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Friday, August 21, 2020

प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का मामला, मेरी नज़र में : विनीत नारायण

सर्वोच्च अदालत में पिछले हफ़्ते जो कुछ हुआ उस पर मीडिया ने मेरी प्रतिक्रिया चाही है। मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में यह जानी हुई बात है कि 1997 से 2000 तक मैंने उस समय के कुछ मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी। अवमानना के मामले में मुझे भी लपेटा गया था पर फिर छोड़ दिया गया। बाद में मैंने हिन्दी में एक किताब लिखी थी, ‘
अदालत की अवमानना कानून का दुरुयपोग’ (पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)। इस मामले में मेरी राय यें है; 

1. न्यायपालिका अगर अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर नाचने लगे तो देश का बुरा हाल हो जाएगा। 135 करोड़ लोग बर्बाद हो जाएंगे। लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ ढह जाएगा। बड़े पैमाने पर अन्याय होगा, कमजोरों का शोषण किया जाएगा और देश को लूटा जाएगा। हम तानाशाही और फिर उसके बाद की अराजकता, हिंसा तथा देश बड़े पैमाने पर बर्बादी की ओर बढ़ेंगे। जैसा दुनिया भर के इतिहास में हुआ है। किसी भी तानाशाह ने कभी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ी बल्कि सबका हिंसक अंत हुआ है। दुर्भाग्य से हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका के कुछ सदस्य भी गलत कारणों से खबरों में रहे हैं।    


2. सवाल है कि न्यायपालिका के सदस्यों को गलत काम या भ्रष्टाचार क्यों करना चाहिए अथवा सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक इच्छा के आगे समर्पण क्यों करना चाहिए? खासकर तब जब इस देश के लोगों ने उन्हें एक सम्मानित जीवन जीने के लिए आवश्यक सब कुछ दिया है। क्या वे यह भूल गए हैं कि बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों  के हाथों कितनी यातना झेली है और अपना जीवन बलिदान किया है। क्या वे अपने परिवारों के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित नहीं कर सकते थे  ? पर इस गरीब देश के लाखों सामान्य लोगों का  अच्छा जीवन सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया ।


3. इसके बावजूद अगर न्यायपालिका के कुछ सदस्य अनैतिक कार्रवाई के दोषी पाए जाते हैं तो ‘उन्हें नौकरी से निकाल देना चाहिए’। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसपी भरुचा ने कोवलम में सन 2002 में एक सेमिनार को संबोधित करते हुए ये कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मौजूदा कानून नाकाफ़ी हैं’।


4. दुर्भाग्य से हमारे सांसद इस कानून को बदलने के इच्छुक नहीं है और भ्रष्ट जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का नैतिक साहस भी नहीं दिखाते हैं। क्योंकि उनमें से अनेकों का अपना चाल चलन भी दागदार है। इसलिए देश एक मुश्किल स्थिति में फंसा हुआ है।


5. इस विषम स्थिति को मैंने भी झेला था। 1997 में जब मैंने यह खुलासा किया कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ‘जैन हवाला कांड’ के आरोपी जैन बंधुओं से मिले थे, तो देश में हंगामा मच गया था। भारत के किसी भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इससे पहले किसी ने ऐसा खुलासा कभी नहीं किया था। इस खुलासे से घबराए न्यायमूर्ति वर्मा ने खुली अदालत में वो सब स्वीकार कर लिया जो आरोप मैंने उन्हें संबोधित अपने खुले पत्र में (12 जुलाई 1997) लगाए थे। उन्होंने माना कि एक जेंटलमैन लगातार उनपर और उनके साथी न्यायमूर्ति एस.सी. सेन पर हवाला केस को रफ़ा दफ़ा करने के लिए लगातार दबाव डाल रहा है।  उनकी इस स्वीकारोक्ति पर अदालतों, संसद व मीडिया में हंगामा मच गया। तथाकथित जेंटलमैन का नाम बताने की देशव्यापी मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने ना तो उसकी पहचान बताई ,ना ही उसे अदालत की अवमानना की सजा दी। जबकि इस व्यक्ति ने सर्वोच्च अदालत की अब तक की सबसे बड़ी अवमानना की थी। उन्होंने क्यों ऐसा किया, क्या कोई जवाब दे सकता है ?


6.  दुर्भाग्य से मेरे सह-याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और उनके पिता श्री शांति भूषण ने रहस्यमयी कारणों से न्यायमूर्ति वर्मा का बचाव किया और ये शोर मचाने के लिए उल्टे मुझ पर हमला किया। तब मैं बहुत आहत हुआ था और ठगा हुआ महसूस किया। पर मैंने और शोर मचाया तब एस.सी.बी.ए. (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने मुझे अवमानना के लिए सुप्रीम कोर्ट में घसीट लिया। आश्चर्यजनक रूप से तीन जजों की पीठ ने मेरे खिलाफ मामला स्वीकार करने से मना कर दिया और कहा कि, हम सूर्य की तरह है, अगर कोई सूर्य पर मिट्टी फेंके तो वह गंदा नहीं होता है। अगर हम विनीत नारायण को नोटिस जारी करते हैं तो वे अपनी पूरी ताकत से यहाँ अदालत में चिल्लाएंगे। हम उन्हें यहाँ मंच देना नहीं चाहते हैं।  


7. अपनी इस बात को साबित करने के लिए कि ‘जैन हवाला मामले’ में आरोपी राजनेताओं को इसलिए नहीं छोड़ा गया कि सीबीआई के पास उनके खिलाफ सबूत नहीं थे। बल्कि इसलिए छोड़ा गया कि ये राजनेता न्यायपालिका को नियंत्रित करने में कामयाब रहे थे। मैंने भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद के छह भूमि घोटालों का अपने अख़बार ‘कालचक्र’ में (1999-2000) पर्दाफाश किया। 


8. इस बार तो देश में और ज्यादा बड़ा हंगामा खड़ा हुआ। जिससे तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी की नौकरी चली गई। श्री अरुण जेटली नए कानून मंत्री बने जो डॉ. आनंद के करीबी थे। इसलिए उन्होंने डॉ. आनंद को एक सुरक्षा कवच मुहैया कराया और मेरे खिलाफ अवमानना का मामला दायर हुआ। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च अदालत में नहीं, बल्कि जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में।


9. इस लंबे अकेले अभियान में फिर प्रशांत भूषण ने डॉ. आनंद का पक्ष लिया और इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में यह कह कर मुझ पर हमला किया कि मैं डॉ. आनंद के खिलाफ झूठे आरोप लगा रहा हूँ, बगैर किसी सबूत के। यह पूरी तरह चौंकाने वाला बयान था। क्योंकि मैं अपने अखबार, ‘कालचक्र’ में सारे दस्तावेज प्रकाशित कर चुका था। अंग्रेजी की पाक्षिक पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि मेरे पास सारे सबूत थे। हालांकि, जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने मुझे दोषी माना, पर सजा नहीं दी। मैंने इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी।


10. अब जाने कि प्रशांत भूषण के खिलाफ मौजूदा मामले पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है? पिछले इन अप्रिय अनुभवों के बावजूद आज मैं प्रशांत भूषण के साथ खड़ा हूं। क्योंकि मेरी राय में उनकी टिप्पणियां अदालत की अवमानना नहीं हैं। जैसा ऊपर कहा गया है कि अदालत की अवमानना का मामला सही अर्थों में मौजूदा कानून के तहत होना चाहिए। यानी केवल वही व्यक्ति इस क़ानून के तहत अपराधी माना जाए जो न्यायिक प्रक्रिया में व्यवधान डाले या उसे अवैध रूप से प्रभावित करने की कोशिश करे (जैसा जैन हवाला कांड में हुआ)।  


11. किसी भी जज के भ्रष्ट आचरण से संबंधित किसी भी खुलासे को, अगर वह सबूत के साथ हो, या अदालत का फ़ैसला जिस पर विश्लेषणात्मक टिप्पणियां की जाएं उसे ‘अदालत की अवमानना’ नहीं मानना चाहिए। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में हरेक स्तंभ बाकी के तीन के प्रति उत्तरदायी है। जज कोई स्वर्ग से उतरे तमाम दैविक विशेषताओं वाले देवदूत नहीं हैं। उनमें भी दूसरों की तरह कमजोरियां हो सकती हैं। इसलिए वे इतना संवेदनशील क्यों होते हैं? वह भी तब जब उनमें से कुछ रिटायरमेंट के बाद शासकों से उपकृत होना स्वीकार करते हैं। ऐसा करने वाले निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्रता और साख खोएंगे और देश इसकी भारी कीमत चुकाएगा। इसलिए, वर्तमान मामले में मेरा दृढ़ मत है कि प्रशांत दोषी नहीं हैं। 


12. अंत में मैं कानून के क्षेत्र से जुड़े लोगों का ध्यान एक अप्रिय स्थिति की ओर खींचना चाहता हूं जिससे मैं चुपचाप पिछले तीन वर्षों से जूझ रहा हूं। हवाला कांड व दो मुख्य न्यायाधीशों के घोटालों का खुलासा करने के बाद, हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार से निराश होकर, सन 2002 में मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जी की शरण ली।  


13. उनके निर्देश पर मैंने खोजी पत्रकारिता का अपना पेशा छोड़ दिया, जो उस समय शीर्ष पर था। 46 साल की उम्र से मैंने पिछले 18 साल ब्रज क्षेत्र की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को बचाने और सजाने में लगाए हैं। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में आता है। मैं ये काम ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के जरिए करता हूं।


14. मैं पूरी विनम्रता से मैं कहना चाहता हूं कि गत दो दशकों में, मथुरा में (ब्रज) हम लोगों ने जो जीर्णोद्धार किए हैं उन्हें  हर क्षेत्र के लोगों से प्रशंसा मिली है। इनमें संत, ब्रजवासी, तीर्थयात्री, मीडिया, दानदाता उद्योगपति, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भारत सरकार के सचिव, नीति आयोग के सीईओ, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, आदि सब शामिल हैं और सबने कहा है कि भारत में किसी एनजीओ ने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के जीर्णोद्धार व संरक्षण का ऐसा काम देश में कहीं नहीं किया। हमने यह सब बिना सरकारी अनुदान के किया है। 


15.  2017 में योगी सरकार के आते ही पवित्र गोवर्धन पर्वत को बर्बाद करने की एक साजिशाना ‘मेगा योजना’ के खिलाफ हमने जिन आपराधिक लोगों का खुलासा किया था, उनके निहित स्वार्थों के कारण ही आज हमें एनजीटी द्वारा परेशान किया जा रहा है। इसके सदस्य न्यायमूर्ति रघुवेन्द्र राठौड़ (अब रिटायर) ने हम पर कई फर्जी और अपुष्ट आरोप लगाए हैं। खुली अदालत में उन्होंने हमें अपमानित किया। श्री अजय पिरामल तथा श्री राहुल बजाज जैसे उद्यमियों द्वारा दिए गए सी.एस.आर. के पैसों से किए गए करोड़ों रुपय के सौंदरीयकरण के काम को नष्ट करने का मौखिक आदेश दिया। श्री राठौड़ ने इन दानदाताओं के योगदान बताने वाले शिलापट्टों को भी पोत देने का आदेश दिया। यह सब कुछ ठीक ऐसा ही है, जो मंदिरों को नष्ट करने वाला औरंजेब जैसा कोई शासक ही कर सकता है।


16. इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की बार के सदस्यों और माननीय जजों को इस साल के शुरू में बांटे गए टैबलॉयड जैसे एक सूचना संकलन प्रपत्र की याद होगी। गोवर्धन के पर्यावरण कार्यकर्ता मुकेश शर्मा ने इसे बांटा था। इस पर्चे में लिखा हरेक शब्द सबूतों से समर्थित है। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे न्यायमूर्ति राठौड़ ने अपने कुछ लोगों का पक्ष लेने और दूसरों को बर्बाद करने के लिए राजस्व रिकार्ड में हेराफेरी की थी। वे अब रिटायर हो चुके हैं। पर हमें अपनी विरासत की रक्षा करने से रोक दिया गया है। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने हमें 1 जून 2018 को स्टे दे दिया। इस तरह न्यायमूर्ति राठौड़ के आदेश से सिर्फ दो साइटें (श्री कृष्ण लीलास्थलियाँ) ही नष्ट हुईं (जिन्हें हमने गोवर्धन की परिक्रमा पर करोड़ों रुपए खर्च करके बहुत सुंदर बनाया था। इनके नाम हैं संकर्षण कुंड और रुद्र कुंड)। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण जीर्णोद्धार की गयीं बाकी लीलास्थलीयों को फ़िलहाल बचाया जा सका।


17. पर अभी भी हमारे ऊपर तलवार टंगी है और हम नहीं जानते कि इस असामान्य स्थिति से कैसे निपटा जाए ? जब हमारे मामले की सुनवाई करने वाले एन.जी.टी. के सदस्य हमारी केस फ़ाइल में मौजूद सभी तथ्यों को नजरअंदाज कर सिर्फ याचिकाकर्ता से निर्देशित होते हैं, जो स्वयं उसी घोटाले में शामिल थे जिनके ख़िलाफ़ हमने 2017 में शोर मचाया था, ताकि ब्रज की विरासत और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।


इन परिस्थितियों में एक जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार से हमेशा जूझने वाले खोजी पत्रकार और हिन्दू विरासत के संरक्षक के रूप में मेरे पास क्या विकल्प हो सकता है, क्या आप कुछ बताएँगे ?


निवेदक

विनीत नारायण

Monday, March 14, 2016

अदालतें निर्णय लटकाती क्यों हैं ?

श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव होना था, हो गया। प्रधानमंत्री ने भी आकर आयोजकों की पीठ थपथपाई। सुना है कि दुनियाभर के कलाकारों ने सामूहिक प्रस्तुति देकर इंद्रधनुषीय छटा बिखेरी। पर, इसको लेकर जो विवाद हुआ, उसे टाला जा सकता था। अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को आपत्ति थी, तो जब इस कार्यक्रम के विरोध में जनहित याचिका दायर हुई थी, तभी निर्णय दे देना था। इतने महीने तक इसे लटकाया क्यों गया ? जब आयोजकों का करोड़ों रूपया इसके आयोजन में लग चुका, तब उनकी गर्दन पर तलवार लटकाकर, जो तनाव पैदा किया गया, उससे किसका लाभ हुआ? क्या पर्यावरण संबंधी चिंता का निराकरण हो गया ? क्या श्री श्री रविशंकर को आगे से ऐसा प्रयास न करने का सबक मिल गया ? क्या इससे यह तय हो गया कि भविष्य में अब कभी इस तरह के आयोजन पर्यावरण की उपेक्षा करके कहीं नहीं होंगे ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में न्यायपालिका का रवैया अनेक मुद्दों पर विवाद से परे नहीं रहता। जिसका बहुत गलत संदेश लोगों के बीच जाता है। दोनों पक्षों की सुनवाई हो जाने के बाद भी विभिन्न अदालतों में अक्सर सुना जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने फैसला सुरक्षित कर दिया। सांप्रदायिक विवाद या ऐसे किसी मुद्दे को लेकर, जहां समाज में दंगा, उपद्रव या हिंसा होने की संभावना हो, फैसले को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है, जब तक कि स्थिति सामान्य न हो जाए। पर ज्यादातर मामले जिनमें फैसले लटकाए जाते हैं, उनमें ऐसी कोई स्थिति नहीं होती। मसलन, बड़े औद्योगिक घरानों के विरूद्ध कर वसूली के मामले में सुनवाई होने के बाद फैसला तुरंत क्यों नहीं दिया जाता ?
भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत की अदालतों में नीचे से ऊपर तक कुछ न कुछ भ्रष्टाचार व्याप्त है और मौजूदा कानून भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षम है। केवल एक रास्ता है कि संसद में महाभियोग चलाकर ही ऐसे न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। अक्सर सुनने में आता है कि विभिन्न अदालतों में भ्रष्ट न्यायाधीशों के दलाल काफी खुलेआम सौदे करते पाए जाते हैं। यहां तक कि अदालत के पुस्तकालयों के चपरासी तक ये बता देते हैं कि किस न्यायाधीश से फैसला लेने के लिए कौन-सा वकील करना फायदे में रहेगा। ऐसा सब न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता। पर जिन पर यह आरोप लागू होता है, उनका आजतक क्या बिगड़ा है ? आजादी के बाद भ्रष्टाचार के आरोप में कितने न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया गया है ? उत्तर होगा नगण्य। ऐसे में फैसले लटकाने की प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई निहित स्वार्थ हो, तो क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है ? इस तरह के न्यायाधीश अक्सर ऐसे फैसले जिनमें एक पक्ष को भारी आर्थिक लाभ होने वाला हो, अपने सेवाकाल की समाप्ति के अंतिम दो-तीन सप्ताहों में ही करते हैं। यह प्रवृत्ति अपने आपमें संशय पैदा करने वाली होती है।
श्री श्री रविशंकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। विभिन्न देशों व धर्मों की सरकारें उनका स्वागत अभिनंदन करती रही हैं। उनके शिष्यों का भी विस्तार पूरी दुनिया में है। जब ऐसे व्यक्ति को भी अदालत के कारण आखिरी समय तक सांसत में जान डालकर रहना पड़ा हो, तो इस देश के आमआदमी की क्या हालत होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विपक्ष का आरोप है कि श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन के लिए सरकार ने अपनी ताकत का दुरूपयोग किया। फौज, का इस्तेमाल कार्यक्रम की तैयारी के लिए करवाया। जनता के दुख-दर्दों पर ध्यान न देकर सरकार फिजूल खर्ची करवा रही है।
तो विपक्ष से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में जम्मू कश्मीर के ऊधमपुर जिले में पटनीटाॅप के पहाड़ी क्षेत्र पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग के नाम पर कैसे विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था ? जबकि इन सारे भवनों का निर्माण फौज राज्य और वन विभाग के सभी कानूनों का उल्लंघन करके किया गया था। भारी सैन्यबल से सज्जित इस क्षेत्र में धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने हवाई अड्डे से लेकर पांच सितारा होटल और प्रतिबंधित वन क्षेत्र में लंबी-लंबी सड़कें तक कैसे बनवाईं, किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने इस अवैध निर्माण का आतिथ्य लेने में क्यों संकोच नहीं किया ? इसी तरह राजीव गांधी के समय में उत्सवों की एक बड़ी श्रृंखला देश-विदेशों में चली, जिसमें उनके मित्र राजीव सेठी जैसे लोगों ने खूब चांदी काटी। तब किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि इन उत्सवों से आमआदमी को क्या लाभ मिल रहा है ? दरअसल हर दौर में ऐसा होता आया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसमें नया क्या है ?
इसलिए किसी ऐसे विवाद को लेकर चाहे अदालत की भूमिका हो या विपक्ष की, विरोध अगर सैद्धांतिक होगा और व्यापक जनहित में होगा, तो उसका हर कोई सम्मान करेगा। पर अगर विरोध के पीछे राजनैतिक या कोई अन्य स्वार्थ छिपे हों, तो वह केवल अखबार की सुर्खियों तक सीमित रहेगा, उससे कोई स्थाई परिवर्तन या सुधार कभी नहीं होगा।

Monday, March 14, 2011

न्यायमूर्ति बालाकृष्णन क्या अकेले भ्रष्ट हैं?

Punjab Kesari 14March11
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर, कानूनविद् रामजेठमलानी, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली,  राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी और पूर्व कानूनमंत्री शांतिभूषण, सब मिलकर भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन के पीछे पड़े हैं। इनका आरोप है कि बालाकृष्णन ने अपने पद का दुरूपयोग कर, अपने लिये और अपने नातेदारों के लिए काफी अवैध धन इकठ्ठा किया। इसलिए उसकी जाँच होनी चाहिए और उन्हें भारत के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से हटा देना चाहिए। इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

अगर बालाकृष्णन ने न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर रहते हुए अपने पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखा और भ्रष्ट अथवा अनैतिक आचरण करके अवैध धन कमाया है तो उसकी जाँच होनी ही चाहिए और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में दाखिल जनहित याचिका का संज्ञान लिया है। आने वाले समय में देखना होगा कि ये मामला कहाँ तक पहुँचता है, जाँच होती भी है या नहीं? सबूत मिलते हैं या नहीं और अगर बालाकृष्णन अपराधी पाये जाते हैं तो उन्हें सजा मिलती है या नहीं?

पर यहाँ एक बात बड़ी चिंतनीय है। वह यह है कि बालाकृष्णन के पीछे पड़ी ये चैकड़ी अपने आचरण में दोहरे मानदण्ड अपना रही है। मेरा इनमें से किसी से कोई द्वेष नहीं। सबसे पिछले 20 बरसों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं। पर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि नैतिकता के सवाल उठाने वाले ये लोग कितने आसानी से दोहरे चेहरे अपना लेते हैं।

बहुत पुरानी बात नहीं है। सन् 2000 में भारत के मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द थे। उनके पद पर बैठते ही मैंने उनका मध्य प्रदेश का एक जमीन घोटाला अपने अंग्रेजी अखबार कालचक्र में छापा। इस घोटाले में डाॅ. आनन्द ने अपनी पत्नी की मार्फत झूठे शपथपत्र दाखिल करके, मध्य प्रदेश सरकार से एक करोड़ रूपये से ज्यादा का अवैध मुआवजा वसूल किया। जिन वकीलों ने और जजों ने उनकी इस घोटाले में मदद की, उन्हें पदोन्नती दिलवायी। यह घोटाला छापने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय की बार, संसद और देश का मीडिया सकते में आ गया। क्योंकि भारत के इतिहास में यह पहली बार था जब किसी ने पदासीन मुख्य न्यायधीश के भ्रष्टाचार पर इस तरह दिलेरी से लेख छापने की हिम्मत की थी। आशा के विपरीत मुझे अदालत की अवमानना में जेल भेजने की हिम्मत डाॅ. आनन्द नहीं कर सके। क्योंकि उन्हें पता था कि उनसे पहले मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनैतिक आचरण पर देश में काफी तूफान मचा चुका था।

इस दौरान इन सब लोगों से और देश के तमाम बड़े राजनेताओं से मैंने जाकर अपील की कि वे इस मुद्दे को संसद में उठाकर डाॅ. आनन्द के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लायें। पर सब डर गये। कोई न्यायापालिका से भिड़ने को तैयार नहीं था। मज़बूरन मैंने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को अपील भेजी। सवाल किया कि मेरे जैसा पत्रकार और जागरूक नागरिक इस परिस्थिति में क्या करे? राष्ट्रपति ने मेरी याचिका तत्कालीन कानूनमंत्री रामजेठमलानी को भेज दी। जेठमलानी ने उसे टिप्पणी के लिए मुख्य न्यायाधीश डाॅ. आनन्द के पास भेज दिया। इस पर आनन्द हड़बड़ा गये और इस्तीफा देने को तैयार हो गये। पर तब उन्हें अरूण जेटली और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सहारा दिया। नतीज़तन जेठमलानी को कानून मंत्री का पद गंवाना पड़ा और अरूण जेटली को भारत का कानून मंत्री बना दिया गया। मेरे द्वारा उठाये इस विवाद पर उस समय देश और दुनिया के मीडिया में बहुत कुछ छपा। पर डाॅ. आनन्द अपने पद पर बने रहे। क्योंकि उन्हें नये कानून मंत्री अरूण जेटली व प्रधानमंत्री वाजपेयी का वरदहस्त प्राप्त था। उनके इस आचरण से उत्तेजित होकर मैंने जम्मू और श्रीनगर में जाकर डाॅ. आनन्द के कई और जमीन घोटाले खोजे व उन्हें सप्रमाण कालचक्र के अंग्रेजी अखबारों में छापा। मेरी इस जुर्रूत को देखकर डाॅ. आनन्द ने छः घोटाले छपने के बाद मेरे खिलाफ जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में अदालत की अवमानना का मुकदमा कायम करवा दिया। जबकि यह मुकदमा अगर कायम होना था तो सर्वोच्च अदालत में होना चाहिए था। मुझे आतंकित करने के मकसद से आदेश दिये गये कि मुझे श्रीनगर में रहकर अदालत की कार्यवाही का सामना करना होगा। यह जानते हुए कि मैं हिज्बुल मुज़ाहिदीन के अवैध आर्थिक स्रोतों को उजागर कर चुका था तथा मुझे आतंकवादियों से जान का खतरा था। इस तरह के आदेश अदालत से करवाये गये। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने परम्परा से हटकर सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को लिखा कि विनीत नारायण का जीवन इस राष्ट्र के लिए कीमती है। इसलिए अगर उन पर मुकदमा चलाना है तो उसे पंजाब या दिल्ली के उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया जाये। पर अदालत ने एक न सुनी। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने मुझे भगौड़ा अपराधी घोषित कर दिया। मेरे घर और दफ्तर पर जम्मू पुलिस के छापे पड़ने लगे। मुझे ढेड़ वर्ष भूमिगत रहना पड़ा। आखिर मैं देश छोड़कर भागने पर मज़बूर हो गया। अदालत की अवमानना के डर से भारत के मीडिया ने पदासीन मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध, इन मामलों को छापने की हिम्मत नहीं दिखायी। लंदन, न्यूयाॅर्क, वाॅशिंगटन में मुझे पूरी दुनिया के मीडिया का समर्थन मिला। सी.एन.एन. और बी.बी.सी. जैसे टी.वी. चैनलों पर मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण हुआ। दुनिया के 300 से अधिक मीडिया संगठनों ने कानूनमंत्री अरूण जेटली और प्रधानमंत्री वाजपेयी को ई-मेल पर अपील भेजी कि विनीत नारायण की सुरक्षा की जाये और मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द के भ्रष्टाचार की जाँच की जाये। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगी। डाॅ. आनन्द के सारे घोटाले सप्रमाण आज भी कालचक्र के कार्यालय में संजोकर रखे गये हैं। जिनकी जाँच कोई भी, कभी भी कर सकता है। बावजूद इसके सेवानिवृत्त होने के बाद डाॅ. आनन्द को भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। यह नियुक्ति एन.डी.ए. द्वारा राष्ट्रपति बनाये गये डाॅ. अब्दुल कलाम आजाद ने सारे तथ्यों को जानने के बाद भी की।

मेरा सवाल न्यायमूर्ति बालाकृष्णन के खिलाफ जाँच की माँग करने वालों से यह है कि क्या भ्रष्टाचार को नापने के दो मापदण्ड होने चाहिए? डाॅ. आनन्द के लिए कुछ और, दलित बालाकृष्णन के लिए कुछ और? अगर ऐसा नहीं है तो ये सारी चैकड़ी देश को इस बात का जबाव दे कि डाॅ. आनन्द के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने सबूत होते हुए भी इन्होंने वैसा अभियान क्यों नहीं चलाया जैसा अब ये चला रहे हैं? और अब अदालत से माँग करें कि डाॅ. आनन्द के भ्रष्टाचार की भी वैसी ही जाँच हो जैसी बालाकृष्णन की हो रही है। दलितों की मसीहा बहिन मायावती को भी इस सवाल को जोर-शोर से उठाना चाहिए।