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Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, March 4, 2024

संदेशखाली : नया नहीं है अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण


पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं से यौन उत्पीड़न और जमीन हड़पने के आरोपी तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख शाहजहां जिस तरह कोर्ट में पेश होता हुआ दिखाई दिया उससे उसको मिल रहे राजनैतिक संरक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता। इस कारण टीएमसी नेता और पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आरोपों के घेरे में हैं। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी होती है कि बिना अपवाद की सभी राजनैतिक पार्टियों को कुख्यात अपराधियों को संरक्षण देना पड़ता है? यह बात नई नहीं है कि भोले-भले वोटरों के बीच भय पैदा करने के उद्देश्य से सभी राजनैतिक दल स्थानीय अपराधियों और माफ़ियाओं को संरक्षण देते हैं। लोकतंत्र की दृष्टि से क्या यह सही है?
 



जैसे ही संदेशखाली के आरोपी शेख शाहजहां के मामले ने तूल पकड़ा उसे टीएमसी ने 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। पार्टी के इस फैसले का ऐलान करते हुए टीएमसी नेता डेरेक ओ' ब्रायन ने अन्य राजनैतिक दलों पर तंज कसते हुए कहा कि एक पार्टी है, जो सिर्फ बोलती रहती है। तृणमूल जो कहती है, वो करती है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ये काम पहले क्यों नहीं किया? क्या कोर्ट में पेश होते समय शेख शाहजहां की जो चाल-ढाल थी उससे इस निष्कासन का कोई मतलब रह गया है? पश्चिम बंगाल की पुलिस शेख शाहजहां के साथ अन्य अपराधियों की तरह बरताव क्यों नहीं कर रही थी? क्या शेख शाहजहां का निलंबन केवल एक औपचारिकता है और असल में उसे भी अन्य राजनैतिक अपराधियों की तरह जेल में वो पूरी ‘सेवाएँ’ दी जाएँगी जो हर रसूखदार क़ैदी को मिलती है? 



जहां तक पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सवाल है उन पर यह आरोप अक्सर लगते आए हैं कि वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक वर्ग के अपराधियों को संरक्षण देती आई हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे ऐसे अपराधियों को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बताते हुए उसे पुलिस थाने से छुड़ाने भी गईं हैं। यहाँ सवाल उठता है कि जब भी कभी आप अपने घर या कार्यालय में किसी को काम करने के लिए रखने की सोचते हैं तो उसके बारे में पूरी छान-बीन अवश्य करते हैं। ठीक उसी तरह जब कोई राजनैतिक दल अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता या नेता को कोई ज़िम्मेदारी देता है तो भी वे इसकी जाँच अवश्य करते होंगे कि वो व्यक्ति पार्टी और पार्टी के नेताओं के लिए कितना कामगार सिद्ध होगा। यदि ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता से ऐसी भूल लगातार होती आई है तो इसे भूल नहीं कहा जाएगा। 



वहीं अगर दूसरी ओर देखा जाए तो विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा भी अपराधियों को संरक्षण देने में किसी से पीछे नहीं है। मामला चाहे महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले नेता ब्रज भूषण शरण सिंह का हो या किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले गृह राज्यमंत्री के बेटे का हो या बलात्कार करने वाले कुलदीप सिंह सेंगर का हो। मणिपुर में हुई हिंसा और बलात्कार के दर्जनों घटनाएँ हों। बीजेपी शासित राज्यों में हिंसा, बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त भाजपा के नेताओं की लिस्ट भी काफ़ी लंबी है। 



चुनाव सुधार पर काम करने वाले संगठन 'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 40% मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 25% हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। बावजूद इसके उन्हें सांसद या विधायक बनाकर सदन में बिठा दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 763 मौजूदा सांसदों में से 306 सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही 194 सांसदों ने ख़ुद पर गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा अपने नामांकन प्रपत्र में घोषित की है। 


देश में अपराधियों को मिल रहे राजनैतिक संरक्षण पर आज तक अनेकों रिपोर्टें बनीं और उनमें इस समस्या से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिये गये। परंतु अपराधियों, नेताओं और नौकरशाही के इस गठजोड़ के चक्रव्यूह को अभी तक भेदा नहीं जा सका। यदि कोई भी राजनैतिक दल ठान ले कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को अपने दलों में संरक्षण नहीं देगा तो इस समस्या का समाधान अवश्य निकल सकता है। 


जो भी राजनैतिक दल यदि केंद्र या राज्य में सत्ता में हों और यदि उसके समक्ष उसी के दल के किसी सदस्य या नेता के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगते हैं तो उन्हें इस पर उस दल के बड़े नेताओं को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। देश की अदालतों के हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी ऐसा दल अपने किसी कार्यकर्ता या नेता के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगा तो मतदाताओं की नज़र में उस दल का क़द काफ़ी ऊँचा उठेगा। इसके साथ ही वो दल दूसरे दलों पर अपराधियों को संरक्षण देने के मामले में बढ़-चढ़ कर शोर भी मचा सकेगा। 


इसके साथ ही भारतीय पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए। राष्ट्रीय पुलिस आयोग व वोरा समिति द्वारा दिये गये सुझावों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। ऐसे सुधारों के प्रति हर सरकार का ढुल-मुल रवैया रहा है जो ठीक नहीं है। पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे हर तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। हालिया मसले में देखें, तो जहां तक अदालत में पेश करने का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर किसी राजनैतिक दल संरक्षण में है, तो उसके साथ पुलिस का व्यवहार एक मामूली अपराधी की तरह होगा यह कहना मुश्किल है। यदि पुलिस राजनैतिक दबाव से बाहर रहे तो वो बिना किसी डर के राजनैतिक अपराधियों के साथ क़ानून के दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाएगी।  


देश के तमाम राजनैतिक दल भारत को अपराध मुक्त करने का दावा तो अवश्य करते हैं पर क्या इसे आचरण में लाते हैं? क्या अपने-अपने दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना और जनता के सामने अपराध मुक्ति के बड़े-बड़े दावे करना विरोधाभास नहीं हैं? यदि चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत कुछ कड़े कदम उठाए और राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर पूरी तरह रोक लग जाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। परंतु ऐसा कब होगा देश के मतदाताओं को इसका इंतज़ार रहेगा। 

Monday, November 6, 2023

संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने का आरोप नया नहीं है


संसद में सवाल पूछने के मामले को पैसे और लॉगइन शेयर करने का मामला बनाकर कुछ दिन खबरें तो छपवाई जा सकती हैं पर यह मामला नया नहीं है और ज्यादा नहीं चलेगा। इसमें कुछ होना भी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में मेरे सहयोगी रहे ए सूर्यप्रकाश, जो बाद में प्रसार भारती के प्रमुख भी बने ने पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का मामला बहुत पहले उठाया था । तब मैंने कालचक्र के अंग्रेजी संस्करण में उस लेख को छापा था, संसद में सवाल बिकते हैं। यह 1997 का मामला है। 


ज़्यादातर सांसंदों के कॉरपोरेट से संबंध होते हैं और कॉरपोरेट के लॉबिइस्ट भी होते हैं। इसमें वे कुछ गलत नहीं मानते और ना ही इसे रोका जा सकता है। इलेक्टोरल बॉण्ड की पारदर्शिता से बचने का सरकार का यहीं संकोच है। इसलिये सांसदों का संबंध कॉरपोरेट से रहेगा ही। अगर गहन जाँच की जाय तो ऐसा आरोप किसी पर भी लगाये जा सकते हैं।



ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत में होता है। दुनिया भर के देशों में यह किसी ने किसी तरह होता ही है। ऐसे में महुआ मोइत्रा का मामला बेकार ही बड़ा बनाया जा रहा है और इसमें सांसदों की नैतिकता का मामला उठेगा और जैसा महुआ मोइत्रा ने कहा है एथिक्स कमेटी का काम था सांसदों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट बनाना जो बना ही नहीं है। यही हाल संसद में सवाल पूछने या दर्ज अथवा पोस्ट करने के लिए यूजरआईडी, पासवर्ड शेयर करने का भी है। महुआ ने कहा है कि ऐसे कोई नियम नहीं है जबकि व्यक्ति विशेष के उपयोग के लिए जारी सरकारी यूजर आईडी औऱ पासवर्ड साझा करने पर सवाल उठाये ही जा सकते हैं।


दूसरी ओर, महुआ कह रही हैं कि यह सब आम है। ज्यादातर सासंदों के लिए यह सब काम दूसरे लोग करते हैं। उनके मामले में ओटीपी उनके फोन पर आता है इसलिए कुछ गलत नहीं है। कुल मिलाकर, विवाद हो तो रहा है पर मुद्दा इस लायक नहीं है और इसमें सांसदों का ही नहीं, एथिक्स कमेटी का व्यवहार भी सार्वजनक हो रहा है। यह अलग बात है कि सभी अखबारों में सब कुछ नहीं छप रहा है। लेकिन बहुत कुछ सार्वजनिक हो चुका है और फायदा कोई नहीं है। महुआ मोइत्रा ने यह भी कहा है कि सांसद दानिश अली की शिकायत पर सांसद रमेश विधूड़ी को भी बुलाया गया था पर वे राजस्थान चुनाव में व्यस्त हैं। इसलिए उन्हें फिलहाल छोड़ दिया गया है।



दूसरी ओर महुआ मोइत्रा ने दुर्गा पूजा के कारण चुनाव क्षेत्र में व्यस्त होने की दलील दी और पांच नवंबर के बाद की तारीख मांगी थी तो भी उन्हें 2 नवंबर की तारीख दी गई और विवाद हो गया। मूल कारण नैतिकता या एथिक्स का ही है। महुआ मोइत्रा के मामले में समिति समय बढ़ाने पर भी एकमत नहीं थी। अब लगभग सब कुछ सार्वजनिक होने और एथिक्स कमेटी में मतभेद तथा उसपर लगे आरोपों के बावजूद एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष विनोद सोनकर ने कहा है कि विवाद खड़ा करने वाले कमेटी को काम नहीं करने देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि विवाद हो जिससे कार्य प्रभावित हो, मगर ऐसा नहीं होगा। कमेटी अपना काम करेगी और स्पीकर को जल्द रिपोर्ट सौंपेगी। आप समझ सकते हैं कि इस मामले में रिपोर्ट की जल्दी क्यों है और रमेश विधूड़ी को छूट क्यों है। 



जाहिर है कि यह मामला पूरी तरह उन्हें परेशान करने का है और मीडिया में लीक करके तथा महुआ के आरोपों को जगह नहीं मिलने से यह बाकायदा साबित हो चला है। यह अलग बात है कि भारत की आम महिला निजी तस्वीरें सार्वजनिक किये जाने से ही परेशान हो जाती फिर भी महुआ ने सबका मुकाबला किया है और अपनी बात भी सार्वजनिक तौर पर कहती रही हैं। इसमें चैनल विशेष के लिए इंटरव्यू मांगने वाले से यह कहना शामिल है कि इंटरव्यू इसी शर्त पर दूंगी कि मुझे हीरे का वह नेकलेस दिया जाए जिसकी तस्वीर आप मेरे नाम के साथ चमकाते रहे हैं। यह इंटरव्यू की कीमत है। जाओ अपने बॉस को शब्दशः कह दो। बाद में उन्होंने इस चैट को खुद ही सार्वजनिक कर दिया।


सामान्य समझ की बात है कि पैसे लेकर सवाल पूछने का आरोप तब तक साबित नहीं होगा जब तक इस बात के लिखित सबूत नहीं होंगे कि पैसे सवाल पूछने के लिए दिये लिये जा रहे हैं। जाहिर है, ऐसा होना नहीं है। आम तौर पर अगर ऐसा कोई दस्तावेज हो भी तो रिश्वत लेने वाले के साथ देने वाला भी फंसेगा और वायदा माफ गवाह बनाये जाने की गारंटी सवाल पूछने के लिए पैसे देते समय तो नहीं ही होगी। इसलिए ना लेने वाला और ना देने वाला ऐसा दस्तावेज बनाएगा। यही नहीं, सहेली को उपहार देना भी रिश्वत नहीं हो सकता है और उपहार को भी कोई रिश्वत के रूप में दर्ज नहीं करेगा।


वैसे महुआ का कहना है कैश यानी नकद कहां है? कब, कहां, किसने, किसे दिया और क्या सबूत है। यही नहीं, स्वेच्छा से आरोपों के समर्थन में जारी किये गये शपथ पत्र में नकद देने का जिक्र ही नहीं है। इसके अलावा, नकद दिया-लिया गया इसे साबित करने का काम देने वाले को करना है, पैसे नहीं मिले हैं यह साबित करने की जरूरत नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि किसी को पैसे देने का आरोप तो कोई भी लगा सकता है कि दिये हैं। पी चिदंबरम के मामले में भी यही हुआ था और तब भी आरोप लगाने वाले को वायदा माफ गवाह बनाया गया था।


संजय सिंह के मामले में भी ऐसा ही हुया है। दस साल में एक ही तरीके से तीन दलों के तीन मुखर विरोधियों को निपटाने का यह तरीका भी विचारणीय है। फिर भी मामला चल रहा है और अखबारों तथा मीडिया में इतनी जगह पा रहा है तो इसीलिए कि महुआ सरकार के निशाने पर हैं। ऐप्पल का अलर्ट इसी संदर्भ में हो सकता है और यह कोशिश चल रही हो कि आरोप लगाने के लिए सूचनाएं कौन देता है। अलर्ट में राज्य प्रायोजित महत्वपूर्ण है और उसका संबंध पेगासस से लगता है।