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Monday, April 6, 2020

लौट चलें: क्योंकि हम तो जीना ही भूल गये

उज्जैन के 67 वर्षीय युवा उद्योगपति पिछले तीन दशकों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगाते है, स्वर्गीय लगाने का कारण पूछने पर बताते है कि जो भारत मे रहता है वो भारतीय और जो स्वर्ग में रहता है वो स्वर्गीय। उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनते हैं। हमेशा व्यस्त और मस्त  रहने वाले गुलाबी चेहरे के 67 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों में टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम साबुन शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम शीतल पेय, पान गुटका धूम्रपान तथा मदिरापान का सेवन नही किया तथा इन अप्राकृतिक साधनों के उपभोग नही करने के कारण वे पिछले 40 वर्षों में एक दिन भी बीमार नही हुए और उन्हें किसी भी प्रकार की दवा का सेवन की आवश्यकता नही पड़ी।

कुछ समय पहले दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ हैं? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? पहली बार मिलने पर श्री ऋषिजी की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों के परिवारों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ एवं हेल्थ मैनेजमेंट विदाउट मेडिसिन पर व्याख्यान देने जाते हैं, अल्प से मानधन पर। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट ‘आयुष्मान भव’ के झंडे तले करते हैं। 

उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है। उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर 900 करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके बाद सुबह आठ से रात के सोने तक लगभग 1100 करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय, पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है, इस प्रकार जब हम भारतवासी रोज़ाना 2000 करोड़ रुपये के अप्राकृतिक साधनों के द्वारा ईश्वर की प्रकृति का नाश करते है तो ईश्वर भी हम भारतवासियों की प्रकृति का सत्यानाश कर देता है और फिर हम 3000 करोड़ प्रतिदिन फिर अंग्रेज़ी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च कर देते है। इस तरह प्रति दिन 5000 करोड़ रुपया, फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 85 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं। 

अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। जिसे ऋषि जी पिछले 20 वर्षों से गाँव गाँव शहर  शहर जा कर सिखाते है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीठे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे। 

प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम पैदा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में। 

सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यों कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।

हम कैसे बैठकर खाना खायें? क्या खाना खाएं? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को एकत्रित करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य तथा अत्यंत ही रोचक भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ कह दें या 'बेटर आर्ट आफ लिविंग’ कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे हैं और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।

ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं। देशी तरीके से उकड़ू बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जोड़ो के दर्द कभी नही होता, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष नीचे बैठ कर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैर के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है। जिसे ऋषि जी बहुत ही सरल और रोचक अंदाज से पढ़ाते है, ताली वादन और नमाज़ पर वे एक शेर भी सुनाते है,

जिस दिन ताली और नमाज़ एक साथ होगी अता ।
बस वही होगा जन्नत का सही पता।।

कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते, पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।

जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकृतिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं और लम्बे समय तक जीते हैं।जिसका अरुण ऋषि जी प्रत्यक्ष उदाहरण है।

जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैं ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होते जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं। इस तरह हम जो सोने की चिड़िया कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।

कोरोना के इस आतंक के इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है? ताकि कोरोना के बाद का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।

Monday, March 23, 2020

वैदिक जीवन पद्धति की ओर ढकेलेगा ‘करोना’

जब प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को थाली या ताली बजाने का आवाह्न किया, तो मैंने सोशल मीडिया पर अपील जारी की कि ‘‘जिन घरों, मंदिरों, आश्रमों और संस्थाओं के पास शंख है वे 22 मार्च की शाम 5 बजे से, 5 मिनट तक, घर के बाहर आकर लगातार जोर से शंख ध्वनि करें। ऐसा वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शंख ध्वनि करने से वातावरण में उपस्थित नकरात्मक ऊर्जा और बैक्टीरिया का नाश होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर घर में सुबह शाम, पवित्रता के साथ, शंख ध्वनि करने की व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है। जिसका हम, अपने घर में, आज भी पालन करते हैं। अगर देश की कुछ मेडिकल रीसर्च यूनिट्स चाहें तो तय्यारी कर लें। इस प्रस्तावित शंख ध्वनि के पहले और बाद में ये संस्थान अपने क्षेत्र में ‘करोना’ वाइरस पर इस ध्वनि के प्रभाव का अध्ययन भी कर सकते हैं। जिस तरह विश्व समुदाय ने मोदी जी की अपील पर योग दिवस और नमस्ते को अपनाया है वैसे ही इस प्रयोग के सफल होने पर शायद विश्व समुदाय सनातन धर्म की इस दिव्य प्रथा को भी अपना ले। तब हर घर से हर दिन सुबह शाम शंख ध्वनि सुनायी देने लगेगी’’।

आज पूरी दुनिया में हर वक्त हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि वैदिक संस्कृति में ये नियम पहले से है कि जब कभी बाहर से घर पर आऐं, तो हाथ, मुँह और पैर अच्छी तरह धोऐं और अपने कपड़े धुलने डाल दें और घर के दूसरे वस्त्र पहनें। इसी तरह जन्म और मृत्यु के समय सूतक लगने की परंपरा है। जिस परिवार में ऐसा होता है, उसे अपवित्र माना जाता है और अगर बधाई देने या संवेदना प्रकट करने ऐसे घर में जाते हैं, तो उनके घर का पानी तक नहीं पीते और अपने घर आकर स्नान करके कपड़े धुलने डाल देते हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है, कि बाहर के वातावरण और ऐसे घरों में बीमारी के कीटाणुओं की बहुतायत रहती है। जिससे अपने बचाव के लिए यह व्यवस्था बनाई गई।

पश्चिमी देशों में हाथ धोने का कतई रिवाज नहीं है। चाहे वे जूते का फीता खोले या झाड़ू लगायें या बाहर से खरीदकर सामान घर पर लाऐं। वे लोग प्रायः हाथ नहीं धोते। उनके प्रभाव में हमारे देश में भी पढ़े-लिखे लोग इन बातों को दकियानुसी मानते हैं और इनका मजाक उड़ाते हैं। इतना ही नहीं अपनी संस्कृति में किसी का भी झूठा खाना वर्जित माना जाता है। प्रायः घरों में माता-पिता अपने अबोध बालकों का झूठा भले ही खाले लेकिन एक-दूसरे का झूठा कोई नहीं खाता। ठाकुरजी को भोग लगाने के पीछे भी यही विज्ञान है। जब आप ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तो स्वच्छ शरीर से ताजा भोजन पकाते हैं और उसमें औषधीय गुण वाला तुलसी का पत्ता डालकर भोग लगाते हैं। क्योंकि ठाकुरजी दोनों समय भोग लगता है, इसलिए घर में ताजा भोजन बनता है। जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता में झूठे और बासी का कोई विचार नहीं है। जोकि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह बाहर के जूते-चप्पल पहनकर घर में घुसना हमारी संस्कृति में वर्जित है और हम इसका पालन करते हैं। जबकि आधुनिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं।  बिना ये समझे कि सड़क पर फैले कीटाणुओं और बीमारियों का संग्रह करके लाते हैं, हमारे जूते-चप्पल।

1978 में जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया, तो मेरे संस्कार ब्रजवासी संस्कृति के थे। क्योंकि उपरोक्त सभी बातों का हमारे परिवार में तब भी पालन होता था और आज भी हम उसी तरह पालन करते हैं। मुझे यूनिवर्सिटी में ये देखकर बहुत झटका लगा कि कोई भी साथी किसी भी मित्र का झूठा खाना, पानी, कोल्ड्रिंक या चाय बड़े आराम से चख लेते हैं। हमसे आज भी यह नहीं होता।

पिछले हफ्ते खबर छपी कि ‘करोना’ के भय से सुनसान पड़ी इटली के मशहूर शहर ‘वेनिस’ की लहरों में अचानक हजारों मछलियाँ यहाँ तक कि डॉल्फ़िन मस्ती से घूम रही है। नहरों के किनारे बसे इस ऐतिहासिक शहर में सारे साल दुनियाभर के पर्यटक आते हैं। जिनके कारण इन नहरों का पानी गंदला रहता था। आज वेनिसवासी नीला साफ पानी और रंग-बिरंगी मछलियाँ देखकर आल्हादित् हैं।

हजारों की तादात में उड़ने वाले हवाई जहाजों के कारण हर बड़े शहर के आकाश पर काली धुंध छाई रहती थी। मात्र दो हफ्ते में ये धुंध काफी छट गई है और नीला आकाश साफ दिखाई दे रहा है। अचानक सैंकड़ों किस्म के पक्षी शहरों की ओर लौट रहे है। जिनका कलरव सुना जा सकता है। 

कुछ लोग सोशल मीडिया पर मजाक में लिख रहे हैं कि ‘करोना’ वाइरस नहीं है, बल्कि वैक्सीन (टीका) है। वायरस तो मानव जाति है, जिसने पृथ्वी के स्वास्थ्य को बीमार कर दिया है। हम जरा अपने गिरेबां में झांके, अंधाधुंध तेल-पैट्रोल का प्रयोग, कारखानों से उगलता धुंआ, नदियों में गिरते नाले, कभी न नष्ट होने वाले पैकेजिंग मैटीरियल के भंडार जो पृथ्वी की सांस घोंट रहे हैं। निर्माण के लिए पहाड़ों की बेर्दद तुड़ाई अैर वृक्षों का अंधाधुंध काटा जाना, खेती में रासायनिक उरर्वकों का अधिक प्रयोग और प्रकृति व मौसम के प्रतिकूल हमारी दिनचर्या इस सबने इस खूबसूरत धरती को बीमार कर दिया है। आज तो केवल ‘करोना’ ने अपना भयावह रूप दिखाया है। अभी ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ के परिणाम जब सामने आऐंगे, तो दुनिया के हर समुद्र तटीय शहर में हाहाकार मच जाऐगा। भगवान श्रीकृष्ण की द्वारिका की तरह मालद्वीप जैसे देश कहां डूब जाऐंगे, पता भी नहीं चलेगा। साढ़े चार करोड़ वन्य जन्तु औस्ट्रेलिया के जंगलों की आग में जल गऐ। जापान का सुनामी और केदारनाथ की जल प्रलय को हम भूले नहीं है।


इसलिए ‘करोना’ ‘करूणावतार’ बनकर आया है। भगवान कृपा करें और इससे फैलने वाली महामारी पर नियंत्रण पाया जा सके। पर ये समय एकबार फिर अपनी जीवन दृष्टि पर चिंतन करने का है। जितना हम प्रकृति से दूर रहेंगे, उतना ही हमारा जीवन अप्रत्याशित खतरों से घिरा रहेगा। इसलिए ‘जब जागों तभी सवेरा’।

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।