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Monday, November 23, 2020

कोरोना : नज़रिया अपना अपना


पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना के क़हर से निजात मिलने का इंतेज़ार कर रही है। पर कोरोना को लेकर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग नज़रिए हैं। दुनिया में जिन परिवारों ने कोरोना के चलते अपने प्रियजनों को खो दिया है उनके लिए ये त्रासदी गहरे ज़ख़्म दे चुकी है। जो मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही पॉज़िटिव से नेगेटिव हो गए वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। जिनको कोरोना ने अबतक नहीं पकड़ा है वे पशोपेश में हैं। या तो लापरवाह हैं या किसी अनहोनी की आशंका से सहमे सहमे से दिन काट रहे हैं।
 

उधर सरकारें और चिकित्सकों की जमात भी अलग-अलग ख़ेमों में बटी हुई है। सबका सिरमौर बना विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोरोना को लेकर शुरू से विवादों के घेरों में है। इसके अध्यक्ष पर चीन से मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। जिस तरह कोरोना को लेकर इस संगठन ने शुरू में निर्देश जारी किए थे और आनन फानन में सारी दुनिया में लॉकडाउन थोप दिया गया।जिस तरह इस महामारी को लेकर चीन की रहस्यमी भूमिका रही है, उस सबसे तो ये पूरा मामला एक वैश्विक षड्यंत्र जैसा लगता है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। इस जमात में बहुत बड़ी तादाद में दुनिया के अनेक देशों के डाक्टर, शोधकर्ता और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। जो हर दिन सोशल मीडिया पर अनेक वक्तव्यों, साक्षात्कारों या तर्कों के ज़रिए कोरोना को षड्यंत्र सिद्ध करने में जुटे हैं। 

पर जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो षड्यंत्र के सिद्धांत को कोरी बकवास बताते हैं।वे हरेक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जिस तरह अतीत में ऐसे कई वैश्विक षड्यंत्र हुए हैं जिनमें नाहक दुनिया में आतंक फैलाया गया और उससे दवा कंपनियों ने खर्बों रुपय का मुनाफ़ा कमाया। 


1984 की बात है जब मै लंदन में था तो अचानक पेरिस से ख़बर उड़ी कि सुप्रसिद्ध बॉलीवुड सेलिब्रिटी रॉक हडसन को एड्स हो गया है। अगले ही वर्ष, वह अपनी एड्स की बीमारी का खुलासा करने वाली हॉलीवुड की कुछ पहली हस्तियों में से एक बन गये। 1985 में, 59 साल की उम्र में, हडसन एड्स से मरने वाली पहली प्रमुख हस्ती थे। उसके बाद पूरे विश्व में एड्स को लेकर जो भारी प्रचार हुआ, आतंक फैलाया गया, एचआईवी टेस्ट का जाल फैलाया गया। उसके मुक़ाबले एड्स से मारने वालों की संख्या नगण्य थी, अगर एड्स कोई बीमारी थी तो। पर तभी दुनिया के 1000 मशहूर डाक्टरों, जिनमें 3 नोबल पुरस्कार विजेता भी थे, ने बयान जारी करके (पर्थ उद्घोषणा) दुनिया को चेताया था कि एड्स कोई बीमारी नहीं है। ऐसी सब वैश्विक (तथाकथित) बीमारियों से मारने वालों की संख्या से कई गुना ज़्यादा लोग अशुद्ध पेयजल, सड़क दुर्घटनाओं, कुपोषण, मधुमेय और हृदयाघात से मरते हैं। जितना पैसा भारत सरकार ने एड्स के प्रचार-प्रसार पर खर्च किया, उसका एक हिस्सा अगर आम आदमी को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर खर्च किया जाता तो बहुत जानें बच सकती थीं। इन सब सवालों को 20 बरस पहले अपने इसी कॉलम में मैंने ज़ोर शोर से उठाया थ और मणिपुर और हरियाणा जैसे राज्यों में एड्स संक्रमण के ‘नाको’ के आँकड़ों को झूठा सिद्ध किया था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दिनों में कोरोना को लेकर भी किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय घोटाले का सप्रमाण पर्दाफ़ाश हो जाए।

जहां तक मौजूदा दिशा निर्देशों का सवाल है, वैश्विक माहौल को देखते हुए इन हिदायतों को मानने में कोई नुक़सान भी नहीं है। मास्क पहनना, बार-बार साबुन से हाथ धोना या सामाजिक दूरी बनाए रखना ऐसे निर्देश हैं जिन्हें मानना बहुत कठिन काम नहीं है। पर एक बात सभी चिकित्सक एक मत हो कर कह रहे हैं। चाहे वो ऐलोपैथि के हों, आयुर्वेद के हों या होमयोपैथि के - और वो ये कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने से कोविड ही नहीं अनेक दूसरी बीमारियों से भी सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। लगातार गर्म पानी पीना, दिन में कम से कम दो बार भाप लेना, आयुर्वेद में सुझाए गये काढ़े पीना, नियमित व्यायाम करना और घर का शुद्ध पौष्टिक खाना खाना। 

कोविड के आतंककारी दौर में पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों की, ख़ासकर वैदिक संस्कृति की , श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और अब अपना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के हर प्रांत में भोजन में हल्दी सदियों से प्रयोग होती आ रही है। पर 2 दशक पहले तक पश्चिमी देशों के लोग भारतीय सब्ज़ी की करी (तरी) को घृणा की निगाह से देखते थे। गोरे बच्चे भारतीय सहपाठियों के लंच बॉक्स में हल्दी पड़ी सब्ज़ी को देख कर उसे ‘टट्टी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे। आज पूरी दुनिया हल्दी की वकालत कर रही है। दूसरे व्यक्तियों से अकारण या सामाजिक शिष्टाचार के तहत गले या हाथ मिलाना वैदिक संस्कृती में वर्जित था। इसलिए भारतीय समाज में छुआछूत की प्रथा थी। घर में बालक का जन्म हो या किसी की मृत्यु या चेचक या पीलिया जैसा बुख़ार, इन सब परिस्थितियों में 15 से 40 दिन का सूतक मानने की प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जिसे आज बड़े ढोल ताशे के साथ ‘कुआरंटाइन’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इसी तरह भोजन पकाने और खिलाने की भारतीय संस्कृति में शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। आम भारतीय हरेक जगह, हर परिस्थिति में बना भोजन खाना पसंद नहीं करता था, जिसे आधुनिकता की मार ने भ्रष्ट कर दिया। 

कोरोना के आतंक में दुनिया इस बात के महत्व को भी समझ रही है। भविष्य में जो भी हो कोरोना ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 

Monday, June 1, 2020

देनहार कोई और है: भेजत जो दिन रैन

कोरोना के संकट के दौर में अब्दुल रहीम खानखाना की इन पंक्तियों को सिद्ध करने वाले छोटे बड़े कई लोगों का ज़िक्र आपने देश के हर इलाक़े में सुना ज़रूर होगा। जिन्होंने इन दो महीनों में ये सिद्ध कर दिया है कि आम जनता का जितना ख़्याल स्वयमसेवी संस्थाएँ, सामाजिक संगठन और निजी स्तर पर व्यक्ति करते हैं, उसका मुक़ाबला कोई केंद्र या राज्य सरकार नहीं कर सकती। इन महीनों में किसी भी दल के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक जनता के बीच उत्साह से सेवा करते दिखाई नहीं दिए, क्यों ? कारण स्पष्ट है कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था आज तक भ्रष्टाचार के कैन्सर से मुक्त नहीं हुई है। प्रशासनिक अधिकारी हमेशा से भीषण आपदा में भी मोटी कमाई के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर चाहे जनता बाढ़, भूकम्प, चक्रवात या महामारी किसी की भी मार झेले, उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब होता है, जनसेवा से नहीं। इसके अपवाद भी होते हैं ।पर उनका प्रतिशत बहुत कम होता है। इसीलिए सरकार को दान देने के बजाए लोग स्वयं धर्मार्थ कार्य करना बेहतर समझते हैं।    

सेवा को अपना कर्तव्य मान कर करने वाले ये लोग, नेताओं और अफ़सरों की तरह दान देने से ज़्यादा अपनी फ़ोटो प्रकाशित करने में रुचि नहीं लेते। मध्य-युगीन संत रहीम जी दिन भर दान देते थे, पर अपना मुँह और आँखें झुका कर। उनकी यह ख्याति सुनकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें पत्र भेज कर पूछा कि आप दान देते वक्त ऐसा क्यों करते हैं ? तब रहीम जी ने उत्तर में लिखा, 
‘देनहार कोई और है, 
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें,
तास्सो नीचे नयन ।।’

पुणे के ऑटो चालक अक्षय कोठावले की मिसाल लें। प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिए अक्षय कोठावले ने अपनी शादी के लिए जोड़े गए 2 लाख रुपयों को खर्च करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। ग़ौरतलब है कि इसी 25 मई को अक्षय की शादी होनी थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते उसे स्थगित करना पड़ा। जब अक्षय ने सड़कों पर बदहाल और भूखे लोगों को देखा तो उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर इन सभी के लिए कुछ करने की ठानी और शादी के लिए बचाई रक़म मज़दूरों को भोजन कराने में खर्च कर दी। आज अक्षय की हर ओर सराहना हो रही है। 

बॉलीवुड में सोनू सूद भले ही आजतक खलनायक की भूमिका निभाते रहे हों, लेकिन असल ज़िंदगी में उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के लिए जो किया है, उससे पूरे भारत में उनकी जय-जयकार हो रही है। सोनू सूद ने सैंकड़ों बसों का इंतेज़ाम किया और 12 हज़ार से अधिक लोगों को उनके घर पहुँचाया। इतना ही नहीं सोनू ने 177 लोगों को एक विशेष विमान द्वारा भी उनके घर तक पहुँचाया। ये सब तब हुआ जब केंद्र और राज्य सरकारें इसी विवाद में उलझी रहीं कि ट्रेन का कितना किराया केंद्र सरकार देगी और कितना राज्य सरकार। या फिर मज़दूरों को उनके शहर तक पहुँचाने वाली बसें पूरी तरह से फ़िट हैं या नहीं। सोनू सूद से कहीं ज़्यादा धनी और मशहूर फ़िल्मी सितारे मुंबई में रहते हैं । जो न सिर्फ़ फ़िल्मों से कमाते हैं बल्कि हर निजी या सरकारी विज्ञापनों में छाए रहते हैं और करोड़ों रुपया हर महीने इनसे भी कमाते हैं। पर उनका दिल ऐसे नहीं पसीजा। 

दूसरी ओर दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के खलनायक प्रकाश राज ने न सिर्फ़ मज़दूरों को खाना देने और घर पहुंचाने में मदद की। बल्कि उन्होंने अपने फार्म हाउस पर दर्जनों लोगों के रहने के इंतजाम भी किया। लॉकडाउन के इस मुश्किल वक़्त में प्रकाश राज की ये दरियादिली लोगों को पसंद आई। सोशल मीडिया पर जहां एक समय पर प्रकाश राज के कुछ बयानों को लेकर काफ़ी हमले हो रहे थे और उन्हें रियल लाइफ़ का खलनायक भी कहा जा रहा था, उनकी इस सेवा से अब हर कोई उनकी तारीफ़ कर रहा है। किसी विचारधारा या दल से सहमत होना या न होना आपका निजी फ़ैसला हो सकता है, लेकिन संकट में फँसे लोगों की मदद करना यह बताता है कि आपके अंदर एक अच्छा इंसान बसता है। जिन मज़दूरों को राहत मिल रही है वो राहत देने वाले से यह थोड़े ही पूछ रहे हैं कि आप कौन से दल के समर्थक हैं, उन्हें तो राहत से मतलब है।  

सेवा के इस काम में देश भर से अनेक ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिन्हें सुन कर हर सक्षम व्यक्ति को शर्मिंदा होना चाहिए। कुछ ऐसा ही जज़्बा मुंबई की 99 वर्षीय महिला में भी देखा गया। सोशल मीडिया में ज़ाहिद इब्राहिम ने एक विडियो डाला है, जिसमें ये बुजुर्ग महिला प्रवासी मज़दूरों के लिए खाने का पैकेट तैयार करती नज़र आ रही हैं। मास्क बनाने से लेकर खाना बनाने तक के काम में पूरे देश में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर योगदान किया है। 

गुरुद्वारों की तो बात ही क्या की जाए ? देश में जब कभी, जहां कहीं, आपदा आती है, सिख समुदाय बड़ी उदारता से सेवा में जुट जाता है। इस दौरान भी कोरोना की परवाह किए बग़ैर सिख भई बहनों ने बड़े स्तर पर लंगर चलाने का काम किया। वैसे भी गुरुद्वारों में लंगर सबके लिए खुले होते हैं। जहां अमीर गरीब का कभी कोई भेद दिखाई नहीं देता। 

इसी तरह देश के कुछ उद्योगपतियों ने भी निजी स्तर पर या अपनी कम्पनियों के माध्यम से कोरोना के क़हर में जनता की बड़ी मदद की है। जैसे रतन टाटा व अन्य होटल मालिकों ने देश भर में अपने होटलों को मेडिकल स्टाफ़ या कवारंटाइन के लिए उपलब्ध कराया। उधर बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने बड़ी मात्रा में होम्योपैथी की दवा बाँट कर पुणे के पुलिसकर्मियों और लोगों को कोरोना की मार से बचाया। सुना है कि होम्योपैथी में अटूट विश्वास रखने वाले राजीव बजाज का भारत सरकार को प्रस्ताव है कि वे पूरे देश के नागरिकों को कोरोना से बचने के लिए होम्योपैथी की दवा मुफ़्त बाँटने को तैयार हैं, जिसकी लागत क़रीब 700 करोड़ आएगी। अगर यह बात सही है तो सरकार को उनका प्रस्ताव स्वीकारने में देर नहीं करनी चाहिए। 

‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।’ हर काल और हर समाज में परोपकार करने वालों की कभी कमी नहीं होती। सरकार का कर्तव्य है कि वह सत्ता को अफ़सरशाही के हाथों में केंद्रित करने की बजाय जनता के इन प्रयासों को प्रोत्साहित और सम्मानित करे, ताकि पूरे समाज में पारस्परिक सहयोग और सद्भावना की भावना पनपे, नकि सरकार पर परजीवी होने की प्रवृति।