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Monday, October 26, 2020

अदालत और मीडिया ही बचा सकते हैं लोकतंत्र को

पिछले दिनों जिस तरह मुंबई हाई कोर्ट ने, सुशांत सिंह राजपूत कांड को इकतरफ़ा कैम्पेन बना कर उत्तेजक और ग़ैर ज़िम्मेदाराना कवरेज करने के लिए कुछ मीडिया चैनलों को फटकार लगाई है, उससे एक आशा की किरण जागी है। सारा देश यह देखकर हैरान था कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत का बेवजह कितना बड़ा बवंडर ये मीडिया चैनल मचा रहे थे। दर्शकों के कान और आँख इन्हें झेल-झेल कर पक गए थे। 

135 करोड़ के मुल्क में जहां लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी व महंगाई और ऊपर से कोरोना की मार से त्रस्त जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, वहाँ इन चैनलों को रिया चक्रवर्ती से बड़ा कोई मुद्दा नहीं मिला? 


सोशल मीडिया पर एक देहाती क़िस्म का मज़ाक़ आया था । जिसमें पुलवामा के हत्या कांड की जाँच न करवा पाने के लिए, चीनियों की भारत में घुसपैठ के लिए, बेरोज़गारी दूर करने का समाधान न निकालने के लिए और कोरोना का वैकसीन न ईजाद कर पाने के लिए रिया चक्रवर्ती को ही दोषी बताया गया था। प्रस्तुतकर्ता ने इन अपराधों के लिए रिया चक्रवर्ती को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की सिफ़ारिश की थी। वैसे तो ये एक मज़ाक़ था पर आम आदमी की पीड़ा व्यक्त कर रहा था। जो इस बात से परेशान था कि इन टीवी चैनलों ने रिया चक्रवर्ती का मुद्दा बेवजह इतना उछल कर देश के सारे महत्वपूर्ण मुद्दों पर झाड़ू फेर रखी है। 


कोरोना काल में अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर मैंने कई बार इस पर टिप्पणी भी की थी और इन टीवी पत्रकार साथियों को ट्विटर पर संदेश भेज कर भी सम्भालने की सलाह दी थी, जो शायद मेरा नैतिक हक़ बनता है। 


क्योंकि इस देश में हिंदी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने ही 1989 में कालचक्र विडीओ  मैगजीन के मध्यम से की थी। उस वक्त देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था।जितने मशहूर चेहरे आज टीवी चैनलों पर दिखाई दे रहे हैं ये सब मुझसे कई वर्ष बाद इस क्षेत्र में आए। तब बीएआरसी जैसी कोई नियामक संस्था भी नहीं थी। फिर भी हमने अपने ऊपर स्वयं अंकुश रखने के लिए कुछ नियम बनाए थे, जो आज भी उतने ही सार्थक हैं। 


हमारा पहला नियम था कि हम किसी भी बड़े औद्योगिक घराने के पैसे से टीवी पत्रकारिता नहीं करेंगे। क्योंकि उससे हमारी सम्पादकीय स्वतंत्रता उस घराने के आर्थिक लाभ के लिए गिरवी हो जाएगी। अगर मैं औद्योगिक घरानों का पैसा ले लेता तो कालचक्र देश का पहला हिंदी टीवी  समाचार चैनल होता। पर मैं दूसरों की बंदूक़ अपने कंधों पर चलाने को राज़ी न था। क्योंकि मुझे अपने देश और देशवासियों के हक़ में टीवी पत्रकारिता करनी थी, एकतरफ़ा रिपोर्टिंग, चारण या भांड़गिरी नहीं। इसलिये साधनहीनता के कारण मैंने बहुत कठिन संघर्ष किया पर अपनी निडर, निर्भीक और खोजी पत्रकारिता से कालचक्र ने देश में झंडे गाड़ दिये थे। 


मुझे याद है मुम्बई में अनिल अम्बानी की शादी में शामिल होकर लौटे तत्कालीन केंद्रीय मंत्री वसंत साठे ने मुझे बताया था कि वहाँ शादी में उद्योगपतियों और नेताओं के बीच तुम्हारे कालचक्र की ही चर्चा प्रमुखता से हो रही थी। 


निष्पक्ष रहने के इसी तेवर के कारण ही मैं कालचक्र में 1993 में ‘जैन हवाला कांड’ उजागर कर सका। जिसने देश की राजनीति को बुरी तरह हिलाकर रख दिया। जबकि इतने बड़े-बड़े मीडिया घराने 1947 से 1993 तक इतना बड़ा ऐसा एक भी घोटाला उजागर करने की हिम्मत नहीं कर पाये थे, जिसमें लगभग हर प्रमुख दल के बड़े नेता आरोपित हुए हों। 


हमारा दूसरा नियम था कि हमारी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो पर कालचक्र विडीओ   समाचार में हर विचारधारा के लोगों को जनहित में अपने विचार रखने का मौक़ा दिया जाएगा। इसलिए हमने चाहे कांग्रेस की विचारधारा हो या समाजवादियों की, संघ की हो या नक्सलवादिओं की, सबको समान अवसर दिया, जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा। 


हमारा तीसरा नियम था कि किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ हम तब तक आरोप नहीं लगाएँगे जब तक कि हमारे पास पुख़्ता सबूत न हों। इतना ही नहीं हम आरोप लगाने से पहले उस व्यक्ति को अपना स्पष्टीकरण देने का पूरा अवसर भी देंगे। यही कारण है कि इस देश में आज़ादी के बाद उच्च पदों पर बैठे मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अफ़सरों की सबसे ज़्यादा नौकरियाँ मैंने ही ली हैं। लेकिन कोई भी मुझ पर मानहानि का मुक़द्दमा नहीं कर पाया। जबकि आज शहरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक छिछली मानसिकता के लोग ,जो ख़ुद को पत्रकार कहते हैं, बड़ी बेशर्मआई से इकतरफ़ा आरोप लगाकर अपनी पीठ थपथपाते हैं। पर जब मुंबई हाई कोर्ट की तरह कोई अदालत या कोई मानहानि का मुक़द्दमा करने वाला इन्हें अदालत में घसीट ले तो इनके पास बच कर भागने का रास्ता नहीं होता। 


हमारा अगला नियम था कि हम हमेशा जनता की बात को ही तरजीह देंगे, सत्ता में जो भी दल हो हम उसकी ग़लत नीतियों की बेख़ौफ़ आलोचना करेंगे। यह तभी सम्भव है जब आप सरकारी विज्ञापन, सरकारी आतिथ्य, सरकार द्वारा प्रदत्त पद्म अलंकरणो, सरकारी पदों, संसद की सदस्यता या मंत्रियों की दलाली करने का लोभ न करें। तब आप लोकतंत्र में चौथा खम्बा होने का दावा कर सकते हैं। अन्यथा आप खुद को जो भी माने, पत्रकार तो नहीं हो सकते। हाँ चारण या भाट ज़रूर हो सकते हैं। अब यह फ़ैसला पाठक स्वयं करें कि आज देश में कितने लोग इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। 


उधर न्यायपालिका के सदस्यों को आजीवन वेतन या पेंशन और सेवाकाल में सारी सुविधाएँ मिलती हैं। वे न्यायमूर्ति कहलाते हैं। 135 करोड़ लोग उनकी ओर आशा से देखते हैं। फिर भी अगर वे व्यक्तिगत लाभ, लोभ या भय से अपने पद का दुरुपयोग करते हैं तो उनसे निकृष्ट कोई हो नहीं सकता। इसलिए मेरा मानना है कि मीडिया अगर ऋषि की तरह और न्यायाधीश अगर पंच परमेश्वर की तरह व्यवहार करें तो न केवल भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि आम हिंदुस्तानी भी सुखी व सम्पन्न होगा।  

Monday, June 22, 2020

सुशांत सिंह राजपूत जैसे और भी हैं

आत्महत्या के बाद से सुशांत सिंह राजपूत के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जितनी जानकारियाँ सामने आई हैं उनसे यह स्पष्ट है कि ये नौजवान कई मायनों में अनूठा था। उसकी सोच, उसका ज्ञान, उसकी लगन, उसका स्वभाव और उसका जुनून ऐसा था जैसा बॉलीवुड में बहुत कम देखने को मिलता है। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत अपने आप में एक ऐसी शख़्सियत था जो अगर ज़िंदा रहता तो एक संजीदा सुपर स्टार बन जाता। 


जितनी बातें सोशल मीडिया में सुशांत के बारे में सामने आ रहीं हैं उनसे तो यही लगता है कि बॉलीवुड माफिया ने उसे तिल-तिल कर मारा। पर ये कोई नई बात नहीं है।  बॉलीवुड में गॉडफादर या मशहूर ख़ानदान या अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के सहारे चमकने वाले तमाम सितारे ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व सुशांत के सामने आज भी कोई हैसियत नहीं रखता। पर आज तक कोई भी इस अनैतिक गठबंधन को तोड़ नहीं पाया। इसलिए वे बेख़ौफ़ अपनी कूटनीतियों को अंजाम देते रहते हैं। 


पर इस त्रासदी का शिकार सुशांत अकेला नहीं था। हर पेशे में कमोवेश ऐसी ही हालत है। आज़ादी के बाद से अगर आँकड़ा जोड़ा जाए तो देश भर में सैंकड़ों ऐसे युवा वैज्ञानिकों के नाम सामने आएँगे जिन्होंने इन्हीं हालातों में आत्महत्या की। ये सब युवा वैज्ञानिक बहुत मेधावी थे और मौलिक शोध कर रहे थे। पर इनसे ईर्ष्या करने वाले इनके सुपर बॉस वैज्ञानिकों ने इनकी मौलिक शोध सामग्री को अपने नाम से प्रकाशित किया। इन्हें लगातार हतोत्साहित किया और इनका कई तरह से शोषण किया। मजबूरन इन्होंने आत्महत्या कर ली। 


यही हाल कारपोरेट सेक्टर में भी देखा जाता रहा है। जहां योग्य व्यक्तियों को उनके अयोग्य साथी अपमानित करते हैं और हतोत्साहित करते हैं। मालिक की चाटुकारिता करके उच्च पदों पर क़ायम हो जाते हैं। हालाँकि सूचना क्रांति के बाद से अब योग्यता को भी तरजीह मिलने लगी है। क्योंकि अब योग्यता छिपी नहीं रहती। पर पहले वही हाल था। 


यही हाल राजनीति का भी है। जहां गणेश प्रदक्षिणा करने वाले तो तरक़्क़ी पा जाते हैं और सच्चे, मेहनती, समाजसेवी कार्यकर्ता सारे जीवन दरी बिछाते रह जाते हैं। पिछले 30 वर्षों से तो हर राजनैतिक दल पर परिवारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कार्यकर्ताओं का काम केवल प्रचार करना और गुज़ारे के लिये दलाली करना रह गया है। 


संगीत, कला, नृत्य का क्षेत्र हो या खेल-कूद का, कम ही होता है जब बिना किसी गॉडफादर के कोई अपने बूते पर अपनी जगह बना ले। भाई-भतीजावाद, शारीरिक और मानसिक शोषण और भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में भी खूब हावी है। 


आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया की पोल खोलने वाले पत्रकार भी इन षड्यंत्रों से अछूते नहीं रहते। किसको क्या असाइनमेंट मिले, कौनसी बीट मिले, कितनी बार वीआइपी के साथ विदेश जाने का मौक़ा मिले, ये इस पर निर्भर करता है कि उस पत्रकार के अपने सम्पादक के साथ कैसे सम्बंध हैं। कोई मेधावी पत्रकार अगर समाचार सम्पादक या सम्पादक की चाटुकारिता न कर पाए तो उसकी सारी योग्यता धरी रह जाती है। इसी तरह अवार्ड पाने का भी एक पूरा विकसित तंत्र है जो योग्यता के बजाए दूसरे कारणों से अवार्ड देता है। फिर वो चाहे बॉलीवुड के अवार्ड हों या खेल जगत के या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे राजकीय सम्मान हों। सब के सब योग्यता के बजाए किन्हीं अन्य कारणों से मिलते हैं। इन्हीं सब कारणों से युवा या अन्य योग्य लोग  अवसाद में चले जाते हैं और आत्महत्या जैसे ग़लत कदम उठा बैठते हैं। इन सब परिस्थियाँ से लड़ने में आध्यात्म भी एक अच्छा साधन सिद्ध हो सकता है और ये पीड़ित को शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने में मदद कर सकता है।


चूँकि यह समस्या सर्वव्यापी है इसलिए इसे एकदम रातों रात में ख़त्म नहीं किया जा सकता। पर इसके समाधान ज़रूर खोजे जा सकते हैं। मसलन सरकारी विभागों में बने शिकायत केंद्रों की तरह ही हर राज्य और केंद्र के स्तर पर ‘शोषण निवारण आयोग’ बनाए जाएँ। जिनमें समाज के वरिष्ठ नागरिक, निशुल्क सेवाएं दें। वकालत, मनोविज्ञान, प्रशासनिक तंत्र, कला व खेल और पुलिस विभाग के योग्य, अनुभवी और सेवा निवृत लोग इन आयोगों के सदस्य मनोनीत किए जाएं। इन आयोगों के पते, ईमेल और फ़ोन इत्यादि, हर प्रांतीय भाषा में खूब प्रचारित किए जाएं । जिससे ऐसे शोषण को झेल रहे युवा अपने अपने प्रांत के आयोग को समय रहते लिखित सूचना भेज सकें। आयोग की ज़िम्मेदारी हो कि ऐसी शिकायतों पर तुरंत ध्यान दें और जहां तक सम्भव हो, उस पीड़ित को नैतिक बल प्रदान करें। जैसा महिला आयोग, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर करते हैं। इन आयोगों का स्वरूप सरकारी न होकर स्वायत्त होगा तो इनकी विश्वसनीयता और प्रभाव धीरे धीरे स्थापित होता जाएगा। 


अनेक समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने समाज का अध्यन कर के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जिनसे ऐसी शोषक व्यवस्था का चरित्र उजागर होता है। जैसे ‘सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘शोषक और शोषित’। ये सब सिद्धांत समाज की उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो ताकतवर व्यक्ति के सौ खून भी माफ़ करने को तैयार रहता है किंतु मेधावी व्यक्ति की सही शिकायत पर भी ध्यान नहीं देता। पर जिस तरह अमरीका में हाल ही में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु पुलिसवाले के अमानवीय व्यवहार से हो गई और उस पर पूरा अमरीकी समाज उठ खड़ा हुआ और उन गोरे सिपाहियों को कड़ी सजा मिली। या जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही का देशभर में छात्र एकजुट हो कर विरोध करते हैं। उसी तरह हर व्यवसाय के लोग, ख़ासकर युवा जब ऐसे मामलों पर सामूहिक आवाज़ उठाने लगेंगे तो ये प्रवृतियाँ धीरे धीरे कमजोर पड़ती जाएँगीं। इसलिए शोषण और अत्याचार का जवाब आत्महत्या नहीं बल्कि हमलावर हो कर मुक़ाबला करना है।