तावेज़ और उन सामानों के चित्र थे जो ‘गुमनामी बाबा’ के कमरे से 16 सितंबर 1985 को उनकी मृत्यु के बाद, उनके दो दर्जन से ज़्यादा बक्सों में से निकले थे । ये सब सामान देखकर कोलकाता से बुलाई गयीं नेताजी की भतीजी ललिता बोस रोने लगी और बेहोश हो गई। क्योंकि उसमें नेता जी और ललिता जी के माता-पिता के बीच हुए पत्राचार के हस्त लिखित प्रमाण भी थे। उनके परिवार के तमाम फोटो थे। जिनमें नेताजी के माता पिता का फ्रेम किया फोटो भी है। तब ललिता बोस ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर के इन सामानों को सरकार की ट्रेज़री में जमा करवाने की माँग की। अदालत ने भी ये माना कि ‘गुमनामी बाबा’ के ये सब सामान राष्ट्रीय महत्व के है। तब फैजाबाद के जिलाधिकारी ने उन 2760 सामानों की सूची बनवाकर ट्रेज़री में जमा करवा दिया। बरसों बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने इन सामानों को ‘राम कथा संग्रहालय’ अयोध्या में जन प्रदर्शन के लिए रखवा दिया। पता नहीं क्यों अब ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’ उन्हें वहाँ से हटाने की प्रक्रिया चला रहा है?



इन सामानों में गुमनामी बाबा (नेताजी) के तीन चश्मे, जापानी क्रॉकरी, बहुत मंहगी जर्मन दूरबीन, ब्रिटिश टाइपराइटर, आईएनए की वर्दी जो नेता जी के साइज़ की हैं। लगभग एक हज़ार पुस्तकें जो राजनीति, साहित्य, इतिहास, युद्ध नीति, होम्योपैथी, धार्मिक विषयों आदि पर हैं व मुख्यतः अंग्रेज़ी में हैं। तीन विदेशी सिगार पाइप, पाँच बोरों में देश विदेश के अख़बारों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में छपी ख़बरों की कतरने, आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों से उनका नियमित पत्राचार व आरएसएस प्रमुख श्री गुरु गोलवलकर का गुमनामी बाबा के नाम लिखा एक पत्र भी मिला है। इसके अलावा एक बड़े गत्ते पर गुमनामी बाबा के रूस से चीन, तिब्बत और नेपाल के रास्ते बस्ती (ऊ प्र) आने के मार्ग का हाथ से बना विस्तृत नक़्शा भी है।



अनुज धर और चंद्रचूड़ घोष के शोध से पता चलता है कि नेता जी विमान दुर्घटना की झूठी कहानी के आवरण में रूस पहुँच गए। जहाँ रूस की सरकार ने उन्हें गुलाग में एक बंगला, दो अंगरक्षक, एक कार और ड्राइवर की सुविधा के साथ महफ़ूज़ रखा। तीन साल गुमनाम रूप से रूस में रहने के बाद वे चीन, तिब्बत और नेपाल के रास्ते एक संत के वेश में भारत आए और 16 सितंबर 1985 को अपनी मृत्यु तक पर्दे के पीछे ही छिप कर रहे। पर्दे के भीतर जा कर उन्हें केवल फैजाबाद का डॉ बनर्जी व मिश्रा जी का परिवार ही देख सकता था। उनकी दबंग आवाज़, बंगाली उच्चारण में हिंदी और फर्राटेदार अंग्रेजी सुन कर पर्दे के सामने बैठा हर व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। फिर भी सबको यह हिदायत थी कि उनके सामने ‘सुभाष’ नाम नहीं लिया जाएगा। सब उन्हें ‘भगवन जी’ कह कर ही बुलाते थे। जिस व्यक्ति की मृत्यु पर 13 लाख लोग जमा होने चाहिए थे, उनके अंतिम संस्कार में मात्र यही 13 लोग थे। उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे अयोध्या के ‘गुप्तार घाट’ पर किया गया, जहाँ उनकी समाधि है। गुप्तार घाट वही स्थल है, जहाँ भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने जल समाधि ली थी। हज़ारों साल में उस पवित्र स्थल पर आजतक केवल गुमनामी बाबा का ही अंतिम संस्कार हुआ है। सारा ज़िला प्रशासन और पुलिस दूर खड़े उनका अंतिम संस्कार देखते रहे।



इतना कुछ प्रमाण उपलब्ध है फिर भी आज तक केंद्र की कोई सरकार गुमनामी बाबा की सही पहचान को सार्वजनिक रूप से स्वीकारने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार तक भी नहीं। जबकि मोदी जी ने इंडिया गेट के सामने की छतरी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की खड़ी प्रतिमा स्थापित करने का पुण्य कार्य किया है। आरएसएस के दिवंगत सर संघ चालक के एस सुदर्शन जी का एक सार्वजनिक वीडियो वक्तव्य है, जो यूट्यूब पर भी उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा है कि गुमनामी बाबा ही नेता जी सुभाष चंद्र बोस थे। अनुज धर और चंद्रचूड़ घोष बताते हैं कि पंडित नेहरू से लेकर मोदी जी तक हर प्रधान मंत्री को इसकी जानकारी है और नेताजी से 1945 तक जुड़े रहे उनके सहयोगी नेता उनसे मिलने जाते रहे। पर साधना में लीन गुमनामी बाबा ये नहीं चाहते थे कि कोई उनकी असलियत जाने।  

Monday, October 3, 2022

अंग्रेजों के अत्याचारों पर ये खामोशी क्यों ?



पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चिंता काफ़ी बढ़ गई है। हर देश अपने तरीक़े से मुसलमानों की धर्मांधता से निपटने के तरीक़े अपना रहा है। खबरों के मुताबिक़ चीन इस मामले में बहुत आगे बढ़ गया है। वैसे भी साम्यवादी देश होने के कारण चीन की सरकार धर्म को हेय दृष्टि से देखती है। पर मुसलमानों के प्रति उसका रवैया कुछ ज़्यादा ही कड़ा और आक्रामक है। इसी तरह यूरोप के देश जैसे फ़्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और इटली भी मुसलमानों के कट्टरपंथी रवैए के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपना रहे हैं। इधर भारत में मुसलमानों को लेकर कुछ ज़्यादा ही आक्रामक तेवर अपनाए जा रहे हैं। इस विषय पर मैंने पहले भी कई बार लिखा है। मैं अपने सनातन धर्म के प्रति आस्थावान हूँ। पर यह भी मानता हूँ कि धर्मांधता और कट्टरपंथी रवैया, चाहे किसी भी धर्म का हो, पूरे समाज के लिए घातक होता है। 


जहां तक भारत में हिंदू - मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बात है, तो ये जानना बेहद ज़रूरी है कि हिंदू धर्म का और हमारे देश की अर्थ व्यवस्था का जितना नुक़सान 190 वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने किया उसका पासंग भी 800 साल के शासन में मुसलमान शासकों ने नहीं किया। मुसलमान शासकों ने जो भी जुल्म ढाए हों, हमारे सनातनी संस्कारों को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि अंग्रेजों ने मैकाले की शिक्षा प्रणाली थोप कर हर भारतीय के मन में सनातनी संस्कारों के प्रति इतनी हीन भावना भर दी कि हम आजतक उससे उबर नहीं पाए। मैं गत तीस वर्षों से देश-विदेश में धोती, कुर्ता, अंगवस्त्रम पहनता हूँ और वैष्णव तिलक भी धारण करता हूँ, तो अपने को हिन्दुवादी बताने वाले भी मुझे पौंगापंथी समझते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुग़ल काल में गौ वध पर फाँसी तक की सज़ा थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत में गौ मांस के कारोबार को खूब बढ़ावा दिया और ग़ैर सवर्ण जातियों में सुअर के मांस को प्रोत्साहित किया। इससे अंग्रेज हुक्मरानों के उन दिनों मांस खाने के शौक़ को तो पूरा किया ही, बड़ी चालाकी से उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई भी पैदा कर दी।  



जहां तक मुसलमान शासकों के हिंदू और सिक्खों के प्रति हिंसक अत्याचारों का प्रश्न है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हिंदू राजाओं के सेनापति मुसलमान ही थे, जो उनकी तरफ़ से मुग़लों और अंग्रेजों की फ़ौजों से लड़े। उधर अकबर, जहांगीर और औरंगज़ेब व दक्षिण में टीपू सुल्तान जैसे मुसलमान शासकों के सेनापति हिंदू थे, जो हिंदू राजाओं से लड़े। यानी मध्य युग के उस दौर में हिंदू-मुसलमानो के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता था। अगर आप यूट्यूब पर आजकल दिखाई जा रही 1947 के विभाजन की आप बीती कहानियाँ सुने तो आपको आश्चर्य होगा की भारत और पाकिस्तान के विभाजन पूर्व पंजाब में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के पारस्परिक रिश्ते कितने मधुर थे। ये खाई और घृणा अंग्रेजों ने अपनी ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत जानबूझकर बड़ी कुटिलता से पैदा की। जिसकी परिणिति अंततः भारत के विभाजन से हुई। जिसका दंश दोनो देशों के लोग आजतक भोग रहे हैं। 


आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी लाख हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक ही बताएँ, पर आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता और इनकी आईटी सेल आजकल रात दिन हिंदुओं पर हुए मुसलमानों के अत्याचार गिनाते हैं। आश्चर्य है कि अंग्रेजों के हम भारतीयों पर दो सौ वर्षों तक लगातार हुए राक्षसी अत्याचारों और भारत की अकूत दौलत की जो लूट अंग्रेजों ने करके भारत को कंगाल कर दिया, उसका ये लोग कभी ज़िक्र तक नहीं करते, क्या आपने कभी सोचा ऐसा क्यों है?



आज हर उस व्यक्ति को जो स्वयं को देशभक्त मानता है इतिहासकार श्री सुन्दरलाल की शोधपूर्ण पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ अवश्य पढ़नी चाहिये, जिसे 1928 मार्च में प्रकाशित होने के चार दिन बाद ही अंग्रेज हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था और इसकी चार दिन में बिक चुकी 1700 प्रतियों को लोगों के घरों पर छापे डाल-डाल कर उनसे छीन लिया था। क्योंकि इस पुस्तक में अंग्रेजों के अत्याचारों की रोंगटे खड़े करने वाली हक़ीक़त बयान की गयी थी। जिसे पढ़कर हर हिंदुस्तानी का खून खौल जाता था। अंग्रेज सरकार ने पुस्तक के प्रकाशक, विक्रेताओं, ग्राहकों और डाकखानों पर ज़बरदस्त छापामारी कर इन पुस्तकों को छीनना शुरू कर दिया। देश के बड़े नेताओं ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई और लोगों से किसी भी क़ीमत पर ये किताब अंग्रेजों को न देने की अपील की। इस तरह अंग्रेज पूरी वसूली नहीं कर पाए। इस हिला देने वाली किताब की काफ़ी प्रतियाँ पाठकों के गुप्त पुस्तकालयों में सुरक्षित रख ली गईं। 



चूँकि मेरे नाना संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की विधान परिषद के उच्च अधिकारी थे, इसलिए उन्हें भी अपने अंग्रेज हुक्मरानों का डर था। उन्होंने यह किताब लखनऊ की अपनी कोठी के तहखाने में छिपा कर रखी थी। मेरी माँ और उनके भाई-बहन बारी-बारी से तहखाने में जाकर इसे पढ़ते थे। जितना पढ़ते उतनी उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और आक्रोश बढ़ता जाता था। ये बात बीसवीं सदी के चौथे दशक की है जब देश में कई जगह कांग्रेस ने सरकार चलाना स्वीकार कर लिया था। क्योंकि तब इस पुस्तक पर से प्रतिबंध हटा लिया गया था और इसे दोबारा प्रकाशित किया गया था। आज़ादी के बाद भारत सरकार के ‘नैशनल बुक ट्रस्ट’ ने इसे दो खंडों में पुनः प्रकाशित किया। तब से यह पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ बेहद लोकप्रिय है और इसकी हज़ारों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है। इस पुस्तक को हर देश भक्त भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए तभी सच्चाई का पता चलेगा वरना हम निहित स्वार्थों के प्रचार तंत्र के शिकार बन कर अपना विनाश स्वयं कर बैठेंगे। 


जहां तक बात मुसलमानों के कट्टरपंथी होने की है तो मेरा और मेरे जैसे लाखों भारतीयों का यह मानना है कि जिस तरह मुसलमानों में कुछ फ़ीसदी कट्टरपंथी हैं वैसे ही हिंदुओं में भी हैं। जिनका सनातन धर्मों के मूल्यों, वैदिक साहित्य और हिंदू जीवन पद्धति में कोई आस्था नहीं है। कई बार तो ये लोग धर्म की ध्वजा उठा कर सनातन धर्म का भारी नुक़सान भी कर देते हैं। जिसके अनेक उदाहरण हैं। इनसे हमें बचना होगा। दूसरी तरफ़ मुसलमानों को भी इंडोनेशिया जैसे देश के मुसलमानों से सीखना होगा कि भारत में कैसे रहा जाए? इंडोनेशिया के मुसलमान इस्लाम को मानते हुए भी अपने हिंदू इतिहास के प्रति उतना ही सम्मान रखते हैं।