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Monday, May 19, 2025

‘ऑपरेशन सिंदूर’ और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय !


भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का इतिहास लंबा और जटिल रहा है। दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर दशकों से चला आ रहा विवाद समय-समय पर हिंसक संघर्षों का कारण बनता रहा है। हाल ही में, अप्रैल 2025 में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव एक बार फिर चरम पर पहुंच गया। इस हमले में 26 पर्यटकों की जान गई थी, जिसके लिए भारत ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया। इसके जवाब में भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जिसमें पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए गए। इस घटनाक्रम ने दक्षिण एशिया में तनाव को और बढ़ा दिया। इस संदर्भ में, अमरीका के जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय की युद्ध मामलों की विशेषज्ञ प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर ने एक टीवी साक्षात्कार में इस संघर्ष के कारणों, परिणामों और भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा की।


प्रोफेसर फेयर ने अपने साक्षात्कार में बताया कि पाकिस्तान की सेना और उसका खुफिया तंत्र लंबे समय से आतंकी संगठनों, जैसे लश्कर-ए-तैयबा आदि को समर्थन देता रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ये संगठन न केवल कश्मीर में सक्रिय हैं, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके अनुसार, पाकिस्तानी सेना इन संगठनों को रणनीतिक संपत्ति के रूप में देखती है, जो भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ने में उपयोगी हैं।



पहलगाम हमले के जवाब में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया, जिसमें भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान में नौ आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया। इस ऑपरेशन को भारत ने अपनी आत्मरक्षा का अधिकार बताया, जबकि पाकिस्तान ने इसे अपनी संप्रभुता पर हमला करार दिया। प्रोफेसर फेयर ने इस ऑपरेशन को भारत की बदलती रणनीति का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि भारत अब पहले की तरह केवल कूटनीतिक जवाब तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह सैन्य कार्रवाई के जरिए आतंकवाद के खिलाफ कड़ा संदेश भी देना जानता है। हालांकि, उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि ऑपरेशन सिंदूर जैसे कदम आतंकवाद को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते, क्योंकि पाकिस्तान की सेना के लिए भारत के खिलाफ संघर्ष अस्तित्वगत है।ये उनके वजूद का सवाल है। भारत का डर दिखा -दिखा कर ही पाकिस्तान अनेक देशों से आर्थिक मदद माँगता रहा है । 


प्रोफेसर फेयर ने पाकिस्तानी सेना की भारत के प्रति कार्यशैली पर एक किताब भी लिखी है। इस साक्षात्कार में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पाकिस्तान की सेना अपने देश की नीति-निर्माण प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाती है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना भारत को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है और इस धारणा को बनाए रखने के लिए वह आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करती है। फेयर के अनुसार, उनकी यह नीति न केवल भारत के लिए खतरा है, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक स्थायित्व को भी कमजोर करती है।



उन्होंने यह भी बताया कि पाकिस्तानी सेना के लिए कश्मीर विवाद केवल एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह उनकी वैचारिक और रणनीतिक पहचान का हिस्सा है। फेयर ने कहा कि पाकिस्तान की सेना तब तक आतंकवाद को समर्थन देती रहेगी, जब तक कि उसे भारत के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिलता रहेगा। भारत की हालिया सैन्य कार्रवाइयों, जैसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’, ने पाकिस्तान को यह संदेश दिया है कि भारत अब पहले की तरह निष्क्रिय नहीं रहेगा।



साक्षात्कार में प्रोफेसर फेयर ने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की रणनीति की भी चर्चा की। उन्होंने डोवाल को एक ऐसे रणनीतिकार के रूप में वर्णित किया, जो भारत की सुरक्षा नीति को आक्रामक और सक्रिय दिशा में ले जा रहे हैं। फेयर ने कहा कि डोवाल की सक्रिय रक्षा की नीति ने भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अधिक प्रभावी बनाया है। ऑपरेशन सिंदूर इस नीति का एक उदाहरण है, जिसमें भारत ने न केवल आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, बल्कि पाकिस्तान को कूटनीतिक और सैन्य रूप से भी जवाब दिया।


हालांकि, फेयर ने यह भी चेतावनी दी कि इस तरह की आक्रामक नीति के अपने जोखिम भी हैं। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और किसी भी सैन्य टकराव का बढ़ना दक्षिण एशिया में व्यापक विनाश का कारण बन सकता है। उनके अनुसार, भारत को अपनी रणनीति में संतुलन बनाए रखना होगा, ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाए, लेकिन साथ ही स्थिति को पूर्ण युद्ध की ओर बढ़ने से रोके।


10 मई 2025 को भारत और पाकिस्तान ने एक युद्धविराम की घोषणा की, जिसे अमेरिका की मध्यस्थता से संभव माना गया। हालांकि, भारत ने इसे द्विपक्षीय समझौता बताया और अमेरिकी हस्तक्षेप को कमतर करने की कोशिश की। प्रोफेसर फेयर ने इस युद्धविराम को अस्थायी करार दिया। उन्होंने कहा कि जब तक पाकिस्तानी सेना अपनी नीतियों में बदलाव नहीं करती, तब तक इस तरह के तनाव बार-बार सामने आएंगे। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि पाकिस्तान भविष्य में फिर से भारत के खिलाफ आतंकी हमले कर सकता है, क्योंकि यह उसकी रणनीति का हिस्सा है।


फेयर के अनुसार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से अमेरिका, इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका की मध्यस्थता हमेशा दोनों देशों को स्वीकार्य नहीं होती, खासकर भारत के लिए, जो कश्मीर को अपना आंतरिक मामला मानता है।


प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर का टीवी साक्षात्कार भारत-पाकिस्तान संघर्ष की जटिलताओं को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनके विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि यह संघर्ष केवल दो देशों के बीच का विवाद नहीं है, बल्कि इसमें गहरे ऐतिहासिक, वैचारिक और रणनीतिक आयाम हैं। पाकिस्तानी सेना की आतंकवाद समर्थक नीतियां और भारत की आक्रामक जवाबी रणनीति इस क्षेत्र में स्थायी शांति की राह में बड़ी बाधाएं हैं।


हालांकि, फेयर का यह भी मानना है कि दोनों देशों के बीच संवाद और कूटनीति के रास्ते अभी पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं। यदि पाकिस्तान अपनी नीतियों में बदलाव लाता है और भारत संतुलित रुख अपनाता है, तो भविष्य में तनाव को कम करने की संभावना बनी रह सकती है। लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को न केवल अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करना होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सहयोग भी करना होगा। 

Monday, April 21, 2025

अमेरिकी टैरिफ नीतियों का भारत और विश्व पर प्रभाव

वैश्विक व्यापार में संरक्षणवाद का दौर एक बार फिर से उभर रहा है। अप्रैल 2025 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा घोषित पारस्परिक टैरिफ (रेसीप्रोकल टैरिफ) नीति ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला दिया है। इस नीति के तहत, भारत पर 27% का टैरिफ लगाया गया है, जबकि अन्य देशों जैसे चीन (34%), वियतनाम (46%), और यूरोपीय संघ (20%) पर भी भारी टैरिफ थोपे गए हैं। यह नीति अमेरिका के व्यापार घाटे को कम करने और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू की गई है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारत और विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री  प्रो. अरुण कुमार इस इस नीति के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए बताते है कि अमेरिका ने अपनी टैरिफ नीति को पारस्परिक करार देते हुए कहा है कि यह अन्य देशों द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर लगाए गए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं (जैसे मुद्रा हेरफेर और नियामक अंतर) के जवाब में उठाया गया कड़ा कदम है। 



ट्रम्प प्रशासन का दावा है कि भारत अमेरिकी वस्तुओं पर 52% का प्रभावी टैरिफ लगाता है, जिसके जवाब में भारत से आयात पर 27% का टैरिफ लगाया गया है। हालांकि, इस गणना की सटीकता पर सवाल उठाए गए हैं। मिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने व्यापार घाटे और आयात मूल्य के आधार पर टैरिफ दरें तय कीं, जो कि विश्व व्यापार संगठन के डेटा से मेल नहीं खाती। भारत का अमेरिकी वस्तुओं पर औसत टैरिफ दर 2023 में केवल 9.6% था, जो अमेरिकी दावों से काफी कम है।


इस नीति में दो स्तर के टैरिफ शामिल हैं: 5 अप्रैल से सभी देशों पर 10% का आधारभूत टैरिफ और 9 अप्रैल से देश-विशिष्ट टैरिफ। कुछ वस्तुओं जैसे फार्मास्यूटिकल्स, अर्धचालक और ऊर्जा उत्पादों को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे भारत के कुछ क्षेत्रों को राहत मिली है। भारत, जो अमेरिका का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, 2024 में $80.7 बिलियन का माल अमेरिका को निर्यात करता था। 27% टैरिफ से भारत के कई क्षेत्र प्रभावित होंगे, लेकिन कुछ क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ भी मिल सकता है। प्रो. अरुण कुमार के अनुसार, इस नीति का प्रभाव अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों रूपों में देखा जाएगा।



उल्लेखनीय है कि भारत के 14 बिलियन डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात और 9 बिलियन डॉलर के रत्न-आभूषण निर्यात पर टैरिफ का भारी असर पड़ेगा। ये क्षेत्र अमेरिकी बाजार पर निर्भर हैं और लागत में वृद्धि से उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो सकती है। इसके साथ ही मछली, झींगा और प्रसंस्कृत समुद्री खाद्य उद्योग जो कि 2.58 बिलियन डॉलर का है इन पर 27.83% का टैरिफ अंतर भारत की प्रतिस्पर्धा को कम करेगा, खासकर जब पहले से ही अमेरिका में एंटी-डंपिंग शुल्क लागू हैं। 


उधर भारतीय वस्त्र उद्योग को मिश्रित प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। हालांकि भारत पर टैरिफ वियतनाम (46%) और बांग्लादेश (37%) की तुलना में कम है, फिर भी बाजार और मुनाफे में कमी का जोखिम बना रहेगा। वहीं भारत के 9 बिलियन डॉलर के फार्मास्यूटिकल निर्यात को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे इस क्षेत्र को राहत मिली है। भारतीय फार्मा कंपनियों के शेयरों में 5% की वृद्धि देखी गई। हालांकि सॉफ्टवेयर सेवाएं प्रत्यक्ष रूप से टैरिफ से प्रभावित नहीं हैं, लेकिन वीजा प्रतिबंध और व्यापार तनाव भारतीय आईटी कंपनियों जैसे टीसीएस और इन्फोसिस के लिए चुनौतियां पैदा कर सकते हैं। प्रो. कुमार का मानना है कि भारत को कुछ क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिल सकता है, क्योंकि चीन और वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्धी देशों पर अधिक टैरिफ लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए परिधान और जूते जैसे क्षेत्रों में भारत अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है।



टैरिफ के कारण भारत के निर्यात में 30-33 बिलियन डॉलर की कमी आ सकती है। अर्थशास्त्रियों ने भारत की 2025-26 की विकास दर को 20-40 आधार पर कम करके 6.1% कर दिया है। हालांकि, भारत सरकार का दावा है कि यदि तेल की कीमतें 70 डॉलर प्रति बैरल से नीचे रहती हैं, तो 6.3-6.8% की विकास दर हासिल की जा सकती है।


अमेरिकी टैरिफ नीति का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। प्रो. कुमार के अनुसार, यह नीति वैश्विक व्यापार प्रणाली में 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट के समान व्यवधान पैदा कर सकती है। टैरिफ से वैश्विक व्यापार की गति धीमी होगी, जिससे आर्थिक विकास प्रभावित होगा। जेपी मॉर्गन ने चेतावनी दी है कि यदि यही टैरिफ नीति लागू रहती है, तो अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी में आ सकती है। इससे आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी, जिससे अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। बोस्टन फेडरल रिजर्व बैंक का अनुमान है कि टैरिफ से कोर पीसीई मुद्रास्फीति में 0.5-2.2% की वृद्धि हो सकती है। वैश्विक शेयर बाजारों में गिरावट और मुद्रा अस्थिरता पहले ही देखी जा चुकी है।


चीन, यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने अमेरिकी वस्तुओं पर जवाबी टैरिफ की घोषणा की है, जिससे वैश्विक व्यापार युद्ध की आशंका बढ़ गई है। इससे आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित होंगी और व्यवसायों को लागत बढ़ने का सामना करना पड़ेगा। कम प्रति व्यक्ति आय वाले देश जैसे कंबोडिया (50% टैरिफ) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। इससे अमेरिका की विकासशील देशों में साख को नुकसान हो सकता है।


प्रो. कुमार का सुझाव है कि भारत को इस संकट को अवसर में बदलने के लिए रणनीतिक कदम उठाने चाहिए।भारत को अमेरिका के साथ व्यापार समझौते पर तेजी से काम करना चाहिए। 23 बिलियन डॉलर के अमेरिकी आयात पर टैरिफ कम करना एक शुरुआत हो सकती है। यूरोपीय संघ, आसियान और मध्य पूर्व जैसे वैकल्पिक बाजारों पर ध्यान देना चाहिए। भारत-ईयू मुक्त व्यापार समझौते को तेज करना महत्वपूर्ण होगा। आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया जैसी पहलों को मजबूत करके घरेलू उत्पादन और खपत को बढ़ावा देना चाहिए। छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए सब्सिडी, कर राहत और निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं को लागू करना चाहिए।


अमेरिकी टैरिफ नीति ने वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता का माहौल पैदा किया है। भारत के लिए यह एक चुनौती होने के साथ-साथ अवसर भी है। प्रो. कुमार का मानना है कि यदि भारत रणनीतिक रूप से कार्य करे, तो वह न केवल इन टैरिफों के नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकता है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी स्थिति को भी मजबूत कर सकता है। दीर्घकालिक दृष्टिकोण और सुधारों के साथ, भारत इस संकट को एक नए आर्थिक युग की शुरुआत में बदल सकता है। 

Monday, January 11, 2021

वॉशिंगटन से सबक़


हारे हुए अहमक राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के समर्थकों ने अमरीकी संसद भवन ‘कैपिटौल’ पर जो गुंडागर्दी की उसे देख कर सारी दुनिया दंग रह गई। हर दूसरे देश को लोकतंत्र का सबक़ सिखाने की आत्मघोषित ‘नैतिक ज़िम्मेदारी’ का दावा करने वाले दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का यह विद्रूप चेहरा अमरीकी नागरिकों को ही नही ख़ुद ट्रम्प के चहेते उप-राष्ट्रपति माइकल पेंस, मंत्रियों व सांसदों को भी नागवार गुज़रा। अमरीकी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनावी नतीजों पर संसद के दोनों सदनों को स्वीकृति की मुहर लगानी होती है। जिसके लिए वे गत बुधवार को कैपिटौल में जमा हुए थे। हार से बौखलाए ट्रम्प ने अपने उप-राष्ट्रपति, मंत्रियों व सांसदों पर भारी दबाव डाला कि वे इन नतीजों को अस्वीकार कर लौटा दें। ग़नीमत है कि इन लोगों ने अपने नेता और अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति के इस ग़ैर-संविधानिक आदेश को मानने से मना कर दिया और डेमोक्रेटिक पार्टी के जीते हुए उम्मीदवार जो बाइडेन की जीत पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। उप-राष्ट्रपति ने तो ट्रम्प से साफ़-साफ़ कह दिया कि वे अमरीका के उप-राष्ट्रपति हैं ट्रम्प के नहीं। इसलिए वे संविधान की अपनी शपथ के अनुसार उसकी रक्षा का काम करेंगे, उसके विरुद्ध नहीं। ट्रम्प सरकार की शिक्षा मंत्री निक्की हेली ने सत्ता हस्तांतरण से 12 दिन पहले मंत्रीपद से यह कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि,
जो कुछ हुआ वो शर्मनाक है। सारे देश के विद्यार्थियों ने भीड़ के तांडव को देखा, जिसका उनके मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा होगा। मैं इस सब से व्यथित हो कर अपने पद से इस्तीफ़ा दे रही हूँ। 



रिपब्लिकन पार्टी के इन नेताओं का हृदय परिवर्तन अमरीकी जनता और लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण हैं। अगर यह लोग चुनाव नतीजे आने के बाद ही जाग जाते और ट्रम्प को वो सब हरकतें करने से रोक देते जो इस सिरफिरे राष्ट्रपति ने पिछले दो महीने में की हैं तो रिपब्लिकन पार्टी की ऐसी जग-हँसाई नहीं होती। अब जब पानी सिर से ऊपर गुज़र गया तो इस घबराहट में इन सब ने डॉनल्ड ट्रम्प से पल्ला झाड़ा क्योंकि इन्हें भविष्य में अपने राजनैतिक कैरियर पर ख़तरा नज़र आ गया। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’। दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने कैपिटौल पर हुए हमले के लिए ट्रम्प के समर्थकों की कड़े शब्दों में आलोचना की है। अब भविष्य में ट्रम्प के साथ जो भी खड़ा होगा वो अपनी कब्र खुद खोदेगा। 


भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भी ट्वीट करके अमरीका में सत्ता हस्तांतरण को शांतिपूर्ण ढंग से किए जाने की अपील करनी पड़ी। ज़ाहिर है मोदी जी को इस बात पर पछतावा हुआ होगा कि उन्होंने अमरीका में जा कर ऐसे अहमक आदमी के लिए चुनाव प्रचार किया। उनका दिया नारा, ‘अबकि बार ट्रम्प सरकार’ उल्टा पड़ गया। मोदी जी ने शायद अमरीका और भारत के सम्बन्धों को और प्रगाढ़ बनाने के उद्देश्य से ऐसा किया होगा। पर जब उन्होंने ये नारा दिया था तो न सिर्फ़ अमरीकी समाज और मीडिया बल्कि भारतीय समाज पर भी इस पर आश्चर्य व्यक्त किया गया था। इससे पहले भारत के या किसी अन्य देश के प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति ने दूसरे देश में जाकर उसके राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार कभी नहीं किया था। चूँकि अब अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है तो ये शंका व्यक्त करना निर्मूल न होगा कि मोदी जी के इस कदम से अमरीका में सत्तरूढ होने जा रही पार्टी में मोदी सरकार के विरुद्ध तल्ख़ी हो। हालंकि अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर बाइडेन की नई सरकार इस बात की उपेक्षा कर सकती है। क्योंकि अमरीका के लिए अपने व्यावसायिक हित पहले होते हैं। उधर बाइडेन ने यह साफ़ कह दिया है कि वे वैचारिक, धार्मिक या सामाजिक दृष्टि से बटे हुए अमरीकी समाज को जोड़ने का काम करेंगे क्योंकि वे हर अमरीकी के राष्ट्रपति हैं न कि केवल उनके जिन्होंने उन्हें वोट दिया।

 

कैपिटोल की घटना से विचलित होकर मैंने भी एक ट्वीट किया था जिसे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, शरद पवार, सुखविंदर सिंह बादल, अखिलेश यादव, मायावती, जयंत चौधरी, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार व शरद यादव आदि को भी टैग किया। जिसमें मैंने इन सभी राजनैतिक दलों के नेताओं को वाशिंगटन की इस निंदनीय घटना से सबक़ सीखने की सलाह दी। ये कहते हुए कि किसी भी मुद्दे पर अपने चहेतों को इस तरह उकसा कर भीड़ का हिंसक हमला करवाना बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। जिससे न केवल लोकतंत्र ख़तरे में पड़ेगा बल्कि गुंडे और मवाली सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाएँगे। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को इस ख़तरनाक प्रवृति को पनपने से पहले कुचलने का काम करना चाहिए। वरना भविष्य में स्थितियाँ उनके हाथ में नहीं रहेंगी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरना करना या क़ानून व्यवस्था को भंग किए बिना नारे, पोस्टर लगाना या हड़ताल करना लोकतंत्र का स्वीकृत अंग है। जिसे पुलिस के डंडे से कुचलना अमानवीय और लोकतंत्र विरोधी होता है। हाँ विरोध प्रदर्शन में हिंसा या तोड़फोड़ बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। 


ग़नीमत है आज़ादी से आजतक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता का परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से होता आया है और होता रहना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा। जो भारत जैसी भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक विषमता वाले देश के लिए बहुत ज़रूरी है। दो दशक पहले, अपने इसी कॉलम में मैंने लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहकर केंद्रीयकृत सत्ता का समर्थन किया था। क्योंकि तब मुझे लगता था कि बहुत सारे विवादास्पद विषयों का कड़े नेतृत्व से ही समाधान हो सकता है, लोकतंत्र से नहीं। पर पिछले 20 वर्षों के अनुभव के बाद केंद्रीयकृत नेतृत्व के ख़तरे समझ में आने लगे हैं। शासक की जवाबदेही, विपक्ष के साथ लगातार संवाद और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को अगर निष्ठा से अपनाया जाए तो लोकतंत्र ही समाज का हित कर सकता है, अधिनायकवाद नहीं। डोनाल्ड ट्रम्प के अधिनायकवादी रवैए से इस मान्यता की पुनः पुष्टि हुई है। वाशिंगटन में जो कुछ हुआ, वो किसी भी देश में कभी न हो इसके लिए हर राजनैतिक दल को सजग और सचेत रहना चाहिए। 

Monday, November 9, 2020

अमरीकी टीवी से सीखें भारतीय टीवी चैनल

अमरीका में चुनाव का जो भी नतीजा हो मतगणना के दौरान डॉनल्ड ट्रम्प ने जो जो नाटक किए उससे उनका पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ा है। अपनी हार की आशंका से बौखलाए ट्रम्प ने कई बार संवाददाता सम्मेलन करके विपक्ष पर चुनाव हड़पने के तमाम झूठे आरोप लगाए और उनके समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के पद की गरिमा को भारी ठेस लगी है। 

पर हमारा आज का विषय ट्रम्प नहीं बल्कि अमरीकी टीवी चैनल हैं। जिन्होंने गत शुक्रवार को ट्रम्प के संवाददाता सम्मेलन का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक दिया। यह कहते हुए कि राष्ट्रपति ट्रम्प सरासर झूठ बोल रहे हैं और बिना सबूत के दर्जनों झूठे आरोप लगा रहे हैं। इन टीवी  चैनलों के एंकरों ने यह भी कहा ट्रम्प के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से अमरीकी समाज में अफ़रातफ़री फैल सकती है और संघर्ष पैदा हो सकता है, इसलिए जनहित में हम राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक रहे हैं। 


अमरीका के समाचार टीवी चैनलों की इस बहादुरी और ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की सारी दुनिया में तारिफ़ हो रही है। दरअसल अपनी इसी भूमिका के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ये भारत के समाचार टीवी चैनलों के लिए बहुत बड़ा तमाचा है। दूरदर्शन तो अपने जन्म से ही सरकार का भोंपू रहा है। प्रसार भारती बनने के बाद उस स्थिति में थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है। पर कमोबेश वो आज भी सरकार का भोंपू बना हुआ है। भारत में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेज़ी विडीओ न्यूज़ पत्रिका ‘न्यूज़ट्रैक’ से और मैंने ‘कालचक्र’ हिंदी विडीओ समाचार पत्रिका से 30 वर्ष पहले शुरू की थी। तब अंग्रेज़ी दैनिक पायनियर में मेरा और न्यूज़ट्रैक की संपादिका मधु त्रेहान का एक इंटरव्यू छपा था। जिसमें मधु ने कहा था, ‘हम मीडिया के व्यापार में हैं और व्यापार लाभ के लिए किया जाता है।’ और मैंने कहा था, ‘हम जनता के प्रवक्ता हैं इसलिए जो भी सरकार में होगा उसकी ग़लत नीतियों की आलोचना करना और जनता के दुःख दर्द को सरकार तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है और हम हमेशा यही करेंगे।’ 


जब से निजी टीवी चैनलों की भरमार हुई है तबसे लोगों को लगा कि अब टीवी समाचार सरकार के शिकंजे से मुक्त हो गए। पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर समाचार चैनल राजनैतिक ख़ेमों में बट गए हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी था। क्योंकि जितना आडम्बरयुक्त और खर्चीला साम्राज्य इन टीवी चैनलों ने खड़ा कर लिया है उसे चलाने के लिए मोटी रक़म चाहिए। जो राजनैतिक दलों या औद्योगिक घरानों के सहयोग के बिना मिलनी असम्भव है। फिर भी कुछ वर्ष पहले तक कुल मिलाकर सभी टीवी चैनल एक संतुलन बनाए रखने का कम से कम दिखावा तो कर ही रहे थे। पर पिछले कुछ वर्षों में भारत के ज़्यादातर समाचार चैनलों का इतनी तेज़ी से पतन हुआ कि रातों रात टीवी पत्रकारों की जगह चारण और भाटों ने ले ली। जो रात दिन चीख-चीख कर एक पक्ष के समर्थन में दूसरे पक्ष पर हमला करते हैं। 


इनकी एंकरिंग या रिपोर्टिंग में तथ्यों का भारी अभाव होता है या वे इकतरफ़ा होते हैं। इनकी भाषा और तेवर गली मौहल्ले के मवालियों जैसी हो गई है। इनके ‘टॉक शो’ चौराहों पर होने वाले छिछले झगड़ों जैसे होते हैं। और तो और कभी चाँद पर उतरने का एस्ट्रोनॉट परिधान पहन कर और कभी राफ़ेल के पाइलट बन कर जो नौटंकी ये एंकर करते हैं, उससे ये पत्रकार कम जोकर ज़्यादा नज़र आते हैं। इतना ही नहीं दुनिया भर के टीवी चैनलों के पुरुष और महिला एंकरों और संवाददाताओं के पहनावे, भाषा और तेवर की तुलना अगर भारत के ज़्यादातर टीवी चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं से की जाए तो स्थिति स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। भारत के ज़्यादातर समाचार टीवी चैनल पत्रकारिता के अलवा सब कुछ कर रहे हैं। यह शर्मनाक ही नहीं दुखद स्थिति है। गत शुक्रवार को अमरीका के राष्ट्रपति के झूठे बयानों का प्रसारण बीच में रोकने की जो दिलेरी अमरीका के टीवी एंकरों ने दिखाई वैसी हिम्मत भारत के कितने समाचार टीवी एंकरों की है? 


उधर अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को लेकर भी जो विवाद हुआ है उसे भी इसी परिपेक्ष में देखने की ज़रूरत है। अगर आप यूट्यूब पर मेरे नाम से खोजें तो आपको तमाम टीवी शो ऐसे मिलेंगे जिनमें एंकर के नाते अर्नब ने हमेशा मुझे पूरा सम्मान दिया है और मेरे संघर्षों का गर्व से उल्लेख भी किया है। ज़ाहिर है कि मैं अर्नब के विरोधियों में से नहीं हूँ। टीवी समाचारों के 31 बरस के अपने अनुभव और उम्र के हिसाब से मैं उस स्थिति में हूँ कि एक शुभचिंतक के नाते अर्नब की कमियों को उसके हित में खुल कर कह सकूं। पिछले कुछ वर्षों में अर्नब ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघ कर जो कुछ किया है उससे स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता कलंकित हुई है। अर्नब के अंधभक्तों को मेरी यह टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। पर हक़ीक़त यह है कि अर्नब भारतीय टीवी का एक जागरूक, समझदार और ऊर्जावान एंकर था। लेकिन अब उसने अपनी वह उपलब्धि अपने ही व्यवहार से नष्ट कर दी। कहते हैं जब जागो तब सवेरा। हो सकता है कि अर्नब को इस आपराधिक मामले में सज़ा हो जाए या वो बरी हो जाए। अगर वो बरी हो जाता है तो उसे एकांत में कुछ दिन पहले ध्यान करना चाहिए और फिर चिंतन और मनन कि वो पत्रकारिता की राह से कब और क्यों भटका? यही चेतावनी बाक़ी समाचार चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं के लिए भी है कि वे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का सदस्य होने की गरिमा और मर्यादा को समझें और टीवी पत्रकार की तरह व्यवहार करें, चारण और भाट की तरह नहीं।