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Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।