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Monday, September 9, 2024

कांग्रेस समझदारी से चले


जून 2024 के चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी का ग्राफ काफ़ी बढ़ गया है। बेशक इसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष किया और भारत के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे लम्बी पदयात्रा की। जिसके दौरान उन्हें देशवासियों का हाल जानने और उन्हें समझने का अच्छा मौक़ा मिला। इस सबका परिणाम यह है कि वे संसद में आक्रामक तेवर अपनाए हुए हैं और तथ्यों के साथ सरकार को घेरते रहते हैं। किसी भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों का मज़बूत होना ज़रूरी होता है। इसी से सत्ता का संतुलन बना रहता है और सत्ताधीशों की जनता के प्रति जवाबदेही संभव होती है। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र को अधिनायकवाद में बदलने में देर नहीं लगती।
 


आज राहुल गांधी विपक्ष के नेता भी हैं। जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद है। जिसकी बात को सरकार हल्के में नहीं ले सकती। इंग्लैंड, जहां से हमने अपने मौजूदा लोकतंत्र का काफ़ी हिस्सा अपनाया है, वहाँ तो विपक्ष के नेता को ‘शैडो प्राइम मिनिस्टर’ के रूप में देखा जाता है। उसकी अपनी समानांतर कैबिनेट भी होती है, जो सरकार की नीतियों पर कड़ी नज़र रखती है। ये एक अच्छा मॉडल है जिसे अपने सहयोगी दलों के योग्य नेताओं को साथ लेकर राहुल गांधी को भी अपनाना चाहिए। आपसी सहयोग और समझदारी बढ़ाने के लिए, ये एक अच्छी पहल हो सकती है। 


राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनाने में ‘इंडिया गठबंधन’ के सभी सहयोगी दलों, विशेषकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की बहुत बड़ी भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश से 37 लोक सभा सीट जीत कर अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनने का आधार प्रदान किया। आज समाजवादी पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ऐसे में अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का ये नैतिक दायित्व है कि वे भी अखिलेश यादव जैसी उदारता दिखाएं जिसके कारण कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी जैसी प्रतिष्ठा की सीटें जीतने का मौक़ा मिला। वरना उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन और जनाधार के मामले में बहुत पीछे जा चुकी थी। अब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव हैं, जहां कांग्रेस सबसे बड़े दल की भूमिका में हैं। वहाँ उसे समाजवादी पार्टी को साथ लेकर चलना चाहिए और दोनों राज्यों के चुनावों में समाजवादी पार्टी को भी कुछ सीटों पर चुनाव लड़वाना चाहिए। महाराष्ट्र में तो समाजवादी पार्टी के दो विधायक अभी भी थे। हरियाणा में भी अगर कांग्रेस के सहयोग से उसके दो-तीन विधायक बन जाते हैं तो अखिलेश यादव को अपने दल को राष्ट्रीय दल बनाने का आधार मिलेगा। इससे दोनों के रिश्ते प्रगाढ़ होंगे और ‘इंडिया गठबंधन’ भी मज़बूत होंगे। 



स्वाभाविक सी बात है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को इस रिश्ते से तक़लीफ़ होगी। क्योंकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक एक सा है। ये नेता पुराने ढर्रे पर चलकर समाजवादी पार्टी के जनाधार पर निगाह गढ़ाएँगे। पर ऐसी हरकत से दोनों दलों के आपसी संबंध बिगड़ेंगे और बहुत दूर तक साथ चलना मुश्किल होगा। इसलिए ‘इंडिया गठबंधन’ के हर दल को ये ध्यान रखना होगा कि जिस राज्य में जिस दल का वर्चस्व है वो वहाँ नेतृत्व संभले पर, साथ ही अपने सहयोगी दलों को भी साथ खड़ा रखे। विशेषकर उन दलों को जिनका उन  राज्यों में कुछ जनाधार है। इससे गठबंधन के हर सदस्य दल को लाभ होगा। राहुल गांधी को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी दल ‘इंडिया गठबंधन’ में अपने को उपेक्षित महसूस न करें। इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी के बाद सबसे बड़ा क़द अखिलेश यादव का है। अखिलेश की शालीनता और उदारता का उनके विरोधी दलों के नेता भी सम्मान करते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव को पूरा महत्व देकर राहुल गांधी अपनी ही नींव मज़बूत करेंगे। 



हालाँकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के पिछले कुछ अनुभव अच्छे नहीं रहे। इसलिए और भी सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि अखिलेश यादव में इतना बड़प्पन है कि वे अपनी कटु आलोचक बुआजी बहन मायावती से भी संबंध सुधारने में सद्भावना से पहल कर रहे हैं। यही नीति ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार व लालू यादव आदि को भी अपनानी होगी। तभी ये सब दल भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत बना पायेंगे। 


यही बात भाजपा पर भी लागू होती है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देकर भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ एनडीए गठबंधन चला रही है। पर भाजपा का पिछले दस वर्षों का ये इतिहास रहा है कि उसने प्रांतों की सरकार बनाने में जिन छोटे दलों का सहयोग लिया, कुछ समय बाद उन्हीं दलों को तोड़ने का काम भी किया। इससे उसकी नीयत पर इन दलों को संदेह बना रहता है। पिछले दो लोक सभा चुनावों में भाजपा अपने बूते पर केंद्र में सरकार बना पाई। पर 2024 के चुनाव परिणामों ने उसे मिलीजुली सरकार बनाने पर मजबूर कर दिया। पर अब फिर वही संकेत मिल रहे हैं कि भाजपा का नेतृत्व, तेलगुदेशम, जदयू व चिराग़ पासवान के दलों में सेंध लगाने की जुगत में हैं।  अगर इस खबर में दम है तो ये भाजपा के हित में नहीं होगा। जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच एजेंसियों के तौर-तरीक़ों पर लगाम कसनी शुरू की है, उससे तो यही लगता है कि डरा-धमका कर सहयोग लेने के दिन लद गए। भाजपा को अगर केंद्र में सरकार चलानी है या आगामी चुनावों में भी वो राज्यों की सरकारें बनाना चाहती है तो उसे ईमानदारी से सबका साथ-सबका विकास की नीति पर चलना होगा। 


हमारे लोकतंत्र का ये दुर्भाग्य है कि जीते हुए सांसद और विधायकों की प्रायः बोली लगाकर उन्हें ख़रीद लिया जाता है। इससे मतदाता ठगा हुआ महसूस करता है और लोकतंत्र की जड़ें भी कमज़ोर होती हैं। 1967 से हरियाणा में हुए दल-बदल के बाद से ‘आयाराम-गयाराम’ का नारा चर्चित हुआ था। अनेक राजनैतिक चिंतकों और समाज सुधारकों ने लगातार इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की माँग की है। पर कोई भी दल इस पर रोक लगाने को तैयार नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि संविधान में परिवर्तन करके ऐसा क़ानून बनाया जाए कि जब कोई उम्मीदवार, लोक सभा या विधान सभा का चुनाव जीतता है तो उसे उस लोक सभा या विधान सभा के पूरे कार्यकाल तक उसी दल में बने रहना होगा जिसके चुनाव चिन्ह पर वो जीत के आया है। अगर वो दूसरे दल में जाता है तो उसे अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देना होगा। तभी इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सभी दलों को अपने हित में इस विधेयक को पारित कराने के लिए एकजुट होना होगा। 

Monday, July 8, 2024

अयोध्यावासियों का बहिष्कार क्यों?


जब से लोकसभा चुनावों के परिणाम आए हैं तब से सोशल मीडिया पर व अन्य माध्यमों से ऐसी बातें सुनने को मिल रही है कि भगवान श्रीसीताराम जी का दर्शन करने अयोध्या जाने वाले भक्त अयोध्यावासियों का बहिष्कार करें। वो वहाँ की दुकानों से कुछ भी सामान, भोग, माला, तस्वीर, ग्रंथ आदि न ख़रीदें। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ के नागरिकों ने भाजपा को वोट नहीं दिया। यहाँ ये जानना बहुत ज़रूरी है कि अयोध्या जिसे अवध पुरी कहते हैं वो भगवान श्रीराम का नित्य धाम है और उन्हें अत्यंत प्रिय है। रामचरित् मानस के अनुसार भगवान श्री राम ने अयोध्या के विषय में कहा है कि -

‘अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥ 

हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥4॥’ 


इस चौपाई को हर राम भक्त ने अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य पढ़ा होगा और पढ़ कर इसका अर्थ भी समझा होगा, जो इस प्रकार है कि, यहाँ के (अयोध्या के) निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्रीरामजी ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है। इस चौपाई में भगवान श्रीराम अयोध्या पुरी का इतना बड़ा माहात्म्य बता रहे हैं कि इसमें हमें भगवान श्रीराम के परमधाम तक पहुँचाने की सामर्थ है।  


अब प्रश्न उठता है कि जो भी अपने को राम भक्त कहता है या राम भक्त होने का दावा करता है, क्या वो भगवान श्रीराम की प्रिय वस्तु का तिरस्कार करेगा? जब भगवान स्वयं कह रहे हैं कि मुझे ये अयोध्या पुरी प्रिय है और यहाँ रहने वाले अयोध्यावासी अतिप्रिय हैं, तो भगवान श्रीराम की अतिप्रिय वस्तु का अपमान करना, उसकी उपेक्षा करना, उसका बहिष्कार करना, उसके प्रति द्वेष भावना रखना, क्या ये भक्ति का लक्षण है या ये भक्ति के मार्ग में किया जा रहा धाम अपराध है? यह एक बहुत गंभीर प्रश्न है। हर संप्रदाय के आचार्यों ने भक्तों को बार-बार चेतावनी दी है कि वे धाम अपराध से बचें। उदाहरण के तौर पर ब्रह्म गौड़ीय माधव संप्रदाय के प्रमुख आचार्य इस विषय में क्या कहते हैं, यह जानकर हमारा भ्रम दूर हो जाएगा। वे कहते हैं कि, ‘जो भी भक्त तीर्थ यात्रा पर जाते हैं वे उन अपराधों से सावधानी से बचें जो पवित्र स्थान की आपकी यात्रा को बिगाड़ सकते हैं। महान आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर धाम के साथ-साथ इसके निवासियों के प्रति भी अत्यंत सावधानीपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश दे रहे हैं। 



वे कहते हैं कि तीर्थ यात्रा के समय जब आप अयोध्या पुरी या मथुरा पुरी जैसे किसी धाम में जाते हैं तो अपने आध्यात्मिक गुरु का अनादर न करें, क्योंकि ये धाम अपराध माना जाएगा। यह सोचना कि अयोध्या पुरी जैसा पवित्र धाम अस्थायी है, भी धाम के प्रति अपराध है। क्योंकि धाम भौतिक सिद्धांतों के परे होते हैं। वे शाश्वत होते हैं। यानी सदैव थे और सदैव रहेंगे। ऐसे पवित्र धाम के निवासियों में से किसी के प्रति हिंसा करना या उन्हें साधारण व्यक्ति समझकर उनका अनादर करना या उस धाम में कूड़ा-कचरा फैलाना भी धामवासियों के प्रति हिंसा ही है। वे आगे कहते हैं कि, पवित्र धाम में अन्य देवताओं की पूजा करना और धर्म का व्यवसायीकरण करके धाम का उपयोग व्यक्तिगत आर्थिक विकास के लिए करना भी धाम अपराध है। बाहरी लोगों का धाम में जाकर कालोनियाँ काटना, होटल बनाना या व्यापार करना भी धाम अपराध की श्रेणी में ही आता है। उन शास्त्रों की निन्दा करना जो पवित्र धाम की इस गौरवशाली स्थिति का ज्ञान देते हैं, भी धाम अपराध है। धाम की शक्ति के प्रति अविश्वासी होना और यह सोचना कि धाम की महिमा काल्पनिक है, भी धाम अपराध है। इसी प्रकार अन्य संप्रदायों के आचार्यों ने और अनेक शास्त्रों ने धाम और धाम के वासियों के प्रति अपराध न करने का निर्देश दिया है।  



अब ज़रा सोचिए कि जिन लोगों ने भी अयोध्यावासियों का बहिष्कार करने का आह्वान किया है, वे किस श्रेणी के लोग हैं? या तो वे मूर्ख और अज्ञानी हैं, जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया? या वे भक्त हैं ही नहीं और राम भक्त होने का झूठा दावा कर रहे हैं और अगर यह सब उन्होंने जानते-बूझते हुए किया है तो वे न सिर्फ़ ख़ुद घोर पाप कर रहे हैं, बल्कि अन्य भक्तों को भी पाप कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अतः पिछले दिनों जिस किसी ने भी अयोध्या यात्रा के दौरान उनके इस आह्वान पर अयोध्यावासियों का बहिष्कार या तिरस्कार किया है, या इस संदेश को प्रसारित करने में योगदान किया है, उसने भी घोर पाप किया है। इसलिए इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्हें पुनः अयोध्या जा कर अयोध्यावासियों और अयोध्या धाम से क्षमा माँगनी चाहिए।



चुनावी राजनीति से भगवत् भक्ति को जोड़ना आध्यात्मिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है। आज किसी दल का सांसद बना है, पहले किसी और दल का था और भविष्य में न जाने किस दल का बनेगा। सांसद और विधायक तो आते-जाते रहेंगे, पर अयोध्या और अयोध्यावासियों का महत्व हज़ारों वर्षों से रहा है और रहेगा। उल्लेखनीय है कि मोदी जी कोई अवसर नहीं छोड़ते जब वे तीर्थ स्थलों में जाकर श्रद्धा और आस्था के साथ पूजन न करते हों। फिर चाहे वो केदारनाथ हो, काशी विश्वनाथ हो, पशुपतिनाथ हो, मथुरा-वृंदावन हो, तिरूपति बालाजी हो, जगन्नाथ
  पुरी हो, उद्दुपि हो, रामेश्वरम हो, द्वारिका पुरी हो, कामख्या देवी हो या अयोध्या हो। माना जा सकता है कि मोदी जी सनातन धर्म और अन्य तीर्थों के प्रति अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन और व्यापक प्रचार इस उद्देश्य से करते हैं कि उनके प्रशंसक उनसे प्रेरणा लेकर धाम के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रदर्शन करें। ऐसे में नरेंद्र मोदी जी ये कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि उनके आराध्य भगवान श्रीराम के अतिप्रिय अयोध्यावासियों और अयोध्या का तिरस्कार वे लोग करें जो स्वयं को मोदी जी का या भाजपा का समर्थक मानते हैं। चूँकि कुछ लोग इस तरह का आह्वान करके ये अपराध कर चुके हैं, इसलिए अपेक्षा की जानी चाहिए कि मोदी जी सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके इसकी आलोचना करें और सभी देशवासियों से हर धर्म के तीर्थ स्थल के प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव रखने की अपील करें ताकि भारतवासी धाम अपराध के पाप बचे रहें।  

Monday, June 10, 2024

अयोध्या में भाजपा क्यों हारी?


500 वर्ष बाद प्रभु श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। यह हम सभी सनातनियों के लिये गर्व की बात है। अयोध्या में हुए विकास के लिए भाजपा सरकार को जितना भी श्रेय दिया जाए वह कम है। अयोध्या में हुए इस जीर्णोद्धार के चलते आज विश्व भर के हिंदुओं का सर गर्व से ऊँचा उठा है। प्रधान मंत्री मोदी ने बीते दस वर्षों के अपने कार्यकाल में हिंदू संस्कृति के संरक्षण के लिए अनेक ठोस कदम उठाए हैं। अयोध्या का विकास भी उसी श्रृंखला का हिस्सा है। आज जो भी अयोध्या में दर्शन करके आता है वह श्री राम के भव्य मंदिर व उसके आसपास हुए विकास को देख गर्व करता है। इतना सब होने के बावजूद 2024 के चुनावों में अयोध्या में भाजपा को मिली हार से पूरा दुनिया के हिंदू अचंभे में है। 



यूँ तो अयोध्या में हुए विकास को लेकर हर किसी के पास सिवाय प्रशंसा के कुछ नहीं है। परंतु चुनाव परिणामों के बाद से सोशल मीडिया में भाजपा को मिली हार के कई कारण सामने आए हैं। इन्हीं में से एक अयोध्या निवासी संत सियाप्यारेशरण दास का एक संदेश काफ़ी चर्चा में है। इन्होंने अयोध्या में भाजपा की हार के असली कारण बताए। वे लिखते हैं,
भक्त और भगवान का युगों युगों से अनन्य भावपूर्ण प्रेम, स्नेह, वात्सल्य भाव रस से भीगा नाता रहा है। भगवान अपने ऊपर सब आरोप, लांछन तो क्या लात तक सह लेते हैं। लेकिन वो अपने भक्त की परेशानी, दुख तकलीफ नहीं सहन करते। उदाहरण स्वरूप जब रावण ने युद्ध में विभीषण को देखा तो उस पर बाण चलाया। जिसे भगवान श्री राम ने अपनी छाती पर सह कर अपने भक्त विभीषण की रक्षा की। इसी प्रकार ध्यानस्थ भगवान श्री विष्णुजी से किसी बात पर क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने उनके सीने पर लात मारी। तो उन्होंने स्वयं इसके लिए क्षमा माँगी। इस प्रसंग पर प्रसिद्ध चोपाई है; क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात। विष्णु का क्या घट गया जब भृगु ने मारी लात।। भक्त और भगवान के अनन्य नाते से संबंधित अनेकों उदाहरण है। हम केवल उपरोक्त दो उदाहरणों के परिपेक्ष में ही बीजेपी की अयोध्या में हुई करारी हार का विश्लेषण करते हैं। मैं अयोध्या जी में पिछले लगभग 10 वर्षों से वहां की कुछ सेवाओं में लगा हूं। इस कारण अयोध्याजी में घटित होने वाले अधिकांश अच्छे बुरे अनुभवों से भली भांति परिचित होने के नाते कुछ लिख रहा हूं। 



प्रथम कारण: प्रभु श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के द्वारा मंदिर बनने के प्रारंभ में कहा गया की मंदिर लगभग 1000 करोड़ रुपयों में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद कहा कि मंदिर 1400 करोड़ में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद तीसरी बार कहा कि मंदिर 1800 करोड़ में पूर्ण होगा, जनता ने मान भी लिया। सोचिए श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के सदस्य इतने हिसाब के कच्चे हैं की तीन-तीन बार मंदिर की कुल लागत बढ़ा-बढ़ा कर बताएंगे, जबकि इस प्रकार के सभी आकलन प्रथम बार में ही सही होने चाहिए थे। ज़मीन ख़रीदने से लेकर मंदिर निर्माण तक में पैसे का कोई पारदर्शी हिसाब नहीं है। 


दूसरा कारण: भगवान के प्रति अनन्य भक्ति भावना से ओत प्रोत हजारों भक्त कितने किलोमीटर चलकर आते हैं लेकिन मंदिर ट्रस्ट या अयोध्या प्रशासन के द्वारा सुविधाओं के अभाव में वो इधर-उधर भटकते हैं। स्वच्छ पेयजल के कुछ फ्रिज अभी गर्मी बढ़ने पर लगाए है। लेकिन चंदे के 10,000 करोड़ के ब्याज रूपी 1800 करोड़ रुपए में बन रहे मंदिर के बाकी पैसे की एफडी कराई जा रही है। परंतु राम का पैसा राम के भक्तों पर खर्च नहीं हो रहा। जबकि अयोध्याजी में लोक मान्यता है कि अयोध्याजी में कोई भूखा नहीं सोता। उसे अन्नपूर्णा रूपा माता "श्रीसीताजी" भोजन कराती हैं। क्या माता श्रीसीताजी के नाम से ट्रस्ट 20-30 जगह भंडारे नहीं चला सकता? 



तीसरा कारण: माननीय योगी जी के मुख्यमंत्री काल के पिछले 7 सालों से अयोध्याजी की गली-गली कई बार तोडी-फोड़ी गई हैं। जिस कारण गलियों में जाम और लाल बत्ती लगी सायरन बजाती वीआईपी गाड़ियों के कारण मुख्य मार्ग का रूट परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण चहुं ओर अफरा तफरी के माहौल ने अयोध्या की शांति भंग कर दी है। जिधर देखो बड़े-बूढ़े, बीमार-लाचार भटकते भक्ति में सराबोर भक्त धक्के खाते हैं। लेकिन उनकी पीड़ा कौन सुने? सरकार और उसके यहां के ये सरदार सब सत्ता के मद में फूले रहे। 


चौथा कारण: अयोध्याजी के नया घाट से फैजाबाद के सहादत गंज तक 14 किलोमीटर लंबे बाजार के छोटे-छोटे दुकानदार अयोध्याजी के क्षेत्रीय निवासी इसी लोकसभा क्षेत्र के हैं। ईनकी अधिकांश दुकाने 70-80 साल से पगड़ी (धरोहर राशि) के कारण कम किराए पर हैं। इस मार्ग के चौड़ीकरण में उनके हितों के बजाए मकान मालिकों के हितों का खयाल रखा गया। दुकानदारों के पुनर्वास में बहुत अनियमितता बरती गई। जिस कारण उनके आंदोलन व प्रदर्शन बार-बार दबा दिए गए। इससे अयोध्याजी के देहात में गलत संदेश गया। 


छटा कारण: अनेक वीआईपी की तरह मुंबई तक से सिनेमा तारिकाओं को भी जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का न्योता भेजा गया, लेकिन अयोध्याजी के चारों ओर के जिलों में मौजूद अनेकों ऐसे कारसेवकों को न्योता तक नहीं भेजा जिन्होंने जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में लाठी और गोली खाई थी। संत सियाप्यारेशरण दास जी कहते हैं कि, अयोध्याजी में बीजेपी की हार के वैसे तो अनेकों अनेक कारण हैं। कितने गिनाऊ, यहां के ठाकुर सांसद लल्लू सिंह अपनी ठकुराई की ठसक में काम के नाम पर जनता को पिछले दस साल से झूठे आश्वासन देते रहे। उन्होंने जनता की नब्ज उनके बीच जाकर कभी नहीं जानी। संविधान बदलने के बयान ने यहां के 35 प्रतिशत के बराबर दलित वोटों का सपा की ओर धुर्वीकरण किया।असली समस्या तो अयोध्याजी की गलियों के जाम रूपी झाम ने यहां के मूल निवासियों को बेहाल किया। केवल प्रचार से कभी किसी की सरकार नहीं बनी। अयोध्या में बेतरतीब काम से अफसर, नेता, मंत्रियों ने चांदी नहीं सोना और हीरे लूटे हैं। अयोध्या एयरपोर्ट के वास्ते किसानों से पहले सस्ती जमीने अफसर व नेताओं ने खरीदकर फिर उसका सर्किल रेट बढ़ाकर खूब चांदी काटी। लेकिन जब पत्ता-पत्ता भगवान श्री राम हिलाते हैं तब इनकी हार भी मेरे खयाल से स्वयं भगवान श्रीराम ने देकर इनको चेतावनी दी है।बीजेपी को सत्ता मद ले बैठा। इस बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥


अब ये चुनौती तो बीजेपी के सामने है कि वो हिंदू धर्म क्षेत्रों में इस चुनाव में मिली अपनी विफलता के कारण खोजे। 

Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, October 23, 2023

मोदी जी की राह आसान करेगा ‘इंडिया’ गठबंधन


जबसे पटना, बेंगलुरु और मुंबई में प्रमुख विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठकें हुईं और ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई तब से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई थी। क्योंकि पिछले नौ वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विपक्षी दलों पर हावी रही है। पर पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कुछ दलों के प्रवक्ताओं ने एक दूसरे दल पर ऐसी तीखी टिप्पणियाँ की हैं जिससे गठबंधन में दरार पड़ सकती है। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश की कुछ सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी दल की जो बयानबाज़ी हुई है वो भी ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालाँकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ ने जो कड़ी मेहनत की है उससे हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही है। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कांग्रेस को समाजवादी पार्टी की कोई अहमियत नज़र नहीं आई। पर अगर यही रवैया रहा तो लोक सभा के चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन कैसे मज़बूती से लड़ पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी दल तीसरी बार भी मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने की राह आसान कर देंगे?
 



पिछले नौ वर्षों में विपक्ष ने तमाम हमले सत्तारूढ़ दल पर किए। पर फिर भी कामयाबी नहीं मिली। ज़्यादातर हमले मोदी जी की सार्वजनिक घोषणाओं, उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर हुए। जैसे मोदी जी की 2014 की घोषणाओं को याद दिलाना कि 2 करोड़ नौकरी हर साल मिलने का और 2022 तक सबको पक्के घर मिलने का वायदा क्या हुआ? 15 लाख सबके खातों में कब आएँगे? 100 स्मार्ट सिटी क्यों नहीं बन पाए? माँ गंगा मैली की मैली क्यों रह गई? विदेशों से काला धन वापस क्यों नहीं आया? इसके अलावा मोदी जी के अडानी समूह से संबंधों को लेकर भी संसद में और बाहर बार-बार सवाल पूछे गये। 


आम आदमी पार्टी ने मोदी जी की डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े किए। आरबीआई की जानकारी के अनुसार पिछले नौ वर्षों में बैंकों का 25 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में चला गया। आम जनता के खून पसीने की कमाई की ऐसी बर्बादी और लाखों करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों के बारे में भी सवाल पूछे गये। मोदी सरकार पर सीबीआई, ईडी व आयकर एजेंसियों के बार-बार दुरूपयोग के आरोप लगातार लगते रहे। इन एजेंसियों की विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा कारवाई और चुनावों के पहले उन पर छापे और गिरफ़्तारियों को लेकर भी पूरा विपक्ष उत्तेजित रहा। किसान आंदोलन की उपेक्षा और सैंकड़ों किसानों की शहादत व गृह राज्य मंत्री के बेटे का लखीमपुर में आंदोलनकारी किसानों पर क़ातिलाना हमला भी मोदी सरकार पर हमले का सबब बना। ओलंपिक पदक विजेता महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के आरोपों पर मोदी सरकार की चुप्पी और बाद में उन्हें पुलिस के ज़ोर पर धरने से हटाने को लेकर भी सरकार की बार-बार खिंचाई की गई। मणिपुर में भारी हिंसा के बावजूद प्रधान मंत्री का महीनों तक वहाँ न जाना भी बड़े विवाद का कारण बना हुआ है। ऐसे तमाम गंभीर सवालों पर प्रधान मंत्री का लगातार चुप रह जाना और एक बार भी संवाददाता सम्मेलन न करना, लोकतंत्र के करोड़ों मतदाताओं को आजतक समझ में नहीं आया।



उधर हर चुनाव में प्रधान मंत्री का आक्रामक प्रचार और विपक्षियों को भ्रष्ट बता कर हमला करना। जबकि दूसरी तरफ़ प्रधान मंत्री द्वारा ही बार-बार भ्रष्ट बताए गये विपक्षी नेताओं को भाजपा में शामिल करवा कर उनके साथ सत्ता में भागीदारी करना भी एक बड़े विवाद का कारण रहा है। इस सबसे देश में ऐसा माहौल बना कि विपक्ष इसे अघोषित आपातकाल कहने लगा। किंतु स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ छोड़ने को कोई क्षेत्रीय दल तैयार न था। इसलिए विपक्ष के दल जहाँ एक तरफ़ भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ आपस में भी एक दूसरे पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आए। यहीं कारण है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करने वाले विपक्ष के नेता अपने-अपने क्षेत्रों में तो कामयाब हुए पर राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार को चुनौती नहीं दे पाए। आज भी जनाधार वाले ये तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए केंद्र में सत्ता पाने का उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा। 



विपक्ष को इस अंधकार से निकालने की पहल कुछ तो प्रांतीय नेताओं ने की जिनके प्रयास से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। दूसरा काम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने किया। जिन राहुल गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हर आम आदमी को गले लगा कर अपनी छवि में चार चाँद लगा दिये। बिना मीडिया से डरे, हर दिन सैंकड़ों संवाददाताओं के तीखे सवालों के सहजता से उत्तर दिये। संसद में मोदी सरकार पर इतना कड़ा हमला बोला कि उनकी संसद सदस्यता ही ख़तरे में पड़ गई। पर राहुल गांधी के इस नए तेवर ने और कर्नाटक विधान सभा में कांग्रेस की जीत ने राहुल गांधी को एक आत्मविश्वास दिया कि वे बाँहें फैला कर हर विपक्षी दल को ‘इंडिया’ गठबंधन में जोड़ सके। इसी से भारतीय लोकतंत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। 


पर जिस ज़ोर-शोर से ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई थी वो गर्मी अब धीरे-धीरे शांत होती जा रही है, ऐसा प्रतीत होता है। पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल तृण मूल कांग्रेस पर कांग्रेस के नेता अधिरंजन चौधरी ने जो हमला बोला उससे इस गठबंधन में दरार पड़ने का संदेश गया। उधर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के द्वारा वायदा करने बावजूद सपा को 5-7 टिकटें नहीं दी गईं। जिसपर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की। हर योद्धा जानता है कि युद्ध जीतने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, सुविचारित रणनीति, टीम में एकता और अनुशासन, सामने वाले की व स्वयं की क्षमता का सही आँकलन और सही मौक़े पर सही निर्णय लेने की राजनैतिक समझ की ज़रूरत होती है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन को वास्तव में अपना लक्ष्य हासिल करना है तो उसे सहयोगी दलों के पारस्परिक संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा अन्यथा ‘टीम इंडिया’ बनने से पहले ही बिखर जाएगी।   

Monday, August 3, 2020

भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ बने रहेंगे

64 वर्ष की आयु में अमर सिंह का सिंगापुर में देहांत हो गया। अमर सिंह जैसे बहुत लोग भारतीय राजनीति में हैं पर उनकी खासियत यह थी कि वे खुद को राष्ट्रीय प्रसारण में भी दलाल घोषित करने में नहीं हिचकते थे। सिंधिया परिवार, भरतिया परिवार, अम्बानी परिवार, बच्चन परिवार या यादव परिवार में फूट डलवाने का श्रेय अमर सिंह को दिया जा सकता है। उन पर आरोप था कि वे इन सम्पन्न, मशहूर व ताकतवर परिवारों में कूटनीति से फूट डलवाते थे और एक भाई का दामन थाम कर दूसरे का काम करवाते थे। शायद इसमें अपना फ़ायदा भी उठाते हों। 


बड़ी तादाद में फ़िल्मी हिरोइनों को राजनीति में या राजनैतिक दायरों में महत्व दिलवाने का काम भी अमर सिंह बखूबी करते थे। इसको लेकर अनेक विवाद उठे और सर्वोच्च न्यायालय तक गए। उनकी महारथ इतनी थी कि केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक अपने दल के नेताओं से ज़्यादा अमर सिंह को तरजीह देते थे। यह उस समय भाजपा के नेताओं में चिंता और चर्चा का विषय रहता था और इसी कॉलम में मैंने तब इस पर टिप्पणी भी की थी। 


सरकारें गिरने व बचाने में सांसदों व विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करवाने में भी अमर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पाठकों को अरुण जेटली के घर अमर सिंह की देर रात हुई वो गोपनीय बैठक याद होगी जो मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ गई थी। क्योंकि उस समय के राजनैतिक माहौल में दो विरोधी दलों के नेताओं का इस तरह मिलना बड़े विवाद का कारण बना था। 


पत्रकारिता में रहते हुए हम लोगों का हर क़िस्म के राजनेता से सम्पर्क हो ही जाता है। खबरों को जानने की उत्सुकता में ऐसे सम्पर्क महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इस नाते अमर सिंह से मेरा भी ठीक-ठाक सम्पर्क था। पर 1995 में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद अमर सिंह ने मुझ से सम्बंध तो सौहार्दपूर्ण रखे पर यह समझ लिया कि मैं उनके मतलब का व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि यह भी उन्हीं की विशेषता थी। ‘जैन हवाला कांड’ में सर्वोच्च न्यायालय की सख़्ती के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय हुआ और अनेक दलों के बड़े राजनेताओं में हड़कम्प मच गया, तो अमर सिंह भी दूसरों की तरह करोड़ों रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए ताकि मैं इस मुद्दे को छोड़ दूँ। मेरे रूखे और कड़े रवैए से वे हताश हो गए और बाद में जगह जगह कहते फिरे कि विनीत नारायण .…… (मूर्ख) हैं, 100 करोड़ रुपए मिलते और केंद्र में मंत्रिपद


जिन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब वे ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद’ के अध्यक्ष थे। उस नाते मैंने उन्हें वृंदावन आने का न्योता दिया। क्योंकि तब मैं ब्रज सेवा में जुट गया था। सरकार व प्रशासन की मदद के बिना बड़े स्तर का कोई भी विकास कार्य आसानी से पूरा नहीं होता, उसमें बहुत बाधाएँ आती हैं, इसलिए मुझे लगा कि अमर सिंह को बुलाने से इन सेवा कार्यों में मदद मिलेगी। 


इस आयोजन के बाद मैं अमर सिंह से मिलने दिल्ली गया और कहा कि ब्रज (मथुरा) के विकास को लेकर मैंने कुछ ठोस योजनाएँ तैयार की हैं, उसमें आप मेरी मदद करें। अमर सिंह ने सत्कार तो पूरा किया पर टका सा जवाब दे दिया। आप अमिताभ बच्चन की तरह मेरी घनिष्ठ मित्र तो हैं नहीं। ‘हवाला कांड’ में मैं एक प्रस्ताव ले कर आपके पास आया था, पर आपने तो मुझे बैरंग लौटा दिया। तो अब आप मुझसे किसी मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैं समझता हूं कि अमर सिंह जैसी स्थिति में शायद ही कोई साफ-साफ ऐसे कहने की हिम्मत करेगा। यह खासियत उनमें ही थी। 


अमर सिंह की एक फ़ितरत थी वो पैसे वाले लोगों के या अपने मित्रों के बड़े से बड़े काम चुटकियों करवा देते थे। इसकी वो पहले कोई क़ीमत तय नहीं करते थे। जैसा कि प्रायः इस तरह की दलाली करने वाले लोग किया करते हैं। उनका सिद्धांत था कि ज़रूरत पर मदद करो और सामने वाले से ये अपेक्षा रखो कि इस मदद के बाद वो हमेशा हर तरह की मदद करने को तत्पर रहेगा। अगर कोई इसमें कोताही कर दे तो उसे सबक़ सिखाना भी अमर सिंह को आता था। इस कारण उनके कई मित्रों से विवाद भी बहुत गम्भीर हुए। पर वह अलग मामला है।  


अब यह राजनीति की स्तर है कि जो व्यक्ति सरेआम अपने को दलाल कहता था उसकी हर राजनैतिक दल को कभी न कभी ज़रूरत पड़ी। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच जो सार्वजनिक लड़ाई हुई उसमें भी माना जाता है कि अमर सिंह ने यह सब भाजपा के इशारे पर किया। इस तरह वो पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में एक चर्चित चेहरा बने रहे। यह साधारण नहीं है कि सबकुछ सबको पता था फिर भी वे अपने काम या लक्ष्य में कामयाब थे। स्पष्ट है कि ईमानदारी के, पारदर्शिता के, जनता के प्रति जवाबदेही के दावे चाहे कोई भी दल करे पर सबको हर स्तर पर एक ‘अमर सिंह’की ज़रूरत होती है। ऐसे ‘अमर सिंह’ कांग्रेस के राज में भी खूब पनपे, जनता दल के राज में भी सफल रहे और भाजपा शासन में भी इनकी कमीं नहीं है। हां दलाली करने के स्वरूप और तरीक़ों में भले ही अंतर हो। सांसद और विधायक पहले भी ख़रीदे जाते थे और आज भी ख़रीदे जा रहे हैं। सरकारी ठेकों में पहले भी दलालों की भूमिका रहती थी और आज भी। 


ऐसे दलाल न तो जनता के हित में कभी कुछ करते हैं न तो देश के हित में कुछ करते हैं। वो जो कुछ भी करते हैं वो अपने या अपने दोस्तों के फ़ायदे के लिए ही करते हैं। फिर भी इन्हें राजनैतिक दल संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तर पर राज्य सभा का सदस्य बनवा देते हैं। उस राज्य सभा का जिसमें समाज के प्रतिष्ठित, अनुभवी, ज्ञानी और समर्पित लोगों को बैठ कर बहुजन हिताय गम्भीर चिंतन करना चाहिए। जबकि ऐसे लोगों को वहाँ अपना धंधा चलाने का अच्छा मौक़ा मिलता है। इसलिए जब तक हमारी राजनीति छलावे, झूठे वायदों, दोहरे चरित्र और जोड़-तोड़ से चलती रहेगी तब तक भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ कभी नहीं मरेंगे। उन्हें श्रद्धांजलि। 

Monday, July 20, 2020

योगी महाराज की सुरक्षा से खिलवाड़ क्यों?

मौत तो किसी की भी, कहीं भी और कभी भी आ सकती है। पर इसका मतलब ये नहीं कि शेर के मुह में हाथ दे दिया जाए। भगवान श्रीकृष्ण गीता दसवें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं:

‘तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।’ 

अर्जुन मैं ही सबको बुद्धि देता हूँ।

जिसका प्रयोग हमें करना चाहिए, इसलिए जान बूझकर किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के युवा एवं सशक्त मुख्यमंत्री की ज़िन्दगी से। 


बहुत पुरानी बात नहीं है जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधव राव सिंधिया, लोक सभा के स्पीकर रहे बालयोगी, आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री रेड्डी और 1980 में संजय गांधी विमान हादसे में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए। चिंता की बात यह है कि ये दुर्घटनाएँ ख़राब मौसम के कारण नहीं हुई थी। बल्कि ये दुर्घटनाएँ विमान चालकों की ग़लतियों से या विमान में ख़राबी से हुई थीं। 


देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के ताक़तवर मुख्यमंत्री की आयु मात्र 48 वर्ष है। अभी उन्हें राजनीति में और भी बहुत मंज़िलें हासिल करनी हैं। बावजूद इसके उन्हें दी जा रही सरकारी वायु सेवा में इतनी लापरवाही बरती जा रही है कि आश्चर्य है कि अभी तक वे किसी हादसे के शिकार नहीं हुए? शायद ये उनकी साधना और तप का बल है, वरना उत्तर प्रदेश के उड्डयन विभाग व केंद्र सरकार के नागरिक विमानन निदेशालय ने योगी जी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी कॉलम में दो हफ़्ते पहले हम उत्तर प्रदेश सरकार की नागरिक उड्डयन सेवाओं के ऑपरेशन मैनेजर के कुछ काले कारनामों का ज़िक्र कर चुके हैं।


दिल्ली के कालचक्र ब्युरो के शोर मचाने के बाद कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा नाम के इस ऑपरेशन मैनेजर का प्रवेश किसी भी हवाई अड्डे पर वर्जित हो गया है। जहाज उड़ाने का उसका लाईसेंस भी फ़िलहाल डीजीसीए से सस्पेंड हो गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर उसका प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। प्रवर्तन निदेशालय भी उसकी अकूत दौलत और 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों पर निगाह रखे हुए है। 


पर उसके कुकृत्यों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे थे, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि प्रज्ञेश मिश्रा की ईमानदार जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? जबकि योगी जी हर जनसभा में कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करते?


जैसे आज तक ये लोग योगी जी को गुमराह करके कैप्टन मिश्रा को पलकों पर बिठाये थे और इसकी कम्पनियों में अपनी काली कमाई लगा रहे थे, वैसे ही आज भी योगी जी को बहका रहे हैं कि ‘हमने मीडिया मेंनेज कर लिया है, अब कोई चिंता की बात नहीं।’ पर शायद उन्हें ये नहीं पता कि आपराधिक गतिविधियों के सबूत कुछ समय के लिए ही दबाये जा सकते हैं, पर हमेशा के लिये नष्ट नहीं किए जा सकते। अगले चुनाव के समय या अन्य किसी ख़ास मौक़े पर ये सब सबूत जनता के सामने आकार बड़ा बवाल खड़ा कर सकते हैं। जिसकी फ़िक्र योगी जी को ही करनी होगी।     


हवाई जहाज़ उड़ाने की एक शर्त ये होती है कि हर पाइलट और क्रू मेम्बर को हर वर्ष अपनी ‘सेफ़्टी एंड इमर्जन्सी प्रोसीजरस ट्रेनिंग एंड चेकिंग’ करवानी होती है। जिससे हवाई जहाज़ चलाने और उड़ान के समय उसकी व्यवस्था करने वाला हर व्यक्ति किसी भी आपात स्थिति के लिए चौकन्ना और प्रशिक्षित रहे। ऐसा ‘नागर विमानन महानिदेशालय’ की नियमावली 9.4, डीजीसीए सीएआर सेक्शन 8 सिरीज़ एफ पार्ट VII में स्पष्ट लिखा है। योगी जी के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा बिना इस नियम का पालन किए बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा है। ऐसा उल्लंघन केवल खुद प्रज्ञेश मिश्रा ही नहीं बल्कि ऑपरेशन मैनेजर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के दो अन्य पाइलटों से भी करवाता रहा है और इस तरह मुख्यमंत्री व अन्य अतिवशिष्ठ व्यक्तियों की ज़िंदगी को ख़तरे में डालता रहा है। 


आश्चर्य है कि डीजीसीए के अधिकारी भी इतने संगीन उल्लंघन पर चुप बैठे रहे? ज़ाहिर है कि यह चुप्पी बिना क़ीमत दिए तो ख़रीदी नहीं जा सकती। इसका प्रमाण है कि 30 दिसम्बर 2019 को डीजीसीए की जो टीम जाँच करने लखनऊ गई थी उसने मिश्रा व अन्य पाइलटों के इस गम्भीर उल्लंघन को जान बूझकर अनदेखा किया। क्या डीजीसीए के मौजूदा निदेशक अरुण कुमार को अपनी इस टीम से इस लापरवाही या भ्रष्टाचार पर ये जवाब-तलब नहीं करना चाहिए?       


इसी तरह हर पाइलट को अपना मेडिकल लाइसेन्स का भी हर वर्ष नवीनीकरण करवाना होता है। जिससे अगर उसके शरीर, दृष्टि या निर्णय लेने की क्षमता में कोई गिरावट आई हो तो उसे जहाज़ उड़ाने से रोका जा सकता है। पर कैप्टन मिश्रा बिना मेडिकल लाइसेन्स के नवीनीकरण के  बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि कोई पाइलट हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़ दोनो नहीं उड़ा सकता। क्योंकि दोनो की एरोडायनामिक्स अलग अलग हैं। पर प्रज्ञेश मिश्रा इस नियम की भी धज्जियाँ उड़ा कर दोनो क़िस्म के वीआईपी जहाज़ और हेलिकॉप्टर उड़ाता रहा है, जिससे मुख्यमंत्री उसके क़ब्ज़े में ही रहे और वो इसका फ़ायदा उठाकर अपनी अवैध कमाई का मायाजाल लगातार बढ़ाता रहे। 


नई दिल्ली के खोजी पत्रकार रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों में से 28 कम्पनियों और उनके संदेहास्पद निदेशकों के नाम सोशल मीडिया पर उजागर कर दिए हैं और योगी जी से इनकी जाँच कराने की अपील कई बार की है। इस आश्वासन के साथ, कि अगर यह जाँच ईमानदारी से होती है तो कालचक्र ब्यूरो उत्तर प्रदेश शासन को इस महाघोटाले से जुड़े और सैंकड़ों दस्तावेज भी देगा। आश्चर्य है कि योगी महाराज ने अभी तक इस पर कोई सख़्त कार्यवाही क्यों नहीं की ? लगता है कैप्टन मिश्रा के संरक्षक उत्तर प्रदेश शासन के कई वरिष्ठ अधिकारी योगी महाराज को इस मामले में अभी भी गुमराह कर रहे हैं। 1990 में एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था कि नौकरशाही घोड़े के समान होती है सवार अपनी ताक़त से उसे जिधर चाहे मोड़ सकता है।पर यहाँ तो उलटा ही नजारा देखने को मिल रहा है। देखें आगे क्या होता है ?

Monday, September 26, 2016

केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि चुनाव जैसे होंगे विस चुनाव

विधानसभा चुनावों के लिए राज्यों में चुनावी मंच सजना शुरू हो गए हैं। खासतौर पर उप्र और पंजाब में तो चुनावी हलचल जोरों पर है। उप्र में सभी राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की कमर भी कस दी है। लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव सिर्फ विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं दिख रहे हैं। मोदी सरकार के सामने बिल्कुल वैसी चुनौती है जैसे उसके लिए ये मघ्यावधि चुनाव हों। वाकई उसके कार्यकाल का आधा समय गुजरा है। इसी बीच उसके कामकाज की समीक्षाएं हो रही होंगी। हालांकि उप्र में चुनावी तैयारियों के तौर पर अभी थोड़ी सी बढ़त कांग्रेस की दिख रही है। गौर करने लायक बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उप्र में महीने भर की किसान यात्रा की अनदेखी मीडिया भी नहीं कर पाया।

हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के सामने एक अतिरिक्त चुनौती अपने काम काज या अपनी उपलब्धियां बताने की होती है। इस लिहाज से भाजपा और उप्र की अखिलेश सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। यानी उप्र में सपा और भाजपा को अपने सभी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के उठाए सवालों का सामना करना पड़ेगा।  उप्र में भाजपा भले ही तीसरे नंबर का दल है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उससे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के नाते सवाल पूछे जाएंगे। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि उसके लिए यह चुनाव मध्यावधि जैसा होगा। रही बात समालवादी पार्टी की तो उसने तो अपनी उपलब्धियों की लंबी चौड़ी सूची तैयार करके पोस्टर और होर्डिग का अंबार लगा दिया है। ये बात अलग है सपा के भीतर ही प्रभुत्व की जोरआजमाइश ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन जिस तरह से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोश और विश्वास के साथ परिस्थियों का सामना किया उससे सपा की छवि को उतनी चोट पहुंच नहीं पाई। इधर उप्र विकास के कामों को फटाफट निपटाने जो ताबड़तोड़ मुहिम चल रही है उसे उप्र विधान सभा चुनाव की तैयारियां ही माना जाना चाहिए।

कांग्रेस ने जिस तरह से उप्र के चालीस जिलों से होकर कि सान यात्रा निकाली है उससे अचानक हलचल मच गई है। दो महीने पहले तक कांग्रेस मुक्त भारत का जो अभियान भाजपा चला रही थी वह भी ठंडा पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में जान फूंक दी। अब तो कांग्रेस के बड़े नेता भी प्रशांत किशोर के सलाह मशविरे को तवज्जो देते दिख रहे हैं। वैसे तो विधान सभा चुनाव अभी छह महीने दूर हैं  लेकिन  कांग्रेस की मेहनत देखकर लगने लगा है कि उसे हल्के में नहीं लिया जा पाएगा। उसने दूसरे बड़े दलों से गठजोड़ लायक हैसियत तो अभी ही बना ही ली है।  

रही बात इस समय दूसरे पायदान पर खड़ी बसपा की तो बसपा के बारे में सभी लोग मानते हैं कि उसके अपने जनाधार को हिलाना डुलाना आसान नहीं है। उसके इस पक्के घर में कितनी भी तोड़फोड़ हुई हो लेकिन जल्दी ही वह बेफर्क मुद्रा में आ गई। पिछले दिनों उसकी बड़ी बड़ी रैलियों से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। हां कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो फर्क पड़ता ही है। वास्तविक स्थिति के पता करने का उपाय तो हमारे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पहुंची चोट का असर उस पर जरूर होगा। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आगे चलकर बसपा गठबंधन के जरिए अपना रास्ता आसान बना ले।

कुलमिलाकर उप्र में मचने वाला चुनावी घमासान चौतरफा होगा। इस चौतरफा लड़ाई में अभी सभी प्रमुख दल अपने बूते पर खड़े रहने का दम भर रहे हैं। कोई संकेत या सुराग नहीं मिलता कि कौन सा दल किस एक के  खिलाफ मोर्चा लेगा। लेकिन केंद्र की राजनीति के दो प्रमुख दल कांग्र्रेस और भाजपा का आमने सामने होना तय है। इसी तरह प्रदेश के दो प्रमुख दल सपा और बसपा के बीच गुत्थमगुत्था होना तय है। लेकिन उप्र के एक ही रणक्षेत्र में एक ही समय में दो तरह के युद्ध तो चल नहीं सकते। सो जाहिर है कि चाहे गठबंधन की राजनीति सिरे चढ़े और चाहे सीटों के बंटवारे के नाम पर हो अंतरदलीय ध्रुवीकरण तो होगा ही। बहुत संभव है कि इसीलिए अभी कोई नहीं भाप पा रहा है कौन किसके कितने नजदीक जाएगा। 

अपने बूते पर ही खड़े रहने की ताल कोई कितना भी ठोक ले लेकिन चुनावी लोकतंत्र में दो ध्रवीय होने की मजबूरी बन ही जाती है। इस मजबूरी को मानकर चलें तो कमसे इतना तय है कि उप्र का चुनाव या तो सपा और बसपा के बीच शुद्ध रूप् से प्रदेश की सत्ता के लक्ष्य को सामने रख कर होगा या कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 को सामने रखकर होगा। पहली सूरत में राष्टीय स्तर के दो बड़े दलों यानी भाजपा और कांग्रेस को तय करना पड़ेगा कि सपा या बसपा में से किसे मदद पहुंचाएं। दूसरी सूरत है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच साधे ही तूफानी भिड़त होने लगे। देश में जैसा माहौल है उसे देखते हुए इसका योग बन सकता है लेकिन उप्र कोई औसत दर्जे का प्रदेश नहीं है। दुनिया के औसत देश के आकार का प्रदेश है। लिहाजा इस चुनाव का लक्ष्य प्रदेश की सत्ता ही होगा। जाहिर है घूमफिर कर लड़ाई का योग सपा और बसपा के बीच ही ज्यादा बनता दिख रहा है। बाकी पीछे से केंद्र के मध्यावधि चुनाव जैसा माहौल दिखता रहेगा।