गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने
यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड इण्डिया के एक समारोह में हिंदी में भाषण देकर ऐसा
क्या गुनाह कर दिया कि अंग्रेजी मीडिया उन पर टूट पड़ा है ? अंग्रेजी छोड़ हिंदी
अखबार तक गृह मंत्री के समर्थन में आवाज़ बुलंद नहीं कर रहे | दरअसल राजनाथ जी इस
मौके पर दो सन्देश दे रहे थे | एक तो यह कि दुनिया की चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने
वाली भाषा हिंदी को दुनिया में सम्मान देने का समय आ गया है | दूसरा वे अपने बहुसंख्यक
मतदाताओं को ध्यान में रख कर बोल रहे थे | वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ही देश
की अस्मिता के सवाल को उठाया जाता है | मौजूदा सरकार और उसके प्रधानमन्त्री इस
मुद्दे पर काफी गंभीर हैं और संजीदगी से इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं | इसलिए ऐसे और
भी मौके अभी आयेंगे |
कुछ अखबारों की यह आलोचना
सही है कि ऐसे मौकों पर हिंदी भाषण का अंग्रेजी अनुवाद पहले से तैयार रखा जा सकता
है | पर अंग्रेजी ही क्यों ? जब अंतर्राष्ट्रीय मंच की बात है तो रूसी, चीनी,
जापानी, स्पैनिश क्यों नहीं ? दूसरी बात यह कि कई बार आत्मविश्वास वाले नेता अपने
दिल की बात मौके पर स्वतंत्र रूप से रखना चाहते हैं | ऐसे में कोई पूर्वनिर्धारित
भाषण की सीमाओं में बंधे रहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है |
पिछले कितने दशकों से
करूणानिधि या जयललिता हमेशा सदन में, मीडिया के सामने और विशिष्ट अतिथियों के साथ
वार्ता में केवल तमिल भाषा का ही प्रयोग करते हैं | तो इससे किसी को कोई परेशानी
नहीं होती | ऐसा ही अन्य राज्यों के नेता भी करते हैं | पर उससे हिंदी भाषी आहत
महसूस नहीं करते | बल्कि उनके मातृभाषा प्रेम की सराहना करते हैं| दरअसल दो फीसद
अंग्रेजी बोलने वाले लोग पिछले डेढ़ सौ वर्षों से अठानवे फीसद लोगों का शोषण करते आ
रहे हैं | क्षेत्रीय भाषाओँ को दासी का दर्जा दिया गया है और अंग्रेजी को मालकिन
का | यह स्थिति अब बदलनी चाहिए | बीस बरस पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम
सिंह यादव ने भी हिंदी के समर्थन में मजबूत मोर्चा खोला था | उनकी भी इसी तरह
आलोचना हुई और मजाक उड़ा | पर वे विचलित नहीं हुए और अपने अभियान में सफल रहे|
तीस वर्ष पहले
बहुराष्ट्रीय कम्पनीयां अपने विज्ञापन अंग्रेजी में ही छापती थी, चाहे प्रकाशन
किसी भी क्षेत्रीय भाषा का हो | जब उन्हें लगा कि उपभोक्ता का विशाल बाजार
अंग्रेजी नहीं क्षेत्रीय भाषा समझता है तो उन्होंने अपने विज्ञापन इन भाषाओँ में
छापने शुरू कर दिए और आम आदमी तक पहुँच गए | यहाँ तक की आधुनिक तकनिकी की सौगात
गूगल ने भी क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को स्वीकार कर अपने डेटा में इन भाषाओं के
सब विकल्प उपलब्ध करा रखे हैं |
दूसरी तरफ हमारे हिंदी अखबार
हैं, जिन्होंने अकारण अपनी भाषा को दोगला बना लिया है | अखबार हिंदी में छपता है
और उसका नाम अंग्रेजी में | ख़बरों में भी अंग्रेजी के शब्दों की अकारण भरमार रहती
है | यह अखबार गर्व से कहते हैं कि वे ‘हिंगलिश’ के अखबार हैं | यह तर्क बहुत
बेहूदा है | इससे पूरी पीढ़ी की भाषा बिगड़ रही है | हम सब भी तो रोज़मर्रा की बोलचाल
में उदारता से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं | जिससे हम कोई भी भाषा ठीक और
शुद्ध नहीं बोल पाते - ना हिंदी, ना अंग्रेजी | दूसरी तरफ रूस व चीन जैसे वे देश
हैं जहाँ अगर आप उनकी भाषा में ना बोलें तो न तो आपको पीनी को पानी मिल पायेगा और
ना ही शौचालय का मार्ग कोई बताएगा | आप लघुशंका के वेग से उछलते रह जाएंगे | क्योंकि
अंग्रेजी में पूछे गए आपके सवालों का जवाब वे अपनी भाषा में देते रहेंगे और हम एक
दूसरे की बात नहीं समझ पायेंगे | जब विदेशों में हम अंग्रेजी से काम नहीं चला पाते
तो अपने देश में उसकी बैसाखियों का सहारा क्यों लेते हैं ?
प्राथमिक शिक्षा हो या
विश्वविद्यालयी शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा हो या कचहरी की कार्यवाही या फिर सरकारी
काम काज, अंग्रेजी आज आम भारतीय को उसका हक मिलने के रास्ते में रोड़ा बन कर बैठी है
| अपने हक के लिए तीन दशकों तक मुकदमा लड़ने के बाद जब वादी और प्रतिवादी सर्वोच्च
न्यायालय पहुँचते हैं तो उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनकी जिंदगी का फैसला करेने
वाले मुकदमें में क्या बहस हो रही है ? इसी तरह गांव की हकीकत से जुड़ा एक मेधावी
नौजवान प्रशासनिक अधिकारी बनकर अपने लोगों का कितना काम कर सकता था ? पर अंग्रेजी
में हाथ तंग होने के कारण वह मौका चूक जाता है |
भारत की
नई सरकार को अगर देश की राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका वांछित स्थान दिलवाना है तो
भविष्य में अनुवाद आदि की व्यवस्थाओं को और व्यापक बनाना होगा | जिससे ऐसे विवाद
फिर खड़े ना हों | फ़िलहाल हमें राजनाथ सिंह जी को बधाई देनी चाहिए और उनका उत्साह
बढ़ाना चाहिए ताकि राष्ट्रभाषा को उसका दीर्घ प्रतीक्षित स्थान मिल सके |
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