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Monday, July 28, 2025

भारतीय पासपोर्ट की बढ़ती लोकप्रियता!

हाल ही में जारी हेनले पासपोर्ट इंडेक्स 2025 में भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला है। पिछले वर्ष के 85वें स्थान से 8 पायदान ऊपर चढ़कर भारत अब 77वें स्थान पर पहुंच गया है। इसका सीधा लाभ पासपोर्ट धारकों को मिल रहा है और यह हमारी अर्थव्यवस्था तथा वैश्विक संबंधों के लिए भी शुभ संकेत है।


हेनले पासपोर्ट इंडेक्स एक वैश्विक बेंचमार्क है जो दुनिया के पासपोर्टों को उनकी यात्रा स्वतंत्रता के आधार पर रैंक करता है। यानी कोई पासपोर्ट धारक बिना पूर्व वीज़ा के कितने देशों की यात्रा कर सकता है। भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में यह सुधार सीधे तौर पर भारतीय नागरिकों के लिए अधिक वीज़ा-मुक्त या वीज़ा-ऑन-अराइवल देशों तक पहुंच का मार्ग प्रशस्त करता है। वर्तमान में, भारतीय पासपोर्ट धारक 59 देशों में बिना पूर्व वीज़ा के यात्रा कर सकते हैं, जबकि पिछले साल यह संख्या 57 थी। इसमें फिलीपींस और श्रीलंका जैसे नए देश भी शामिल हुए हैं।



यह बढ़ी हुई पहुंच भारतीय यात्रियों के लिए कई मायनों में फायदेमंद है। वीज़ा प्रक्रिया अक्सर लंबी, जटिल और खर्चीली होती है। वीज़ा-मुक्त या वीज़ा-ऑन-अराइवल की सुविधा यात्रा योजना को सरल बनाती है, समय बचाती है और अचानक यात्राओं को संभव बनाती है। यह व्यापार, पर्यटन और व्यक्तिगत यात्राओं को बढ़ावा देता है।  व्यापारिक पेशेवरों के लिए आसान अंतरराष्ट्रीय यात्रा व्यावसायिक अवसरों को बढ़ाने में मदद करती है। इससे विदेशी निवेश आकर्षित होता है और भारतीय व्यवसायों को वैश्विक बाजारों तक पहुंचने में आसानी होती है। भारतीय पर्यटकों के लिए अधिक गंतव्यों तक आसान पहुंच अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को प्रोत्साहित करती है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा मिलता है। छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए आसान यात्रा विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन या शोध के लिए नए अवसर खोलती है, जिससे ज्ञान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ता है। एक मजबूत पासपोर्ट किसी देश की वैश्विक प्रतिष्ठा और उसके नागरिकों की स्वीकार्यता को दर्शाता है। यह भारत की बढ़ती ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्वपूर्ण संकेतक है।



भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में इस उछाल के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं। भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने और वीज़ा समझौतों को उदार बनाने पर विशेष जोर दिया है। विदेश मंत्रालय की सक्रिय कूटनीति ने कई देशों को भारतीय नागरिकों के लिए वीज़ा नीतियों में ढील देने के लिए प्रेरित किया है। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और वैश्विक भू-राजनीति में इसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है। भारत का आर्थिक उदय और रणनीतिक महत्व अन्य देशों को भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने और भारतीय नागरिकों को अधिक सुगम यात्रा सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित करता है। किसी भी देश की पासपोर्ट रैंकिंग में उसकी आंतरिक सुरक्षा स्थिति और राजनीतिक स्थिरता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत ने हाल के वर्षों में आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करने और एक स्थिर वातावरण बनाए रखने में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में विश्वास बढ़ा है। भारत में पासपोर्ट आवेदन प्रक्रिया को डिजिटल बनाने और सरल बनाने के लिए किए गए प्रयासों ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इस सुधार में योगदान दिया है। सुगम और पारदर्शी पासपोर्ट सेवाएं नागरिकों के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा को और अधिक व्यवहार्य बनाती हैं। इसके साथ ही कोविड-19 महामारी के दौरान यात्रा प्रतिबंधों के कारण दुनिया भर के पासपोर्टों की रैंकिंग प्रभावित हुई थी। अब जब वैश्विक यात्रा धीरे-धीरे सामान्य हो रही है, तो देशों के बीच समझौते और यात्रा की बहाली रैंकिंग में सुधार का एक कारण है।



भारतीय पासपोर्ट की इस क्रमशः बढ़ती ताकत को बनाए रखना और उसे और मजबूत करना एक सतत प्रक्रिया है। इसके लिए कई उपायों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। विदेश मंत्रालय को दुनिया के उन देशों के साथ बातचीत जारी रखनी चाहिए जो अभी भी भारतीय नागरिकों के लिए सख्त वीज़ा आवश्यकताएं रखते हैं। विशेष रूप से उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां भारतीय व्यापार, पर्यटन या छात्र समुदाय की महत्वपूर्ण उपस्थिति है।एक मजबूत और स्थिर अर्थव्यवस्था एक मजबूत पासपोर्ट की नींव होती है। भारत को अपनी आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखना चाहिए और वैश्विक व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों का सम्मान करना और उनका प्रभावी ढंग से पालन करना भारत की विश्वसनीयता को बढ़ाता है, जिससे अन्य देश उसके नागरिकों को अधिक वीज़ा स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। आंतरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था का मजबूत ढांचा किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए महत्वपूर्ण है। यह पर्यटकों और व्यापारिक आगंतुकों के लिए एक सुरक्षित वातावरण का आश्वासन देता है। 


भारत को उन देशों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए जो ई-वीज़ा या वीज़ा-ऑन-अराइवल की पेशकश नहीं करते हैं। इन सुविधाओं का विस्तार यात्रा को और अधिक सुविधाजनक बना सकता है। सरकार को भारतीय पासपोर्ट धारकों के लिए उपलब्ध वीज़ा-मुक्त/वीज़ा-ऑन-अराइवल देशों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर नियमित अपडेट और सार्वजनिक जागरूकता अभियान इसमें मदद कर सकते हैं।भारत को ‘अतिथि देवो भव’ की अपनी परंपरा के अनुरूप विदेशी पर्यटकों का स्वागत करना जारी रखना चाहिए। सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आदान-प्रदान से भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ बढ़ती है, जिससे बदले में अन्य देशों से वीज़ा उदारता प्राप्त होती है।


भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में यह सुधार देश के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, पर अभी बहुत आगे जाना है। भारत की विदेश नीति को लेकर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। इस नीति के आलोचकों का कहना है कि हाल में हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के मामले में दुनिया का कोई भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ। जबकि चीन और टर्की आदि ने पाकिस्तान को खुला समर्थन देने की घोषणा की थी। उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दर्जनों बार यह दोहराया कि भारत पाकिस्तान के बीच उन्होंने ही सीज़-फ़ायर करवाई है। जबकि भारत के विदेश मंत्रालय ने ट्रम्प के इस दावे का बार-बार खंडन किया। दरअसल किसी भी देश की विदेश नीति का आधार उसकी आर्थिक प्राथमिकताएँ व भू-राजनैतिक (जियो पोलिटिकल) बाध्यताओं से निर्धारित होती है। अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में जहाँ एक तरफ़ अमरीका और रूस की नज़र हमेशा भारत के बड़े बाज़ार पर रहती है वहीं चीन से संतुलन बनाए रखने के लिए इन्हें पाकिस्तान को भी साधना पड़ता है। क्योंकि उसकी भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है। इन सब दबावों के बीच भारत अपनी विदेश नीति तय करता है।   

Monday, April 24, 2023

सोशल मीडिया के खतरों से कैसे बचें ?


जब देश में सोशल मीडिया का इतना प्रचलन नही था तब जीवन ज्यादा सुखमय था। तकनीकी की उन्नति ने हमारे जीवन को जटिल और तानवग्रस्त बना दिया है। आज हर व्यक्ति चाहे वो फुटपाथ पर सब्जी बेचता हो या मुंबई के कॉर्पोरेट मुख्यालय में बैठकर अरबों रूपये के कारोबारी निर्णय लेता हो, चौबीस घंटे मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया के मकड़जाल में उलझा रहता है। जिसका बेहद ख़राब असर हमारे शरीर, दिमाग और सामाजिक संबंधों पर पड़ रहा है।

नई तकनीकी के आगमन से समाज में उथल पुथल का होना कोई नई बात नही है। सामंती युग से जब विश्व औद्योगिक क्रांति की और बड़ा तब भी समाज में भरी उथल पुथल हुई थी। पुरानी पीढ़ी के लोग जीवन में आए इस अचानक बदलाव से बहुत विचलित हो गए थे। गाँव से शहरों की और पलायन करना पड़ा, कारखाने खुले और शहरों की गन्दी बस्तियों में मजदूर नारकीय जीवन जीने पर विवश हो गये। ये सिलसिला आज तक रुका नही है। भारत जैसे देश में तो अभी भी बहुसंख्यक समाज, अभावों में ही सही, प्रकृति की गोद में जीवन यापन कर रहा है। अगर गाँवों में रोजगार के अवसर सुलभ हो जाएँ तो बहुत बड़ी आबादी शहर की तरफ नही जाएगी। इससे सरकारों पर भी शहरों में आधारभूत ढांचे के विस्तार का भार नही पड़ेगा। पर ऐसा हो नही रहा। आज़ादी के पिझत्तर वर्षों में जनता के कर का खरबों रुपया ग्रामीण विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गया। 


पाठकों को लगेगा कि सोशल मीडिया की बात करते-करते अचानक विकास की बात क्यों ले आया। दोनों का सीधा नाता है। जापान और अमरीका जैसे अत्याधुनिक देशों से लेकर गरीब देशों तक इस नाते को देखा जा सकता है। इसलिए चुनौती इस बात की है कि भौतिकता की चकाचौंध में बहक कर क्या हम हमारे नेता और हमारे नीति निर्धारक, देश को आत्मघाती स्थिति में धकेलते रहेंगे या कुछ क्षण ठहरकर सोचेंगे कि हम किस रस्ते पर जा रहे हैं? 

इस तरह सोचने की ज़रूरत हमें अपने स्तर पर भी है और राष्ट्र के स्तर पर भी। याद कीजिये कोरोना की पहली लहर जब आई थी और पूरी दुनिया में अचानक अभूतपूर्व लॉकडाउन लगा दिया गया था। तब एक हफ्ते के भीतर ही नदियाँ, आकाश और वायु इतने निर्मल हो गये थे कि हमें अपनी आँखों पर यकीन तक नही हुआ। कोरोना के कहर से दुनिया जैसे ही बाहर आई फिर वही ढाक के तीन पात। आज देश में अभूतपूर्व गर्मी पड़ रही है, अभी तो यह शुरुआत है। अगर हम इसी तरह लापरवाह बने रहे तो क्रमश निरंतर बढ़ती गर्मी कृषि, पर्यावरण, जल और जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा बन जायेगी। अकेले भारत में आज कम से कम दस करोड़ पेड़ लगाने और उन्हें संरक्षित करने की ज़रूरत है। अगर हम सक्रिय न हों तो कोई भी सरकार अकेले यह कार्य नही कर सकती। 


चलिए वापस सोशल मीडिया की बात करते हैं जो आज हमारे जीवन में नासूर बन गया है। राजनैतिक उद्देश्य से चौबीस घंटे झूठ परोसा जा रहा है। जिससे समाज में भ्रम, वैमनस्य और हिंसा बढ़ गई है। किसी के प्रति कोई सम्मान शेष नही बचा। ट्रॉल आर्मी के मूर्ख युवा देश के वरिष्ठ नागरिकों के प्रति जिस अपमानजनक भाषा का प्रयोग सोशल मीडिया पर करते हैं उससे हमारा समाज बहुत तेज़ी से गर्त में गिरता जा रहा है। सोशल मीडिया के बढ़ते हस्तक्षेप ने हमारी दिनचर्या से पठन-पाठन, नियम-संयम, आचार-विचार और भजन-ध्यान सब छीन लिया है। हम सब इसके गुलाम बन चुके हैं। तकनीकी अगर हमारी सेवक हो तो सुख देती है और अगर मालिक बन जाये तो हमें तबाह कर देती है। कुछ जानकार अभिभावक इस बात के प्रति सचेत हैं और वे अपने बच्चों को एक सीमा से ज्यादा इन चीजों का प्रयोग नही करने देते हैं। पर उन परिवारों के बच्चे जिनमें माता-पिता को काम से फुर्सत नही है उन पर इसका बहुत ज्यादा विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आये दिन समाचार आते रहते हैं कि स्मार्ट फोन की चाहत में युवा वर्ग चोरी, हिंसा और आत्महत्या तक के कदम उठा रहा हैं। समाज ऐसा विकृत हो जाये तो डिजिटल इंडिया बनने का क्या लाभ? समाज के व्यवहार को कानून बनाकर नियंत्रित नही किया जा सकता और इस मामले में तो बिल्कुल नही किया जा सकता। इसलिये ज़रूरत इस बात की है कि हम खुद से शुरू करके अपने परिवेश में कुछ प्राथमिकताओं को फिर से वरीयता दें। 

अपनी और अपने परिवार की एक अनुशासित दिनचर्या निर्धारित करें जिसमें भोजन, भजन, पठन-पठान, व्यायाम, मनोरंजन, सामाजिक सम्बन्ध अदि के लिए अलग से समय निर्धारित हो। इसी तरह स्मार्ट फ़ोन, इन्टरनेट व टीवी के लिए भी एक समय सीमा निर्धारित की जाए जिससे हम अपने परिवार को तकनीकी के इस मकड़जाल से बाहर निकाल कर स्वस्थ जीवन चर्या दे पायें। जहाँ तक संभव हो हम अपने घर और परिवेश को हरे भरे पेड़ पौधों से सुसज्जित करने का गंभीर प्रयास करें। विश्वभर में मंडरा रहे गहरे जल संकट को ध्यान में रखकर जल की एक-एक बूँद का किफ़ायत से  प्रयोग करें और भूजल स्तर बढ़ाने के लिए हर सम्भव कार्य करें। आधुनिक फास्टफूड के नाम पर कृत्रिम, हानिकारक रसायनों से बने खाद्य पदार्थों की मात्रा तेज़ी से घटाते हुए घर के बने ताज़े पौष्टिक व पारंपरिक भोजन को प्रसन्न मन से अपनाएं। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो हम, हमारा परिवार और हमारा समाज सुखी, संपन्न और स्वस्थ बन जायेगा। अगर हम ऐसा नही करते तो बिना विषपान  किये ही हम आत्महत्या की और बढ़ते जाएँगे।

अच्छा जीवन जीने का सबसे बढ़िया उदाहरण उज्जैन के एक उद्योगपति स्वर्गीय अरुण ऋषि हैं जिनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बने रहे हैं। हमेशा खुश रहने वाले गुलाबी चेहरे के अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने आज तक न तो कोई दवा का सेवन किया है और न ही किसी सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग किया है इसीलिये वे आज तक बीमार नहीं पड़े। पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ है? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? मतलब ये कि अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके ही हम स्वस्थ और दीर्घआयु हो सकते हैं।  

Monday, October 31, 2022

परदेस में कितने देसी नेता


क्या आप जानते हैं कि इंग्लैंड के अलावा भी कई देशों में भारतीय मूल के प्रधान मंत्री हैं? दीपावली के दिन जैसे ही ये खबर आई कि ऋषि सौनक निर्विरोध ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चुन लिए गये हैं, तो विश्व भर के हिंदुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, विशेषकर भारत में। लोग बल्लियों उछलने लगा। मानो भारत ने इंग्लैंड को जीत लिया हो। औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे भारतीयों के लिए निश्चय ही ये एक गर्व का विषय है कि ऋषि सौनक उन गोरों के प्रधान मंत्री हैं जो कभी भारतीयों को शासन करने में नाकारा बताते थे। यह भी सही है की ऋषि सौनक के पूर्वजों की जड़ें पूर्वी पाकिस्तान और भारत से जुड़ी हैं और वे इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति के दामाद हैं। इससे भी ज़्यादा यह कि वे स्वयं को हिंदू घोषित कर चुके हैं और उन्होंने अपनी सांसदीय शपथ भी भगवद् गीता पर हाथ रख कर ली थी। इससे आगे ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिये भारत के कुछ लोग इतने उत्साहित हैं।


ऋषि सौनक को ये संस्कार श्रील ए॰सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस्कॉन ने दिए हैं, जो मानता है कि हम हिंदू नहीं, हमारी पहचान सनातन धर्मी के रूप में है। जबकि कुछ संगठन सभी सनातन शास्त्रों व मान्यताओं के विपरीत चलते हुए अपना ही बनाया ‘हिंदुत्व’ सब पर थोपते हैं। लंदन के इस्कॉन मन्दिर में ऋषि सौनक ने सपरिवार जा कर गौ माता का पूजन किया तो कुछ लोग इसे इंग्लैंड में भारतीय संस्कृति के प्रसार की संभावना मान कर अति उत्साहित हो गये। पर अगले ही दिन ऋषि सौनक ने ट्विटर पर लिखा कि मेरा संसदीय क्षेत्र गाय और बकरों के मांस का व्यापार करने वालों का है। ये एक बढ़िया उद्योग है। कोई क्या खाए, ये उसकी पसंद से तय होता है। इसलिए मैं इस उद्योग को पूरा बढ़ावा दूँगा- देश में भी और विदेश में भी। 



इसके बाद ही ऋषि सौनक के श्वसुर नारायणमूर्ति व सास सुधा नारायण मूर्ति के काफ़ी निकट के मित्र, प्रधान मंत्री मोदी जी व आरएसएस के नेताओं के भी ख़ास सहयोगी व सलाहकार, बेंगलुरु के मशहूर उद्योगपति मोहन दास पाई ने ट्वीटर पर लिखा कि ऋषि सौनक इंग्लैंड के नागरिक हैं और उनका समर्पण इंग्लैंड के प्रति है। वे यूके के हित के सामने भारत के लिए कुछ भी नहीं करने जा रहे। भारत उनसे कोई आशा न रखे। उन्होंने ये भी लिखा कि ऋषि सौनक का भारत के प्रति कड़ा तेवर रहने वाला है इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये।  


पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर छाये रहे इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें समझनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारतीय मूल के जो युवा विदेशों में पैदा हुए और पले बढ़े और वहीं के नागरिक हैं, उनका भारत के प्रति न तो वह भाव है और न ही वह आकर्षण, जो उनके माता-पिता या पूर्वजों का रहा है, जो भारत में जन्में थे और बाद में विदेशों में जा बसे। 


ऋषि सौनक भारतीय उपमहाद्वीप मूल के पहले युवा नहीं हैं जो इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की ननिहाल तमिल नाडू में है। उन्हें दक्षिण भारतीय खाना पसंद है और वे अपने मौसी-मामाओं से जुड़ी रहती हैं। पर भारत के प्रति कमला हैरिस का रवैया वही है जो आम अमरीकी का है। मसलन वे कश्मीर को मानवाधिकार का विषय मानती हैं। जो भारतीय दृष्टिकोण के विरुद्ध है।


हम में से कितने लोग यह जानते हैं कि 2017-2020 तक आयरलैंड के प्रधान मंत्री रहे लिओ वराडकर के माता-पिता मुंबई के पास वसई के रहने वाले हैं। लिओ ने 2003 में मुंबई के केईएम अस्पताल से इण्टर्नशिप पूरी की थी। उनकी माँ आयरिश हैं और पिता भारतीय। लिओ वराडकर की इस प्रभावशाली सफलता का भारत में कोई ज़िक्र क्यों नहीं करता? क्या इसलिए कि वे ईसाई हैं? ये बहुत ओछि  मानसिकता का परिचायक है। 



इसी तरह पुर्तगाल के मौजूदा प्रधान मंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं। उनके माता-पिता का जन्म गोवा में हुआ था। ये दूसरी बार प्रधान मंत्री चुने गये हैं। विडंबना देखिए कि न तो भारत के मीडिया को इसकी खबर है और ना ही देश की जनता को। तो फिर भारत माँ के इन सपूतों की इस उपलब्धि पर जश्न कौन मनाएगा? जबकि एंटोनियो कोस्टा तो आज भी ओसीआई कार्ड के धारक हैं और लिओ वराडकर अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में आते रहते हैं। पर इसकी मीडिया में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं होती? ये प्रमाण हैं इस बात का कि देश का मीडिया कितना संकुचित और कुंद हो गया है। ये रवैया भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र के लिए घातक है।


पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्व को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर देश के करोड़ों सनातन धर्मियों के मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जिनका संतुष्टि पूर्ण उत्तर संघ परिवार के सर्वोच्च पदाधिकारियों को देना चाहिए। एक तरफ़ तो सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ऐसे वक्तव्य देते हैं जिससे लगता है कि संघ अपने कट्टरपंथी चोले से बाहर आ रहा है। जैसे मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक है। अब मस्जिदों में और शिव लिंग खोजना बंद करें। दूसरी तरफ़ संघ प्रेरित सोशल मीडिया का दिन-रात हमला मुसलमानों के विरुद्ध भावनाएँ भड़काने के लिए होता रहता है। ये विरोधाभास क्यों? 


एक तरफ़ तो संघ परिवार हिंदुत्व की जमकर पैरवी करता है और दूसरी तरफ़ सनातन धर्म की परंपराओं, वैदिक शास्त्रों और शंकराचार्य जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के विरुद्ध आचरण भी करता है। ये विरोधाभास क्यों? ऐसे में हमारे जैसा एक आस्थावान सनातन धर्मी किस मार्ग का अनुसरण करे? ये भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही हमारे समाज और राष्ट्र के हित में होगा। वरना हम इसी तरह ऋषि सौनक की उपलब्धि पर तो बल्लियों उछलेंगे और एंटोनियो कोस्टा व लिओ वराडकर की उपलब्धियों से मूर्खों की तरह बेख़बर बने रहेंगे। भागवत जी के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो ये खाई अब पटनी चाहिए।