कोयला खदानों का आवंटन जिस तरह यूपीए सरकार ने किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध बताया है। जब आवंटन अवैध हैं, तो उन्हें निरस्त क्यों नहीं किया जाता? शायद, अदालत ऐसा कर देती पर उसके सम्मुख राजग सरकार की ओर से कुछ ऐसे तर्क रखे गए कि अदालत ने इस मामले में आगे सुनवाई की और कुल आवंटनों को दो श्रेणी में बांट दिया। जिन खदानों पर काम शुरू नहीं हुआ है, उन्हें तो रद्द करने के आदेश दे दिए। पर जिन पर काम शुरू हो गया है, उन पर अदालत को अभी फैसला देना है। इस तरह कुल 46 खदानों को रद्द न करने की मांग मौजूदा राजग सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन खदानों में काम चालू हो चुका है और अगर इनके आवंटन रद्द किए गए, तो देश में ऊर्जा का भारी संकट पैदा हो जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन 46 में से मात्र 3 खदानें ही ऐसी हैं, जिनको ऊर्जा उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हैं। इन तीनों खदानों के मामले में भी हकीकत यह है कि आवश्यकता से कई गुना ज्यादा कोयला खोदने की अनुमति इन्हें दी जा चुकी है। निष्कर्ष यह है कि ऊर्जा उत्पादन के लिए आवश्यक कोयले की आपूर्ति में कहीं कोई कमी नहीं आएगी। उसके अतिरिक्त भंडार भरे पड़े हैं।
असली सवाल इस बात का है कि जिन बाकी खदानों को बचाने की कोशिश की जा रही है, उनका उपयोग लोहे और इस्पात से जुड़े उद्योगों के लिए ही हो रहा है। इस मामले में भी चिंता की बात यह है कि जिन घरानों को ये आवंटन किए गए हैं, वे उनकी आवश्यकता से कई गुना ज्यादा हैं। जैसे जायसवाल नीको की वार्षिक आवश्यकता मात्र 20 लाख टन है। जबकि उसे 1250 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह प्रकाश इंडट्रीज की सलाना आवश्यकता मात्र 10 लाख टन है। पर इसे 340 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह इलेक्ट्रो स्टील कास्टिंग की आवश्यकता मात्र 5 लाख टन सालाना है। जबकि इसे 2310 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। जाहिर है कि इतना अतिरिक्त कोयला या तो ये खुले बाजार में बेचेंगे या उसका लाइसेंस बेचकर भारी मुनाफा कमाएंगे। यह तथ्य सर्वविदित है कि खदानों का काम कभी ईमानदारी से और आवंटन की अनुमति के दायरे के भीतर रहकर नहीं किया जाता। इस बात के अनेकों प्रमाण हैं कि जहां एक ट्रक कोयला खोदने की अनुमति होती है, वहां खदान विभाग, वन विभाग, स्थानीय पुलिस व प्रशासन को रिश्वत देकर सौ गुनी खुदाई कर ली जाती है। फिर वो चाहें कोयले की खदान हो, लोहे की खदान हो या पत्थर की खदान हो।
असली सवाल इस बात का है कि जिन बाकी खदानों को बचाने की कोशिश की जा रही है, उनका उपयोग लोहे और इस्पात से जुड़े उद्योगों के लिए ही हो रहा है। इस मामले में भी चिंता की बात यह है कि जिन घरानों को ये आवंटन किए गए हैं, वे उनकी आवश्यकता से कई गुना ज्यादा हैं। जैसे जायसवाल नीको की वार्षिक आवश्यकता मात्र 20 लाख टन है। जबकि उसे 1250 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह प्रकाश इंडट्रीज की सलाना आवश्यकता मात्र 10 लाख टन है। पर इसे 340 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह इलेक्ट्रो स्टील कास्टिंग की आवश्यकता मात्र 5 लाख टन सालाना है। जबकि इसे 2310 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। जाहिर है कि इतना अतिरिक्त कोयला या तो ये खुले बाजार में बेचेंगे या उसका लाइसेंस बेचकर भारी मुनाफा कमाएंगे। यह तथ्य सर्वविदित है कि खदानों का काम कभी ईमानदारी से और आवंटन की अनुमति के दायरे के भीतर रहकर नहीं किया जाता। इस बात के अनेकों प्रमाण हैं कि जहां एक ट्रक कोयला खोदने की अनुमति होती है, वहां खदान विभाग, वन विभाग, स्थानीय पुलिस व प्रशासन को रिश्वत देकर सौ गुनी खुदाई कर ली जाती है। फिर वो चाहें कोयले की खदान हो, लोहे की खदान हो या पत्थर की खदान हो।
जहां तक राज्य सरकारों को आवंटित कोयला खदानों के निरस्त न किए जाने की मांग मौजूदा सरकार की ओर से की गई है, तो वह भी देश के हित में नहीं है।
राज्य सरकारों को ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला ब्लॉक के आवंटन प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर पत्रकार एम. राजशेखर की खोज से यह पता चलता है कि राज्य सरकारों ने निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ बेतुके समझौते करके इस सुविधा का पूरा लाभ निजी क्षेत्र की झोली में डाल दिया है। उदाहरण के तौर पर दामोदर घाटी निगम ने अडानी समूह की कंपनी के साथ समझौता कर लिया है कि वे ही खुदाई का काम करेंगे। ये समझौते साझे उपक्रम के तौर पर किए गए हैं। जैसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम ने अडानी समूह के साथ समझौता किया है। जिसमें 74 फीसदी कोयला या उसका मुनाफा अडानी समूह का होगा और मात्र 26 फीसदी मुनाफा या कोयला राजस्थान सरकार का। इसी तरह अन्य राज्यों ने भी समझौते कर रखे हैं। कुल मिलाकर निजी क्षेत्र को कोयला खदानें लूटने के लिए राज्य सरकारों की मार्फत विकल्प दे दिए गए हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को आवंटित खदानों को निरस्त न करने का कोई औचित्य नहीं है। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि सरकार में पारदर्शिता लाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे के बावजूद सरकार के कुछ लोग इस तरह की मांग सर्वोच्च न्यायालय में रखकर मोदी सरकार की छवि खराब कर रहे हैं। राष्ट्रहित में तो यही होगा कि सभी खदानों के आवंटन रद्द किए जाएं और नए सिरे से नीलामी कर आवंटन किए जाएं। ऐसा करने से सरकार की छवि पर कोई दाग नहीं लगेगा और कोयले की खदानों में हाथ काले कर चुके मुनाफाखोरों, दलालों और रिश्वतखोरों को अपने किए की सजा भुगतनी पड़ेगी।