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Monday, March 3, 2025

कब सुधेरेंगी स्वस्थ सेवाएँ?


आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं। मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचहत्तर वर्ष बाद भी हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब दिखाई देती है। विभिन्न दलों की सरकारों के शासन के बावजूद नए-नए नारों से, नए-नए वायदों से, नई-नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जाता रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए।
 



नियोजित विकास के तहत देश के कई प्रदेशों के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर देश भर में हज़ारों प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथोलॉजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हुआ। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया गया, वह जमीन पर भी हो रहा है? 



देश के किसी भी गांव में जाकर असलियत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद देश भर में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम कई वर्षों से ठप्प पड़ा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा दशकों से बेकार पड़ी है।



इस तरह ऐसे सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह देश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है।


साल 2000 में विश्व बैंक द्वारा ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। देश में  कई उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। ऐसी  योजनाओं के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण लेने गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।


इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन देश के कई प्रदेशों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ इनमें से कई प्रदेशों को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। 


फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों टी.वी. व अन्य उपकरण भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले जहां थोड़े बहुत क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र थे उनके स्थान पर दुगने केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंच वालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।


बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। तमाम बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएँ केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएँ सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। 

Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।