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Monday, July 8, 2019

संघ के स्वयंसेवकों से इतना परहेज क्यों?

पिछले दिनों विदेश में तैनात भारत के एक राजदूत से मोदी सरकार के अनुभवों पर बात हो रही थी। उनका कहना था कि मोदी सरकार से पहले विदेशों में सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि का आयोजन दूतावास के अधिकारी ही किया करते थे। लेकिन जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, तब से अप्रवासी भारतीयों के बीच सक्रिय संघ व भाजपा के कार्यकर्ता इन कार्यक्रमों के आयोजन में काफी हस्तक्षेप करते हैं और इन पर अपनी छाप दिखाना चाहते हैं। कभी-कभी उनका हस्तक्षेप असहनीय हो जाता है। सत्तारूढ़ दल आते-जाते रहते हैं। इसलिए दूतावास अपनी निष्पक्षता बनाए रखते हैं और जो भी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, उनका स्वरूप राष्ट्रीय होता है, न कि दलीय।
इस विषय में क्या सही है और क्या गलत, इसका निर्णंय करने में भारत के नये विदेश मंत्री जयशंकर सबसे ज्यादा सक्षम हैं। क्योकि वे किसी राजनैतिक दल के न होकर, एक कैरियर डिप्लोमेट रहे हैं। कुछ ऐसी ही शिकायत देश के शिक्षा संस्थानों, अन्य संस्थाओं व प्रशासनिक ईकाईयों से भी सुनने में आ रही हैं। इन सबका कहना है कि संघ और भाजपा के कार्यकर्ता अचानक बहुत आक्रामक हो गए हैं और अनुचित हस्तक्षेप कर रहे हैं।
किसी भी शैक्षिक संस्थान, अन्य संस्थाओं या प्रशासनिक ईकाईयों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप गैर अधिकृत व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। इसके दूरगामी परिणामी बहुत घातक होते हैं। क्योंकि ऐसे हस्तक्षेप के कारण उस संस्थान की कार्यक्षमता और गुणवत्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।
पर प्रश्न है कि क्या ऐसा पहली बार हो रहा? क्या पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में केंद्र या राज्यों में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं का इसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होता था? ये हमेशा होता आया है। सरकारी अतिथिगृहों, सरकारी गाड़ियों व विदेश यात्राओं का दुरूपयोग व सरकारी खर्च पर अपने प्रचार के लिए बड़े-बड़े आयोजन और भोज करना आम बात होती थी। यहां तक कि कई राजनैतिक दल तो ऐेसे हैं, जिनके विधायक, सांसद और कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में पूरी दबंगाई करते रहे हैं। पर तब ऐसी आपत्ति किसी ने क्यों नहीं की? इसलिए कि कौन सत्तारूढ़ दल का बुरा बने और अपनी अच्छी पोस्टिंग खो दे? इसके लालच में वे सब कुछ सहते आऐ हैं।
आज जो लोग दखल दे रहे हैं, उनका गुंडई और दबंगई का इतिहास नहीं है, बल्कि हिंदू विचारधारा के प्रति समर्पण और संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। सदियों से दबी इन भावनाओं को सत्ता के माध्यम से समाज के आगे लाने की उनकी प्रबल इच्छा उन्हें ऐसा करने पर विवश कर रही है। लेकिन इसके पीछे उनका अध्ययन, आस्था, देशप्रेम व भारत की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने का मूलभाव है।
ये सही है कि उत्साह के अतिरेक में संघ और भाजपा के कार्यकर्ता कभी-कभी रूखा व्यवहार कर बैठते हैं। इस पर उन्हें ध्यान देना चाहिए। मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि संघ के कार्यकर्ताओं के त्याग, देश और धर्म के प्रति निष्ठा पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। पर उनमें से कुछ में व्याप्त आत्मसंमोहन और अंहकार विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों को भी विचलित कर देता है। जिसका नुकसान वृह्द हिंदू समाज को सहना पड़ता है। उनके इस व्यवहार से संघ की विचारधारा के प्रति सहानुभूति न होकर एक उदासीनता की भावना पनपने लगती है।
भारत में करोड़ों लोग भारतमाता और सनातन धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं और अपना जीवन इनके लिए समर्पित कर देते हैं। पर वे जीवनभर किसी भी राजनैतिक दल या विचारधारा से नहीं जुड़ते। तो क्या उनका तिरस्कार किया जाए या उनके काम में हस्तक्षेप किया जाए अथवा उनके कार्य की प्रशंसा कर, उनका सहयोग कर, उनका दिल जीता जाए?
अभी कुछ समय पहले की बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत जी ने यह कहा था कि जो लोग भी, जिस रूप में, हिंदू संस्कृति के संरक्षण या उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं, उनका संघ के हर स्वयंसेवक को सम्मान और सहयोग करना चाहिए।
मेरा स्वयं का अनुभव भी कुछ ऐसा ही है भारत माता, सनातन धर्म, गोवंश आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था और वैदिक संस्कृति में मेरी गहरी आस्था है और इन विषयों पर गत 35 वर्षों से मैं प्रिंट और टेलीवीजन पर अपने विचार पूरी ताकत के साथ बिना संकोच के रखता रहा हूं और शायद यही कारण है कि 20 वर्ष पहले ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ के मुख्यालय में बैठे हुए गुलाम नवी आजाद ने राजीव शुक्ला से एकबार पूछा कि ‘‘क्या विनीत नारायण संघी है?’’ राजीव ने उत्तर दिया कि ‘न वो संघी हैं, न कांग्रेसी हैं। वो सही मायने में निष्पक्ष पत्रकार हैं और जो उन्हें ठीक लगता है, उसका समर्थन करते हैं और जो गलत लगता है, उसका विरोध करते हैं।’ विचारने की बात है कि हिंदू धर्म के लिए समर्पित किसी व्यक्ति को  नीचा दिखाकर, अपमानित करके, उनके अच्छे कार्यों में हस्तक्षेप करके संघ और भाजपा के कार्यकर्ता हिंदू धर्म का अहित ही करेंगे। भगवान राधाकृष्ण की लीलाभूमि ब्रज क्षेत्र में गत 17 वर्षों से हिंदू सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण और सौंदर्यीकरण में जुटी ‘द ब्रज फाउंडेशन’ की टीम का गत 2 वर्षों का अनुभव बहुत दुखद रहा है। जब ईष्र्या और द्वेषवश इस टीम पर अनर्गल आरोप लगाये गये और उनके काम में बाधाऐं खड़ी की गई। जबकि इस स्वयंसेवी संस्था के कार्यों की प्रशंसा प्रधानमंत्री श्री मोदी से लेकर हर हिंदू संत और ब्रजवासी करता है। संघ व भाजपा नेतृत्व को इस पर विचार करना चाहिए कि ब्रज में ऐसा क्यों हो रहा है?

Monday, February 11, 2019

सौगंध राम की खाते हैं-हम मंदिर वहीं बनाएंगे

आरएसएस व विहिप द्वारा अर्ध कुम्भ में बुलाई गई धर्म संसद में जमकर हंगामा हुआ। मंच से संघ, विहिप और उनके बुलाये संतों के मुख से ये सुनकर कि अयोध्या में श्री राम मंदिर बनाने में जल्दी नहीं की जाएगी। कानून और संविधान का पालन होगा। अभी पहले चुनाव हो जाने दें। आप सब भाजपा को वोट दें जिससे जीतकर आई नई सरकार फिर मंदिर बनवा सके।

इतना सुनना था कि पहले से ही आधा खाली पंडाल आक्रामक होकर मंच की तरफ दौड़ा। श्रोता, जिनमे ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता थे, आग बबूला हो गए और मंचासीन वक्ताओं को जोर जोर से गरियाने लगे। उनका कहना था की तीस वर्षों से उन्हें उल्लू बनाकर मंदिर की राजनीति की जा रही है। अब वो अपने गांव और शहरों में जनता को क्या मुँह दिखाएंगे ?
उल्लेखनीय है कि गत कुछ महीनों से संघ, विहिप और भाजपा लगातार मंदिर की राजनीति को गर्माने में जुटे थी। इस मामले की बार-बार तारीख बढ़ाने पर कार्यकर्ता और उनका प्रायोजित सोशल मीडिया सर्वोच्च न्यायालय पर भी हमला कर रहे थे। मुख्य न्यायाधीश को हिन्दू विरोधी बता रहे थे। मंदिर निर्माण के लिये कानून अपने हाथ मे लेने की धमकी दे रहे थे। सरकार से अध्यादेश लाने को कह रहे थे। फिर उन्होंने अचानक धर्म संसद में ये पलटी क्यों मार ली गई ?
दरअसल पिछले कई महीनों से संघ व भाजपा के अंदरूनी जानकारों का कहना था कि मंदिर निर्माण को लेकर ये संगठन और सरकार गम्भीर नहीं हैं। वे इस मुद्दे को जिंदा तो रखना चाहते हैं, पर मंदिर निर्माण के इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। उधर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कई फैसलों का रुख देखने के बाद ये आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा था कि जब लगभग हर मामले में सर्वोच्च अदालत यथासंभव सरकार के हक में ही फैसले दे रही है तो राम मंदिर का मामला क्यों टाला जा रहा है ? कहीं सरकार ही तो इसे गुपचुप टलवा नहीं रही ?
सरकार के इस टालू रवैये को देखकर ही शायद दो पीठों के शंकराचार्य स्वरूपानंद जी ने पिछले हफ्ते अर्ध कुम्भ में धर्म संसद बुलाकर मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने संतों और भक्तो का आव्हान किया कि वे 21 फरवरी को मंदिर का शिलान्यास करने अयोध्या पहुंचें। 
इस तरह अपने पारम्परिक धार्मिक अधिकार के आधार पर उन्होंने मंदिर की राजनीति करने वालों को अचानक बुरी तरह से झकझोर दिया। उनके लिये एक बड़ी चुनौती खडी कर दी। अगर वे शंकराचार्य जी को राम जन्मभूमि की ओर बढ़ने से रोकते हैं तो देश विदेश में ये संदेश जाएगा कि केंद्र और राज्य में भाजपा की बहुमत सरकारों ने भी संतों को मंदिर नहीं बनाने दिया । जबकि केंद्र सरकार ने खुद पिछले 5 वर्षों में इस ओर कोई प्रयास किया ही नहीं। अगर सरकार उन्हें नहीं रोकती है तो कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाएगी। इस मामले में स्वामी स्वरूपानंद जी शंकराचार्य को यदि गिरफ्तार या नजरबंद करना पड़ा तो ये सरकार को और भी भारी पड़ेगा। क्योंकि अपनी सत्ता और पैसे के बल पर सरकार चाहे जितने अवसरवादी संत मंच पर जोड़ ले, वे शंकराचार्य जैसी सदियों पुरानी धार्मिक पीठ की हैसियत तो प्राप्त नहीं कर सकते ?
इसीलिये हड़बड़ाहट में संघ व विहिप नेतृत्व को भी धर्म संसद बुलाकर फिलहाल मंदिर की मांग टालने की घोषणा करनी पड़ी। पर इसकी जो तुरंत प्रतिक्रिया पंडाल में हुई या अब जो जनता में होगी, जब ये संदेश उस तक पहुंचेगा, तो भाजपा की मुश्किल और बढ़ जाएगी। क्योंकि उसकी और उसके सहोदर संगठनों की ये छवि तो मतदाता के मन मे पहले से ही बनी है कि ये सब संगठन केवल चुनाव में वोट लेने के लिए राम मंदिर का मामला हर चुनाव के पहले उठाते है, जन भावनाएं भड़काते हैं, और फिर सत्ता में आने के बाद मंदिर निर्माण को को भूल जाते हैं। ये ही सिलसिला गत तीस वर्षों से चल रहा है।
दरअसल इस सबके पीछे एक कारण और भी हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस को लगभग तीस वर्ष हो गए। जो पीढी उसके बाद जन्मी उसे मंदिर उन्माद का कुछ पता नहीं। उसे तो इस बात की हताशा है कि उसे आज तक रोजगार नहीं मिला। भारत सरकार के ही सांख्यकी विभाग की एक हाल में लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार आज भारत मे गत 42 वर्षों की तुलना में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। जिससे युवाओं में भारी हताशा और आक्रोश है। उन्हें धर्म नहीं रोजी रोटी चाहिए। इसलिए भी शायद संघ व भाजपा नेतृत्व को लगा हो कि कहीं इस चुनावी माहौल में मंदिर की बात करना भारी न पड़ जाय, तो क्यों न इसे फिलहाल  टाल दिया जाय।
जो भी हो ये तय है कि पिछले इतने महीनों से अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण की हवा बना रहा भाजपा और संघ परिकर अब इस मुद्दे पर पतली गली से बाहर निकल चुका है। उसकी कोशिश होगी कि वो इस मुद्दे पर से मतदाताओं का ध्यान हटा कर किसी नए मुद्दे पर फंसा दे, जिससे चुनावी वैतरणी पार हो जाय। पर मतदाता इस पर क्यानिर्णय लेता है, ये तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चलेगा।

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।

Monday, October 15, 2018

सुब्रमनियन स्वामी: गिरगिटिया या हिंदुत्ववादी ?

हैदराबाद के ‘मदीना एजुकेशन सेंटर’ में 13 मार्च 1993 को भाषण देते हुए स्वनामधन्य डा. सुब्रमनियन स्वामी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उन्होंने इन तीनों संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताया और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से इन तीनों संगठनों को प्रतिबंधित करने की मांग भी की थी।जबकि मैने 1990 में  जोखिम उठाकर अपनी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन में 'अयोध्या नरसंहार'  पर सशक्त वीडियो फ़िल्म बनाकर प्रसारित की थी, जिसकी विहिप, संघ और भाजपा ने हज़ारों प्रतियां बनवाकर देशभर में दिखाई थीं। 1990 से मैँ अयोध्या, मथुरा और काशी में मंदिरों के समर्थन में लिखता और बोलता रहा हूँ। जबकि स्वामी जैसे अवसरवादी केवल निजी लाभ के लिए मौके के अनुसार उछलते रहते हैं।



आज वहीं डा. स्वामी अपना रंग और चोला बदलकर, पूरी दुनिया के हिंदुओं को मूर्ख बना रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ही दम लेंगे। युवा पीढ़ी चाहे भारत में हो या अमरिका में रहने वाले अप्रवासी भारतीय, डा. स्वामी के लच्छेदार भाषणों के सम्मोहन में आकर, इन्हें हिंदू धर्म का सबसे बड़ा नेता मान रही है। क्योंकि उन्हें इनका अतीत पता नहीं है।



आजकल डा. स्वामी दावा करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्णं समर्थन प्राप्त है। अब ये स्पष्टीकरण तो आदरणीय मोहन भागवत जी को देश को देना चाहिए कि क्या डा. स्वामी का दावा सही है? जो व्यक्ति संघ और उससे जुड़े संगठनों को ‘‘आतंकवादी’’ करार देता आया हो, उसे संघ अपना नेता कैसे मान सकता है?



इतना ही नहीं दुनियाभर में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्हें डा. स्वामी ने यह झूठ बोलकर कि वे राम जन्मभूमि के लिए सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं, उनसे कई तरह की मदद ली है। कितना रूपया ऐंठा है, ये तो वे लोग ही बताऐंगे। पर हकीकत ये है कि डा. स्वामी का राम जन्मभूमि विवाद में कोई ‘लोकस’ ही नहीं है। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने ये साफ कर दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद में वह केवल उन्हीं लोगों की बात सुनेंगी, जो इस मामले में भूमि स्वामित्व के दावेदार हैं। यानि डा. स्वामी जैसे लोग अकारण ही बाहर उछल रहे हैं और तमाम तरह के झूठे दावे कर रहे हैं कि वे राम मंदिर बनवा देंगे। जबकि उनकी इस प्रक्रिया में कोई कानूनी भूमिका नहीं है।



एक आश्चर्य कि बात ये है कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जिस भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने के लिए डा. स्वामी ने चुनाव आयोग से मांग की थी, उसी भाजपा ने किस दबाब में डा. स्वामी को ‘राज्यसभा’ में मनोनीत करवाया? राजनैतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इन्हें संघ के दबाव में लेना पड़ा। वरना इनके गिरगिटिया स्वभाव के कारण कोई इन्हें लेने तैयार नहीं था। सुनते हैं कि डा. स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी को यह आश्वासन दिया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओें को जेल भिजवा देंगे और ये दावा ये हर कुछ महीनों में दोहराते रहते हैं। जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ‘नेशनल हेराल्ड’ केस में कोई दम ही नहीं है।



भारतीय जनता पार्टी के नेता अमित शाह को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के संबंध कुख्यात हथियार कारोबारी अदनान खशोगी, विजय मल्ल्या और दूसरे ऐसे लोगों से रहे हों, उसे भाजपा अपने दल में रखकर क्यों अपनी छवि खराब करवा रही है। इतना ही नहीं बिना किसी खतरे के बावजूद डा. स्वामी को ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है। इस पर इस गरीब देश का लाखों रूपया महीना बर्बाद हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि डा. स्वामी आऐ दिन अखबारों में बयान देकर मोदी सरकार के मंत्रियों और अन्य नेताओं पर हमला बोलते रहते हैं और उन्हें नाकारा और भ्रष्ट बताते रहते हैं। तो क्या ये माना जाऐ कि डा. स्वामी को उनकी धमकियों से डरकर राज्यसभा की सदस्यता और जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है? पुरानी कहावत है कि ‘मूर्ख दोस्त से बुद्धिमान दुश्मन भला’। डा. स्वामी वो बला हैं, जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे अविश्वसनीय और बेलगाम व्यक्ति को राज्यसभा और भाजपा में रखकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?



डा. स्वामी खुलेआम झूठ बोलते हैं और इतनी साफगोई से बोलते हैं कि सामने वाले शक भी न हो। एक रोचक उदाहरण है कि 80 के दशक में जब पंजाब में सिक्ख आतंकवाद अपने चरम पर था, तो डा. स्वामी ने भिंड्रावाला के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी कर दी। जब इन्हें सिक्ख संगठनों से धमकी आई, तो ये भागकर अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाए हुए भिंड्रावाला के पैरों में पड़ गऐ। अंदर का वातावरण छावनी जैसा था। हर ओर निहंग बंदूके और शस्त्र ताने हुए थे। यह सब खुलेआम देखकर भी डा. स्वामी की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत सरकार को अंदर की सच्चाई बता दें। डा. स्वामी ने भिड्रावाला से मिलने के बाद बाहर आकर झूठा बयान दिया कि,‘‘अंदर कोई हथियार नहीं हैं।’’




डा. स्वामी के डीएनए में दोष है। ये नाहक हर बात में टांग अड़ाते हैं और अपने ‘उच्च’ विचारों से देश के मीडिया को गुमराह करते रहते हैं। सारा मकसद अपनी ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है, देश, धर्म और समाज जाए गड्ढे में। ऐसे गिरिगिटिया, झूठे और ब्लेकमेलर स्वामी को संध नेतृत्व क्यों अपने कंधे पर ढो रहा है?

Monday, January 8, 2018

शिक्षा में क्रांतिः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्रन्तिकारी पहल

भगवान श्रीकृष्ण के गुरू संदीपनि मुनि के गुरूकुल की छत्रछाया में आगामी 28 अप्रैल से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ उज्जैन से विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक क्रांति का शंखनाद् करने जा रहा है। मैकाले की ‘गुलाम बनाने वाली शिक्षा’ ने गत 200 वर्षों से भारत को इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि हम उससे आज तक मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के बोर्ड शिक्षा व्यवस्था में कोई नवीनता लाने को तैयार नहीं है। सब लकीर के फकीर बने हैं। पिछले 70 साल में हर शिक्षाविद् ने ये बात दोहराई कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली के कारण हमारी युवा पीढ़ी परजीवी बन रही है। उसमें जोखिम उठाने, हाथ से काम करने, उत्पादक व्यवसाय खड़ा करने, अपने शरीर और परिवेश को स्वस्थ रखने व अपने अतीत पर गर्व करने के संस्कार नहीं हैं। उस अतीत पर, जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था। वे आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त होकर, सरकार की बाबूगिरी को जीवन का लक्ष्य मानते हैं। ये बात दूसरी है कि सरकारी नौकरियाँ नगण्य है और आवेदकों की संख्या करोड़ों में। इससे युवाओं में हताशा, कुंठा, हीन भावना और हिंसा पनप रही हैं।
संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों का लंबे समय से यह मानना रहा है कि जब तक भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीय परिवेश और मानदंडों के अनुकूल नहीं होगी, तब तक माँ भारती अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त नहीं कर पायेंगी। इसके लिए एक समानान्तर शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने की आवश्यक्ता है। जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, उत्पादक, संस्कारवान व प्रखर प्रज्ञा के युवाओं को तैयार करे।
इस दिशा में अहमदाबाद के उत्तम भाई ने अभूतपूर्व कार्य किया है। हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला, साबरमती में विशुद्ध गुरूकुल शिक्षा प्रणाली से शिक्षण और विद्यार्थियों का पालन पोषण कर उत्तम भाई ने विश्व स्तर की योग्यता वाले मेधावी छात्रों को तैयार किया है। जिसके विषय में इस कालम में गत वर्षों में मैं दो लेख पहले लिख चुका हूं। जिन्हें पढ़कर, देशभर से अनेक शिक्षाशास्त्री और अभिाभावक साबरमती पहुंचते रहे हैं।
उज्जैन के सम्मेलन में इस गुरूकुल के प्रभावशाली अनुभवों और उपलब्धियों के अलावा देश के अन्य हिस्सों में चल रहे, ऐसे ही दूसरे गुरूकुलों के साझे अनुभव से प्रेरणा लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पूरे देश में लाखों गुरूकुलों की स्थापना की तैयारी कर रहा है। जिसका एक अलग शिक्षा बोर्ड सरकारी स्तर पर भी बने, ऐसा लक्ष्य रखा गया है। जिससे इस गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था के घालमेल की संभावना न रहे। इस अनुष्ठान में वेद विज्ञान गुरूकुलम् (बंगलुरू), प्रबोधिनी गुरूकुलम्, हरिहरपुर (कर्नाटक), मैत्रेयी गुरूकुलम् (मंगलुरू), सिद्धगिरि ज्ञानपीठ (महाराष्ट्र), आदिनाथ संस्कार विद्यापीठ (चेन्नई), श्री वीर लोकशाह संस्कृत ज्ञानपीठ गुरूकुल (जोधपुर), महर्षियाज्ञवल्क्यज्ञानपीठ (गुजरात) व नेपाल के 6 गुरूकुल भी भाग ले रहे हैं। उज्जैन में इस सागर मंथन के बाद, जो अमृत कलश निकलेगा, वह पुनः स्थापित होने जा रही, भारत की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का आधार बनेगा।
अनादिकाल से भारतीय शिक्षा पद्धति नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी व विक्रमशिला जैसे गुरूकुलों के कारण विश्वविख्यात रही हैं। जहां सहस्त्रों छात्र और सैकड़ों आचार्य एक साथ रहकर, अध्ययन व शिक्षण करते थे। वैदिक सनातन परंपरा के साथ ही बौद्ध और जैन मतों के गुरूकुलों का भी प्रचलन रहा। 1823 तक देश के प्रत्येक ग्राम में बड़ी संख्या में पाठशालाऐं होती थीं, जिनमें सभी वर्गों के लोगों को जीवनोपयी शिक्षा दी जाती थी। आवासीय व्यवस्था व समग्र शिक्षा से मजे हुए युवा तैयार होते थे। जो जीवन के हर क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ योगदान करते थे।
बाद में लार्ड मैकाले ने यह अनुभव किया कि भारत की इस सशक्त शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किये बिना भारतीयों को गुलाम नहीं बनाया जा सकता। इसलिए उसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था हम पर थोपी, जिसने हमें हर तरह से अंग्रेज़ियत का गुलाम बना दिया और हम आज तक उस गुलामी से मुक्त नहीं हुए।
'भारतीय शिक्षण मंडल' शिक्षा के भारतीय प्रारूप को पुनर्स्थापित करने का कार्य कर रहा है। जिससे एक बार फिर भारत के गांवों में ही नहीं, नगरों में भी, गुरूकुल शिक्षा पद्धति स्थापित हो जाऐ। जिससे बालकों का सर्वांगीर्णं विकास हो। उज्जैन में होने जा रहे गुरूकुल शिक्षा के इस कुंभ में देशभर से शिक्षाविद् और आचार्यगण भाग लेंगे। अगर इस मंथन में गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था के प्रारूप पर आम सहमति बनती है, तो भारतीय शिक्षण मंडल इस प्रस्ताव को माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के पास लेकर जायेगा और उनसे गुरूकुल शिक्षा का एक अलग निदेशालय या बोर्ड गठित करने को कहेगा।
चूंकि मैंने स्वयं कई बार साबरमती में हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला की गतिविधियों को वहां रहकर निकट से देखा है और उसके छात्रों के प्रदर्शन को भी देखा है, इसलिए मुझे इस सम्मेलन से बहुत आशा है। काश इसमें सहमति बने, जो शायद वहां सरसंघाचलक डा. मोहन भागवत जी की उपस्थिति और सदिच्छा  के कारण संभव होगी। इससे भारत की किशोर आबादी को बहुत लाभ होने वाला है। क्योंकि आज शिक्षा का इतना व्यवसायीकरण हो गया है कि अब शिक्षा संस्थानों में छात्रों का भविष्य नहीं बनता बल्कि उनका वर्तमान भी उनसे छीन लिया जाता है। बिरले ही हैं, जो अपनी मेधा और पुरूषार्थ से आगे बढ़ पाते हैं। जो शिक्षा संस्थान आज भी देश में अच्छी शिक्षा देने का दावा करते हैं, उनके  छात्र भी भौतिक दृष्टि से भले ही सफल हो जाऐं, पर उनके व्यक्तित्व का विकास समग्रता में नहीं होता।

Monday, July 24, 2017

पुराने तरीकों से नहीं सुधरेंगी धर्मनगरियाँ


योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।



धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतिृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।



इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़जे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।



माना कि विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शाहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?



पिछले हफ्ते जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईनकरप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये  जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।



पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी भले इंसान हैं, संत हैं और पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। ऐसे में भगवान ही मालिक है कि क्या होगा?



चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी उद्देश्य रहा है, इसलिए संघ नेतृत्व को चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतिओं में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आऐ, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी ऐसा कर पायेंगे, ये आसान नहीं। क्योंकि रांड सांड, सीढी संयासी, इनसे बचे तो सेवे काशी

Monday, March 21, 2016

संघ का एजेण्डा बम-बम

 बिहार चुनाव के बाद औधे मुंह गिरी भाजपा को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के घटनाक्रम से एक नई लीज मिल गई है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह के सवाल पर मतदाताओं को लामबंद करने की योजना पर काम हो रहा है। इस उम्मीद में कि देशभक्ति एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं बचती। कौन होगा जो खुद को देशद्रोहियों की कतार में खड़ा करना चाहेगा। जवाब है मुट्ठीभर माओवादियों को छोड़कर कोई नहीं। वे भी खुलकर तो अपने को देशद्रोही मानने को तैयार नहीं होंगे। पर हकीकत यह है कि उनकी विचारधारा किसी देश की सीमाओं में बंधी नहीं होती। वे तो दुनिया के शोषित पीड़ितों के मसीहा बनने का दावा करते हैं।
 

भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सोचना यह है कि आने वाले दिनों में बंगाल, असम, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, पांडुचेरी, उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव में देशभक्ति और देशद्रोह के मुद्दे को जमकर भुनाया जा सकता है। ऐसा सोचने के पीछे आधार यह है कि जेएनयू के मुद्दे पर जिस आक्रामक तरीके से सोशल मीडिया, प्रिंट व टीवी मीडिया मुखर हुआ, उससे लगा कि यह मुद्दा घर-घर छा गया है और इसी मुद्दे को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। यह सही है कि भारत के मध्यमवर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा देशभक्ति और देशद्रोह की इस बहस में उलझ गया है और अपने को देशभक्तों की जमात के साथ खड़ा देख रहा है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये भावना केवल मध्यमवर्गीय समाज तक सीमित है। इसका असर फिलहाल गांवों में देखने को नहीं मिलता।
 
 वैसे भी भारत के मतदाता का मिजाज कोई बहुत छिपा हुआ नहीं है। चुनाव के पहले अगर मोदी जैसी आंधी चले या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर चले, तो मतदाता भावुक होकर जरूर बह जाता है। पर ऐसी लहर हमेशा नहीं बनती। इसलिए ये मानना कि केवल देशभक्ति के मुद्दे पर देश का मतदाता भारी मात्रा में भाजपा के पक्ष में मतदान करेगा, शायद कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी बात है। जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव में अहम भूमिका किसान, मजदूर और गांवों के मतदाताओं की होती है और इतिहास बताता है कि अपवादों को छोड़कर देश का आम समाज और मध्यमवर्गीय समाज अलग-अलग सोच रखता है।
 
 आज जहां शहर के मध्यमवर्गीय समाज में देशभक्ति व देशद्रोह की चर्चा हो रही है। पर गांवों में इस चर्चा में कोई रूचि नहीं है। मैं लगातार देश में भ्रमण और व्याख्यान करने जाता रहता हूं और प्रयास करके उन राज्यों के देहाती इलाके में भी जाता हूं, ताकि आमआदमी की नब्ज पकड़ सकूं। पिछले कुछ दिनों में जब से जेएनयू विवाद उछला है, तब से जिन राज्यों के गांवों का मैंने दौरा किया वहां कहीं भी इस मुद्दे पर कोई बहस या चर्चा होते नहीं सुनी। गांवों के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को लेकर ही चिंतित रहते हैं। उन्हें आज भी नरेंद्र भाई मोदी से भारी उम्मीद है कि वे बिना देरी किए उनके खातों में 15-15 लाख रूपया जमा करवा देंगे, जो उन्होंने चुनाव के दौरान विदेशों से निकलवाने का वायदा किया था, पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ। ये लोग अपनी पासबुक लेकर मुंबई जैसे बड़े शहर तक में बैंकों के पास जाते हैं और पूछते हैं कि हमारे खाते में 15 लाख रूपए आए या नहीं। प्रायः बैंक मैनेजर उनसे मजाक में कह देते हैं कि खाते में तो नहीं आए, आप जाकर मोदीजी से मांग लो। इससे ग्रामीणों को बहुत निराशा होती है। 2 साल के बाद भी जब कालेधन का हिस्सा उन्हें नहीं मिला, तब उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।
 
 प्रधानमंत्री के लिए ये संभव ही नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को धता-बताकर विदेशी बैंकों में जमा भारत के कालेधन को एक झटके में देश में ले आएं। खुदा न खास्ता अगर वे ऐसा करने में सफल हो भी जाते हैं, तो भी पैसा नागरिकों के बैंक खाते में तो जाएगा नहीं। वो तो राजकोश में जाएगा, जिसका उपयोग विकास योजनाओं में किया जा सकता है। इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण जनता को यह स्पष्टतः समझा दे कि विदेशों में जमा कालाधन जनता के बैंक खातों में आने वाला नहीं है। अगर ये धन देश में आ भी गया, तो विकास कार्यों में तो भले ही खर्च हो जाए। पर उसे निजी हाथों में नहीं सौंपा जा सकता। ऐसा करने से जो उनकी नकारात्मक छवि बन रही है, वो नहीं बनेगी।
 
 गांवों की समस्याएं उनके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी हैं। जिनके समाधान हुए बिना ग्रामीण मतदाता प्रभावित होता नहीं दिख रहा। इसीलिए हर चुनाव में वो विपक्षी दल को समर्थन देता है। इस उम्मीद में कि, ‘तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही’। यह सही है कि देशभक्ति का मुद्दा बहुत अहम है। पर उससे भी ज्यादा अहम है गांवों की दशा सुधारना और रोजगार उपलब्ध कराना। जो बिना भारत की वैदिक ग्रामीण व्यवस्था की पुर्नस्थापना के कभी किया नहीं जा सकता। गांधीजी के ग्राम स्वराज का भी यही सपना था। विकास के आयातित मॉडल आजतक विफल रहे हैं। जिनसे देश की बहुसंख्यक आबादी का दुख दूर नहीं किया जा सका है। ऐसा किए बिना केवल देशभक्ति के नारे से विधानसभा चुनावों में वैतरणी पार हो पाएगी, उसमें हमें संदेह लगता है।