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Monday, May 29, 2023

तो मुझे क्या


एक मुल्ला जी मस्जिद के बाहर बैठे थे। उनसे एक शरारती लड़के ने पूछा,
मुल्ला जी आपके पड़ोस में शादी है और आप यहाँ बैठे हैं। मुल्ला जी ने जवाब दिया, तो मुझे क्या? लड़के ने फिर छेड़ा, सुना है वो आपके यहाँ मिठाई भेजने वाले हैं। मुल्ला जी पलट कर बोले, तो तुझे क्या? अब किसी देश का प्रधान मंत्री पैर छुए या बॉस कह कर संबोधित करे। स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए या गर्मजोशी से झप्पी डाले तो इस पर भारत के मतदाताओं का जवाब होगा, तो मुझे क्या? 



कर्नाटक चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के ख़ेमे में बहुत घबराहट है। प्रधान मंत्री मोदी की अन्तराष्ट्रीय छवि को मार्केट करके इस घबराहट से ध्यान हटाने की कोशिश कि जा रही है। ऑस्ट्रेलिया में होने वाली क्वाड नेताओं की बैठक अमरीका के राष्ट्रपति जो बाईडेन के न आ पाने के कारण स्थगित कर दी गई थी। फिर भी मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये, जबकि उन्हें कोई सरकारी न्योता नहीं था। ये उनकी निजी यात्रा थी जिसके लिए अप्रवासी भारतीयों की एक रैली का आयोजन किया गया। जिसमें लगभग बीस हज़ार भारतीयों ने हिस्सा लिया। जबकि ऑस्ट्रेलिया में दस लाख भारतीय रहते हैं। जानकारों का कहना है कि इन बीस हज़ार श्रोताओं में पंद्रह हज़ार गुजराती थे। ये भी सुना है कि बारह चार्टर हवाई जहाज़ चीयरलीडर्स को ले कर गये थे। 



दरअसल भाजपा ने कई देशों में ‘फ़्रेंड्स ऑफ़ बीजेपी’ नाम के हज़ारों संगठन बना रखे हैं। पिछली बार जब मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये थे तो ऑस्ट्रेलिया में इस संगठन के अध्यक्ष बालेश धनखड़ ने ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित किए थे। ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि वही बालेश पाँच कोरियाई महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप में जेल में बंद है। उधर अमरीका में मोदी जी के स्वागत के लिए अब तक जो भव्य आयोजन किए गये हैं उनका प्रारूप भी राजनैतिक न हो कर कॉर्पोरेट इवेंट मैनेजमेंट जैसा रहा है। ज़ाहिर है कि ऐसे आयोजनों में लोगों को लाने, होटलों में ठहराने और खिलाने-पिलाने में अरबों रुपया खर्च होता है। ये पैसा कौन खर्च कर रहा है? ‘पीएम केयर्स’ में जमा और खर्च पैसे का हिसाब आजतक देश के मतदाताओं को नहीं दिया गया। जबकि इस निजी ट्रस्ट को सरकारी की तरह ही दिखा कर चंदे में भारी भरकम रक़म उघाई गई थी। विपक्ष को संदेह है कि कहीं यही पैसा तो मोदी जी की छवि बनाने पर खर्च नहीं किया जा रहा? वरना आज के दौर में किसे फ़ुरसत हैं कि वो तकलीफ़ उठा कर किसी रैली में जाए, जब सब कुछ टीवी या सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। 



देश के जागरूक नागरिक इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि मोदी जी को अप्रवासी भारतीयों से ही अपने स्वागत के लिए इवेंट मैनेजमेंट करवाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? जबकि ये वो लोग हैं जो भारत के विकास की प्रक्रिया में हिस्सा न लेकर विदेश चले गये और वहाँ सफल होने के बाद अब भारतवासियों को ज्ञान देते हैं। ये वो अप्रवासी भारतीय नहीं हैं जो अपनी कमाई हुई विदेशी मुद्रा भारत भेजते हों। विदेशी मुद्रा भेजने वाली जमात तो उन ग़रीब अप्रवासी भारतीयों की है जो खाड़ी के देशों या अन्य देशों में मेहनत मज़दूरी करके अपनी कमाई भेजते हैं। अगर अप्रवासी भारतीय वास्तव में मोदी जी के प्रशंसक हैं और यह मानते हैं कि मोदी जी ने वाक़ई भारत की कायाकल्प कर दी है तो वे लौट कर भारत में बसने क्यों नहीं आते? सच्चाई तो यह है कि इन नौ सालों में हज़ारों अरबपतियों ने भारत की नागरिकता छोड़ कर विदेशों की नागरिकता ले ली है। अबसे पहले कभी किसी प्रधान मंत्री ने विदेशों में अपनी छवि बनाने के लिए ऐसे आयोजन नहीं करवाए। जब भी कोई प्रधान मंत्री विदेश जाते थे तो भारतीय दूतावास के अधिकारी कुछ चुनिंदा भारतीय परिवारों को दूतावास में चाय पर बुला कर प्रधान मंत्री का एक सामान्य स्वागत करवा दिया करते थे।  


मोदी जी की छवि बनाने में जनता के हज़ारों करोड़ रुपये विज्ञापनों में खर्च कर दिया गया है। ये विज्ञापन केंद्र सरकार, उसके मंत्रालय, सार्वजनिक उपक्रम, प्रांतीय सरकारें, सरकार से लाभान्वित बड़े उद्योगपति और भाजपा प्रकाशित करवाते हैं। इन विज्ञापनों से देश की जनता का क्या भला हो रहा है? क्या दो करोड़ रोज़गार हर वर्ष देने का वादा किए गये अठारह करोड़ लोगों को पिछले नौ वर्षों में रोज़गार मिल गया? अगर मिल गया होता तो मुफ़्त का राशन लेने वाले साठ करोड़ लोगों के घर में एक-एक सपूत तो कमाने वाला हो गया होता। क्योंकि ऐसा नहीं हुआ है इसलिए ये परिवार ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे आज भी जी रहे हैं। चीयर लीडर्स की रैलियाँ विदेशों में करवाने के बजाए अगर मोदी जी ने देश भर में ‘जनता दरबार’ लगाए होते और उनसे उनकी समस्याएँ सुनी होती तो वास्तव में मोदी जी की छवि कुछ और ही बनती। तब उन्हें विज्ञापनों और विदेशी यात्राओं की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। 


भारत में मोदी जी की हर यात्रा में वो चाहे धार्मिक हो या राजनैतिक करोड़ों रुपये के फूल सजाए जाते हैं और फूल पत्तियों से भारी थैलियाँ घर-घर बँटवा कर लोगों से मोदी जी पर फूल फेंकने को कहा जाता है। सड़कें फूलों से पट जाती हैं। जैसा हाल के चुनावों में कर्नाटक में बार-बार हुआ। बावजूद इसके भाजपा बुरी तरह हार गई। मतलब ये कि वो फूल लोगों ने अपने पैसे और भावना से नहीं फेंके। बल्कि उनसे फ़िकवाए गये थे। सवाल है कि क्या भाजपा के पास जनता को प्रभावित करने के लिए कोई और मुद्दे नहीं बचे, सिवाय मोदी जी की छवि भुनाने के? तो क्या 2024 की वयतरणी केवल मोदी जी की छवि के सहारे पार की जाएगी? जितना ज़्यादा बढ़-चढ़ कर उनका प्रचार किया जा रहा है उसका वांछित परिणाम तो आ नहीं रहा। दिल्ली, बंगाल, हिमाचल और कर्नाटक आदि कितने ही राज्यों में भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा है। ज़रूरत इस बात की है कि भाजपा और मोदी जी नक़ली छवि पर धन और ऊर्जा खर्च करने के बजाए अपनी ठोस उपलब्धियों को मतदाताओं के सामने रखें और उनके आधार पर वोट माँगे। 


Monday, June 1, 2020

देनहार कोई और है: भेजत जो दिन रैन

कोरोना के संकट के दौर में अब्दुल रहीम खानखाना की इन पंक्तियों को सिद्ध करने वाले छोटे बड़े कई लोगों का ज़िक्र आपने देश के हर इलाक़े में सुना ज़रूर होगा। जिन्होंने इन दो महीनों में ये सिद्ध कर दिया है कि आम जनता का जितना ख़्याल स्वयमसेवी संस्थाएँ, सामाजिक संगठन और निजी स्तर पर व्यक्ति करते हैं, उसका मुक़ाबला कोई केंद्र या राज्य सरकार नहीं कर सकती। इन महीनों में किसी भी दल के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक जनता के बीच उत्साह से सेवा करते दिखाई नहीं दिए, क्यों ? कारण स्पष्ट है कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था आज तक भ्रष्टाचार के कैन्सर से मुक्त नहीं हुई है। प्रशासनिक अधिकारी हमेशा से भीषण आपदा में भी मोटी कमाई के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर चाहे जनता बाढ़, भूकम्प, चक्रवात या महामारी किसी की भी मार झेले, उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब होता है, जनसेवा से नहीं। इसके अपवाद भी होते हैं ।पर उनका प्रतिशत बहुत कम होता है। इसीलिए सरकार को दान देने के बजाए लोग स्वयं धर्मार्थ कार्य करना बेहतर समझते हैं।    

सेवा को अपना कर्तव्य मान कर करने वाले ये लोग, नेताओं और अफ़सरों की तरह दान देने से ज़्यादा अपनी फ़ोटो प्रकाशित करने में रुचि नहीं लेते। मध्य-युगीन संत रहीम जी दिन भर दान देते थे, पर अपना मुँह और आँखें झुका कर। उनकी यह ख्याति सुनकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें पत्र भेज कर पूछा कि आप दान देते वक्त ऐसा क्यों करते हैं ? तब रहीम जी ने उत्तर में लिखा, 
‘देनहार कोई और है, 
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें,
तास्सो नीचे नयन ।।’

पुणे के ऑटो चालक अक्षय कोठावले की मिसाल लें। प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिए अक्षय कोठावले ने अपनी शादी के लिए जोड़े गए 2 लाख रुपयों को खर्च करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। ग़ौरतलब है कि इसी 25 मई को अक्षय की शादी होनी थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते उसे स्थगित करना पड़ा। जब अक्षय ने सड़कों पर बदहाल और भूखे लोगों को देखा तो उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर इन सभी के लिए कुछ करने की ठानी और शादी के लिए बचाई रक़म मज़दूरों को भोजन कराने में खर्च कर दी। आज अक्षय की हर ओर सराहना हो रही है। 

बॉलीवुड में सोनू सूद भले ही आजतक खलनायक की भूमिका निभाते रहे हों, लेकिन असल ज़िंदगी में उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के लिए जो किया है, उससे पूरे भारत में उनकी जय-जयकार हो रही है। सोनू सूद ने सैंकड़ों बसों का इंतेज़ाम किया और 12 हज़ार से अधिक लोगों को उनके घर पहुँचाया। इतना ही नहीं सोनू ने 177 लोगों को एक विशेष विमान द्वारा भी उनके घर तक पहुँचाया। ये सब तब हुआ जब केंद्र और राज्य सरकारें इसी विवाद में उलझी रहीं कि ट्रेन का कितना किराया केंद्र सरकार देगी और कितना राज्य सरकार। या फिर मज़दूरों को उनके शहर तक पहुँचाने वाली बसें पूरी तरह से फ़िट हैं या नहीं। सोनू सूद से कहीं ज़्यादा धनी और मशहूर फ़िल्मी सितारे मुंबई में रहते हैं । जो न सिर्फ़ फ़िल्मों से कमाते हैं बल्कि हर निजी या सरकारी विज्ञापनों में छाए रहते हैं और करोड़ों रुपया हर महीने इनसे भी कमाते हैं। पर उनका दिल ऐसे नहीं पसीजा। 

दूसरी ओर दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के खलनायक प्रकाश राज ने न सिर्फ़ मज़दूरों को खाना देने और घर पहुंचाने में मदद की। बल्कि उन्होंने अपने फार्म हाउस पर दर्जनों लोगों के रहने के इंतजाम भी किया। लॉकडाउन के इस मुश्किल वक़्त में प्रकाश राज की ये दरियादिली लोगों को पसंद आई। सोशल मीडिया पर जहां एक समय पर प्रकाश राज के कुछ बयानों को लेकर काफ़ी हमले हो रहे थे और उन्हें रियल लाइफ़ का खलनायक भी कहा जा रहा था, उनकी इस सेवा से अब हर कोई उनकी तारीफ़ कर रहा है। किसी विचारधारा या दल से सहमत होना या न होना आपका निजी फ़ैसला हो सकता है, लेकिन संकट में फँसे लोगों की मदद करना यह बताता है कि आपके अंदर एक अच्छा इंसान बसता है। जिन मज़दूरों को राहत मिल रही है वो राहत देने वाले से यह थोड़े ही पूछ रहे हैं कि आप कौन से दल के समर्थक हैं, उन्हें तो राहत से मतलब है।  

सेवा के इस काम में देश भर से अनेक ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिन्हें सुन कर हर सक्षम व्यक्ति को शर्मिंदा होना चाहिए। कुछ ऐसा ही जज़्बा मुंबई की 99 वर्षीय महिला में भी देखा गया। सोशल मीडिया में ज़ाहिद इब्राहिम ने एक विडियो डाला है, जिसमें ये बुजुर्ग महिला प्रवासी मज़दूरों के लिए खाने का पैकेट तैयार करती नज़र आ रही हैं। मास्क बनाने से लेकर खाना बनाने तक के काम में पूरे देश में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर योगदान किया है। 

गुरुद्वारों की तो बात ही क्या की जाए ? देश में जब कभी, जहां कहीं, आपदा आती है, सिख समुदाय बड़ी उदारता से सेवा में जुट जाता है। इस दौरान भी कोरोना की परवाह किए बग़ैर सिख भई बहनों ने बड़े स्तर पर लंगर चलाने का काम किया। वैसे भी गुरुद्वारों में लंगर सबके लिए खुले होते हैं। जहां अमीर गरीब का कभी कोई भेद दिखाई नहीं देता। 

इसी तरह देश के कुछ उद्योगपतियों ने भी निजी स्तर पर या अपनी कम्पनियों के माध्यम से कोरोना के क़हर में जनता की बड़ी मदद की है। जैसे रतन टाटा व अन्य होटल मालिकों ने देश भर में अपने होटलों को मेडिकल स्टाफ़ या कवारंटाइन के लिए उपलब्ध कराया। उधर बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने बड़ी मात्रा में होम्योपैथी की दवा बाँट कर पुणे के पुलिसकर्मियों और लोगों को कोरोना की मार से बचाया। सुना है कि होम्योपैथी में अटूट विश्वास रखने वाले राजीव बजाज का भारत सरकार को प्रस्ताव है कि वे पूरे देश के नागरिकों को कोरोना से बचने के लिए होम्योपैथी की दवा मुफ़्त बाँटने को तैयार हैं, जिसकी लागत क़रीब 700 करोड़ आएगी। अगर यह बात सही है तो सरकार को उनका प्रस्ताव स्वीकारने में देर नहीं करनी चाहिए। 

‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।’ हर काल और हर समाज में परोपकार करने वालों की कभी कमी नहीं होती। सरकार का कर्तव्य है कि वह सत्ता को अफ़सरशाही के हाथों में केंद्रित करने की बजाय जनता के इन प्रयासों को प्रोत्साहित और सम्मानित करे, ताकि पूरे समाज में पारस्परिक सहयोग और सद्भावना की भावना पनपे, नकि सरकार पर परजीवी होने की प्रवृति।