Monday, June 22, 2020

सुशांत सिंह राजपूत जैसे और भी हैं

आत्महत्या के बाद से सुशांत सिंह राजपूत के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जितनी जानकारियाँ सामने आई हैं उनसे यह स्पष्ट है कि ये नौजवान कई मायनों में अनूठा था। उसकी सोच, उसका ज्ञान, उसकी लगन, उसका स्वभाव और उसका जुनून ऐसा था जैसा बॉलीवुड में बहुत कम देखने को मिलता है। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत अपने आप में एक ऐसी शख़्सियत था जो अगर ज़िंदा रहता तो एक संजीदा सुपर स्टार बन जाता। 


जितनी बातें सोशल मीडिया में सुशांत के बारे में सामने आ रहीं हैं उनसे तो यही लगता है कि बॉलीवुड माफिया ने उसे तिल-तिल कर मारा। पर ये कोई नई बात नहीं है।  बॉलीवुड में गॉडफादर या मशहूर ख़ानदान या अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के सहारे चमकने वाले तमाम सितारे ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व सुशांत के सामने आज भी कोई हैसियत नहीं रखता। पर आज तक कोई भी इस अनैतिक गठबंधन को तोड़ नहीं पाया। इसलिए वे बेख़ौफ़ अपनी कूटनीतियों को अंजाम देते रहते हैं। 


पर इस त्रासदी का शिकार सुशांत अकेला नहीं था। हर पेशे में कमोवेश ऐसी ही हालत है। आज़ादी के बाद से अगर आँकड़ा जोड़ा जाए तो देश भर में सैंकड़ों ऐसे युवा वैज्ञानिकों के नाम सामने आएँगे जिन्होंने इन्हीं हालातों में आत्महत्या की। ये सब युवा वैज्ञानिक बहुत मेधावी थे और मौलिक शोध कर रहे थे। पर इनसे ईर्ष्या करने वाले इनके सुपर बॉस वैज्ञानिकों ने इनकी मौलिक शोध सामग्री को अपने नाम से प्रकाशित किया। इन्हें लगातार हतोत्साहित किया और इनका कई तरह से शोषण किया। मजबूरन इन्होंने आत्महत्या कर ली। 


यही हाल कारपोरेट सेक्टर में भी देखा जाता रहा है। जहां योग्य व्यक्तियों को उनके अयोग्य साथी अपमानित करते हैं और हतोत्साहित करते हैं। मालिक की चाटुकारिता करके उच्च पदों पर क़ायम हो जाते हैं। हालाँकि सूचना क्रांति के बाद से अब योग्यता को भी तरजीह मिलने लगी है। क्योंकि अब योग्यता छिपी नहीं रहती। पर पहले वही हाल था। 


यही हाल राजनीति का भी है। जहां गणेश प्रदक्षिणा करने वाले तो तरक़्क़ी पा जाते हैं और सच्चे, मेहनती, समाजसेवी कार्यकर्ता सारे जीवन दरी बिछाते रह जाते हैं। पिछले 30 वर्षों से तो हर राजनैतिक दल पर परिवारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कार्यकर्ताओं का काम केवल प्रचार करना और गुज़ारे के लिये दलाली करना रह गया है। 


संगीत, कला, नृत्य का क्षेत्र हो या खेल-कूद का, कम ही होता है जब बिना किसी गॉडफादर के कोई अपने बूते पर अपनी जगह बना ले। भाई-भतीजावाद, शारीरिक और मानसिक शोषण और भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में भी खूब हावी है। 


आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया की पोल खोलने वाले पत्रकार भी इन षड्यंत्रों से अछूते नहीं रहते। किसको क्या असाइनमेंट मिले, कौनसी बीट मिले, कितनी बार वीआइपी के साथ विदेश जाने का मौक़ा मिले, ये इस पर निर्भर करता है कि उस पत्रकार के अपने सम्पादक के साथ कैसे सम्बंध हैं। कोई मेधावी पत्रकार अगर समाचार सम्पादक या सम्पादक की चाटुकारिता न कर पाए तो उसकी सारी योग्यता धरी रह जाती है। इसी तरह अवार्ड पाने का भी एक पूरा विकसित तंत्र है जो योग्यता के बजाए दूसरे कारणों से अवार्ड देता है। फिर वो चाहे बॉलीवुड के अवार्ड हों या खेल जगत के या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे राजकीय सम्मान हों। सब के सब योग्यता के बजाए किन्हीं अन्य कारणों से मिलते हैं। इन्हीं सब कारणों से युवा या अन्य योग्य लोग  अवसाद में चले जाते हैं और आत्महत्या जैसे ग़लत कदम उठा बैठते हैं। इन सब परिस्थियाँ से लड़ने में आध्यात्म भी एक अच्छा साधन सिद्ध हो सकता है और ये पीड़ित को शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने में मदद कर सकता है।


चूँकि यह समस्या सर्वव्यापी है इसलिए इसे एकदम रातों रात में ख़त्म नहीं किया जा सकता। पर इसके समाधान ज़रूर खोजे जा सकते हैं। मसलन सरकारी विभागों में बने शिकायत केंद्रों की तरह ही हर राज्य और केंद्र के स्तर पर ‘शोषण निवारण आयोग’ बनाए जाएँ। जिनमें समाज के वरिष्ठ नागरिक, निशुल्क सेवाएं दें। वकालत, मनोविज्ञान, प्रशासनिक तंत्र, कला व खेल और पुलिस विभाग के योग्य, अनुभवी और सेवा निवृत लोग इन आयोगों के सदस्य मनोनीत किए जाएं। इन आयोगों के पते, ईमेल और फ़ोन इत्यादि, हर प्रांतीय भाषा में खूब प्रचारित किए जाएं । जिससे ऐसे शोषण को झेल रहे युवा अपने अपने प्रांत के आयोग को समय रहते लिखित सूचना भेज सकें। आयोग की ज़िम्मेदारी हो कि ऐसी शिकायतों पर तुरंत ध्यान दें और जहां तक सम्भव हो, उस पीड़ित को नैतिक बल प्रदान करें। जैसा महिला आयोग, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर करते हैं। इन आयोगों का स्वरूप सरकारी न होकर स्वायत्त होगा तो इनकी विश्वसनीयता और प्रभाव धीरे धीरे स्थापित होता जाएगा। 


अनेक समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने समाज का अध्यन कर के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जिनसे ऐसी शोषक व्यवस्था का चरित्र उजागर होता है। जैसे ‘सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘शोषक और शोषित’। ये सब सिद्धांत समाज की उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो ताकतवर व्यक्ति के सौ खून भी माफ़ करने को तैयार रहता है किंतु मेधावी व्यक्ति की सही शिकायत पर भी ध्यान नहीं देता। पर जिस तरह अमरीका में हाल ही में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु पुलिसवाले के अमानवीय व्यवहार से हो गई और उस पर पूरा अमरीकी समाज उठ खड़ा हुआ और उन गोरे सिपाहियों को कड़ी सजा मिली। या जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही का देशभर में छात्र एकजुट हो कर विरोध करते हैं। उसी तरह हर व्यवसाय के लोग, ख़ासकर युवा जब ऐसे मामलों पर सामूहिक आवाज़ उठाने लगेंगे तो ये प्रवृतियाँ धीरे धीरे कमजोर पड़ती जाएँगीं। इसलिए शोषण और अत्याचार का जवाब आत्महत्या नहीं बल्कि हमलावर हो कर मुक़ाबला करना है।                  

Monday, June 15, 2020

‘ब्लैकमेलर’ की नई परिभाषा

आजकल देश में बड़े घोटालेबाज़ों द्वारा ‘ब्लैकमेलर’ की एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। आजतक तो पत्रकारिता जगत में उन्हें ही ‘ब्लैकमेलर’ कहा जाता था, जो किसी महत्वपूर्ण अधिकारी, मंत्री या बड़े पैसे वाले के विरुद्ध खोज करके ऐसे प्रमाण, फ़ोटो या दस्तावेज जुटा लेते थे, जिनसे वह महत्वपूर्ण व्यक्ति या तो घोटाले के केस में फँस सकता था और उसकी नौकरी जा सकती थी या वह बदनाम हो सकता था, या उसके ‘बिज़नेस सीक्रेट’ जग ज़ाहिर हो सकते थे, जिससे उसे भारी व्यापारिक हानि हो सकती थी। ऐसे प्रमाण जुटा लेने के बाद जो पत्रकार उन्हें सार्वजनिक नहीं करते या प्रकाशित नहीं करते, बल्कि सम्बंधित व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी झलक दिखा कर डराते हैं। फिर अपना मुँह बंद रखने की मोटी क़ीमत वसूलते हैं। ऐसे पत्रकारों को ब्लैकमेलर कहा जाता है और वे आज भी समाज में सक्रिय हैं।


ऐसा बहुत कम होता है कि जिस व्यक्ति को ब्लैकमेल किया जाता है वो इसकी लिखित शिकायत पुलिस को दे और ब्लैकमेलर को पकड़वाए। जब कभी किसी ने ऐसी शिकायत की तो ऐसा ब्लैकमेलर पत्रकार जेल भी गया है। चाहे वो टीवी या अख़बार का कितना ही मशहूर पत्रकार क्यों न हो। पर आमतौर पर यही देखा जाता है कि जिसको ब्लैकमेल किया जा रहा है वह इसकी शिकायत पुलिस से नहीं करता। कारण स्पष्ट है कि उसे अपनी चोरी या अनैतिक आचरण के जग ज़ाहिर होने का डर होता है। ऐसे में वह व्यक्ति चाहे कितने भी बड़े पद पर क्यों न हो, ले-देकर मामले को सुलटा लेता है। 


इससे यह स्पष्ट है कि ब्लैकमेल होने वाला और ब्लैकमेल करने वाला दोनों ही अनैतिक कृत्य में शामिल हैं और क़ानून की दृष्टि में अपराधी हैं। पर उनका यह राज़ बहुत दिनों तक छिपा नहीं रहता। ब्लैकमेल करने वाले पत्रकार की दिन दुगनी और रात चौगुनी बढ़ती आर्थिक स्थिति से पूरे मीडिया जगत को पता चल जाता है कि वह पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग का धंधा कर रहा है। इसी तरह जिस व्यक्ति को ब्लैकमेल किया जाता है उसके अधीन काम करने वाले, या उसके सम्पर्क के लोगों को भी, कानाफूसी से ये पता चल जाता है कि इस व्यक्ति ने अपने ख़िलाफ़ उठने वाले ऐसे बड़े मामले को ले-देकर दबवा दिया है। 


जबकि दूसरी ओर जो पत्रकार भ्रष्टाचार के किसी मुद्दे को उठा कर उससे सम्बंधित उपलब्ध दस्तावेज़ों को साथ ही प्रकाशित कर देता है। फिर लगातार उस विषय पर लिखता या बोलता रहता है। इस दौरान किसी भी तरह के प्रलोभन, धमकी या दबाव से बेख़ौफ़ हो कर वो अपने पत्रकारिता धर्म को निभाता है तो ही सच्चा और ईमानदार पत्रकार कहलाता है। 


कभी-कभी ऐसा पत्रकार मुद्दे की गम्भीरता को देखते हुए राष्ट्रहित में एक कदम और आगे बड़ जाता है और आरोपी व्यक्ति या व्यक्तियों के ख़िलाफ़ निष्पक्ष जाँच की माँग को लेकर अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाता है । तो इसे ‘जर्नलिस्टिक ऐक्टिविज़म’ कहते हैं। यहाँ भी दो तरह की स्थितियाँ पैदा होती हैं। एक वो जबकि जनहित याचिका करने वाला लगातार मुक़द्दमा लड़ता है और किसी भी स्थिति में आरोपी से डील करके केस को ठंडा नहीं होने देता। जबकि कुछ लोगों ने, चाहे वो पत्रकार हों, वकील हों या राजनेता हों, ये धंधा बना रखा है कि वे ताकतवर या पैसे वाले लोगों के ख़िलाफ़, जनहित याचिका दायर करते हैं, मीडिया व सार्वजनिक मंचों में खूब शोर मचाते हैं। और फिर प्रतिपक्ष से 100 - 50 करोड़ रुपय की डील करके अपनी ही जनहित याचिका को इतना कमजोर कर लेते हैं कि आरोपी को बचकर भाग निकलने का रास्ता मिल जाए। अक्सर ऐसी डील में भ्रष्ट न्यायाधीशों का भी हिस्सा रहता है तभी बड़े बड़े आर्थिक अपराध करने वाले मिनटों में ज़मानत ले लेते हैं जबकि समाज के हित में जीवन खपा देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बरसों जेलों में सड़ते रहते हैं। 


इस सारी प्रक्रिया में यह स्पष्ट है कि जो पत्रकार किसी ऐसे मामले को उजागर करता है, उसके प्रमाण सार्वजनिक करता है और आरोपी व्यक्ति के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, सीवीसी, सीबीआई या अदालत में जा कर अपनी ओर से लिखित शिकायत दर्ज कराता है तो वह ब्लैकमेलर क़तई नहीं होता। क्योंकि जब उसने सारे सुबूत ही जग ज़ाहिर कर दिए तो अब उसके पास ब्लैकमेल करने का क्या आधार बचेगा? 


ख़ासकर तब जबकि ऐसा पत्रकार या शिकायतकर्ता सम्बंधित जाँच एजेंसी को निष्पक्ष जाँच की माँग करने के लिए लिखित रिमाइंडर लगातार भेज कर जाँच के लिए दबाव बनाए रखता है ।जब कभी उसे लगता है की जिससे शिकायत की जा रही है, वे जानबूझकर उसकी शिकायत को दबा कर बैठे हैं या आरोपी को बचाने का काम कर रहे है, तो वह सम्बंधित मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या न्यायाधीश तक के विरुद्ध आवाज़ उठाने से संकोच नहीं करता। ऐसा करने वाला पत्रकार न सिर्फ़ ईमानदार होता है बल्कि निडर और देशभक्त भी। 


ऐसे पत्रकार से सभी भ्रष्ट लोग डरते हैं ।क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसे पत्रकार को किसी भी क़ीमत पर ख़रीदा या डराया नहीं जा सकता। ऐसे निष्पक्ष और निष्पाप पत्रकार का सभी हृदय से सम्मान करते हैं। चाहे वे बड़े राजनेता हों, अफ़सर हों, उद्योगपति हों या न्यायाधीश हों। क्योंकि वे जानते हैं कि ये पत्रकार बिना किसी रागद्वेष  के, केवल अपने जुनून में , मुद्दे उठता है और अंत तक लड़ता है। वे ये भी जानते हैं कि ऐसा व्यक्ति ना तो अपना कोई बड़ा अख़बार खड़ा कर पाता है और ना ही टीवी चैनल। क्योंकि मीडिया सामराज्य खड़ा करने के लिए जैसे समझौते करने पड़ते हैं वो ऐसे जुझारू पत्रकार को मंज़ूर नहीं होते। 


रोचक बात ये है कि इधर कुछ समय से देखने में आ रहा है कि वे नेता या अफ़सर जो बड़े बड़े घोटालों में लिप्त होते हैं, जब उनके घोटालों को ऐसे निष्ठावान पत्रकार उजागर करते हैं तो वे अपने मुख्यमंत्री को दिग्भ्रमित करने के लिए उस पत्रकार को ‘ब्लैकमेलर’ बताकर अपनी खाल बचाने की कोशिश करते हैं। किंतु वैदिक शास्त्र कहते हैं, ‘सत्यमेव जयते’। सूरज को बादल कुछ समय के लिए ही ढक सकते हैं हमेशा के लिए नहीं।

Monday, June 8, 2020

क्या बाबा रामदेव ये हिम्मत करेंगे ?

20 बरस पहले बाबा रामदेव को देश में कोई नहीं जानता था। न तो योग के क्षेत्र में और न आयुर्वेद के क्षेत्र में। पर पिछले 15 सालों में बाबा ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। जहां एक तरफ़ उनके योग शिविर हर प्रांत में हज़ारों लोगों को आकर्षित करने लगे, दुनिया भर में रहने वाले हिंदुस्तानियों ने टेलिविज़न पर बाबा के बताए प्राणायाम और अन्य नुस्ख़े तेज़ी से अपनाना शुरू कर दिए। बाबा के अनुयाइयों की संख्या करोड़ों में पहुँच गई और उन सब के दान से बाबा रामदेव ने 2006 में हरिद्वार में पातंजलि योगपीठ का एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया। 

अपनी इस अभूतपूर्व कामयाबी को बाबा ने दो क्षेत्रों में भुनाया। एक तो आयुर्वेद के साथ-साथ उन्होंने अनेक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन शुरू किया और दूसरा अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए देश भर में राजनैतिक जन-जागरण का एक बड़ा अभियान छेड़ दिया। उन्होंने काले धन और भ्रष्टाचार के मुद्दे को इस कुशलता से उठाया कि तत्कालीन यूपीए सरकार लगातार रक्षात्मक होती चली गई। बाबा के इस अभियान की सफलता के पीछे भाजपा और आरएसएस की भी बहुत सक्रिय भागीदारी रही। ‘बिल्ली के भाग से छींका’ तब फूटा जब लोकपाल के मुद्दे को लेकर अरविंद केजरीवाल ने ‘इंडिया अगेन्स्ट करपशन’ का आंदोलन शुरू किया। जिसमें मशहूर वकील प्रशांत भूषण, शांति भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे, सेवानिवृत पुलिस अधिकारी किरण बेदी, हिंदी कवि डा. कुमार विश्वास, पूर्व न्यायधीश संतोष हेगड़े और तमाम अन्य सेलिब्रिटी भी जुड़ गए। इन सबका हमला यूपीए सरकार पर था, इसलिए बाबा राम देव के अभियान को और ऊर्जा मिल गई। इन सब ने मिल कर साझा हमला बोल दिया और अंततः यूपीए सरकार का पतन हो गया। 

केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार बनी तो दिल्ली में केजरीवाल की। जिसके बाद से इन सभी ने न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया है, न काले धन का और न ही प्रभावी लोकपाल का। जिस आंदोलन ने दुनियाँ की नज़र में एक बड़ी राजनैतिक क्रांति का आगाज़ किया था, वो रातों रात हवा हो गई। 

उधर बाबा ने मोदी सरकार में अपनी राजनैतिक दख़लंदाज़ी सफल होते न देख पूरा ध्यान पातंजलि के कारोबार पर केंद्रित कर दिया। जिसके पीछे आचार्य बालकृष्ण पहले से खड़े थे। उनके इस साम्राज्य की इतनी तेज़ी से वृद्धि हुई कि प्रसाधनों के क्षेत्र में हिंदुस्तान लिवर जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी और आयुर्वेद के क्षेत्र में डाबर जैसी कम्पनियाँ भी कहीं पीछे छूट गईं। आज बाबा रामदेव का कारोबार हज़ारों करोड़ का है।

आर्थिक वृद्धि की इस तेज रफ़्तार के बीच बाबा के कुछ उत्पादनों की गुणवत्ता को लेकर कभी-कभी विवाद भी होते रहे और बाबा से ईर्ष्या रखने वाले कुछ लोग उन्हें ‘लाला रामदेव’ भी कहने लगे। पर इस सबसे बेपरवाह बाबा अपनी गति से आगे बढ़ते रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपनी सोच और क्षमता पर आत्मविश्वास है। उनके इस जज़्बे का परोक्ष लाभ समाज और देश को भी मिला है। क्योंकि बाबा की प्रेरणा से बहुत बड़ी संख्या में भारतवासियों ने विदेशी उत्पादों को छोड़ कर स्वदेशी को अपना लिया है। दूसरा; इतने व्यापक स्तर पर योगाभ्यास करने से निश्चित रूप से करोड़ों लोगों को स्वास्थ्यलाभ भी हुआ है। तीसरा; पातंजलि के व्यावसायिक साम्राज्य ने लाखों लोगों को रोज़गार भी प्रदान किया है। जिसके लिए बाबा रामदेव की लोकप्रियता देश में आज भी कम नहीं हुई है। 

बाबा रामदेव का व्यवहार बड़ा आत्मीय और सरल होने के कारण, हर क्षेत्र में उनके मित्रों की संख्या भी बहुत है। पिछले दस वर्षों से मेरे सम्बंध भी बाबा से बहुत आत्मीय रहे हैं। अपने टेलिविज़न चैनल के माध्यम से उन्होंने ब्रज सजाने के हमारे विनम्र अभियान में मीडिया सहयोग भी किया है। पर खोजी पत्रकार की अपनी साफ़गोई की छवि के कारण जहां देश के बहुत से महत्वपूर्ण लोग मेरी बेबाक़ी  से विचिलित हो जाते हैं वहीं बाबा जैसे लोग, मेरी आलोचना को भी एक खिलाड़ी की भावना की तरह सहजता से हंसते हुए स्वीकार करते हैं। 

अपनी इसी साफ़गोई को माध्यम बना कर आज जो मैं बाबा से कहने जा रहा हूँ, वह देश की वर्तमान आर्थिक दुर्दशा को, व सामाजिक विषमता को दूर करने की दिशा में एक मील का पत्थर हो सकता है - अगर बाबा मेरे इस सुझाव को गम्भीरता से लें। 

निस्संदेह व्यक्तिगत तौर पर बाबा रामदेव और उनके मेधावी व कर्मठ सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने कल्पनातीत भौतिक सफलता प्राप्त कर ली है। पर भौतिक सफलता या चाहत की कभी कोई सीमा नहीं होती। अपनी पत्नी को 600 करोड़ रुपये का हवाई जहाज़ भेंट करने वाला उद्योगपति भी कभी भी अपनी आर्थिक उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं होता। पर केसरिया वेश धारी सन्यासी तो वही होता है, जो अपनी भौतिक इच्छाओं को अग्नि में भस्म करके समाज के उत्थान के लिए स्वयं को होम कर देता है। इसलिए बाबा रामदेव को अब एक नया इतिहास रचना चाहिए। 

अपनी आर्थिक शक्ति व प्रबंधकीय योग्यता का उपयोग हर गाँव को आत्मनिर्भर बनाने के लिए करना चाहिए। यह तो बाबा और आचार्य जी भी जानते हैं कि आयुर्वेदिक या खाद्यान के उत्पादनों की गुणवत्ता  बड़े स्तर के कारख़ानों में नहीं बल्कि कुटीर उद्योग के मानव श्रम आधारित उत्पादन के तरीक़ों से बेहतर होती है। बैलों की मंथर गति से, सामान्य ताप पर, कोल्हू में पेरी गई सरसों का तेल, जिसे कच्ची घानी का तेल कहते हैं, कारख़ानों में निकाले गए तेल से कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ होता है। इसी तरह दुग्ध उत्पादन हो, खाद्यान हो, मसाले हों, प्रसाधन हों या अन्य वस्तुएँ हों, अगर इनका उत्पादन विकेंद्रियकृत प्रणाली से व गाँव की आवश्यकता के अनुरूप हर गाँव में होना शुरू हो जाए तो करोड़ों ग़रीबों को रोज़गार भी मिलेगा और गाँव में आत्मनिर्भरता भी आएगी। जिसे अंग्रेज़ी हुकूमत ने 190 सालों में अपने व्यावसायिक लाभ के लिए बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। विकेंद्रीकृत व्यवस्था  से गाँव की लक्ष्मी फिर गाँव को लौटेगी। स्पष्ट है कि तब लक्ष्मी जी की कृपावृष्टि पातंजलि के साम्राज्य  पर नहीं होगी, बल्कि उन ग़रीबों के घर पर होगी, जो भारी यातनाएँ सहते हुए, महानगरों से लुट-पिट कर और सेकडों किलोमीटर पैदल चल कर रोते-कलपते फिर से रोज़गार की तलाश में अपने गाँव लौट कर गए हैं। क्या सन्यास वेशधारी बाबा रामदेव लक्ष्मी देवी को अपने द्वार से लौटा कर इन गाँवों की ओर भेजने का पारमार्थिक कदम उठाने का साहस दिखा पाएँगे ?

Monday, June 1, 2020

देनहार कोई और है: भेजत जो दिन रैन

कोरोना के संकट के दौर में अब्दुल रहीम खानखाना की इन पंक्तियों को सिद्ध करने वाले छोटे बड़े कई लोगों का ज़िक्र आपने देश के हर इलाक़े में सुना ज़रूर होगा। जिन्होंने इन दो महीनों में ये सिद्ध कर दिया है कि आम जनता का जितना ख़्याल स्वयमसेवी संस्थाएँ, सामाजिक संगठन और निजी स्तर पर व्यक्ति करते हैं, उसका मुक़ाबला कोई केंद्र या राज्य सरकार नहीं कर सकती। इन महीनों में किसी भी दल के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक जनता के बीच उत्साह से सेवा करते दिखाई नहीं दिए, क्यों ? कारण स्पष्ट है कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था आज तक भ्रष्टाचार के कैन्सर से मुक्त नहीं हुई है। प्रशासनिक अधिकारी हमेशा से भीषण आपदा में भी मोटी कमाई के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर चाहे जनता बाढ़, भूकम्प, चक्रवात या महामारी किसी की भी मार झेले, उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब होता है, जनसेवा से नहीं। इसके अपवाद भी होते हैं ।पर उनका प्रतिशत बहुत कम होता है। इसीलिए सरकार को दान देने के बजाए लोग स्वयं धर्मार्थ कार्य करना बेहतर समझते हैं।    

सेवा को अपना कर्तव्य मान कर करने वाले ये लोग, नेताओं और अफ़सरों की तरह दान देने से ज़्यादा अपनी फ़ोटो प्रकाशित करने में रुचि नहीं लेते। मध्य-युगीन संत रहीम जी दिन भर दान देते थे, पर अपना मुँह और आँखें झुका कर। उनकी यह ख्याति सुनकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें पत्र भेज कर पूछा कि आप दान देते वक्त ऐसा क्यों करते हैं ? तब रहीम जी ने उत्तर में लिखा, 
‘देनहार कोई और है, 
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें,
तास्सो नीचे नयन ।।’

पुणे के ऑटो चालक अक्षय कोठावले की मिसाल लें। प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिए अक्षय कोठावले ने अपनी शादी के लिए जोड़े गए 2 लाख रुपयों को खर्च करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। ग़ौरतलब है कि इसी 25 मई को अक्षय की शादी होनी थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते उसे स्थगित करना पड़ा। जब अक्षय ने सड़कों पर बदहाल और भूखे लोगों को देखा तो उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर इन सभी के लिए कुछ करने की ठानी और शादी के लिए बचाई रक़म मज़दूरों को भोजन कराने में खर्च कर दी। आज अक्षय की हर ओर सराहना हो रही है। 

बॉलीवुड में सोनू सूद भले ही आजतक खलनायक की भूमिका निभाते रहे हों, लेकिन असल ज़िंदगी में उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के लिए जो किया है, उससे पूरे भारत में उनकी जय-जयकार हो रही है। सोनू सूद ने सैंकड़ों बसों का इंतेज़ाम किया और 12 हज़ार से अधिक लोगों को उनके घर पहुँचाया। इतना ही नहीं सोनू ने 177 लोगों को एक विशेष विमान द्वारा भी उनके घर तक पहुँचाया। ये सब तब हुआ जब केंद्र और राज्य सरकारें इसी विवाद में उलझी रहीं कि ट्रेन का कितना किराया केंद्र सरकार देगी और कितना राज्य सरकार। या फिर मज़दूरों को उनके शहर तक पहुँचाने वाली बसें पूरी तरह से फ़िट हैं या नहीं। सोनू सूद से कहीं ज़्यादा धनी और मशहूर फ़िल्मी सितारे मुंबई में रहते हैं । जो न सिर्फ़ फ़िल्मों से कमाते हैं बल्कि हर निजी या सरकारी विज्ञापनों में छाए रहते हैं और करोड़ों रुपया हर महीने इनसे भी कमाते हैं। पर उनका दिल ऐसे नहीं पसीजा। 

दूसरी ओर दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के खलनायक प्रकाश राज ने न सिर्फ़ मज़दूरों को खाना देने और घर पहुंचाने में मदद की। बल्कि उन्होंने अपने फार्म हाउस पर दर्जनों लोगों के रहने के इंतजाम भी किया। लॉकडाउन के इस मुश्किल वक़्त में प्रकाश राज की ये दरियादिली लोगों को पसंद आई। सोशल मीडिया पर जहां एक समय पर प्रकाश राज के कुछ बयानों को लेकर काफ़ी हमले हो रहे थे और उन्हें रियल लाइफ़ का खलनायक भी कहा जा रहा था, उनकी इस सेवा से अब हर कोई उनकी तारीफ़ कर रहा है। किसी विचारधारा या दल से सहमत होना या न होना आपका निजी फ़ैसला हो सकता है, लेकिन संकट में फँसे लोगों की मदद करना यह बताता है कि आपके अंदर एक अच्छा इंसान बसता है। जिन मज़दूरों को राहत मिल रही है वो राहत देने वाले से यह थोड़े ही पूछ रहे हैं कि आप कौन से दल के समर्थक हैं, उन्हें तो राहत से मतलब है।  

सेवा के इस काम में देश भर से अनेक ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिन्हें सुन कर हर सक्षम व्यक्ति को शर्मिंदा होना चाहिए। कुछ ऐसा ही जज़्बा मुंबई की 99 वर्षीय महिला में भी देखा गया। सोशल मीडिया में ज़ाहिद इब्राहिम ने एक विडियो डाला है, जिसमें ये बुजुर्ग महिला प्रवासी मज़दूरों के लिए खाने का पैकेट तैयार करती नज़र आ रही हैं। मास्क बनाने से लेकर खाना बनाने तक के काम में पूरे देश में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर योगदान किया है। 

गुरुद्वारों की तो बात ही क्या की जाए ? देश में जब कभी, जहां कहीं, आपदा आती है, सिख समुदाय बड़ी उदारता से सेवा में जुट जाता है। इस दौरान भी कोरोना की परवाह किए बग़ैर सिख भई बहनों ने बड़े स्तर पर लंगर चलाने का काम किया। वैसे भी गुरुद्वारों में लंगर सबके लिए खुले होते हैं। जहां अमीर गरीब का कभी कोई भेद दिखाई नहीं देता। 

इसी तरह देश के कुछ उद्योगपतियों ने भी निजी स्तर पर या अपनी कम्पनियों के माध्यम से कोरोना के क़हर में जनता की बड़ी मदद की है। जैसे रतन टाटा व अन्य होटल मालिकों ने देश भर में अपने होटलों को मेडिकल स्टाफ़ या कवारंटाइन के लिए उपलब्ध कराया। उधर बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने बड़ी मात्रा में होम्योपैथी की दवा बाँट कर पुणे के पुलिसकर्मियों और लोगों को कोरोना की मार से बचाया। सुना है कि होम्योपैथी में अटूट विश्वास रखने वाले राजीव बजाज का भारत सरकार को प्रस्ताव है कि वे पूरे देश के नागरिकों को कोरोना से बचने के लिए होम्योपैथी की दवा मुफ़्त बाँटने को तैयार हैं, जिसकी लागत क़रीब 700 करोड़ आएगी। अगर यह बात सही है तो सरकार को उनका प्रस्ताव स्वीकारने में देर नहीं करनी चाहिए। 

‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।’ हर काल और हर समाज में परोपकार करने वालों की कभी कमी नहीं होती। सरकार का कर्तव्य है कि वह सत्ता को अफ़सरशाही के हाथों में केंद्रित करने की बजाय जनता के इन प्रयासों को प्रोत्साहित और सम्मानित करे, ताकि पूरे समाज में पारस्परिक सहयोग और सद्भावना की भावना पनपे, नकि सरकार पर परजीवी होने की प्रवृति।   

Monday, May 25, 2020

अब आगे की सोचें

लॉकडाउन से सबने ये समझ लिया है कि कोरोना के साथ कैसे जीना है। धीरे धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं। प्रवासी मज़दूरों की घर लौटने की भीड़ देश के हर महानगर व अन्य नगरों में व शराब की दुकानों के बाहर लगी लम्बी लाइनें इस बात का प्रमाण है कि लोगों के धैर्य का बांध अब टूट चुका है। बहुत से लोग मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते कोरोना से नहीं मरे तो भूख और बेरोज़गारी से लाखों लोग अवश्य मर जाएँगे। इसलिए जो भी हो इस क़ैद से बाहर निकला जाए और चुनौती का सामना किया जाए। 

जिनके पास घर बैठे खाने की सुविधा है और जिनका लॉकडाउन से कोई आर्थिक नुक़सान नहीं हो रहा उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लॉकडाउन कितने दिन अभी और चले।

उधर देश भर से तमाम सूचनाएँ आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी बात नहीं है। पारम्परिक पद्धतियों जैसे होमियोपैथी और आयुर्वेद ने बहुत सारे कोरोना पोज़िटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पे वायरल हो रहे हैं। और इसी बीच पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज़ ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान-बूझ कर कोरोना का इंफ़ेक्शन लें और फिर ठीक हो कर दिखाएं। उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया, उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नए नए हानिकारक प्रयोग किए। जिन्हें बाद में रद्द करना पड़ा। जैसे माँ के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक। पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया। 

जहां तक हम भारतीयों की बात है मैं हमेशा से इस बात पर ज़ोर देता आ रहा हूँ कि भारत का पारम्परिक भोजन, पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन, पारम्परिक औषधियाँ और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त राष्ट्र बन पाएँगे। रही बात कोरोनापूर्व के आधुनिक जीवन की तो कोरोनापूर्व वाला जीवन तो लौटने वाला नहीं। न उत्सवों में वैसी भीड़ जुटेगी, न वैसा पर्यटन होगा, न वैसे मेलजोल होंगे और न वैसी चमक दमक की ज़िंदगी। कुछ महीनों या कुछ सालों तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे। 

1978 में जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो किसी मंत्री या नेता के घर के चारों ओर न तो चार दिवारी होती थी, न सुरक्षा के इतने तामझाम । पर बढ़ते आतंकवाद और अपराध ने शासकवर्ग को हज़ारों किलों में क़ैद कर दिया है। इसी तरह न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के बाद से हवाई अड्डों पर सुरक्षा अचानक ही कई गुना बढ़ा दी गई। जिसका असर पूरी दुनिया में हुआ। शुरू में तो अटपटा लगा फिर लोगों ने सुरक्षा जाँच उपकरणों से गुजरने के लिए लम्बी लम्बी क़तारों में धीरज से खड़े रहने की आदत डाल ली। 

इसी तरह पूरी दुनिया पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने, गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे। चेहरे पर मास्क, बार बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना, जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी। इसी तरह अब लोग एक दूसरे को उपहार देने या फल, मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे।ऐसे सब लेन-देने ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफ़र से ही कर लिए जाएँगे। इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में माँ बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है।जहां तक सम्भव होगा दफ़्तर का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे। जिससे कम से कम सामाजिक सम्पर्क हो। 

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज़्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा। क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियाँ काफ़ी कम हो जाएँगी। लेकिन इसका बहुत बड़ा असर लोगों के मनोविज्ञान पर होगा। अनेक शोध प्रपत्रों में यह बात कही जा रही है कि इस तरह ऑनलाइन काम करने या पढ़ाई करने से लोगों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध और हताशा बढ़ेगी। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने सहपाठियों से मिल कर मस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं। खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है। ये सब उनसे छिन जाएगा तो कल्पना कीजिए कि हमारी अगली पीढ़ी के करोड़ों नौजवान कितने डरे सहमें और असंतुलित बनेंगे। इसलिए विश्व स्तर पर एक बहुत बड़ा तबका ऐसे वैज्ञानिकों, पत्रकारों व राजनेताओं का है जो बार बार इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि कोरोना का आतंक फैला कर सरकारें लोकतांत्रिक परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं, मानव अधिकारों का हनन कर रही हैं और राजनैतिक सत्ता का सीमित हाथों में नियंत्रण स्थापित कर रही हैं। यानी ये सब सरकारें तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस आरोप में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल हमें कोरोना के इस मायाजाल से काफ़ी समय तक उलझे रहना होगा और अपनी सोच और तौर तरीक़ों में भारी बदलाव लाना होगा।                  

Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।