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Monday, December 25, 2017

मोदी जी उत्तर प्रदेश को संभालें

भाजपा के शिखर नेतृत्व के मन में गत तीन महीनों में यह प्रश्न कई बार आया होगा कि गुजरात के चुनाव में इतनी मश्शकत क्यों करनी पड़ी? विपक्ष ने गुजरात मॉडल को लेकर बार-बार पूछा कि इस चुनाव में इसकी बात क्यों नहीं हो रही? विपक्ष का व्यंग था कि जिस गुजरात मॉडल को मोदी जी ने पूरे देश में प्रचारित कर केंद्र की सत्ता हासिल की, उस मॉडल का गुजरात में ही जिक्र करने से भाजपा क्यों बचती रही? क्या उस मॉडल में कुछ खोट है? क्या उस मॉडल को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया? क्या उस मॉडल का गुजरात की आम जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा? वजह जो भी रही हो भाजपा अध्यक्ष व प्रधानमंत्री को काफी पसीना बहाना पड़ा गुजरात का चुनाव जीतने के लिए। एक और फर्क ये था कि पहले चुनावों में मोदी जी के नाम पर ही वोट मिल जाया करते थे, लेकिन इस बार केंद्र के अनेक मंत्रियों, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों, प्रांतों के मंत्रियों और पूरे देश के संघ के कार्यकर्ताओं को लगना पड़ा गुजरात की जनता को राजी करने के लिए, कि वे एक बार फिर भाजपा को सत्ता सौंप दें।
इन स्टार प्रचारकों में सबसे ज्यादा आकर्षक नाम रहा, उ.प्र. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का। जिनके केसरिया बाने और प्रखर संभाषणों ने गुजरात के लोगों को आकर्षित किया। अब चर्चा है कि भाजपा लोकसभा के चुनाव में योगी जी का भरपूर उपयोग करेगी। पर इस सब के बीच मेरी चिंता का विषय उ.प्र. का विकास है।

उ.प्र. में जो तरीका इस वक्त शासन का चल रहा है, उससे कुछ भी ऐसा नजर नहीं आ रहा कि बुनियादी बदलाव आया हो। लोग कहते है कि सुश्री मायावती के शासनकाल में नौकरशाही सबसे अनुशासित रही। अखिलेश यादव  को लोग एक सद्इच्छा रखने वाला ऊर्जावान युवा मानते हैं, जिन्होंने उ.प्र. के विकास के लिए बहुत योजनाऐं चालू की और कुछ को पूरा भी किया। लेकिन पारिवारिक अंतर्कलह और राजनीति पर परिवार के प्रभाव ने उन्हें काफी पीछे धकेल दिया। योगी जी का न तो कई परिवार है और न ही उन्हें आर्थिक असुरक्षा। एक बड़े सम्प्रदाय के महंत होने के नाते उनके पास वैभव की कमी नहीं है। इसलिए यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपना शासन पूरी ईमानदारी व निष्ठा से करेंगे। लेकिन केवल निष्ठा और ईमानदारी से लोगों की समस्याऐं हल नहीं होती। उसके लिए प्रशासनिक सूझ-बूझ, योग्य, पारदर्शी और सामथ्र्यवान लोगों की बड़ी टीम चाहिए। जिसे अलग-अलग क्षेत्रों का दायित्व सौंप सकें।

क्रियान्वन पर कड़ी नजर रखनी होती है। जनता से फीडबैक लेने का सीधा मैकेनिज्म होना चाहिए। जिनका आज उ.प्र. शासन में नितांत अभाव है। श्री नरेन्द्र मोदी और श्री अमित शाह को उ.प्र. के विकास पर अभी से ध्यान देना होगा। केवल रैलियां, नारे व आक्रामक प्रचार शैली से चुनाव तो जीता जा सकता है, लेकिन दिल नहीं। उ.प्र. की जनता का यदि दिल जीतना है, तो समस्याओं की जड़ में जाना होगा। लोग किसी भी सरकार से बहुत अपेक्षा नहीं रखते। वे चाहते हैं कि बिजली, सड़के, कानून व्यवस्था ठीक रहे, पेयजल की आपूर्ति हो, सफाई ठीक रहे और लोगों को व्यापार करने करने की छूट हो । किसानों को सिंचाई के लिए जल और फसल का  वाजिव दाम मिले, तो प्रदेश संभल जाता है।

इतना बड़ा सरकारी अमला, छोटे-छोटे अधिकारी के पास गाड़ी, मकान, तन्ख्वाह व पेंशन। फिर भी  रिश्वत का मोह नहीं छूटता। आज कौन सा महकमा है उ.प्र. में जहां काम कराने में नीचे से ऊपर रिश्वत या कमीशन नही चल रहा? और कब नहीं चला? यदि पहले भी चला और आज भी चल रहा है, तो फिर योगी जी के आने का क्या अंतर पड़ा? मोदी जी की इस बात का क्या प्रभाव पड़ा कि ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’?  मैं बार बार अपने लेखों के माध्यम से कहता आया हूं कि दो तरह का भ्रष्टाचार होता है। एक क्रियान्वन का और दूसरा योजना का। क्रियान्वन का भ्रष्टाचार व्यापक है, कोई भी इंजीनियरिंग विभाग ऐसा नहीं है, जो बिना कमीशन के काम करवाये या बिल पास करे। लेकिन इससे बड़ा भ्रष्टाचार यह होता है कि योजना बनाने में ही आप एक ऐसा खेल खेल जाऐं कि जनता को पता ही न चले और सैंकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे हो जाऐं।

मुझे तकलीफ के साथ मोदी जी, योगी जी और अमित शाह जी को कहना है कि  आज उ.प्र. में सीमित साधनों के बीच जो कुछ भी योजनाऐ बन रही है, उनमें पारदर्शिता, सार्थकता और उपयोगिता का नितांत अभाव है। कारण स्पष्ट है कि योजना बनाने वाले वही लोग हैं, जो पिछले 70 साल से योजना बनाने के लिए ही योजना बनाते आऐ हैं। केवल मोटी फीस लेने के लिए योजनाऐं बनाते हैं। बात बार-बार हुई कि जमीन से विकास की परिकल्पना आऐ।  लोगों की भागीदारी हो। गांव और ब्लॉक स्तर पर समझ विकसित की जाए। योजना आयोग का भी नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया गया। लेकिन इसका असर लोगों को जमीन पर नहीं दिखाई दे रहा। फिर भी देश की जनता यह मानती है कि साम्प्रायिकता, पाकिस्तान, चीन और कई ऐसे बड़े सवाल हैं, जिन पर निर्णय लेने के लिए एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत है और वो नेतृत्व नरेन्द्र मोदी दे रहे हैं। उन्होंने अपनी छवि भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी बनाई है, जहां इंदिरा गांधी के बाद उन्हीं को सबसे ज्यादा सुना और समझा जा रहा है। परिणाम अभी आने बाकी है। फिर भी उ.प्र. के स्तर पर यदि ठोस काम करना है, तो समस्याओं के हल करने की नीति और योजनाओं को भी ठोस धरातल से जुड़ा होना होगा।

समस्याओं के हल उन लोगों के पास है, जिन्होंने उन समस्याओं को ईमानदारी से हल करने की कोशिश की है। कोशिश ही नहीं की, बिना सरकारी मदद के सफल होकर दिखाया है। क्या कोई भी प्रांत या कोई भी सरकार ऐसे लोगों को बुला कर उनको सुनने को तैयार है ? अगर नही तो फिर वही रहेंगे  ‘ढाक के तीन पात’। उ.प्र. में आने वाला लोकसभा चुनाव तो मोदी जी जीत जाऐंगे। लेकिन उसके लिए गुजरात से कहीं ज्यादा मश्शकत करनी पड़ेगी। अगर अभी से स्थितयां सुधरने लगे, त्वरित परिणाम दिखने लगे तो जनता भी साथ होगी और काम भी साथ होगा। फिर बिना किसी बड़े संघर्ष से वांछित फल प्राप्त किया जा सकता है।

Monday, December 18, 2017

चलो कांग्रेस को समझ में तो आया

        गुजरात चुनाव के फैसले जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि आजादी के बाद, ये पहली बार है कि कांग्रेस को यह बात समझ में आई कि हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किये बिना बहुसंख्यक हिंदू समाज में उसकी स्वीकार्यता नहीं हो सकती। यही कारण है कि राहुल गांधी ने इस बार अपने चुनाव अभियान में गुजरात के हर मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन किये। हम प्रभु से ये प्रार्थना करेंगे कि वे कांग्रेस के युवा अध्यक्ष और पूरे दल पर कृपा करें व उन्हें सद्बुद्धि दें कि वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदयिकता का दामन छोड़ दें।

आजादी के बाद आज तक कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने अल्पसंख्यकों को जरूरत से ज्यादा महत्व देकर हिंदुओं के मन में एक दरार पैदा की है। मैं यह नहीं कहता कि कांग्रेस ने हिंदूओं का ध्यान नहीं रखा। मेरा तो मानना है कि पिछले 70 वर्षों में हिंदू धर्मस्थलों के जीर्णोंद्धार और राम जन्मभूमि जैसे हिंदुओं के बहुत से कामों में कांग्रेस ने भी बहुत अच्छी पहल की है। लेकिन जहां तक सार्वजनिक रूप से हिंदूत्व को स्वीकारने की बात है, कांग्रेस और इसके नेता हमेशा इससे बचते रहे हैं। जबकि अल्पसंख्यकों के लिए वे बहुत उत्साह से सामने आते रहे, चाहे वो इफ्तार की दावत आयोजित करना हो, चाहे हज की सब्सिडी की बात हो, चाहे ईद में जाली की टोपी पहनकर अपना मुस्लिम प्रेम प्रदर्शित करना हो। जो भी क्रियाकलाप रहे, उससे ऐसा लगा, जैसे कि मुसलमान कांग्रेस पार्टी के दामाद हैं।

अब जबकि गुजरात में उनके अध्यक्ष ने खुद भारत में हिंदू धर्म के महत्व को समझा है और मंदिर-मंदिर जाकर व संतो से आर्शीवाद लिया है, तो गुजरात के चुनाव परिणामों से कांग्रेस में ये मंथन होना चाहिए कि आगे की राजनीति में वे सभी धर्मों के प्रति सम्भाव रखें। सम्भाव रखने का ये मतलब नहीं कि बहुसंख्यकों की भावनाओं की उपेक्षा की जाए और उन्हें दबाया जाऐ या उनको सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने से बचा जाऐ। उल्टा होना ये चाहिए की अब भविष्य में प्रायश्चित के रूप में सार्वजनिक मंचों से कांग्रेस को अपनी पुरानी गलती की भरपाई करनी चाहिए।

गुजरात में अपने अनुभव को दोहराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और विपक्षी दल के नेताओं को भी हिंदू धर्म के त्यौहारों में उत्साह से भाग लेना चाहिए और दिवाली और नवरात्रि जैसे उत्सवों पर भोज आयोजित कर हिंदुओं के प्रति अपने सम्मान को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना चाहिए। इसमें नया कुछ भी नहीं होगा। मध्ययुग से भारत में यह परंपरा रही है कि हिंदू राजाओं ने मुसलमानों के तीज त्यौहारों पर और मुलमान बादशाहों ने हिंदुओं के तीज त्यौहारों पर खुलकर हिस्सा लिया है। सर्वधर्म सम्भाव का भी यही अर्थ होता है।

दूसरी तरफ मुसलमानों के नेताओं को भी सोचना चाहिए कि उनके आचरण में क्या कमी है। एक तरफ तो वे भाजपा को साम्प्रदायिक कहते हैं और दूसरी तरफ अपने समाज को संविधान की भावना के विरूद्ध पारंपरिक कानूनों से नियंत्रित कर उन्हें मुख्यधारा में आने से रोकते हैं। इस वजह से हिंदू और मुसलमानों के बीच हमेशा खाई बनी रहती है। जब तक मुसलमान नेता अपने समाज को मुख्यधारा से नहीं जोड़ेगे, तब तक साम्प्रदायकिता खत्म नहीं होगी।

राहुल गांधी ने अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में दावा किया है कि वे समाज को जोड़ने का काम करेंगे, तोड़ने का नहीं। अगर राहुल गांधी और उनका दल वास्तव में इसका प्रयास करता है और सभी धर्मों के लोगों के प्रति समान व्यव्हार करते हुए, सम्मान प्रदर्शित करता है, तो इसके दूरगामी परिणाम आयेंगे। भारतीय समाज में सभी धर्म इतने घुलमिल गये हैं कि किसी एक का आधिपत्य दूसरे पर नहीं हो सकता। लेकिन यह भी सही है कि जब तक बहुसंख्यक हिंदू समाज को यह विश्वास नहीं होगा कि कांगे्रस और विपक्षी दल अल्पसंख्यकों के मोह से मुक्त नहीं हो गये हैं, तब तक विपक्ष मजबूत नहीं हो पायेगा। वैसे भी धर्म और संस्कृति का मामला समाज के विवेक पर छोड़ देना चाहिए और सरकार का ध्यान कानून व्यवस्था, रोजगार सृजन और आधारभूत ढ़ाचे का विस्तार करना होना चाहिए।

किसी भी लोकतंत्र के लिए कम से कम दो प्रमुख दलों का ताकतवर होना अनिवार्य होता है। मेरा हमेशा से ही यह कहना रहा है कि मूल चरित्र में कोई भी राजनैतिक दल अपवाद नहीं है। भ्रष्टाचार व अनैतिकता हर दल के नेताओं का भूषण है। यह बात किसी को अच्छी लगे या बुरी पर इसके सैंकड़ों प्रमाण उपलब्ध है। रही बात विचारधारा की तो शरद पवार, अखिलेश यादव, मायावती, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, प्रकाश सिंह बादल, फारूख अब्दुल्ला जैसे सभी नेता अपने-अपने दल बनाए बैठे हैं। पर क्या कोई बता सकता है कि इनकी घोषित विचारधारा और आचरण में क्या भेद है? सभी एक सा व्यवहार करते हैं और एक से सपने जनता को दिखाते हैं। तो क्यों नहीं एक हो जाते हैं? इस तरह भाजपा और कांग्रेस जब दो प्रमुख दल आमने-सामने होंगे, तब जनता की ज्यादा सुनी जायेगी। संसाधनों की बर्बादी कम होगी और विकास करना इन दलों की मजबूरी होगी। साथ ही एक दूसरे के आचरण पर ‘चैक और बैलेंस’ का काम भी चलता रहेगा। इसलिए गुजरात के चुनाव परिणाम जो भी हो, राहुल गांधी के आगे सबसे बड़ी चुनौती है कि वे उन लक्ष्यों को हासिल करें, जिन्हें उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस की ताकत बताया है। साथ ही मंदिरों में जाना, पूजा अर्चना करना और मस्तक पर तिलक धारण करने की अपनी गुजरात वाली पहल को जारी रखें, तो उन्हें इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।

Monday, October 2, 2017

हिंदू राष्ट्र का सपना क्या अधूरा रहेगा?


2014 में जब नरेन्द्र मोदी पूर्णं बहुमत लेकर सत्ता में आऐ, तो सारी दुनिया के हिंदुओं ने खुशी मनाई कि लगभग 1000 साल बाद भारत में हिंदू राज की स्थापना हुई है। नरेन्द्र भाई का व्यक्तिगत जीवन आस्थावान रहा है। हिमालय में तप करने से लेकर भारत की सनातन परंपराओं के प्रति उनकी आस्था ने भारत को हिंदू राष्ट्र बनने की संभावनाओं को बढ़ा दिया। पर आज हिंदू राष्ट्र का सपना संजोने वाले बहुत से गंभीर वृत्ति के लोग भारत के विकास की दशा और दिशा को देखकर चिंतित हैं। इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों से लेकर, संघ से अलग रहने वाले हिंदूवादी तक शामिल हैं। उन्हें लगता है कि जिस दिशा में मोदी जी बढ़ रहे हैं, ये वो दिशा नहीं, जिसका सपना उन्होंने देखा था। इन लोगों की मजबूरी ये है कि ये स्वयं राजनैतिक सत्ता हासिल करने में न तो सक्षम है और न ही उनकी महत्वाकांक्षा है।  ये तो वो लोग हैं, जो इस बात की प्रतीक्षा करते हैं, कि कोई सत्ताधीश इनकी पीडा को समझकर, अपने बलबूते पर, इनके विचारों को नीतिओं में लागू करें। ऐसी परिस्थितियां प्रायः नहीं बना करतीं, अब बनी हैं, तो समय निकला जा रहा है और कोई दूरगामी ठोस परिणाम आ नहीं रहे। इसलिए इनकी चिंता स्वभाविक है।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री के पद की भी कुछ सीमाऐं होती हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दबाव, सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियां चाहकर भी प्रधानमंत्री को बहुत से कदम नहीं उठाने देतीं। समस्या तब खड़ी होती है, जब जो संभव है, वो भी नहीं होता और जो कुछ हो रहा होता है, वह अपेक्षाओं के विपरीत होता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की एक जानीमानी महिला बुद्धिजीवी जो अंगे्रजी में अपने लेख और शोधपत्रों के माध्यम से गत 35 वर्षों से हिंदू विचारधारा की प्रबल प्रवक्ता रही हैं, उनके स्वनामधन्य पिता देश के सबसे प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक के वर्षों संपादक रहे और वे भी जीवन के अंतिम दशक में कट्टर हिंदूवादी हो गये थे, आज ये महिला मौजूदा सरकार से खिन्न है।

इनकी शिकायत है कि हिंदूत्व के नाम पर मोदी सरकार में ऐसे लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बिठाया जा रहा है, जिनकी योग्यता सामान्य से भी निचले स्तर की है। ऐसे अयोग्य लोग उन संस्थाओं का तो भट्टा बैठा ही रहे हैं, हिंदू हित का भी भारी अहित कर रहे हैं। इन विदुषी महिला का आरोप है कि कई मंत्रालयों ने उनसे ऐसे पदों पर चयन करने के पूर्व कुछ नाम सुझाने को कहा। इन्होंने अपनी ओर से देखे परखे, ऐसे लोगों के नाम सुझाये, जिनकी योग्यता और हिंदू संस्कृति के प्रति आस्था उच्चकोटि है।  पर उन्हें हर बार निराशा हुई, क्योंकि जिन्हें चुना गया, वे इनके सामने खड़े होने के भी लायक नहीं थे। उनका कहना था कि ऐसा नहीं है कि जो नाम उन्होंने सुझाये, वे उनके परिचितों या मित्रों के थे। उनमें से कई लोगों को तो वे व्यक्तिगत रूप से कभी मिली भी नहीं थीं। केवल उनकी योग्यता ने उन्हें प्रभावित किया। कम्युनिस्टों की घोर विरोधी रही, ये विदुषी महिला कहतीं हैं कि हमसे गलती हुई, जो हम सारी जिंदगी कम्युनिस्टों को कोसते रहे। भाजपा से तो कम्युनिस्ट कहीं बेहतर थे, कि उन्होंने ऐसे चयन में योग्यता की उपेक्षा प्रायः नहीं की। यही कारण है कि भारत की राजनीति में वे अल्पसंख्यक होते हुए भी आज तक इतने प्रभावशाली रहे हैं कि उन्होंने भारत के मीडिया व अकादमिक क्षेत्र को प्रभावित किया। जबकि मौजूदा सरकार द्वारा नियुक्त हिंदूवादी व्यक्ति, जिस संस्था में भी जा रहे हैं, अपने अधकचरे ज्ञान और अपरिपक्व स्वभाव के कारण संस्थाओं को बिगाड़ रहे हैं और अपना मखौल उड़वा रहे हैं।

हिंदू संस्कृति के क्षेत्रों को विकास के मामले में, मेरा भी अनुभव ऐसा ही रहा है। कई बार मैंने इस सवाल को, इस कॉलम  माध्यम से उठाया है। मोदी जी ने अच्छी भावना से अनेक योजनाओं की घोषणा की, पर उनकी नीतियां बनाने और क्रियान्वयन करने का काम उसी नौकरशाही पर छोड़ दिया, जो आज तक औपनिवेशिक मानसिकता के बाहर नहीं निकल पाई है। नतीजतन हिंदू संस्कृति से जुड़े मुद्दों पर जो भी योजनाऐं बन रही हैं, उनसे न तो व्यापक समाज का भला हो रहा है और न ही हिंदू संस्कृति का। पता नहीं क्यों हम जैसे राष्ट्रप्रेमी और सनातन धर्मप्रेमियों के अच्छे सुझाव भी प्रधानमंत्री के कानों तक नहीं पहुंचते। हमारी समस्या यह है कि पिछली सरकारों से हम हिंदू संस्कृति के लिए इसलिए बहुत कुछ ठोस नहीं करवा पाए, क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता की चश्मे के बाहर देखने को तैयार नहीं थीं। जबकि भाजपा की मौजूदा सरकारें अपनी लक्ष्मण रेखा के बाहर नहीं देखना चाहतीं। लक्ष्मण रेखा के भीतर माने भाजपा व संघ परिवार के बाहर उन्हें न तो कोई हिंदूवादी दिखता है और न ही कोई योग्य। सत्ता और पद के लिए हम, न तो पहले झुके और न आगे झुकने की इच्छा है। झुके होते तो कब के सत्ता पर काबिज हो गये होते। क्योंकि सत्ता ने कई बार हमारा दरवाजा खटखटाया, पर हमने उसे घर में घुसने नहीं दिया। हमारे जैसे लोग देश में लाखों की संख्या में हैं, जो किसी की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है। पर देश व सनातन धर्म के लिए अपना जीवन खपाते आऐ हैं और अगर मोदी सरकार, हमारे सुझावों को गंभीरता से ले तो  हिंदू संस्कृति के हित में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि इन सब लोगों के पास अनुभव का लंबा खजाना है, विचारों की स्पष्टता है और लक्ष्य हासिल करने का जुनून भी।

Monday, August 21, 2017

खाद्य पदार्थों में मिलावट पर रोक नहीं

हवा, पानी और भोजन आदमी की जिंदगी की बुनियादी जरूरत हैं। अगर इनमें ही मिलावट होगी, तो जनता कैसे जियेगी? खाद्यान में मिलावट के नियम कितने भी सख्त हों, जब तक उनको ठीक से लागू नहीं किया जायेगा, इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। आज मिलावट का कहर सबसे ज्यादा हमारी रोजमर्रा की जरूरत की चीजों पर ही पड़ रहा है। संपूर्ण देश में मिलावटी खाद्य-पदार्थों की भरमार हो गई है । आजकल नकली दूध, नकली घी, नकली तेल, नकली चायपत्ती आदि सब कुछ धड़ल्ले से बिक रहा है। अगर कोई इन्हें खाकर बीमार पड़ जाता है तो हालत और भी खराब है, क्योंकि जीवनरक्षक दवाइयाँ भी नकली ही बिक रही हैं ।
एक अनुमान के अनुसार बाजार में उपलब्ध लगभग 30 से 40 प्रतिशत समान में मिलावट होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की वस्तुओं पर निगाह डालने पर पता चलता है कि मिलावटी सामानों का निर्माण करने वाले लोग कितनी चालाकी से लोगों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। इन मिलावटी वस्तुओं का प्रयोग करने से लोगों को कितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ रही हैं।
आजकल दूध भी स्वास्थ्यवर्धक द्रव्य न होकर मात्र मिलावटी तत्वों का नमूना होकर रह गया है, जिसके प्रयोग से लाभ कम हानि ज्यादा है। हालत यह है कि लोग दूध के नाम पर यूरिया, डिटर्जेंट, सोडा, पोस्टर कलर और रिफाइंड तेल पी रहे है।
बाजार में उपलब्ध खाद्य तेल और घी की भी हालत बेहद खराब है। सरसों के तेल में सत्यानाशी बीज यानी आर्जीमोन और सस्ता पॉम आयल मिलाया जा रहा है। देशी घी में वनस्पति घी और जानवरों की चर्बी की मिलावट, आम बात हो गई है। मिर्च पाउडर में ईंट का चूरा, सौंफ पर हरा रंग, हल्दी में लेड क्रोमेट व पीली मिट्टी, धनिया और मिर्च में गंधक, काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाए जा रहे हैं।
फल और सब्जी में चटक रंग के लिए रासायनिक इंजेक्शन, ताजा दिखने के लिए लेड और कॉपर सोल्युशन का छिड़काव व सफेदी के लिए फूलगोभी पर सिल्वर नाइट्रेट का प्रयोग किया जा रहा है। चना और अरहर की दाल में खेसारी दाल, बेसन में मक्का का आटा मिलाया जा रहा और दाल और चावल पर बनावटी रंगों से पालिश की जा रही है ।
ऐसा अर्से से होता आ रहा है। 50 वर्ष पहले, एक फिल्म में महमूद ने एक गाना गाया था, जो ऊपर लिखे गये सारे पदार्थों का इसी तरह वर्णन करता था। मतलब यह हुआ कि 50 वर्षों में कुछ भी नहीं सुधरा। इसके विपरीत अब तो दूध, फल और सब्जी तक जहरीले हो गये हैं। भारत की पूरी आबादी, इस जहर को खाकर जी रही है। हमारे बच्चे इन मिलावटी सामानों को खाकर बड़े हो रहे हैं। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी कैसे ताकतवर बनेगी?
मोदी सरकार के आने के बाद, सबको उम्मीद थी कि खाने के पदार्थों में मिलावट करने वालों पर, सरकार सख्ती करेगी। स्वयं मोदी जी ने अपने भाषणों में इस समस्या की भयावहता को रेखांकित किया था। पर उनके अधीनस्थ अफसरों ने ऐसी नीति बनाई है कि खाद्य पदार्थों में मिलावट का धंधा, दिन-दूना और रात-चैगुना बढ़ गया है। ‘ईज़ आफ बिजनेस’ के नाम पर खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता परखने वाले विभागों को कहा गया है कि वे ऐसी किसी भी अर्जी पर, बिना देर किये, अनापत्ति पत्र जारी कर दिये जायें।
जरा सोचिए कि मलेशिया से ‘पाम आयल’ आया। आयातक ने अनापत्ति पत्र के लिए अर्जी दी। खाद्य नियंत्रण विभाग, अगर यह सुनिश्चित करना चाहे कि यह तेल, खाने योग्य है या नहीं, तो उसे परीक्षा के लिए प्रयोगशाला में भेजना होगा। जहां कैमिस्ट उसकी गुणवत्ता की जांच कर सकें। खाद्य विभाग को यह जांच रिर्पोट 7 दिन में चाहिए। प्रयोगशाला के पास इतने सारे सैंपल जांच के लिए आये हुए हैं कि वो तीन महीने में भी यह रिर्पोट नहीं दे सकती। ऐसे में दो ही विकल्प हैं। पहला कि बिना जांच के, फर्जी अनापत्ति पत्र दे दिये जायें, दूसरा जांच आने तक इंतजार किया जाए। ऐसी स्थिति में खाद्य नियंत्रण विभाग पर लाल फीता शाही और काम में ढीलेपन का आरोप लगाकर, उसके अधिकारियों को शासन द्वारा  प्रताड़ित किया जा सकता है। इसी डर से आज, यह विभाग बिना जांच करावाए ही, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने को मजबूर हैं। जबकि ऐसा करने से लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। पर आज हो यही रहा है। खद्यान के नमूनों की बिना जांच कराए ही मजबूरी में, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने पड़ रहे हैं। नतीजतन पूरे देश के बाजार में, जहरीले रासायनिक और रंग मिलाकर धड़ल्ले से खाद्यान्न बेचे जा रहे हैं। जिससे हम सबका जीवन खतरे में पड़ रहा है। मोदी सरकार को, इस गंभीर समस्या की ओर ध्यान देना चाहिए और खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए।

Monday, July 10, 2017

योगी आदित्यनाथ जी हकीकत देखिए !

ऑडियो विज्युअल मीडिया ऐसा खिलाड़ी है कि डिटर्जेंट जैसे प्रकृति के दुश्मन जहर को ‘दूध सी सफेदी’ का लालच दिखाकर और शीतल पेय ‘कोला’ जैसे जहर को अमृत बताकर घर-घर बेचता है, पर इनसे सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की बात तक नही करता । यही हाल सत्तानशीं होने वाले पीएम या सीएम का भी होता है । उनके इर्द-गिर्द का कॉकस हमेशा ही उन्हें इस तरह जकड़ लेता है कि उन्हें जमीनी हकीकत तब तक पता नहीं चलती, जब तक वो गद्दी से उतर नहीं जाते ।


टीवी चैनलों पर साक्षात्कार, रोज नयी-नयी योजनाओं के उद्घाटन समारोह, भारतीय सनातन पंरपरा के विरूद्ध महंगे-महंगे फूलों के बुके, जो क्षण भर में फेंक दिये जाते हैं, फोटोग्राफरों की फ्लैश लाईट्स की चमक-धमक में योगी आदित्यानाथ जैसा संत और निष्काम राजनेता भी शायद दिग्भ्रमित हो जाता है और इन फ़िज़ूल के कामों में उनका समय बर्बाद हो जाता है । फिर उन्हें अपने आस-पास, लखनऊ के चारबाग स्टेशन के चारों तरफ फैला नारकीय साम्राज्य तक दिखाई नहीं देता, तो फिर प्रदेश में दूर तक नजर कैसे जाएगी? जबकि प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शोर हर तरफ इतना बढ़-चढ़कर मचाया जा रहा है ।

35 वर्ष केंद्रीय सत्ता की राजनीति को इतने निकट से देखा है और देश की राजनीति में अपनी निडर पत्रकारिता से ऐतिहासिक उपस्थिति भी कई बार दर्ज करवाई है । इसलिए यह सब असमान्य नहीं लगता । पर चिंता ये देखकर होती है कि देश में मोदी जैसे सशक्त नेता और उ.प्र. में योगी जैसे संत नेता को भी किस तरह जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दिया जाता ।

हाँ अगर कोई ईमानदार नेता सच्चाई जानना चाहे तो इस मकड़जाल को तोड़ने का एक ही तरीका हैं, जिसे पूरे भारत के सम्राट रहे देवानामप्रियदस्सी मगध सम्राट अशोक मौर्य ने अपने आचरण से स्थापित किया था । सही लोगों को ढू़ंढ-ढू़ंढकर उनसे अकेले सीधा संवाद करना और मदारी के भेष में कभी-कभी घूमकर आम जनता की राय जानना ।

देश के विभिन्न राज्यों में छपने वाले मेरे इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले, मैंने प्रधानमंत्री जी से गोवर्धन पर्वत को बचाने की अपील की थी । मामला यह था कि एक ऐसा हाई-फाई सलाहकार, जिसके खिलाफ सीबीबाई और ई.डी. के सैकड़ों करोड़ों रूपये के घोटाले के अनेक आपराधिक मामले चल रहे हैं, वह बड़ी शान शौकत से ‘रैड कारपेट’ स्वागत के साथ, योगी महाराज और उनकी केबिनेट को गोवर्धन के विकास के साढ़े चार हजार करोड़ रूपये के सपने दिखाकर, टोपी पहना रहा था । मुझसे यह देखा नहीं गया, तो मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, लेख लिखे और उ.प्र. के मीडिया में शोर मचाया । प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री ने लगता है उसे गम्भीरता से लिया । नतीजतन उसे लखनऊ से अपनी दुकान समेटनी पड़ी । वरना क्या पता गोवर्धन महाराज की तलहटी की क्या दुर्दशा होती ।

इसी तरह पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक बड़ी-बड़ी घोषाणाऐं ब्रज के लिए कर रहा था । हाई-फाई सलाहकारों से उसके लिए परियोजनाऐं बनवाई गईं, जो झूठे आंकड़ों और अनावश्यक खर्चों से भरी हुई थी । भला हो उ.प्र. पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा और प्रमुख सचिव पर्यटन अवनीश अवस्थी का, कि उन्होंने हमारी शिकायत को गंभीरता से लिया और फौरन इन परियोजनाओं का ठेका रोककर  हमसे उनकी गलती सुधारने को कहा । इस तरह 70 करोड़ की योजनाओं को घटाकर हम 35 करोड़ पर ले आये । इससे निहित स्वार्थों में खलबली मच गई और हमारे मेधावी युवा साथी को अपमानित व  हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया । संत और भगवतकृपा से वह षड्यंत्र असफल रहा, पर उसकी गर्माहट अभी भी अनुभव की जा रही है।

हमने तो देश में कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े है । एक युद्ध में तो देश का सारा मीडिया, विधायिका, कानूनविद् सबके सब सांस रोके, एक तरफ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, जब सं 2000 में मैंने अकेले भारत के मुख्य न्यायाधीश के 6 जमीन घोटाले उजागर किये । मुझे हर तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। पर कृष्णकृपा मैं से टूटा नहीं और यूरोप और अमेरिका जाकर उनके टीवी चैनलों पर शोर मचा दिया । इस लड़ाई में भी नैतिक विजय मिली ।

मेरा मानना है कि, यदि आपको अपने धन, मान-सम्मान और जीवन को खोने की चिंता न हो और आपका आधार नैतिक हो तो आप सबसे ताकतवर आदमी से भी युद्ध लड़ सकते हैं। पर पिछले 15 वर्षों में मै कुरूक्षेत्र का भाव छोड़कर श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के माधुर्य भाव में जी रहा हूं और इसी भाव में डूबा रहना चाहता हूँ। ब्रज विकास के नाम पर अखबारों में बड़े-बड़े बयान वर्षों से छपते आ रहे हैं। पर धरातल पर क्या बदलाव आता है, इसकी जानकारी हर ब्रजवासी और ब्रज आने वालों को है। फिर भी हम मौन रहते हैं।

लेकिन जब भगवान की लीलास्थलियों को सजाने के नाम पर उनके विनाश की कार्ययोजनाऐं बनाई जाती हैं, तो हमसे चुप नहीं रहा जाता । हमें बोलना पड़ता है । पिछली सरकार में जब पर्यटन विभाग ने मथुरा के 30 कुण्ड बर्बाद कर दिए तब भी हमने शोर मचाया था । जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता । पर ऐसी सरकारों के रहते, जिनका ऐजेंडा ही सनातन धर्म की सेवा करना है, अगर लीलास्थलियों पर खतरा आऐ, तो चिंता होना स्वभाविक है ।
आश्चर्य तो तब होता है, जब तखत पर सोने वाले विरक्त योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री को घोटालेबाजों की प्रस्तुति तो ‘रैड कारपेट’ स्वागत करवा कर दिखा दी जाती हो, पर जमीन पर निष्काम ठोस कार्य करने वालों की सही और सार्थक बात सुनने से भी उन्हें बचाया जा रहा हो । तो स्वभाविक प्रश्न उठता है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, उन्हें जो ऐसी दुर्मति सलाह देते हैं या उन्हें, जो अपने मकड़जाल तोड़कर मगध के सम्राट अशोक की तरह सच्चाई जानने की उत्कंठा नहीं दिखाते?

Monday, June 19, 2017

गोवर्धन का विनाश रोकें मोदी जी


जनवरी 2006 में हैदराबाद के ‘प्रवासी दिवस’ कार्यक्रम में विदेशी प्रतिनिधियों के सामने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से मेरा रोचक सामना हुआ। मोदी जी गुजरात को भ्रष्टाचार मुक्त करने की बात कर रहे थे, तभी मेरे साथ बैठे मेरे मित्र चंदू पटेल, जो पहले भारतीय हैं, जिन्होंने हिल्टन होटल, लास ऐंजेलस, खरीदा था, खड़े हो गये और बोले, ‘‘नरेन्द्र भाई! आपसे विनीत भाई नारायण खुश नहीं हैं’’। मोदी जी एक क्षण को ठिठक गये। तभी चंदू भाई ने बात पूरी की, ‘‘क्योंकि उन्हें आपके राज्य में कोई घोटाला नहीं मिल रहा‘‘। इस पर मोदी जी और सारा हाल ठहाकों में गूंज गया। इससे पहले मेरा मोदी जी से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था।



मुझे आश्चर्य हुआ कि मोदी जी ने तुरंत मेरे बारे में गुजराती में बोलना शुरू कर दिया। वे बोले,‘‘ विनीत भाई नारायण भारत के बड़े पत्रकार हैं। उन्हें भ्रष्टाचार की जड़ में छाछ डालने में मजा आता है। मेरा उन्हें निमंत्रण है कि वे गुजरात आकर मेरे घोटाले खोजें’’।



इस पर मैं खड़ा हो गया और बोला,‘‘ मैं ही विनीत नारायण हूं, पर अब मैं घोटाले नहीं खोजता। अब तो मैं भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीला भूमि ब्रज को सजाने में जुटा हूं। हमारे ठाकुर जी ब्रज छोड़कर आपकी द्वारिका में जा बसे थे। इसलिए आप सब ‘जय श्रीकृष्ण’ बोलते हैं। पुराने जमाने में अनेक राजे-महाराजे ब्रज में आकर कुंड, घाट, वन बनवाते थे। आप आज गुजरात के राजा हो। कहावत है- दुनियां के गुरू सन्यासी, सन्यासियों के गुरू ब्रजवासी। मैं ब्रजवासी होने के नाते, आपको आर्शीवाद देता हूं कि आप भारत के प्रधानमंत्री बनें और ब्रज सजाने में हमारी मदद करें।’’



यह सुनकर नरेन्द्र भाई मोदी भावुक हो गये और बोले, ‘‘जब मैं दिल्ली भाजपा मुख्यालय में था, तब मेरे मन में गोवर्धन की परिक्रमा सजाने का प्रबल भाव आया था। इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता, मुझे गुजरात भेज दिया गया। विनीत भाई आप गुजरात आओ, हम आपके प्रयास में पूरा सहयोग करेंगे।’’



2014 में जब मैं नरेन्द्र भाई मोदी को ब्रज विकास की अपनी पावर पाइंट प्रस्तुति दे रहा था। तब उन्हें मैंने ब्रज फाउंडेशन की अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की टीम द्वारा गोवर्धन के सौन्दर्यीकरण के लिए तैयार की गई परिकल्पना की भी प्रस्तुति की थी। जिसे उन्होंने बहुत सराहा।



आजकल गोवर्धन के विकास के नाम पर जो कुछ प्रस्तावित किया जा रहा है, उसे पिछले दिनों अखबारों से जानकर हर कृष्णभक्त और गोवर्धन प्रेमी बहुत विचलित है। गोवर्धन का विकास अमृतसर की तर्ज पर नहीं किया जा सकता। क्योंकि स्वर्ण मंदिर पूरी तरह शहर के बीच स्थित एक शहरीकृत तीर्थस्थल है। जबकि गोवर्धन का अर्थ है-गायों का सवंर्धन करने वाला पर्वत। जहां गायें स्वछन्दता से चरती हों। गोवर्धन महात्म्य के सभी ग्रंथों में रसिक संतों ने गोवर्धन के नैसर्गिक सौन्दर्य का दिव्य वर्णन किया है। जिससे पता चलता है कि यहां सघन वृक्षावली, फलों से लदे वृक्ष, चारों ओर दूध जैसे लगने वाले जलप्रपात और स्वच्छ जल से भरे हुए सरोवर हुआ करते थे और वही यहां की शोभा थी। गोवर्धन की तलहटी की रज में लोट-पोट होकर संत, भजनानंदी और परिक्रमार्थी स्वयं को धन्य मानते थे। कलयुग के प्रभाव से गोवर्धन के इस स्वरूप का तेजी से विनाश किया गया। आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल ने यहां कुछ वृक्षारोपण करवाया था। उसके बाद किसी बड़े राजनेता ने गोवर्धन के महात्म्य को जानने और गिर्राज महाराज की यथोचित सेवा करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया।



2003 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रयास से मुझे गोवर्धन के दानघाटी मंदिर का मानद रिसीवर बनाया गया, तब से मैंने स्थानीय विशेषज्ञों व जिला प्रशासन के साथ नियमित विचार विर्मशकर गोवर्धन की समस्याओं को समझने का प्रयास किया। उसके बाद देश-विदेश में पढ़े और धर्म में गहरी आस्था रखने वाले आर्किटैक्टों की मदद से गोवर्धन के सौन्दर्यीकरण और यात्रियों के लिए आधुनिक आवश्यक्ताओं को ध्यान में रखते हुए, एक विस्तृत कार्ययोजना की परिकल्पना तैयार की। जिसे तैयार करने में 5 वर्ष लगे।



देखने वाला इसे देखता ही रहा जाता है। यह परियोजना 2008 में हमने उ0प्र0 पर्यटन विभाग को अधिकृत रूप से सौंपी। हमारी चिंता का विषय ये है कि गोवर्धन की मूल भावना को समझे बिना, गोवर्धन के विकास के जिस स्वरूप की बात आज की जा रही है, उससे गोवर्धन का स्वरूप बिगड़ेगा, बनेगा नहीं। प्रधानमंत्रीजी को इस पर ध्यान देना चाहिए और हैदराबाद में हमसे किया वायदा निभाना चाहिए। जिससे गिरिराज महाराज की ऐसी सेवा हो कि संत, भक्त और ब्रजवासी जय-जयकार करें, आहत न हों।



हमें आधुनिक व्यवस्थाओं से कोई परहेज नहीं हैं। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। इसलिए दोनो विचार धााराओं के बीच संघर्ष न हो और सौहार्दपूर्णं सामन्जस्य हो, तो बात बन सकती है। इस विषय में प्रधानमंत्री जी के प्रमुख सचिव से लेकर उ.प्र. के मुख्यमंत्री व उनके मंत्रीमंडलीय सहयोगियों तक हमने अपनी चिंता व्यक्त कर दी है। पर सही कदम तो तभी उठेंगे, जब प्रधानमंत्री जी थोड़ी रूचि लें और गोवर्धन का विनाश न होने दें।

Monday, June 12, 2017

एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा

जिस दिन एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा पड़ा, उसके अगले दिन एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान भाजपा के प्रवक्ता का दावा था कि सीबीआई स्वायत्त है। जो करती है, अपने विवेक से करती है। मैं भी उस पैनल पर था, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। सीबीआई कभी स्वायत्त नही रही या उसे रहने नहीं दिया गया। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन ले लिया था, तब से हर सरकार इसका इस्तेमाल करती आई है। 



रही बात एनडीटीवी के मालिक के यहां छापे की तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि डा. प्रणय रॉय एक अच्छे इंसान हैं। मेरा उनका 1986 से साथ है, जब वे दूरदर्शन पर ‘वल्र्ड दिस वीक’ एंकर करते थे और मैं ‘सच की परछाई’। तब देश में निजी चैनल नहीं थे। जैसा मैंने उस शो में बेबाकी से कहा कि 1989 में कालचक्र वीडियो मैग्जी़न के माध्यम से देश में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की स्थापना करने के बावजूद, आज मेरा टीवी चैनल नहीं है। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता करनी नहीं आती या चैनल खड़़ा करने का मौका नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि चैनल खड़ा करने के लिए बहुत धन चाहिए। जो बिना सम्पादकीय समझौते किये, संभव नहीं था। मैं अपनी पत्रकारिता की स्वतंत्रता खोकर चैनल मालिक नहीं बनना चाहता था। इसलिए ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। 



एनडीटीवी के कुछ एंकर बढ़-चढ़कर ये दावा कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमला हो रहा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि ‘गोधरा कांड’ के बाद, जैसी रिपोर्टिंग उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की, क्या वैसे ही तेवर से उन्होंने कभी कांग्रेस के खिलाफ भी अभियान चलाया ? जब मैंने हवाला कांड में लगभग हर बड़े दल के अनेकों बड़े नेताओं को चार्जशीट करवाया, तब वे सब चैनलों पर जाकर अपनी सफाई में तमाम झूठे तर्क और स्पष्टीकरण देने लगे। उस समय मैंने उन सब चैनलों के मालिकों और एंकरों को इन मंत्रियों और नेताओं से कुछ तथ्यात्मक प्रश्न पूछने को कहा तो किसी ने नहीं पूछे। क्योंकि वे सब इन राजनेताओं को निकल भागने का रास्ता दे रहे थे। ऐसा करने वालों में एनडीटीवी भी शामिल था। ये कैसी स्वतंत्र पत्रकारिता है? जब आप किसी खास राजनैतिक दल के पक्ष में खड़े होंगे, उसके नेताओं के घोटालों को छिपायेंगे या लोकलाज के डर से उन्हें दिखायेंगे तो पर दबाकर दिखायेंगे। ऐसे में जाहिरन वो दल अगर सत्ता में हैं, तो आपको और आपके चैनल को हर तरह से मदद देकर मालामाल कर देगा। पर जिसके विरूद्ध आप इकतरफा अभियान चलायेंगे, वो भी जब सत्ता में आयेगा, तो बदला लेने से चूकेगा नहीं। तब इसे आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला नहीं कह सकते।



सोचने वाली बात ये है कि अगर कोई भी सरकार अपनी पर उतर आये और ये ठान ले कि उसे मीडियाकर्मियों के भ्रष्टाचार को उजागर करना है, तो क्या ये उसके लिए कोई मुश्किल काम होगा? क्योंकि काफी पत्रकारों की आर्थिक हैसियत पिछले दो दशकों में जिस अनुपात में बढ़ी है, वैसा केवल मेहनत के पैसे से होना संभव ही न था। जाहिर है कि बहुत कुछ ऐसा किया गया, जो अपराध या अनैतिकता की श्रेणी में आता है। पर उनके स्कूल के साथियों और गली-मौहल्ले के खिलाड़ी मित्रों को खूब पता होगा कि पत्रकार बनने से पहले उनकी माली हालत क्या थी और इतनी अकूत दौलत उनके पास कब से आई। ऐसे में अगर कभी कानून का फंदा उन्हें पकड़ ले तो वे इसेप्रेस की आजादी पर हमला’ कहकर शोर मचायेंगे। पर क्या इसे ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ माना जा सकता है?



अगर हमारी पत्रकार बिरादरी इस बात का हिसाब जोड़े कि उसने नेताओं, अफसरों या व्यवसायिक घरानों की कितनी शराब पी, कितनी दावतें उड़ाई, कितने मुर्गे शहीद किये, उनसे कितने मंहगे उपहार लिए, तो इसका भी हिसाब चैकाने वाला होगा। प्रश्न है कि हमें उन लोगों का आतिथ्य स्वीकार ही क्यों करना चाहिए, जिनके आचरण पर निगेबानी करना हमारा धर्म है। मैं पत्रकारिता को कभी एक व्यवसायिक पेशा नहीं मानता, बल्कि समाज को जगाने का और उसके हक के लिए लड़ने का हथियार मानता रहा हूं। प्रलोभनों को स्वीकार कर हम अपनी पत्रकारिता से स्वयं ही समझौता कर लेते हैं। फिर हम प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला कहकर शोर क्यों मचाते हैं



सत्ता के विरूद्ध अगर कोई संघर्ष कर रहा हो, तो उसे अपने दामन को साफ रखना होगा। तभी हमारी लड़ाई में नैतिक बल आयेगा। अन्यथा जहां हमारी नस कमजोर होगी, सत्ता उसे दबा देगी। पर ये बातें आज के दौर में खुलकर करना आत्मघाती होता है। मध्य युग के संत अब्दुल रहीम खानखाना कह गये हैं, ‘अब रहीम मुस्किल परी, बिगरे दोऊ काम। सांचे ते तौ जग नहीं, झूंठे मिले न राम’।। जो सच बोलूंगा, तो दुनिया मुझसे रूठेगी और झूंठ बोलूंगा तो भगवान रूठेंगे। फैसला मुझे करना है कि दुनिया को अपनाऊं या भगवान को। लोकतंत्र में प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला एक निंदनीय कृत्य है। पर उसे प्रेस का हमला तभी माना जाना चाहिए जबकि हमले का शिकार मीडिया घराना वास्तव में निष्पक्ष सम्पादकीय नीति अपनाता हो और उसकी सफलता के पीछे कोई बड़ा अनैतिक कृत्य न छिपा हो।