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Monday, June 22, 2020

सुशांत सिंह राजपूत जैसे और भी हैं

आत्महत्या के बाद से सुशांत सिंह राजपूत के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जितनी जानकारियाँ सामने आई हैं उनसे यह स्पष्ट है कि ये नौजवान कई मायनों में अनूठा था। उसकी सोच, उसका ज्ञान, उसकी लगन, उसका स्वभाव और उसका जुनून ऐसा था जैसा बॉलीवुड में बहुत कम देखने को मिलता है। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत अपने आप में एक ऐसी शख़्सियत था जो अगर ज़िंदा रहता तो एक संजीदा सुपर स्टार बन जाता। 


जितनी बातें सोशल मीडिया में सुशांत के बारे में सामने आ रहीं हैं उनसे तो यही लगता है कि बॉलीवुड माफिया ने उसे तिल-तिल कर मारा। पर ये कोई नई बात नहीं है।  बॉलीवुड में गॉडफादर या मशहूर ख़ानदान या अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के सहारे चमकने वाले तमाम सितारे ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व सुशांत के सामने आज भी कोई हैसियत नहीं रखता। पर आज तक कोई भी इस अनैतिक गठबंधन को तोड़ नहीं पाया। इसलिए वे बेख़ौफ़ अपनी कूटनीतियों को अंजाम देते रहते हैं। 


पर इस त्रासदी का शिकार सुशांत अकेला नहीं था। हर पेशे में कमोवेश ऐसी ही हालत है। आज़ादी के बाद से अगर आँकड़ा जोड़ा जाए तो देश भर में सैंकड़ों ऐसे युवा वैज्ञानिकों के नाम सामने आएँगे जिन्होंने इन्हीं हालातों में आत्महत्या की। ये सब युवा वैज्ञानिक बहुत मेधावी थे और मौलिक शोध कर रहे थे। पर इनसे ईर्ष्या करने वाले इनके सुपर बॉस वैज्ञानिकों ने इनकी मौलिक शोध सामग्री को अपने नाम से प्रकाशित किया। इन्हें लगातार हतोत्साहित किया और इनका कई तरह से शोषण किया। मजबूरन इन्होंने आत्महत्या कर ली। 


यही हाल कारपोरेट सेक्टर में भी देखा जाता रहा है। जहां योग्य व्यक्तियों को उनके अयोग्य साथी अपमानित करते हैं और हतोत्साहित करते हैं। मालिक की चाटुकारिता करके उच्च पदों पर क़ायम हो जाते हैं। हालाँकि सूचना क्रांति के बाद से अब योग्यता को भी तरजीह मिलने लगी है। क्योंकि अब योग्यता छिपी नहीं रहती। पर पहले वही हाल था। 


यही हाल राजनीति का भी है। जहां गणेश प्रदक्षिणा करने वाले तो तरक़्क़ी पा जाते हैं और सच्चे, मेहनती, समाजसेवी कार्यकर्ता सारे जीवन दरी बिछाते रह जाते हैं। पिछले 30 वर्षों से तो हर राजनैतिक दल पर परिवारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कार्यकर्ताओं का काम केवल प्रचार करना और गुज़ारे के लिये दलाली करना रह गया है। 


संगीत, कला, नृत्य का क्षेत्र हो या खेल-कूद का, कम ही होता है जब बिना किसी गॉडफादर के कोई अपने बूते पर अपनी जगह बना ले। भाई-भतीजावाद, शारीरिक और मानसिक शोषण और भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में भी खूब हावी है। 


आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया की पोल खोलने वाले पत्रकार भी इन षड्यंत्रों से अछूते नहीं रहते। किसको क्या असाइनमेंट मिले, कौनसी बीट मिले, कितनी बार वीआइपी के साथ विदेश जाने का मौक़ा मिले, ये इस पर निर्भर करता है कि उस पत्रकार के अपने सम्पादक के साथ कैसे सम्बंध हैं। कोई मेधावी पत्रकार अगर समाचार सम्पादक या सम्पादक की चाटुकारिता न कर पाए तो उसकी सारी योग्यता धरी रह जाती है। इसी तरह अवार्ड पाने का भी एक पूरा विकसित तंत्र है जो योग्यता के बजाए दूसरे कारणों से अवार्ड देता है। फिर वो चाहे बॉलीवुड के अवार्ड हों या खेल जगत के या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे राजकीय सम्मान हों। सब के सब योग्यता के बजाए किन्हीं अन्य कारणों से मिलते हैं। इन्हीं सब कारणों से युवा या अन्य योग्य लोग  अवसाद में चले जाते हैं और आत्महत्या जैसे ग़लत कदम उठा बैठते हैं। इन सब परिस्थियाँ से लड़ने में आध्यात्म भी एक अच्छा साधन सिद्ध हो सकता है और ये पीड़ित को शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने में मदद कर सकता है।


चूँकि यह समस्या सर्वव्यापी है इसलिए इसे एकदम रातों रात में ख़त्म नहीं किया जा सकता। पर इसके समाधान ज़रूर खोजे जा सकते हैं। मसलन सरकारी विभागों में बने शिकायत केंद्रों की तरह ही हर राज्य और केंद्र के स्तर पर ‘शोषण निवारण आयोग’ बनाए जाएँ। जिनमें समाज के वरिष्ठ नागरिक, निशुल्क सेवाएं दें। वकालत, मनोविज्ञान, प्रशासनिक तंत्र, कला व खेल और पुलिस विभाग के योग्य, अनुभवी और सेवा निवृत लोग इन आयोगों के सदस्य मनोनीत किए जाएं। इन आयोगों के पते, ईमेल और फ़ोन इत्यादि, हर प्रांतीय भाषा में खूब प्रचारित किए जाएं । जिससे ऐसे शोषण को झेल रहे युवा अपने अपने प्रांत के आयोग को समय रहते लिखित सूचना भेज सकें। आयोग की ज़िम्मेदारी हो कि ऐसी शिकायतों पर तुरंत ध्यान दें और जहां तक सम्भव हो, उस पीड़ित को नैतिक बल प्रदान करें। जैसा महिला आयोग, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर करते हैं। इन आयोगों का स्वरूप सरकारी न होकर स्वायत्त होगा तो इनकी विश्वसनीयता और प्रभाव धीरे धीरे स्थापित होता जाएगा। 


अनेक समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने समाज का अध्यन कर के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जिनसे ऐसी शोषक व्यवस्था का चरित्र उजागर होता है। जैसे ‘सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘शोषक और शोषित’। ये सब सिद्धांत समाज की उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो ताकतवर व्यक्ति के सौ खून भी माफ़ करने को तैयार रहता है किंतु मेधावी व्यक्ति की सही शिकायत पर भी ध्यान नहीं देता। पर जिस तरह अमरीका में हाल ही में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु पुलिसवाले के अमानवीय व्यवहार से हो गई और उस पर पूरा अमरीकी समाज उठ खड़ा हुआ और उन गोरे सिपाहियों को कड़ी सजा मिली। या जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही का देशभर में छात्र एकजुट हो कर विरोध करते हैं। उसी तरह हर व्यवसाय के लोग, ख़ासकर युवा जब ऐसे मामलों पर सामूहिक आवाज़ उठाने लगेंगे तो ये प्रवृतियाँ धीरे धीरे कमजोर पड़ती जाएँगीं। इसलिए शोषण और अत्याचार का जवाब आत्महत्या नहीं बल्कि हमलावर हो कर मुक़ाबला करना है।